ईमान के मूलाधार (⮫)



 ईमान के मूलाधार

सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो समस्त संसारों का पालनहार है, और अल्लाह की कृपा तथा शांति की धारा बरसे नबियों में सबसे उत्तम नबी मुह़म्मद पर तथा आपके समस्त परिवार-परिजन एवं साथियों पर।

तत्पश्चात:

इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब की यह पुस्तक आपके सामने है, जिसमें उन्होंने ईमान के उन सिद्धांतों से संबंधित अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की उन हदीसों का उल्लेख किया है, जो अह्ल-ए- सुन्नत व जामाअत के यहाँ मान्य हैं।

यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब है, जो बहुदेववाद से सावधान करने के संबंध में, जिसमें आज मुस्लिम समाज का बड़ा भाग लिप्त है, अह्ल-ए- सुन्नत व जमाअत के दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है। इस किताब के अंदर इस महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को रेखांकित करने वाले बहुत-से ऐसे विषय- वस्तु सम्मिलित हैं, जिनकी बहुत-से लोग न केवल उपेक्षा करते हैं, बल्कि उनसे अनभिज्ञ भी हैं। सच्चाई यह है कि इससे वह लोग भी अछूते नहीं हैं, जो लोगों को पवित्र एवं महान अल्लाह की ओर बुलाने का काम करते हैं और जिनका काम आज केवल राजनीति और राजनीतिक लोगों में व्यस्त रहना, गाली बकना तथा आरोप- प्रत्यारोप के बाण चलाना मात्र रह गया है। उन्हें अल्लाह को पहचानने और उसके एकत्व को स्थापित करने जैसे अधिक महत्वपूर्ण कामों में कोई रुचि नहीं है, जिनकी ओर बुलाने में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मक्का के अंदर अपने जीवन के तेरह बहुमूल्य वर्ष बिता दिए। इस पूरी अवधि में आपने एकेश्वरवाद के अतिरिक्त किसी चीज़ की ओर नहीं बुलाया। हाल यह था कि आपके सहाबा का वध किया जाता तथा उन्हें मारा- पीटा जाता और आप उनसे धैर्य रखने का आह्वान करने के सिवा कुछ नहीं कह पाते। आपके मुँह से बस इतना निकलता: {ऐ यासिर के घर वालो! धैर्य रखो, यक़ीनन तुमसे जन्नत का वादा है} [1] आप उन्हें न बदला लेने का आदेश देते, न जिहाद करने की अनुमति प्रदान करते और न युद्ध करने को कहते।

अतः, आज भी अल्लाह की ओर बुलाने का काम करने वालों को अनिवार्य रूप से लोगों को पवित्र एवं महान अल्लाह के एकत्व की शिक्षा देनी चाहिए। यह बताना चाहिए कि केवल वही प्रभु है, वही पूज्य है और उसके नाम और गुण एकत्व (तौहीद) से सुसज्जित हैं। यही इस उम्मत के सदाचारी पूर्वजों का तरीक़ा रहा है और सच्चाई यह है कि इस उम्मत के बाद के लोगों का सुधार भी केवल उसी तरीक़े से हो सकता है, जिससे उसके पहले लोगों का सुधार हुआ था।

मैंने इस किताब के शोध में निम्नांकित पद्धतियों का अनुसरण किया है:

1- शोध के समय मैंने किताब की उस मुद्रित प्रति पर भरोसा किया है, जिसका शैख़ इसमाईल अंसारी तथा शैख़ अब्दुल्लाह बिन अब्दुल लतीफ़ आल-ए- शैख़ ने अन्य हस्तलिखित प्रतियों से मिलान किया है। ज्ञात रहे कि इन दोनों शोधकर्ताओं ने इस किताब की कुल तीन हस्तलिखित प्रतियों पर भरोसा किया है। अल्लाह दोनों को उत्तम प्रतिफल प्रदान करे!

2- मैंने इस किताब में आने वाली सभी हदीसों की व्यापक तख़रीज (संदर्भित) कर दी है। परन्तु, यह मुनासिब जाना है कि जो हदीसें सहीह बुख़ारी अथवा सहीह मुस्लिम में मौजूद हैं, उनकी तख़रीज (संदर्भीकरण) करते समय केवल उन्हीं दो किताबों का हवाला दे दिया जाए और जो हदीसें इन दोनों के अतिरिक्त किसी अन्य किताब से ली गई हैं, उनकी व्यापक तख़रीज कर दी जाए।

3- यदि हदीस सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम के अतिरिक्त किसी और किताब की है, तो बता दिया है कि वह सहीह है, हसन है या ज़ईफ़। परन्तु, यदि इन दोनों किताबों या दोनों में से किसी एक में मौजूद है, तो मैंने उसके सहीह- ज़ईफ़ होने का उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि इन दोनों किताबों या इनमें से किसी एक में होना ही इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि हदीस सहीह है।

4- मैंने लेखक द्वारा लाई गई हदीसों के शीर्षक लगा दिए हैं, क्योंकि उन्होंने सारी हदीसों के शीर्षक लगाने के बजाय महज़ कुछ अध्याय ही दर्ज किए थे। हाँ, मैंने अपने द्वारा दिए गए शीर्षकों को दो कोष्ठकों को बीच रखा है।

5- जिन हदीसों की व्याख्या की आवश्यकता थी, मैंने उनकी संक्षिप्त व्याख्या कर दी है तथा इस संबंध में पूर्ववर्ती इमामों एवं सुप्रसिद्ध उलेमा की किताबों पर भरोसा किया है।

6- हदीसों के सामने क्रम संख्या दे दी है।

7- आयतों के साथ सूरतों के नाम और आयत संख्या भी लिख दी है।

8- इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब तथा उनके सुधारवादी आह्वान का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने के साथ- साथ उनके द्वारा स्थापित आह्वान की रूपरेखा को सर्वसाधारण के सामने बिगाड़कर पेश किए जाने के कारणों का भी उल्लेख कर दिया है।

अंतिम बात यह है कि

यह मेरी ओर से एक छोटा- सा प्रयत्न है, जो इस आशा के साथ किया गया है कि महान एवं सर्वशक्तिमान अल्लाह इसे अपनी प्रसन्नता की प्राप्ति का एक माध्यम बनाए।

पाठक मित्रों से आशा है कि इस किताब के प्रकाशक, शोधकर्ता तथा उसे इस सुंदर रूप में प्रस्तुत करने का माध्यम बनने वाले हर व्यक्ति के लिए दुआ करेंगे।

तथा हमारी प्रार्थना का अन्त यह है कि सारी प्रशंसा अल्लाह की है, जो समस्त संसारों का पालनहार है।

अल्लाह की कृपा एवं शांति की धारा बरसे हमारे सरदार मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर तथा आपके समस्त परिवार-परिजन एवं साथियों पर।

शोधकर्ता

डॉ. बासिम फ़ैसल अल-जवाबिरा

ओमान, ऐन अल-बाशा

जॉर्डन

 लेखक का संक्षिप्त परिचय

 नाम, वंश, जन्म, परवरिश तथा शिक्षा- यात्रा

नाम तथा वंश: मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब बिन सुलैमान बिन अली बिन मुहम्मद बिन अहमद बिन राशिद अत- तमीमी।

सन 1115 हिजरी (1703 ईसवी) को, रियाध के उत्तर में स्थित उयैना शहर में जन्म हुआ और वहीं अपने पिता की निगरानी में परवरिश पाई।

बचपन ही से प्रतिभा तथा योग्यता की झलक दिखाई देने लगी थी। दस साल के होने से पहले ही क़ुरआन कंठस्थ कर लिया था, और बारह साल पूरे करने से पहले बालिग़ (वयस्क) हो चुके थे। उनके पिता का कहना है कि मैंने उन्हें उसी साल जमात के साथ नमाज़ पढ़ने का योग्य देखा और शादी भी कर दी।

 शिक्षा- यात्रा

अपने पिता से हंबली फ़िक़्ह, तफ़सीर तथा हदीस पढ़ी। बचपन में तफ़सीर, हदीस और अक़ीदे की किताबें ख़ूब पढ़ते थे। शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिया और उनके शिष्य अल्लामा इब्ने अल- क़य्यिम की किताबों में विशेष रुचि थी।

 यात्राएँ

हज के उद्देश्य से मक्का की यात्रा की। उसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की मस्जिद के दर्शन किए और मदीना के उलेमा से मिलकर उनसे लाभ उठाया। फिर बसरा की यात्रा की और यहाँ कुछ समय बिताकर बहुत-से उलेमा से शिक्षा प्राप्त की। फिर अल-अहसा से होते हुए नज्द गए। इस लंबी यात्रा के दौरान शैख़ ने अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से, नज्द तथा भ्रमण के दायरे में आने वाले अन्य क्षेत्रों में जो ग़ैर-इस्लामी आस्थाएँ तथा अमान्य रीति-रिवाज प्रचलित थे, उन्हें देखा और तौहीद को गले लगाने तथा अधार्मिक कर्मों एवं बहुदवेवाद पर आधारित रीति-रिवाजों से किनारा करने के आह्वान में लगने का पक्का इरादा कर लिया। मसलन, जब आप मदीना गए, तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से फ़रियाद करने और अल्लाह को छोड़कर आपको पुकारने के कई दृश्य देखे।

इसी तरह नज्द ऐसी असत्य मान्यताओं एवं भ्रष्ट आस्थाओं का केंद्र बना हुआ था, जो इस्लाम के सही सिद्धांतों से मेल नहीं खातीं। वहाँ कई ऐसी क़ब्रें मौजूद थीं, जिनका संबंध कुछ सहाबा से जोड़ दिया गया था और लोग उनका हज करते, उनसे आवश्यक वस्तुएँ माँगते और दुःखों से छुटकारे की फ़रियाद करते थे।

इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि मनफ़ूहा शहर में लोग एक नर खजूर के पेड़ के पास जाते और यह विश्वास रखते थे कि यदि कोई अविवाहित स्त्री वहाँ जाए, तो उसकी शादी हो जाती है। यही कारण है कि स्त्रियाँ वहाँ जाकर कहा करती थीं: "ऐ नरों के नर! मुझे साल गुज़रने से पहले पति चाहिए!!"

हिजाज़ में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, आपके सहाबा तथा परिजनों की क़ब्रों के सम्मान एवं उन्हें पवित्र मानने का वह प्रचलन देखा, जो समस्त सृष्टि के पालनहार के सिवा किसी और के लिए उचित नहीं है।

साथ ही बसरा में जाहिलियत काल की वह बुतपरस्ती देखी, जिसकी अनुमति न तो अक़्ल देती है और न शरीयत उसे उचित ठहराती है। इराक़, शाम, मिस्र और यमन में भी इस तरह की चीज़ें प्रचलित होने की बात सुनी। शैख़ ने इन अनुचित विचारों को अल्लाह की किताब, प्यारे रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत और आपके सदाचारी सहाबा की सीरत के तराज़ू में तौलकर देखा, तो पता चला कि यह सारी चीज़ें इस्लाम के स्पष्ट विधि-विधानों एवं उसकी आत्मा से मेल नहीं खातीं और इनके मकड़जाल में फँसे हुए लोग इस बात से भी परिचित नहीं हैं कि अल्लाह ने रसूलों को क्यों भेजा था? वे इस बात से भी अवगत नहीं हैं कि अल्लाह ने मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को क्यों तमाम लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा था? उन्होंने यह भी देखा कि लोग जाहिलियत काल और उस समय प्रचलित बुतपरस्ती की वास्तविकता से परिचित नहीं हैं, और इस्लाम के मूल सिद्धांतों एवं साधारण क्रिया-कलापों को कमोबेश बदलकर रख दिया है।

 शैख़ के सुधारवादी आंदोलन का प्रारंभ

जब शैख़ के सामने यह स्पष्ट हो गया कि लोगों की धार्मिक और सांसारिक स्थिति बहुत दयनीय है, और उनको यह विश्वास हो गया कि मुसलमानों ने इस्लाम के उच्च सिद्धाँतों में ऐसी बातों का समावेश कर दिया है, जो क़ुरआन तथा सुन्नत की दृष्टि से अमान्य हैं, तो ऐसे लोगों के ग़लत तथा बिदअती होने की उनकी धारणा को उस हदीस से और भी बल मिला, जिसमें आया है कि समय के साथ-साथ मुसलमान भी बदल जाएँगे और अगली क़ौमों के पदचिह्नों पर चलने लगेंगे [2]। जैसा कि एक सहीह हदीस में है: {तुम अवश्य अपने से पहले लोगों के रास्तों पर चल पड़ोगे और उसी तरह उनकी बराबरी करोगे, जैसे तीर के सिरों में लगे पर एक-दूसरे के बराबर होते हैं। यहाँ तक कि यदि वे किसी गोह के बिल में घुसे होंगे, तो तुम भी उसमें जा घुसोगे। ...} [3] एक और हदीस में है: {इस्लाम अजनबियत की अवस्था में आरंभ हुआ था और शीघ्र ही पहले के समान अजनबी हो जाएगा।} [4] [5]

इन सारी बातों के मद्देनज़र शैख़ ने इस बात का संकल्प लिया कि अपने क़ौम को यह बता दें कि वे सीधे मार्ग से भटक गए हैं, और शुद्ध इस्लामी जीवनशैली से दूर जा चुके हैं।

उन्होंने अपने आह्वान का आरंभ इस बात से किया कि अल्लाह के सिवा न किसी को पुकारा जाए, न किसी के लिए जानवर ज़बह किया जाए और न किसी के लिए मन्नत मानी जाए।

जबकि उन दिनों क़ब्रों, पत्थरों और पेड़ों से फ़रियाद, उनपर चढ़ावे चढ़ाने और उनसे लाभ तथा हानि का विश्वास रखने जैसी कुरीतियाँ आम थीं। शैख़ ने इस तरह के माहौल में यह स्पष्ट कर दिया कि यह सारी बातें पथभ्रष्टता पर आधारित तथा झूठी हैं। इनके प्रचलन के कारण जो परिस्थिति बन चुकी है, वह अल्लाह को कदापि पसंद नहीं है। अतः इनसे किनाराकश होना ज़रूरी है।

उन्होंने अपनी बातों को प्रबल बनाने के लिए अल्लाह की किताब की आयतों, रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के कथनों एवं कर्मों और आपके सहाबा -रज़ियल्लाहु अनहुम- की सीरत के हवाले दिए।

 शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब -उनपर अल्लाह की कृपा हो- के अक़ीदा और उनके पत्रों के कुछ उद्धरण

शैख़ का अक़ीदा वही था, जो इस उम्मत के सदाचारी पूर्वजों का अक़ीदा था। यानी वही अक़ीदा, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, आपके सहाबा, उनके शिष्यों और संमार्गी इमामों मसलन अबू हनीफ़ा, मालिक, शाफ़िई, अहमद, सुफ़यान सौरी, सुफ़यान बिन उययना, इब्न-ए-मुबारक, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद तथा सारे सुनन वाले मुहद्दिसों, एवं उनके पदचिह्नों पर चलने वाले फ़िक़्ह और हीदस वाले, मसलन अशअरी, इब्न-ए-ख़ुज़ैमा, तक़ीयुद्दीन इब्न-ए-तैमिया, इब्न अल-क़य्यिम और ज़हबी आदि -इन सारे लोगों पर अल्लाह की दया हो- का अक़ीदा रहा है।

 उनके पत्रों के कुछ उद्धरण, जो उनके अक़ीदे को स्पष्ट करते हैं:

इस तरह के पत्रों में उनका वह पत्र भी शामिल है, जो क़सीम वालों के नाम लिखा था।

इसमें बिस्मिल्लाह के बाद लिखते हैं:

मैं अल्लाह तथा उपस्थित फ़रिश्तों को और साथ ही तुम लोगों को गवाह बनाकर कहता हूँ कि मैं वही अक़ीदा रखता हूँ, जो अह्ल-ए-सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है। मैं ईमान रखता हूँ अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसके ग्रंथों, उसके रसूलों, मृत्यु के बाद दोबारा जीवित होकर उठने और भली-बुरी तक़दीर पर।

अल्लाह पर ईमान के अंदर, उसके उन गुणों पर ईमान भी शामिल है, जिनका बखान स्वयं उसने अपनी किताब में तथा अपने रसूल की ज़बानी किया है। इसमें न किसी आर्थिक छेड़छाड़ की गुंजाइश है, न इनकार की। मेरा स्पष्ट अक़ीदा है कि {अल्लाह की जैसी कोई वस्तु नहीं, तथा वह सब कुछ सुनने वाला देखने वाला है।} [6] अल्लाह ने अपने जो गुण बयान किए हैं, न मैं उनमें से किसी गुण का इनकार करता हूँ, न इस संबंध में आए हुए शब्दों के साथ छेड़छाड़ करता हूँ, न उसके नामों तथा निशानियों में परिवर्तन करता हूँ, न उसके गुणों की कैफ़ियत बयान करता हूँ, और न उसके गुणों को उसकी सृष्टियों के गुणों के समान कहता हूँ। क्योंकि अल्लाह का न ही कोई समानांतर है, न कोई उसके बराबर है, न उसका कोई साझी है, और न उसे उसकी सृष्टि पर क़यास किया जाएगा। वह पवित्र एवं महान अल्लाह स्वयं को तथा अन्य सृष्टियों को भली-भाँति जानता है, और सच्ची बात करता है। वह विरोधियों, जैसे कैफ़ियत बयान करने वालों, और उपमा देने वालों की बातों और अपनी वाणी से छेड़छाड़ करने वालों और उसे गुणविहीन बताने वालों के दावों से पवित्र है। स्वयं उसी का फ़रमान है: {पवित्र है आपका पालनहार, गौरव का स्वामी, उस बात से, जो वे बना रहे हैं। तथा सलाम है रसूलों पर। और सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो समस्त संसार का पालनहार है।} [7]

अतः, मुक्ति के मार्ग पर चलने वाला समुदाय वही है, जो अल्लाह के कार्यों के मामले में क़दरिया और जबरिया समुदायों के बीच के मार्ग पर चले, अल्लाह की चेतावनियों के मामले में मुरजिया और वईदिया समुदायों के बीच के मार्ग पर चले।

ईमान और दीन के मामले में हरूरिया तथा मोतज़िला एवं मुरजिया तथा जहमिया के बीच की राह पर चले

और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सहाबा के बारे में रवाफ़िज़ और ख़वारिज के बीच की राह अपनाया।

मेरा अक़ीदा है कि क़ुरआन अल्लाह की वाणी है। वह उसी की ओर से उतरा है। सृष्टि नहीं है। उसी की ओर से आरंभ हुआ है और उसी की ओर लौट जाएगा। अल्लाह ने वास्तविक रूप से उसका उच्चारण किया है, तथा अपने रसूल, वह्य के रक्षक, अंतिम दूत हमारे नबी महुम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर उतारा है।

मेरा ईमान है कि अल्लाह जो चाहता है, करता है। कोई चीज़ उसके इरादे के बिना अस्तित्व में नहीं आती। कोई वस्तु उसके निर्णय और नियंत्रण से बाहर नहीं है। उसके निर्णयों से कोई भाग नहीं सकता और लौह-ए-महफ़ूज़ के लिखे से कोई आगे जा नहीं सकता।

मैं मौत के बाद के जीवन से संबंधित उन सभी बातों पर विश्वास रखता हूँ, जिनकी सूचना अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने दी है।

मैं विश्वास रखता हूँ क़ब्र की यातना और उसकी नेमतों, शरीर के अंदर पुनः प्राण डाले जाने और उसके बाद सारे इनसानों के अपने पालनहार के सामने नंगे पाँव, नंगे बदन तथा बिना ख़तने के खड़े होने, सूरज के लोगों के निकट आ जाने, तराज़ू रखे जाने और उसके ज़रिए बंदों के कर्मों को तोले जाने पर। {फिर जिसके पलड़े भारी होंगे, वही सफल होने वाले हैं। और जिसके पलड़े हल्क होंगे, तो उन्होंने ही स्वयं को क्षतिग्रस्त कर लिया, (तथा वे) नरक में सदावासी होंगे।} [8]

फिर हिसाब-किताब से संबंधित रजिस्टर खोले जाएँगे, और किसी को उसका कर्म पत्र दाएँ हाथ में दिया जाएगा, और किसी को बाएँ हाथ में।

मेरा ईमान है कि क़यामत के मौदान में हमारे नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को एक हौज़ प्राप्त होगा, जिसका जल दूध से अधिक सफ़ेद एवं मधु से अधिक स्वादिष्ट होगा, तथा उसमें आकाश के तारों की संख्या में बरतन रखे होंगे। जो व्यक्ति एक बार उसका पानी पी लेगा, बाद में कभी प्यासा नहीं होगा।

मेरा इस बात पर भी ईमान है कि जहन्नम के ऊपर सिरात (पुल) रखा जाएगा, जिससे लोग अपने-अपने कर्मों के हिसाब से गुज़रेंगे।

मेरा इस बात पर ईमान है कि हमारे नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- क़यामत के दिन सिफ़ारिश फ़रमाएंगे। साथ ही यह कि आप सबसे पहले सिफ़ारिश करने वाले व्यक्ति होंगे और सबसे पहले आप ही की सिफ़ारिश ग्रहण की जाएगी।

आपकी सिफ़ारिश का इनकार वही करेगा, जो बिदअती या गुमराह हो। लेकिन यह भी सत्य है कि आप सिफ़ारिश अल्लाह की अनुमति के बाद और उसकी सहमति के अनुसार ही करेंगे। अल्लाह तआला का फ़रमान है: {और वह किसी की सिफ़ारिश नहीं कर सकते, सिवाय उसके, जिसके लिए अल्लाह की इच्छा हो।} [9] एक और स्थान में उसका फ़रमान है: {उसकी अनुमति के बिना कौन उसके पास सिफारिश कर सकता है?} [10] एक अन्य स्थान में फ़रमाया: {और आकाशों में बहुत-से फ़रिश्ते हैं, जिनकी अनुशंसा कुछ लाभ नहीं देती, परन्तु इसके पश्चात कि अल्लाह जिसके लिए चाहे, अनुमति दे तथा उससे प्रसन्न हो।} [11] जबकि पवित्र अल्लाह प्रसन्न केवल एकेश्वरवाद से होता है। अतः, सिफ़ारिश की अनुमति भी केवल एकेश्वरवादियों के हक़ में देगा।

रही बात बहु-ईश्वरवा दियों की, तो उनको आपकी सिफ़ारिश का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तो उन्हें लाभ नहीं देगी शिफ़ारिशियों की शिफ़ारिश।} [12]

मैं ईमान रखता हूँ कि जन्नत और जहन्नम दोनों मख़लूक़ हैं, दोनों मौजूद हैं तथा कभी फ़ना नहीं होंगे।

साथ ही यह कि ईमान वाले क़यामत के दिन अपने रब को उसी तरह अपनी आँखों से देखेंगे, जैसे चौदहवीं की रात को आकाश में चाँद को देखते हैं और उन्हें उसे देखने में कोई परेशानी नहीं होती।

मेरा ईमान है कि हमारे नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अंतिम नबी और रसूल हैं तथा यह कि कोई बंदा उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक आपके रसूल होने पर ईमान न रखे और आपके नबी होने की गवाही न दे।

मेरा ईमान है कि आपकी उम्मत के सबसे उत्तम व्यक्ति अबू बक्र सिद्दीक़, फिर उमर फ़ारूक़, फिर उसमान ज़ुन-नूरैन, फिर अली मुरतज़ा, फिर जन्नत का सुसमाचार प्राप्त करने वाले शेष दस सहाबा, फिर बद्र युद्ध में शामिल होने वाले सहाबा, फिर बैअत-ए-रिज़वान में शामिल होने वाले सहाबा और फिर सारे सहाबा -रज़ियल्लाहु अन्हुम- हैं।

मैं अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सहाबा को अपना मानता हूँ, एवं उन्हें अपना प्रिय जानता हूँ <उनके अच्छे कर्मों को बयान करता हूँ, उनके लिए क्षमायाचना करता हूँ, उनकी बुराई करने से दूर रहता हूँ, उनके मतभेदों का ज़िक्र करने से बचता हूँ, और उनकी श्रेष्ठता पर विश्वास रखता हूँ। तथा यह सब उच्च एवं महान अल्लाह के इस फ़रमान पर अमल करते हुए करता हूँ: {और जो आए उनके पश्चात, वे कहते हैं: हे हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे, तथा हमारे उन भाईयों को, जो हमसे पहले ईमान लाए, और न रख हमारे दिलों में कोई बैर उनके लिए जो ईमान लाए। हे हमारे पालनहार! तू अति करुणामय, दयावान है।} [13]

मैं अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की स्त्रियों के लिए अल्लाह की प्रसन्नता की दुआ करता हूँ, जो हर बुराई से पवित्र थीं।

मैं औलिया की करामतों को भी मानता हूँ। लेकिन उनके लिए कोई ऐसा कार्य करना सही नहीं मानता, जो केवल अल्लाह के लिए उचित हो। जैसे फ़रियाद करना, मन्नत मानना, मदद तलब करना और जानवर ज़बह करना आदि। मैं किसी मुसलमान के लिए जन्नत अथवा जहन्नम की गवाही नहीं देता। यह और बात है कि स्वयं अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने गवाही दी हो। लेकिन, मैं अच्छा कर्म करने वाले के लिए आशान्वित रहता हूँ और बुरा कर्म करने वाले के बारे में भयभीत।

मैं किसी मुसलमान को उसके गुनाहों के कारण काफ़िर नहीं कहता, और न उसे इस्लाम के दायरे से निकालता हूँ।

मैं मानता हूँ कि जिहाद हर इमाम के साथ जारी रहना चाहिए। चाहे वह नेक हो या गुनहगार। इसी तरह उसके पीछ नमाज़ भी जायज़ है।

मेरा ईमान है कि जिहाद, उस समय से, जब अल्लाह ने मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को भेजा था, उस समय तक जारी रहेगा, जब इस उम्मत का अंतिम व्यक्ति दज्जाल का वध करेगा। उसे न किसी अत्याचारी का अत्याचार निरस्त कर सकता है, न किसी न्यायकारी का न्याय।

मैं मानता हूँ कि मुस्लिम शासकों, चाहे वे नेक हों या बद, की बात मानना ज़रूरी है। हाँ, शर्त है कि वे अल्लाह की अवज्ञा का आदेश न दें।

जो व्यक्ति मुसलमानों का ख़लीफ़ा बन जाए और सब लोग उसे एकमत होकर ख़लीफ़ा मान लें तथा संतुष्ट हो जाएँ, या फिर वह तलवार के बल पर अधिपत्य स्थापित कर ले और मुसलमानों का ख़लीफ़ा बन जाए, तो उसकी बात मानना ज़रूरी है और उसके विरुद्ध बग़ावत करना हराम है।

मैं बिदअतियों से, जब तक तौबा न कर लें, अलग रहने की तथा उनके बहिष्कार की बात कहता हूँ, और उनके ज़ाहिर के अनुसार उनके बारे में निर्णय लेता हूँ, तथा उनके अंदर छिपी बातों को अल्लाह के हवाले करता हूँ।

मेरा अक़ीदा है कि धर्म के नाम पर किया गया हर नया काम बिदअत है।

मेरा अक़ीदा है कि ईमान नाम है, ज़बान से कहने, इस्लाम के अर्कान पर अमल करने तथा दिल में विश्वास रखने का। साथ ही यह कि ईमान अल्लाह के अनुसरण से बढ़ता और अवज्ञा से घटता है। ईमान की सत्तर से अधिक शाखाएँ हैं, जिनमें सबसे उत्तम शाखा ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही देना है, और निम्नतम शाखा रास्ते से कष्टदायक वस्तु को हटाना है।

मैं यह भी मानता हूँ कि पवित्र मुहम्मदी शरीयत में जिन कामों को अच्छा कहा गया है, उनकी ओर बुलाना, और जिन कामों को बुरा कहा गया है, उनसे रोकना ज़रूरी है।

यह संक्षिप्त अक़ीदा है, जिसे मैंने अति व्यस्तता के बावजूद, इस आशय के साथ लिखा है कि आप मेरी धारणाओं और मान्यताओं से अवगत हो जाएँ।

जबकि हम जो कुछ कह रहे हैं, उससे अल्लाह अवगत है।"

मैं कहता हूँ: इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब के अक़ीदे पर आधारित यह एक पत्र है, जिसे मैंने पूर्ण रूप से नक़ल कर दिया है; क्योंकि एक ओर यही अह्ल-ए-सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है, तो दूसरी ओर इसमें कई महत्वपूर्ण बातें मौजूद हैं।

हर मुसलमान को यही अक़ीदा रखना चाहिए। जिसने यह सही और स्वच्छ अक़ीदा न रखा, वह अह्ल-ए-सुन्नत व जमाअत में शामिल नहीं है, और हमें उसके गुमराह और पथभ्रष्ट होने का भय है।

 इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के सुधारवादी सलफ़ी आह्वान से दुश्मनी और उसके विरोध के प्रमुख कारण

1- शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब का सलफ़ी आह्वान जब -लेखन, संकलन एवं व्यवहारिक रूपस से- सामने आया, तो उसके विरोध का सबसे प्रमुख कारण, विरोधियों तथा बहुत-से इस्लाम के दावेदारों की गुमराही, पथभ्रष्टता और सीधे रास्ते से दूर होना था।

शैख़ के आह्वान के सामने आने से पहले, बहुत-से मुसलमानों का हाल यह हो चुका था कि वे पथभ्रष्टता और अक़ीदे में बिगाड़ की गहरी खई में जा गिरे थे। अज्ञानता इस क़दर आम हो चुकी थी कि अधिकतर मुसलमान अल्लाह की इबादत ज्ञान, अल्लाह के मार्गदर्शन और प्रकाशमान पुस्तक की शिक्षा के बिना ही करने लगे थे। फिर इसी का नतीजा था कि बिदअतें तथा शिर्क के काम अलग-अलग रंग-रूप में न सिर्फ़ प्रकट हो चुके थे, बल्कि लोगों के बीच स्वीकार्यता प्राप्त कर चुके थे और बच्चे, जवान एवं बूढ़े सब उनसे लगाव तथा जुड़ाव महसूस करने लगे थे।

2- सलफ़ी आह्वान पर आक्रमण तथा उससे दुश्मनी का एक अन्य कारण वह झूठे आरोप, आक्षेप तथा लांछन भी थे, जो इस आह्वान तथा इसके अगुवा एवं सहयोगियों पर लगाए गए थे। जिस दिन से यह आह्वान शुरू हुआ था, उसी दिन से उसपर चारों ओर से भीषण हमले शुरू हो गए थे, तथा कुछ तथाकथित उलेमा ने इस सलफ़ी आह्वान से कई ऐसी चीज़ें जोड़ दी थीं, जो उसका हिस्सा कभी नहीं थीं। उन्होंने यह भ्रम फैलाया कि यह पाँचवाँ समुदाय है! ये ख़वारिज हैं, जो मुसलमानों के जान एवं माल को हलाल समझते हैं, तथा इसका अगुवा नबूवत का दावेदार है और अल्लाह के रसूल -सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम- का अपमान करता है!!!

इस तरह के कई अन्य झूठे आरोप तथा लांछन लगाए गए।

दुःख का विषय यह रहा कि बहुत-से आम लोगों ने, इन आरोपों को बिना किसी छानबीन के, महज़ अंधभक्ति के आधार पर ग्रहण कर लिया।

यहाँ यह बात भी बता देना उचित मालूम होता है कि कुछ विरोधी, इस आह्वान से संबंध रखने वाले मुट्ठी भर जोशीले देहातियों की ओर से, एक सीमित समय तक की जाने वाली कुछ हिंसात्मक कार्रवाइयों को ले उड़े, और अन्यायपूर्ण तरीक़े से इस आह्वान से जुड़े हुए सभी लोगों के हिंसक होने का लांछन लगा दिया।

3- इस सलफ़ी आह्वान से दुश्मनी का तीसरा कारण वह राजनीतिक झगड़े और युद्ध भी थे, जो एक ओर इस आह्वान के अनुसरणकारियों तथा तुर्कों के बीच हुए, तो दूसरी ओर इस आह्वान के अनुयायियों तथा अशराफ के बीच हुए।

शैख़ मुहम्मद रशीद रज़ा -अल्लाह उनपर दया करे- कहते हैं: "वहाबियत पर बिदअत और कुफ़्र का लांछन लगाने का कारण महज़ राजनीतिक था। चूँकि वे हिाजाज़ पर क़ब्ज़ा कर चुके थे, इसलिए यह षड्यंत्र रचा गया था, ताकि मुसलमानों को उनसे नफ़रत दिलाकर दूर किया जा सके। यह षड्यंत्र दरअसल तुर्कों के इस भय का द्योतक था कि कहीं यह लोग किसी अरब राज्य की स्थापना न कर डालें। यही कारण है कि जब राजनीतिक पारा चढ़ जाता, तो लोग उनके विरुद्ध तैश में आ जाते और जब राजनीतिक पारा उतर जाता, तो लोग भी ठंडे पड़ जाते।"

शैख़ रशीद रज़ा ने मक्का के कुछ रसूख़दार तथा राजनीतिक लोगों और इस आह्वान के समर्थकों के बीच राजनीतिक दुश्मनी के कुछ प्रभाव भी बयान किए हैं। इस क्रम में उन्होंने जिन बातों की ओर इशारा किया है, उनमें से एक यह है कि उन लोगों ने अल-क़िबला नामी पत्रिका में, सन 1336 तथा 1337 हिजरी को कई लेख प्रकाशित किए, जिनमें लिखा था कि वहाबी काफ़िर हैं, वह अह्ले सुन्नत को काफ़िर मानते हैं, और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की शान में गुस्ताख़ी करते हैं। उन लेखों में इसके अलावा भी कई झूठी बातें और लांछन होते थे।

जबकि दमिश्क़ तथा बैरूत के कुछ लोग भी, वहाबी आह्वान के समर्थकों के कुफ़्र पर आधारित तथा उनपर लगाए गए झूठे आरोपों से भरी हुई पत्रिकाएँ प्रकाशित कर, इन धर्मनिर्पेक्ष तथा राष्ट्रवादी रसूख़दारों को खुश करने के प्रयास में जुटे थे। फिर यह बीमारी मिस्र तक पहुँच गई और यहाँ की कुछ पत्रिकाओं में भी इसका प्रभाव देखने को मिला।

4- हमें एक चौथा कारण भी नज़र आता है, जिसकी वजह से इस सलफ़ी आह्वान के विऱोध में बड़ी संख्या में किताबें लिखी गईं। यह कारण है, इन विरोधियों, विशेष रूप से सूफ़ियों तथा राफ़िज़ियों का अपनी भ्रष्ट आस्थाओं एवं मान्यताओं के बचाव के लिए खड़े होना। क्योंकि जब मुस्लिम समाज में बड़े पैमाने पर शिर्क प्रचलित हो गया, बिदअतें फैल गईं, मिथकों का बाज़ार गर्म हो गया, मुर्दों के बारे में अतिशयोक्ति होने लगी, उनसे फ़रियाद की जाने लगी, क़ब्रों को पुख़्ता बनाया जाने लगा, उनके ऊपर मज़ार बनने लगे, उन्हें ख़ूब सजाया जाने लगा और इन कामों में असंख्य धन खर्च किया जाने लगा, तो इन सारी बातों के विरोध में शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब -अल्लाह उनपर दया करे- का आह्वान सामने आया।

इन परिस्थितियों में इन सूफ़ियों तथा राफ़िज़ियों को अपनी आस्थाओं का विष फैलाने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। जैसे ही इस आह्वान के प्रकाश घटाटोप अंधेरों को चीरते हुए बहुईश्वरवाद के अंधेरों को मिटाने का सामान करने लगे और लोगों को एकेश्वराद का उजाला प्रदान करने लगे, तो विरोधियों को महसूस होने लगा कि इस आह्वान का विस्तार उनकी असत्य मान्यताओं और कुधारणाओं के लिए ज़मीन तंग कर देगा। अतः, वे पूरी शक्ति से इस आह्वान और उसके समर्थकों को बदनाम करने लगे और इस क्रम में अपने सूफ़ियाना अथवा राफ़िज़ियत वाली आस्थाओं का ज़िक्र करने के साथ-साथ उनका महिमामंडन करते रहे और उन्हें सत्य साबित करते रहे।

चुनांचे हम देखते हैं कि यह सूफ़ी लोग, सलफ़ी आह्वान का खंडन करते समय अपनी सूफ़ियत पर अभिमान करते, सूफ़ी सिलसिलों से संबंध पर इतराते और तसव्वुफ़ तथा उसके अनुसरणकारियों का बचाव करते हैं।

इसी तरह राफ़िज़ी लोग भी जब सलफ़ी आह्वान पर आक्रमण करते हैं, तो अपनी धारणाओं के बचाव के लिए झूठ एवं तथ्यों में फेरबदल आदि वह सारे हथकंडे अपनाते हैं, जिनके लिए उन्हें जाना जाता है।

हम यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करके आगे बढ़ना चाहते हैं। जब सन 1344 हिजरी में मदीने के उलेमा ने क़ब्रों के ऊपर निर्माण तथा उन्हें मस्जिद बनाने के अवैध होने के संबंध में एक फ़तवा लिखा और वह सत्य सामने लाने का काम किया, जिसके पक्ष में सारे प्रमाण थे, तथा उसपर अमल करते हुए क़ब्रों के ऊपर बने हुए गुंबदों और निर्माणों को हटा दिया गया, तो राफ़िज़ी उलेमा इस फ़तवा के विरोध में उठ खड़े हुए, चीखने-चिल्लाने लगे, बड़ी संख्या में लेख तथा किताबें लिखने लगे और इन गुंबदों तथा मज़ारों के ढाए जाने पर मातम करने लगे!!

ये कुछ ज़ाहिरी सबब थे, जिनके कारण, विरोधियों को, शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब के ज़माने में, सलफ़ी आह्वान से सख़्त दुश्मनी रही और इस सच्चे तथा सत्य आह्वन के विरोध में बड़ी संख्या में किताबें लिखी गईं।

 इस आह्वान को वहाबियत का नाम क्यों दिया गया?

जहाँ तक वहाबियत शब्द की बात है, तो बहुत-से विरोधी इस आह्वान को यह नाम देकर मुसलमानों के बीच यह भ्रम पेैदा करना चाहते थे कि वहाबियत पहले से मौजूद इस्लामी पंथों से हटकर एक अलग अथवा नया पंथ है। इसलिए असल में, इस नाम के प्रयोग से बचने की ज़रूरत है।

लेकिन अल्लाह का करना ऐसा हुआ कि इस आह्वान के विरोधियों का यह दाँव उलटा पड़ गया। यह नाम देने के पीछे उनका उद्देश्य तो था उनकी निंदा करना, उन्हें बिदअती सिद्ध करना, और यह साबित करना कि यह लोग अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से प्रेम नहीं करते। लेकिन अल्लाह की कृपा से आज यह शब्द हर उस व्यक्ति की पहचान बन चुका है, जो क़ुरआन तथा हदीस की ओर बुलाता हो, प्रमाण पर अमल करने की बात कहता हो, भलाई का आदेश देना तथा बुराई से रोकना उसका मिशन हो और सदाचारी पूर्वजों के मार्ग पर चलने की ओर प्रेरित करता हो।

 शैख़ के आह्वान पर लगाए गए कुछ आरोप और उनका खंडन

शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब -उनपर अल्लाह की दया हो- के आह्वान पर बहुत से आधारहीन और झूठे आरोप लगाए गए, जिन्हें बहुत-से लोगों ने सही मान लिया और इस शुभ आह्वान को इतना बदनाम कर दिया कि अज्ञान लोगों के निकट वहाबी का मतलब एक ऐसा व्यक्ति हो गया, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से नफ़रत करता हो, एक पाँचवें पंथ का मानने वाला हो, औलिया की करामात का इनकार करता हो, मुसलमानों को काफ़िर कहता हो और उनके जान-माल को हलाल समझता हो। ये और इस तरह के कई और भी लांछन लगाए गए।

मैं चाहता हूँ कि यहाँ इस तरह के कुछ आरोपों का ज़िक्र करके उनका खंडन कर दिया जाए।

पहला आरोप:

शैख़ पर एक आरोप यह लगाया गया कि वह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की शान में गुस्ताख़ी करते हैं, या आपसे नफ़रत करते हैं, या आप पर दरूद भेजना पसंद नहीं करते!!

मैं कहता हूँ: शैख़ के द्वारा लिखी गई जो पुस्तकें हमारे सामने हैं, वह सिद्ध करती हैं कि उन पर लगाया गया यह आरोप स्पष्ट रूप से झूठा है। सच्चाई यह है कि वह अपने ज़माने में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का सबसे अधिक सम्मान करने वाले और आपसे सबसे अधिक प्रेम करने वाले व्यक्ति थे।

शैख़ अपने एक पत्र में, जो अब्दुर रहमान अस-सुवैदी नाम के एक इराक़ी आलिम के नाम लिखा गया था, इस तरह के आरोपों का उत्तर देते हुए कहते हैं:

"बड़े आश्चर्य की बात है! इस तरह की बात एक अक़्लमंद व्यक्ति के ज़हन में कैसे आ सकती है? इस तरह की बात कोई मुसलमान कहेगा या काफ़िर या कोई अक़्लमंद कहेगा या पागल व्यक्ति?"

शैख़ के बेटे अब्दुल्लाह ने भी इस तरह के आरोपों का उत्तर देते हुए लिखा है:

"जिसने हमारी हालत देखी, हमारी सभाओं में उपस्थित रहा और हमारी वास्तविकता से अवगत हुआ, वह निश्चित रूप से जानता होगा कि इस तरह का लांछन हमारे ऊपर इस्लाम के शत्रुओं और शैतान के भाइयों ने लगाया है; ताकि लोगों को शुद्ध एकेश्वरवाद को मानने और हर तरह के शिर्क से दामन छुड़ाकर निकल भागने से रोका जा सके।"

वह आगे कहते हैं: "हमारा अक़ीदा है कि हमारे नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का मर्तबा सारी सृष्टियों से ऊँचा है। आप अपनी क़ब्र में बरज़ख़ वाला जीवन जी रहे हैं, जो शहीदों के उस जीवन से अधिक संपूर्ण है, जिसका उल्लेख क़ुरआन में हुआ है, क्योंकि आप निस्संदेह सबसे उत्तम तथा श्रेष्ठ हैं। तथा आप की क़बर के पास जो भी व्यक्ति आप को सलाम करता है ,आप उसके सलाम को सुनते हैं।

आपकी ज़ियारत सुन्नत है। लेकिन यात्रा केवल आपकी मस्जिद की ज़ियारत और उसके अंदर नमाज़ पढ़ने के लिए की जाएगी। हाँ, यदि इसके साथ ज़ियारत का भी इरादा कर लिया जाए, तो कोई हर्ज नहीं है। जो व्यक्ति आप पर, आपसे साबित दरूद पढ़ने में अपना समय बिताए, वह दुनिया एवं आख़िरत दोनों स्थानों में सौभाग्यशाली है।

मैं कहता हूँ: यह हमारे नबी, आदम की संतान के सरदार मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के बारे में शैख़ का तथा उनके समर्थकों का अक़ीदा है। जो इससे इतर कुछ कहता है, वह झूठा और लांछन लगाने वाला है।

दूसरा आरोप:

औलिया की करामात के इनकार का ओरप !

शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब -रहिमहुल्लाह- पर जो लांछन लगाए गए, उनमें से एक यह है कि वह औलिया की करामात का इनकार करते हैं।

मैं कहता हूँ: शैख़ के विरोधियों ने यह भ्रम खूब फैलाया कि आप औलिया की करामात का इनकार करते हैं,जबकि सत्य यह है कि आप औलिया की करामात को मानते हैं, लेकिन, दो शर्तों के साथ। पहली शर्त यह है कि वली, सच-मुच में वली हो। याद रखना चाहिए कि वली वह है, जो क़ुरआन तथा हदीस का अनुसरण करता हो और बिदअतों तथा मिथकों से दूर रहता हो। दूसरी शर्त यह है कि औलिया की करामत उनके जीवन काल ही में सामने आई हो, उनकी मृत्यु के पश्चात नहीं। क्योंकि इनसान मरने के बाद जीवित लोगों की दुआ का मोहताज होता है, जीवित लोग मरे हुए व्यक्ति की दुआ के मोहताज नहीं होते।

औलिया के बारे में यही अह्ले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है और शैख़ ने इस मामले में उनकी मुख़ालिफ़त नहीं की है।

शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब अपनी एक पुस्तक में औलिया की करामात को साबित करते हुए लिखते हैं: "मैं औलिया की करामात और उनके मुकाशफ़ों को मानता हूँ। लेकिन वे अल्लाह के किसी अधिकार के अधिकारी नहीं हैं, और उनसे कोई ऐसी वस्तु माँगी नहीं जा सकती, जिसे देने की शक्ति केवल अल्लाह के पास है।"

आगे कहते हैं: "हम पर वाजिब है कि हम उनसे प्रेम करें, उनका अनुसरण करें और उनकी करामात का इक़रार करें। औलिया की करामात का इनकार केवल वही व्यक्ति करेगा, जो बिदअती तथा गुमराह हो। याद रहे कि अल्लाह का दीन दो अति के बीच संतुलन पर आधारित है, दो गुमराहियों के बीच हिदायत पर आधारित है, और दो असत्यों के बीच सत्य पर आधारित है।"

शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब के बाद भी इस आह्वान के अनुसरणकारियों ने इस अक़ीदे की ताकीद की और इसका इक़रार किया।

शैख़ का एक अनुसरणकारी लिखता है: "इसी तरह अल्लाह के औलिया का अधिकार यह है कि उनसे प्रेम किया जाए, उनसे प्रसन्नता व्यक्त की जाए और उनकी करामात पर विश्वास रखा जाए। लेकिन उनसे कोई ऐसी भलाई न माँगी जाए, जो अल्लाह के सिवा कोई नहीं दे सकता, या कोई ऐसी बुराई से सुरक्षा न माँगी जाए, जिससे सुरक्षा अल्लाह के सिवा कोई प्रदान नहीं कर सकता। क्योंकि यह इबादत है, जो केवल अल्लाह का अधिकार है। यह भी उस समय, जब सचमुच कोई वली हो या इस आधार पर उसके वली होने की आशा हो कि उसे हर परिस्थिति में सुन्नत पर अमल करते हुए और परहेज़गारी पर कारबंद रहते हुए देखा गया हो। वरना, आज हर उस व्यक्ति को वली मान लिया जाता है, जो लंबा कुरता पहने, आस्तीन चौड़ी रखे, तहबंद लटकाकर पहने, बोसे के लिए बाँहें फैला दे, विशिष्ट वेश-भूषा धारण कर ले, ढोल और बाजे साथ रखे, नाहक़ तरीक़े से अल्लाह के बंदों का माल खाए, तथा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत एवं शरीयत के आदेशों से बेरुख़ी दिखाए!!!"

तथा शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब के बेटे अब्दुल्लाह कहते हैं: "हम औलिया की करामात का इनकार नहीं करते, बल्कि उनके अधिकार को पहचानते हैं, और यह मानते हैं कि जब तक वे शरीयत पर अमल करते रहें, अपने पालनहार की हिदायत पर हैं। लेकिन, हमारा यह भी विश्वास है कि वे किसी भी इबादत के हक़दार नहीं हैं, न जीवनकाल में और न मरने के बाद। हाँ, उनकी जिंदगी में उनसे और उनके अलावा हर मुसलमान से दुआ कराई जा सकती है।

ये शैख़ और उनके अनुसरणकारियों की पुस्तकों के कुछ अद्धरण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि शैख़ औलिया की करामात को मानते हैं और उनका इनकार नहीं करते। हाँ, वह अल्लाह के बजाए उनसे फ़रियाद करने, उनसे ज़रूरत की चीज़ें माँगने और उनकी इबादत करने को ग़लत कहते हैं।

औलिया की करामात के संबंध में यही अह्ले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है और शैख़ ने इस मामले में उनकी मुख़ालिफ़त नहीं की है।

तीसरा आरोप:

शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब के आह्वान पर जो भ्रम सबसे अधिक फैलाए गए, उनमें से एक यह है कि वह मुसलमानों को काफ़िर कहते हैं, उनके जान व माल को हलाल समझते हैं, और उनसे युद्ध करने को जायज़ समझते हैं।

जब इस ग़लत आरोप की सूचना शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब को मिली, तो अलग-अलग अंदाज़ में उसके कई उत्तर दिए। चूँकि मुसलमानों को काफ़िर कहने और उनके रक्त को हलाल समझने का आरोप अधिकतर मुस्लिम देशों में फैल चुका था, इसलिए शैख़ ने पूरी ताक़त से उसका खंडन किया, उससे अपने बरी होने का एलान किया और इन उत्तरों को विभिन्न देशों को भेज दिया।

वह अपने एक पत्र में कहते हैं: "जहाँ तक शत्रुओं के द्वारा मेरे ऊपर लगाए गए इस आरोप का प्रश्न है कि मैं केवल भ्रम तथा मित्रता के आधार पर काफ़िर कहता हूँ, या ऐसे अज्ञानी को काफ़िर कहता हूँ, जिस पर प्रमाण स्थापित न हुआ हो, तो यह मुझ पर लगाया गया एक बहुत बड़ा लांछन है, जिसका उद्देश्य लोगों को अल्लाह के धर्म और उसके रसूल से दूर करना है।"

एक अन्य पत्र में किसी लांछन लगाने वाले का खंडन करते हुए कहते हैं: "इसी तरह उसने सीधे-साधे लोगों से सत्य को छुपाने के लिए मेरे ऊपर झूठा लांछन लगाया कि अब्दुल वह्हाब का बेटा कहता है कि जो मेरा अनुसरण न करे, वह काफ़िर है।

ऐसे में मैं कहता हूँ: ऐ अल्लाह! तेरी ज़ात पाक है। दरअसल, यह मेरे ऊपर लगाया गया बहुत बड़ा लांछन है। हम अल्लाह को उस चीज़ का गवाह बनाकर, जो हमारे दिल में है और जिसे वह जानता है, कहते हैं कि जिसने तौहीद पर अमल किया और शिर्क तथा मुश्रिकों से खुद को अलग रखा, वह मुसलमान है। चाहे उसका संबंध किसी भी ज़माने और किसी भी स्थान से हो। हम केवल उस व्यक्ति को काफ़िर मानते हैं, जो शिर्क के अनुचित होने का स्पष्ट प्रमाण रखने के बावजूद अल्लाह की इबादत में किसी को उसका साझी ठहराता हो।

शैख़ -अल्लाह उनपर दया करे- का एक शिष्य कहता है: "शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब -अल्लाह उनपर दया करे- अन्य लोगों की तुलना में किसी को काफ़िर कहने से अधिक बचते थे। यहाँ तक कि उन्होंने उस अज्ञानी को भी काफ़िर नहीं कहा, जो अल्लाह को छोड़कर क़ब्र वालों आदि को पुकारता हो, और उसे कोई समझाने वाला और इस बात का प्रमाण देने वाला न मिला हो कि ऐसा काम करने से इनसान काफ़िर हो जाता है।"

वह एक अन्य स्थान में काफ़िर कहने के संबंध में शैख़ का अक़ीदा बयान करते हुए लिखते हैं:

"...वह महा शिर्क तथा अल्लाह की आयतों और उसके रसूलों के अविश्वास आदि उन्हीं कामों को, प्रमाण स्थापित होने और उचित स्रोत से लोगों के पास पहुँचने के बाद, कुफ़्र का काम मानते हैं, जिन्हें सारे मुसलमान एकमत होकर कुफ़्र का काम मानते हैं। जैसे अल्लाह के सदाचारी बंदों की इबादत करने वाले, उन्हें अल्लाह के साथ पुकारने वाले और उन्हें अल्लाह की इबादत में साझी ठहराने वाले को काफ़िर मानना।"

वह आगे कहते हैं: "हर अक़्लमंद व्यक्ति, जो शैख़ की सीरत से अवगत है, अच्छी तरह जानता है कि वह अन्य लोगों की तुलना में इल्म तथा उलेमा को अधिक सम्मान देते थे, और उन्हें काफ़िर कहने, अपमानित करने एवं कष्ट देने से दूसरे लोगों की तुलना में कहीं अधिक रोकते थे। सच्चाई यह है कि वह हमेशा उलेमा के सम्मान, उनके बचाव और उनके रास्ते पर चलने की बात करते थे।

शैख़ ने काफ़िर केवल उसी को कहा है, जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने काफ़िर कहा हो, और उसके काफ़िर होने पर पूरी उम्मत का मतैक्य हो। जैसे वह व्यक्ति, जिसने अल्लाह के अतिरिक्त अन्य को पूज्य और साझी बना लिया हो।"

ये, काफ़िर कहने के संबंध में शैख़ तथा उनके अनुयायियों की पुस्तकों के कुछ उद्धरण हैं, जो यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं।

इन उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि शैख़ मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब, उनके अनुयायी तथा उनके आह्वान के समर्थक, किसी को काफ़िर कहने के मसले में विरोधियों के झूठे आरोपों से बिलकुल बरी हैं।

जो व्यक्ति उनकी पुस्कत-पुस्तिकाओं को पढ़ेगा, उसे स्पष्ट तौर पर समझ में आ जाएगा कि किसी को काफ़िर कहने के संबंध में उनका अक़ीदा बिलकुल सही और उनकी सोच बिलकुल दुरुस्त है, और इस मसले में उनका अक़ीदा ही सदाचारी पूर्वजों का अक़ीदा रहा है।

 शैख़ -उनपर अल्लाह की दया हो- की मृत्यु

शैख़ -उनपर अल्लाह की दया हो- ने ज्ञान, जिहाद तथा लोगों को अल्लाह की ओर बुलाने जैसे महत्वपूर्ण कामों से आबाद एक भरपूर जीवन गुज़ारने के बाद सन 1206 हिजरी को दरइया शहर में अंतिम साँस ली।

हम अल्लाह से उनके लिए दया तथा प्रसन्नता के प्रार्थी हैं, तथा दुआ करते हैं कि वह हमें, अपनी अपार दया से, उनके साथ जन्नत के ऊँचे भवनों में एकत्र होने का अवसर प्रदान करे।[14]

 अध्याय: सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की पहचान और उस पर ईमान

 शिर्क (बहु-ईश्वरवाद) का खंडन

1- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि रसूलुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने फ़रमाया: मैं तमाम साझेदारों की तुलना में साझेदारी से अधिक बेनियाज़ हूँ। जिसने कोई कार्य किया और उसमें किसी को मेरा साझी ठहराया, मैं उसके साथ ही उसके साझी बनाने के इस कार्य से भी किनारा कर लेता हूँ।} [15]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

1- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अज़-ज़ुह्द (4/2289) (हदीस संख्या: 2985) में रिवायत किया है।

शिर्क (बहुईश्वरवाद) के दो प्रकार हैं:

पहला: बड़ा शिर्क, जो कि सबसे बड़ा गुनाह है; क्योंकि स्वयं अल्लाह ने इसके बारे में कहा है कि वह तौबा के बिना इसे माफ़ नहीं करेगा। इसके अंदर अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारना, अल्लाह के सिवा किसी और से फ़रियाद करना, अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए जानवर ज़बह करना और अल्लाह को छोड़ किसी और के लिए मन्नत मानना आदि आते हैं।

दूसरा: छोटा शिर्क, जिसमें रियाकारी, अल्लाह के सिवा किसी और की क़सम खाना तथा "जो अल्लाह चाहे और आप चाहें", "मेरा, अल्लाह और आपके सिवा कोई नहीं है" एवं "मैं अल्लाह और आप पर भरोसा रखा हुआ हूँ" जैसी बातें कहना आदि शामिल हैं।

शैख मुहम्मद बिन अब्दुल बह्हाब -उनपर अल्लाह की दया हो- अपनी किताब "अल-क़वाइद अल-अरबआ" में लिखते हैं:

जान लें, अल्लाह आपको अपने आज्ञापालन का सामर्थ्य दे, कि इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के धर्म हनीफ़ियत का अर्थ यह है कि आप धर्म को अल्लाह के लिए विशुद्ध कर केवल एक अल्लाह की इबादत करें। जैसा कि उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है: {मैंने जिन्नात और इन्सानों को मात्र इसी लिए पैदा किया है कि वे केवल मेरी इबादत करें।} [16] [सूरा अज़्-ज़ारियात: 56] जब आपने यह जान लिया कि अल्लाह ने आपको अपनी इबादत के पैदा किया है, तो यह भी जान लें कि कोई भी इबादत उसी समय इबादत कहलाएगी, जब वह तौहीद (एकेश्वरवाद) से सुसज्जितहो। बिलकुल वैसे ही, जैसे नमाज़ उसी समय नमाज़ कहलाएगी, जब वह तहारत (पवित्रता) के साथ अदा की जाए। अतः, जब शिर्क (बहुईश्वरवाद) इबादत में प्रवेश कर जाए, तो इबादत भ्रष्ट हो जाती है, जैसे कि तहारत में हदस (अपवित्रता की अवस्था) प्रवेश करने से तहारत नष्ट हो जाती है। फिर जब आपने यह जान लिया कि शिर्क जब किसी इबादत के साथ मिश्रित हो जाता है तो उस इबादत को भ्रष्ट कर देता है एवं अन्य सभी कार्यो को भी नष्ट कर देता है तथा इस शिर्क का करने वाला नरक में सदैव रहने का हक़दार बन जाता है- तो आप यह भी जान लें कि आपकी सबसे पहली ज़िम्मेवारी होती है शिर्क की पहचान करना, शायद अल्लाह आप को शिर्क के जाल से बचा ले, जिसके बारे में अल्लाह तआला का फ़रमान है: निःसंदेह, अल्लाह तआला अपने साथ शिर्क (साझी ठहराए जाने) को माफ़ नहीं करता और इसके सिवा दूसरे गुनाह जिस के लिए चाहे माफ कर देता है} [17] [सूरा अन-निसा: 116]

और शिर्क को जानने के लिए ज़रूरी है कि आप चारसिद्धाँतों से अवगत हो जाएँ, जिन्हें अल्लाह तआला ने अपनी किताब मे ज़िक्र किया है:

पहला सिद्धाँत:

आप यह जान लें कि वे काफ़िर भी, जिनसे अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने युद्ध किया था, निःसंदेह इस बात को मानते थे कि अल्लाह ही (संसार का) सृष्टा और संचालक है तथा यह भी जान लें कि इस इक़रार से वे इस्लाम में कदापि प्रवेश न कर सके।

इसका प्रमाण उच्च एवं महान अल्लाह का यह फ़रमान है: {आप इनसे पूछिए: तुमको आकाश और धरती से कौन जीविका प्रदान करता है, अथवा कानों और आँखों पर किसका अधिकार, तथा निर्जिव से सजीव को कौन निकालता है, और सजीव से निर्जिव को कौन निकालता है, और संसार के कार्यों का संचालन कौन करता है? तो इसके उत्तर में यह (अनेकेश्वरवादी) अवश्य कहेंगे कि अल्लाह तआला। आप इनसे पूछिए कि फिर तुम (शिर्क से) क्यों नहीं बचते?} [18] [सूरा यूनुस: 31]

दूसरा सिद्धाँत:

मक्का के काफ़िर अपने बुतों के बारे में यही कहते थे कि हम उनको केवल इसलिए पुकारते हैं और उनकी उपासना केवल इसलिए करते हैं कि हमें अल्लाह की निकटता और सिफ़ारिश प्राप्त हो जाए।

चुनांचे, इस बात का प्रमाण कि वे अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए अपने असत्य पूज्यों की उपासना करते थे, उच्च एवं महान अल्लाह का यह फ़रमान है: {और जिन्होंने बना रखा है अल्लाह के सिवा संरक्षक, वे कहते हैं कि हम तो उनकी वंदना इसलिए करते हैं कि वह समीप कर देंगें हमें अल्लाह से। वास्तव में, अल्लाह ही निर्णय करेगा उनके बीच जिसमें वे विभेद कर रहे हैं। वास्तव में, अल्लाह उसे सुपथ नहीं दर्शाता जो बड़ा असत्यवादी, कृतघ्न हो।} [19] [सूरा अज़-ज़ुमर: 3]

तथा इस बात का प्रमाण कि उनका असल लक्ष्य सिफ़ारिश की प्राप्ति भी था, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {और यह लोग अल्लाह के सिवा ऐसी चीजों की पूजा करते हैं, जो न इन्हें हानि पहुँचा सकें और न इन्हें लाभ पहुँचा सकें और कहते हैं कि यह अल्लाह के पास हमारे सिफारिशी हैं।} [20] [सूरा यूनुस: 18]

वास्तव में सिफ़ारिश दो प्रकार की होती है: एक वह सिफ़ारिश जिस का शरीयत में इनकार किया गया है और दूसरी वह जिसको शरीयत में साबित किया गया है।

अमान्य सिफारिश: इस से अभिप्राय वह सिफ़ारिश है, जो अल्लाह के अतिरिक्त किसी और से उस वस्तु के संबंध में तलब की जाए जिसे क्रियान्वित करने की क्षमता अल्लाह के सिवा किसी के पास न हो।

इसका प्रमाण अल्लाह का यह फ़रमान है: {हे ईमान वालो! हमने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से दान करो, उस दिन (अर्थातः प्रलय) के आने से पहले, जिसमें न कोई सौदा होगा, न कोई मैत्री, और न ही कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) काम आएगी, तथा काफ़िर लोग ही अत्याचारी हैं।} [21] [अल-बक़रा: 254]

मान्य सिफारिश:इससे अभिप्राय वह सिफ़ारिश है, जो अल्लाह से तलब की जाए,इस सिफारिश के द्वारा सिफारिश करता को अल्लाह की ओर से सम्मानित किया जाता है तथा वह व्यक्ति जिसके लिए सिफारिश की जा सके, केवल वही हो सकता है जिसके कथन तथा कर्म से अल्लाह प्रसन्न हो एवं जिसके लिए सिफारिश की अनुमति दे ।जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान ह: {उसकी अनुमति के बिना कौन उसके पास सिफारिश कर सकता है?} [22] [सूरा अल-बक़रा: 255]

तीसरा सिद्धाँत:

अंतिम नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ऐसे लोगों के बीच भेजे गए थे, जो अलग-अलग वस्तुओं की इबादत करते थे। कोई फ़रिश्तों की इबादत करता था, कोई नबियों तथा अल्लाह के सदाचारी बंदों की इबादत करता था, कोई पेड़ों और पत्थरों की इबादत करता था और कोई सूरज तथा चाँद की इबादत करता था। फिर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने किसी भेदभाव के बिना इन सारे लोगों से युद्ध किया।

उनसे युद्ध करने का प्रमाण अल्लाह का यह फ़रमान है: {ऐ ईमान वालो! उनसे उस समय तक युद्ध करो कि फ़ितना समाप्त हो जाए और धर्म पूरा अल्लाह के लिए हो जाए।} [23] [सूरा अल-अनफ़ाल: 39]

इस बातका प्रमाण कि वे सूरज तथा चाँद की पूजा करते थे, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {और रात व दिन, सूरज और चाँद उसकी निशानियों में से हैं। तुम सूरज को सजदा न करो और न ही चाँद को। बल्कि तुम केवल उस अल्लाह के लिए सजदा करो, जिसने इन सब को पैदा किया है, अगर तुमको उसी की इबादत करनी है।} [24] [सुरा फ़ुस्सिलत: 37]

और इस बात का प्रमाण कि फ़रिश्तों की पूजा की जाती थी, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार बना लो।}[25] [सूरा आल-ए-इमरान: 80]

और इस बात का प्रमाण कि नबियों की पूजा की जाती थी, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {और (उस समय को याद करो) जब अल्लाह तआला फरमाएगा: ऐ मरयम के पुत्र ईसा, क्या तुमने लोगों से कहा था कि मुझको और मेरी माता को अल्लाह के अतिरिक्त पूज्य बना लो। वह उत्तर देंगे: तू पवित्र है (प्रत्येक अवगुण से) मुझसे कहीं हो सकता है कि वह बात कहूँ, जिसका मुझे अधिकार नहीं है? यदि मैंने यह बात कही होगी, तो अवश्य तेरे ज्ञान में होगी। तू मेरे हृदय की बात जानता है, किन्तु मैं तेरे दिल की कोई बात नहीं जानता। निःसंदेह तू ही परोक्ष का ज्ञान रखने वाला है।}[26] [सूरा अल-माइदा:116]|

र इस बात का प्रमाण कि सदाचारी बंदों की पूजा की जाती थी, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {वास्तव में, जिन्हें ये लोग पुकारते हैं, वे स्वयं अपने पालनहार का सामीप्य प्राप्त करने का साधन खोजते हैं कि कौन अधिक समीप है? और उसकी दया की आशा रखते हैं और उसकी यातना से डरते हैं।} [27] [सूरा अल-इसरा: 57]|

और इस बात का प्रमाण कि पेड़ों तथा पत्थरों की पूजा की जाती थी, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है: {तो (हे मुश्रिको!) क्या तुमने देख लिया लात तथा उज़्ज़ा को? तथा एक तीसरे मनात को?} [28] [सूरा अन-नज्म: 19-20]| पेड़ों की उपासना का प्रमाण अबू वाक़िद लैसी -रज़ियल्लाहु अनहु- की यह हदीस भी है। वह कहते हैं: {हम नबी -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथ हुनैन की ओर निकले। उस समय हम नए-नए मुसलमान हुए थे। उन दिनों मुश्रिकों का एक बेरी का पेड़ हुआ करता था, जिसके पास वे डेरा डाला करते थे तथा जिस पर अपने हथियार लटकाया करते थे। उस पेड़ का नाम ज़ातु अनवात था। हम भी एक बेरी के पेड़ के पास से गुज़रे, तो हमने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल, जैसे मुश्रिकों के पास ज़ातु अनवात है, हमारे लिए भी एक ज़ातु अनवात नियुक्त कर दें।}[29] पूरी हदीस देखें। [30]

चौथा सिद्धाँत:

हमारे ज़माने के मुश्रिक, अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के ज़माने के शिर्क करने वालों की तुलना में शिर्क की दलदल में अधिक फँसे हुए हैं। क्योंकि उस ज़ामने के मुश्रिक खुशहाली के समय तो शिर्क करते थे, लेकिन कठिनाई के समय केवल अल्लाह को पुकारते थे। जबकि हमारे समय के मुश्रिक सुख और संकट दोनों अवस्थाओं में शिर्क करते हैं।ह

इसका प्रमाण अल्लाह का यह फ़रमान है: {और जब वे नाव पर सवार होते हैं, तो अल्लाह के लिए धर्म को शुद्ध करके उसे पुकारते हैं। फिर जब वह बचा लाता है उन्हें थल तक, तो फिर शिर्क करने लगते हैं।} [31] [सूरा अल-अंकबूत: 65]

 अल्लाह सोता नहीं है।

2- अबू मूसा अशअरी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हमारे बीच पांच बातों के साथ खड़े हुए और फ़रमाया:

(अल्लाह सोता नहीं है तथा सोना उसकी महानता के अनुरूप भी नहीं है। वह तराज़ू को नीचे तथा ऊपर करता है। उसकी ओर रात के कर्म दिन के कर्मों से पहले और दिन के कर्म रात के कर्मों से पहले उठाए जाते हैं। उसका परदा नूर है। यदि वह उसे खोल दे, तो उसके चेहरे की चमक सारी सृष्टियों को जला डालेगी, जहाँ तक उसकी नज़र पहुँचेगी।} [32]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

2- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-ईमान (1/161) (हदीस संख्या: 179) में रिवायत किया है।

इमाम बग़वी फ़रमाते हैं:

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के वाक्य {يخفض القسط ويرفعه} के बारे में कहा गया है कि इससे आपकी मुराद तराज़ू है। जैसे अल्लाह के इस फ़रमान में है: {और हम रख देंगे न्याय के तराज़ू।} [33] [सूरा अल-अंबिया: 47]। यानी न्याय वाले तराज़ू। तराज़ू को न्याय' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उसी के द्वारा बँटवारे में न्याय का काम संपन्न होता है। इस हदीस का अर्थ यह है कि अल्लाह बंदों के कर्मों को नापते समय, जो उसकी ओर उठाए जाते हैं तथा उनकी रोज़ियों को नापते समय, जो उसकी ओर से उतरती हैं, तराज़ू को झुकाता और उठाता है।[34]

जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यहाँ 'قسط' से मुराद रोज़ी है और अल्लाह कभी तो मख़लूक़ की रोज़ी को घटाकर उसे निर्धन बना देता है और कभी उसे उठाकर उसे धनवान बना देता है। यानी अल्लाह रोज़ी का निर्धारण करने वाला और बाँटने वाला है। जैसा स्वयं उसका फ़रमान है: {और अल्लाह जिसे चाहे, उसे जीविका फैलाकर देता है और जिसे चाहे नापकर देता है।} [35] [सूरा अर-राद: 26]

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के शब्द 'سبحات وجهه' का अर्थ है, अल्लाह के चेहरे का नूर।

ख़त्ताबी कहते हैं: "अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के इस फ़रमान का अर्थ यह है कि अल्लाह ने सृष्टियों को अपनी महानता, वैभव तथा प्रताप के बारे में केवल उतना बताया है, जितना वे सहन कर सकते हैं। यदि वह उनको अपनी वास्तविक महानता से अवगत कर देता, तो उनके हृदय फट जाते और प्राण निकल जाते। इसी तरह यदि वह अपने प्रकाश को धरती तथा पर्वतों पर डाल देता, तो वे जल जाते। जैसा कि उच्च अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- की घटना में कहा है: {फिर जब उसका पालनहार पर्वत की ओर प्रकाशित हुआ, तो उसे चूर-चूर कर दिया और मूसा निश्चेत होकर गिर गए।} [36] [सूरा अल-आराफ़: 143]

 अल्लाह के दायाँ हाथ होने का प्रमाण

3- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{अल्लाह का दायाँ हाथ भरा हुआ है। [37] खर्च करने से उसमें कोई कमी नहीं आती। [38] वह रात-दिन प्रदान किए जा रहा है। क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आकाशों तथा धरती की रचना से लेकर अब तक कितना कुछ खर्च किया है? लेकिन इसके बावजूद उसके दाएँ हाथ में जो कुछ है, उसमें कोई कमी नहीं आई। जबकि उसके दूसरे हाथ में तराज़ू है, जिसे वह उठाता और झुकाता है।}

इसे बुख़ारी तथा मुस्लिम ने रिवायत किया है।

3- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी किताब अत-तफ़सीर (8/352) (हदीस संख्या: 4684) में, जहाँ हदीस में थोड़ा-सा इज़ाफ़ा भी है, तथा किताब अत-तौहीद (13/393) (हदीस संख्या: 7411) में एवं इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अज़-ज़कात (2/690) (हदीस संख्या: 993) में रिवायत किया है।

इस हदीस को रिवायत करने वाले सभी मुहद्दिसों ने इसे 'يغيضها' रिवायत किया है। हाँ, सहीह बुख़ारी, किताब अत-तफ़सीर में 'تغيضها' आया है। लेकन 'फ़तहुल बारी' में 'يغيضها' मौजूद है और किताबुत-तौहीद में भी दोनों स्थानों में 'يغيضها' ही आया है।

"لا يغيضها": यानी उसमें कमी नहीं आती। कहा जाता है 'غاض الماء' यानी पानी धरती के अंदर चला गया।

"سحاء": लगातार प्रदान करने और देने वाला। 'السح' शब्द का अर्थ है, लगातार उंडेलना।

यह हदीस जहाँ इस बात का प्रमाण है कि अल्लाह का दायाँ हाथ है, वहीं इस बात का भी प्रमाण है कि वह अत्यधिक निस्पृह, सर्वाधिक प्रदाता और नितांत देने वाला है।

 पवित्र अल्लाह का ज्ञान

4- और अबू ज़र -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने दो बकरियों को देखा, जो एक-दूसरी को सींग मार रही थीं। अतः, फ़रमाया: "ऐ अबू ज़र! क्या तुम जानते हो कि दोनों एक-दूसरी को सींग क्यों मार रही हैं?" उत्तर दिया: नहीं। तो फ़रमाया: "लेकिन, अल्लाह जानता है और वह उन दोनों के बीच निर्णय भी करेगा।} [39] इसे अह़मद ने रिवायत किया है।

4- इसे अहमद (5/162) ने रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे यह हदीस बयान की मुहम्मद बिन जाफ़र ने, वह कहते हैं कि हमसे बयान किया शोबा ने, वह सुलैमान के माध्य से नक़ल करते हैं, वह मुनज़िर सौरी से वर्णन करते हैं, वह अपने गुरुओं से रिवायत करते हैं, जो अबू ज़र -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं।

इमाम अहमद ने इसे इब्न मुआविया से भी रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे यह हदीस बयान की आमश ने, वह मुनज़िर बिन याला से वर्णन करते हैं, वह अपने गुरुओं से ररिवायत करते हैं, जो कि अबू ज़र -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं। इसकी सनद में एक मजहूल (अपरिचित) वर्णनकर्ता है।

इसे अहमद ने (5/173) में तथा बज़्ज़ार ने, जैसा कि 'कशफ़ुल असतार' (4/162) (हदीस संख्या:3450 , 3451) में है, हम्माद बिन सलमा के 'तरीक़' से भी रिवायत किया है। वह कहते हैं: मुझसे यह हदीस बयान की लैस बिन अबू सुलैम ने, वह अब्दुर रहमान से रिवायत करते हैं, वह सरवान से नक़ल करते हैं, वह हुज़ैल बिन शुरहबील से वर्णन करते हैं, जो अबू ज़र -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं कि {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बैठे हुए थे और दो बकरियाँ आपस में एक-दूसरे को सींग मार रही थीं, कि एक ने दूसरी को सींग मारकर परास्त कर दिया। यह देख अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हँस पड़े। हँसने का कारण पूछा गया, तो फ़रमाया: "मुझे उस पर ताज्जुब हुआ। उस हस्ती की क़सम, जिसके हाथ में मेरी जान है, क़यामत के दिन उसके लिए बदला ज़रूर लिया जाएगा।} [40]

इस हदीस में लैस बिन अबू सुलैम नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि कमजोर वर्णनकर्ता है।

इसके कई 'शवाहिद' मोजूद हैं, जिन्हें आप 'मजमउज़ जवाइद' (10/352) में देख सकते हैं। उनमें से एक शाहिद को इमाम अहमद ने (2/235) मेंं इब्न अबी अदी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो शोबा से नक़ल करते हैं और वह अपने पिता से वर्णन करते हैं। इमाम अहमद (2/235 , 301) ने इसे जाफ़र बिन मुहम्मद के तरीक़ से भी रिवायत किया है, जो शोबा से वर्णन करते हैं, वह अला से नक़ल करते हैं, जो कि अपने पिता से रिवायत करते हैं।

अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {क़यामत के दिन हक़दारों को उनके हक़ दिलवाए जाएँगे, यहाँ तक कि बिना सींग वाली बकरी को सींग वाली बकरी से बदला दिलवाया जाएगा, जो उसे सींग मारा करती थी।} [41]

हैसमी ने (10/352) में कहा: इसे अहमद ने रिवायत किया है और इसके सारे वर्णनकर्ता सहीह के वर्णनकर्ता हैं।

 अल्लाह के सुनने और देखने का प्रमाण

5- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- का वर्णन है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह आयत पढ़ी: {अल्लाह तु्म्हें आदेश देता है कि धरोहर उनके स्वामियों को चुका दो, और जब लोगों के बीच निर्णय करो, तो न्याय के साथ निर्णय करो। अल्लाह तुम्हें अच्छी बात का निर्देश दे रहा है। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ सुनने देखने वाला है।} [42] [अन-निसा: 58] और अपने दोनों अंगूठों को दोनों कानों तथा उनसे मिली हुई उँगलियों को दोनों आँखों पर रखकर दिखाया।[43]

इसे अबू दाऊद, इब्ने हिब्बान और इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है।

5- इसे अबू दाऊद ने अपनी सुनन की किताब अस-सुन्नह (4/233) (हदीस संख्या: 4728) में, इब्न ख़ुज़ैमा ने 'अत-तौहीद' (1/97) (हदीस संख्या: 46) में, इब्न हिब्बान ने अपनी सहीह (1/498) (हदीस संख्या: 265) में, बैहक़ी ने 'अल-असमा वस-सिफ़ात' (पृष्ठ संख्या: 179) में तथा हाकिम ने मुसतदरक (1/24) में रिवायत किया है। इन सभी लोगों ने इसे अब्दुल्लाह बिन यज़ीद अल-मुक़री के माध्यम से रिवायत किया है, वह कहते हैं कि हमसे यह हदीस हरमला बिन इमरान ने बयान की है, वह अबू हुरैरा के मुक्त किए हुए दास अबू यूनुस से, जिनका नाम सुलैम बिन जुबैर है, रिवायत करते हैं, जो अबू हुरैरा से रिवायत करते हैं।

हाकिम कहते हैं: यह हदीस सहीह है। ज़हबी ने भी उनसे सहमति व्यक्त की है।

आयत के इस भाग को पढ़ते समय कि अल्लाह सुनने वाला और देखने वाला है, हमारे प्यारे नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का अपने दोनों कानों तथा आँखों पर उँगली रखना इस बात का प्रमाण है कि पवित्र एवं उच्च अल्लाह के अंदर, उसकी महानता तथा प्रताप के अनुरूप, सुनने और देखने का गुण पाया जाता है। इससे यह साबित हुआ कि अल्लाह के अंदर सुनने और देखने का गुण है, लेकिन वह हमारी तरह सुनता और देखता नहीं है। स्वयं उसी का फ़रमान है: {उस जैसी कोई चीज़ नहीं। वह ख़ूब सुनने वाला, देखने वाला है।} [44] [अश-शूरा: 11]

इब्ने अबिल इज़्ज़ 'शर्ह अल-अक़ीदह अत-तहावियह' (1/57) में लिखते हैं: "अह्ल-ए-सुन्नत इस बात पर एकमत हैं कि अल्लाह के समान कोई वस्तु नहीं है। न उसकी ज़ात में, न उसके गुणों और उसके कार्यों में। लेकिन 'समान' शब्द भी लोगों की बोलचाल में एक बहुअर्थी शब्द बन चुका है, जिसका उचित अर्थ वह है, जो क़ुरआन ने बताया है, और जो स्वच्छ विवेक से भी सिद्ध होता है कि अल्लाह की विशेषताओं से किसी सृष्टि को विशेषित नहीं किया जाएगा, और ना ही किसी सृष्टि को किसी विशेषता में उसके समान माना जाएगा।

{उसके जैसी कोई वस्तु नहीं।} [45] इसमें उपमा देने वालों तथा समानता सिद्ध करने वालों का खंडन है। {तथा वह सुनने देखने वाला है।} [46] [सूरा अश-शूरा: 11] इसमें अल्लाह के गुणों का इनकार करने वालों तथा उसे गुणविहीन घोषित करने वालों का खंडन है। यह याद रखना चाहिए कि जिसने सृष्टिकर्ता के गुणों को सृष्टि के गुणों के समान माना, वह समानतावादी है, जिसकी निंदा की गई है, और जिसने सृष्टि के गुणों को सृष्टिकर्ता के गुणों के समान माना, वह ईसाइयों की तरह काफ़िर है।"

अल्लामा शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ -रहिमहुल्लाह- फ़रमााते हैं:

"अल्लाह पर ईमान के अंदर, क़ुरआन में वर्णित तथा पैगंबर -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से साबित अल्लाह के अच्छे नामों तथा सर्वोच्च गुणों पर, उनके अर्थ के साथ कोई छेड़छाड़ किए बिना, उनकी कैफ़ियत बताए बिना तथा उपमा दिए बिना, और अल्लाह को उनसे खाली माने बिना, उनपर विश्वास रखना भी शामिल है। यहाँ यह याद रहे कि अल्लाह के नामों और गुणों को उसी तरह मानना ज़रूरी है, जैसे वह क़ुरआन तथा हदीस में आए हैं। साथ ही उनके अर्थ पर भी विश्वास रखना आवश्यक है। लेकिन, अल्लाह को उसकी महानता एवं प्रताप के अनुरूप ही इन गुणों से सुसज्जित मानेंगे, और उसकी किसी सृष्टि को इनमें से किसी भी गुण में उसके समान सिद्ध नहीं करेंगे। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {उस जैसी कोई चीज़ नहीं। वह ख़ूब सुनने वाला, देखने वाला है।} [47] एक और स्थान में उसका फ़रमान है: {और अल्लाह के लिए उदाहरण न दो। वास्तव में, अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।} [48]

यही अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथियों और भलाई के साथ उनका अनुसरण करने वाले अहले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है, तथा इसी अक़ीदे को इमाम अबुल हसन अशअरी -रहिमहुल्लाह- ने अपनी किताब "अल-मक़ालात" में असहाबुल हदीस और अहले सुन्नत से नक़ल किया है, तथा उनके अलावा अन्य लोगों ने इसलामी विद्वानों एवं मुसलमानों से नक़ल किया है।

औज़ाई -रहिमहुल्लाह- कहते हैं: ज़ोहरी और मकहूल से अल्लाह के गुणों वाली आयतों के बारे में पूछा गया, तो उन दोनों ने उत्तर दिया कि उनको अक्षरशः वैसे ही मान लो, जैसे वह आई हैं।

और वलीद बिन मुस्लिम -रहिमहुल्लाह- फ़रमाते हैं कि मालिक, औज़ाई, लैस बिन साद और सुफ़यान सौरी -रहिमहुमुल्लाह- से अल्लाह के गुणों के विषय में वर्णित हदीसों के बारे में पूछा गया, तो सभी लोगों ने उत्तर दिया: उनको बिना किसी कैफियत और विवरण के वैसे ही मानते जाओ, जिस तरह कि वह आई हुई हैं।

इसी तरह औज़ाई कहते हैं: हम उस समय, जब ताबेईन पर्याप्त संख्या में मौजूद थे, कहते थे कि अल्लाह अपने अर्श (सिंहासन) के ऊपर है तथा हम हदीस में वर्णित गुणों पर ईमान रखते हैं।

जब इमाम मालिक के गुरू रबीआ बिन अबू अब्दुर रहमान -अल्लाह दोनों पर दया करे- से इसतिवा यानी अल्लाह के अर्श (सिंहासन) के ऊपर होने के बारे में पूछा गया, तो फ़रमाया: "इसतिवा शब्द का अर्थ तो मालूम है, लेकिन उसका विवरण इनसानी अक़्ल से परे है। संदेश अल्लाह का होता है, रसूल का काम स्पष्ट रूप से पहुँचा देना है, और हमारा काम केवल मानना है।"

और जब इमाम मालिक -रहिमहुल्लाह- से इसके बारे में पूछा गया, तो उन्होंने फरमाया: "इसतिवा तो मालूम है, उसका विवरण मालूम नहीं है, उस पर ईमान रखना अनिवार्य है, और उसके बारे में पूछना बिदअत है।" फिर उन्होंने पूछने वाले से कहा: "मुझे तुम एक बुरे व्यक्ति मालूम होते हो।" फिर उन्होंने उसे बाहर निकाल देने का आदेश दिया और उसे बाहर निकाल दिया गया।

इसी तरह की बात मोमिनों की माता उम्मे सलमा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से भी रिवायत की गई है।

जबकि इमाम अबू अब्दुर रहमान अब्दुल्लाह बिन मुबारक कहते हैं: "हम अपने पवित्र रब के बारे में जानते हैं कि वह अपनी सृष्टियों से अलग, आकाशों के ऊपर, अपने अर्श के ऊपर है।"

इस संबंध में विभिन्न इमामों से बहुत-सी बातें नक़ल की गई हैं, जिनका उल्लेख यहाँ संभव नहीं है। जो व्यक्ति इससे अधिक जानकारी चाहता है, वह इस संबंध में उलमा-ए-सुन्नत के द्वारा लिखी गई पुस्तकों को देखे। जैसे अब्दुल्लाह बिन इमाम अहमद की किताब 'अस-सुन्नह', विख्यात इमाम मुहम्मद बिन खुज़ैमा की किताब 'अत-तौहीद', अबुल क़ासिम अल-लालकाई अत-तबरी की किताब 'अस-सुन्नह' तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया के द्वारा हमात शहर वालों को दिया गया उत्तर, जो बहुत महत्वपूर्ण तथा बहुत लाभदायक उत्तर है, जिसके अंदर शैखुल इस्लाम -रहिमहुल्लाह- ने अह्ले सुन्नते के अक़ीदे को स्पष्ट कर दिया है, और विभिन्न इमामों के बहुत सारे कथनों एवं शरई तथा अक़्ली दलीलों को नक़ल किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि अह्ले सुन्नत का अक़ीदा सत्य पर आधारित एवं उनके विरोधियों का अक़ीदा असत्य है। इसी तरह शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिया ने अपनी 'अत-तदमुरियह' नामी पुस्तिका में भी इस संबंध में विस्तारपूर्ण तरीक़े से बात की है, तथा अह्ले सुन्नत के अक़ीदे को क़ुरआन व हदीस एवं अक़्ली प्रमाणों के प्रकाश में स्पष्ट करने के साथ-साथ विरोधियों का ऐसा खंडन किया है कि ज्ञान रखने वालों एवं सही नीयत तथा सत्य को जानने की रुचि के साथ पढ़ने वालों के लिए स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। यहाँ यह याद रखने की आवश्यकता है कि अल्लाह के नामों तथा गुणों के मामले में अह्ले सुन्नत की धारणाओं का विरोध करने वाला हर व्यक्ति, क़ुरआन तथा हदीस के प्रमाणों के विऱोध का शिकार तो होगा ही, साथ में उसकी इस संबंध में की जाने वाली हर बात विरोधाभास से भरी हुई होगी।

रही बात अह्ले सुन्नत व जमाअत की, तो उन्होंने अल्लाह के लिए वही सिद्ध किया है, जो स्वयं अल्लाह अपने लिए अपने पवित्र ग्रंथ में या उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अपनी सहीह सुन्नत में सिद्ध किया है। वे इस संबंध में मिसाल प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि अल्लाह को अपनी सृष्टि के समान होने से पवित्र मानते हैं, और साथ ही उसे गुणविहीन भी नहीं मानते। इस तरह, वे विरोधाभास से सुरक्षित रहते हैं और सारे प्रमाणों पर अमल भी करते हैं।

यही पवित्र एवं महान अल्लाह का नियम रहा है कि वह अपने प्रमाण को स्थापित करके दिखाता है और ऐसे लोगों को सत्य का अनुसरण करने का सामर्थ्य प्रदान करता है, जो उसके रसूलों के लाए हुए संदेश को मज़बूती से थामे रहते हैं और अपने दिल में सत्य की सच्ची तलब रखते हैं। स्वयं उसी का फ़रमान है: {बल्कि हम सच को झूठ पर फेंक मारते हैं, तो सच, झूठ का सिर तोड़ देता है, और वह उसी समय नष्ट हो जाता है।} [49] एक अन्य स्थान में वह फ़रमाता है: {यह (काफ़िर) जब (क़ुरआन अथवा सत्य के विरुद्ध) कोई उदाहरण (आपत्ति) आपके पास लेकर आते हैं, तो हम उसका सच्चा उत्तर देते हैं तथा उसकी उचित व्याख्या कर देते हैं।} [50]

हाफ़िज़ इब्ने कसीर -अल्लाह उनपर दिया करे- ने अपनी प्रख्यात तफ़सीर में, सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह के फ़रमान {तुम्हारा पालनहार वही है, जिसने आकाशों तथा धरती को छः दिनों में पैदा किया, फिर अर्श (सिंहासन) पर स्थित हो गया।} [51] की व्याख्या करते हुए, इस विषय में, बड़ी अद्भुत बात कही है, जिसकी उपयोगिता को देखते हुए, उसे यहाँ नक़ल करना उचित मालूम होता है। वह कहते हैं: "इस संबंध में लोगों ने अलग-अलग बहुत सारी बातें कहीं हैं, जिनके विस्तार में जाने का यहाँ मौक़ा नहीं है। हम यहाँ सदाचारी पूर्वजों; मालिक, औज़ाई, सौरी, लैस बिन साद, शाफ़िई और इसहाक़ बिन राहवैह आदि हर युग के मुस्लिम इमामों के मार्ग पर चलते हुए, अल्लाह केवर्णित हर गुण को हूबहू मान लेंगे ना कैफ़ियत बयान करेंगे, न तशबीह देंगे और न इनकार करेंगे। ध्यना रहे कि यहाँ जो बात बज़ाहिर समझ में आती है और जो प्रथम दृष्टया समानतावादियों के ज़ेह्न में आती है, वह ग्रहणयोग्य नहीं है। क्योंकि अल्लाह की कोई सृष्टि उसके समान नहीं है, जैसा कि खुद क़ुरआन ने कहा है कि कोई वस्तु अल्लाह की जैसी नहीं है तथा वह सुनने वाला जानने वाला है। इस मामले में वही बात उचित है, जो कई इमामों ने कही है, जिनमें इमाम बुख़ारी के गुरू शैख़ नुऐम बिन हम्माद भी शामिल हैं कि: जिसने अल्लाह को उसकी सृष्टि के समान कहा उसने क़ुफ़्र किया, तथा जिसने किसी ऐसे गुण का इनकार किया, जिसके अपने अंदर मौजूद होने का उल्लेख खुद अल्लाह ने किया है उसने भी कुफ़्र किया। यह न भूलें कि जिन विशेषताओं से स्वयं अल्लाह ने अथवा उसके रसूल ने उसे विशेषित किया है, उनके अंदर तशबीह यानी समानता जैसी कोई बात नहीं है। अतः, जिसने अल्लाह के उन गुणों को, जो क़ुरआन की स्पष्ट आयतों तथा सहीह सहदीसों में आए हुए हैं, उसकी महिमा के अनुरूप साबित माना और अल्लाह को कमियों तथा दोषों से पवित्र जाना, वही अल्लाह के मार्ग पर चलने वाला है।"

 ग़ैब (परोक्ष) की चाबियाँ पाँच हैं, जिन्हें अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता

6- अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{ग़ैब की कुंजियाँ पाँच हैं, जिन्हें अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता: कल क्या होने वाला है अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, माँ के गर्भाशय में क्या कुछ पल रहा है अल्लाह के सिवा कोई नही जानता, बारिश कब होगी अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, कोई प्राणी यह नहीं जानता कि उसकी मृत्यु किस धरती में होने वाली है, तथा यह भी बरकत वाले तथा महान अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता कि क़यामत कब होने वाली है।} [52]

इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

6- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, कितबा अल-इसतिसक़ा (2/524) (हदीस संख्या: 4697) तथा किताब अत-तौहीद (13/361) (हदीस संख्या: 7379) में रिवायत किया है। मुझे यह हदीस सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से न मिल सकी। हाँ इमाम मुस्लिम ने (1/39) (हदीस संख्या: 9) में इसी तरह की हदीस अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत की है।

हदीस की व्याख्या:

यह उन काहिनों तथा जादूगरों का स्पष्ट रूप से खंडन करती है, जो ग़ैब की बात जानने का दावा करते हैं।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (8/514) में कहते हैं: शैख़ अबू मुहम्मद बिन अबू जमरा फ़रमाते हैं:

"अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने इस हदीस में चाबियों का ज़िक्र इसलिए किया, ताकि सुनने वाले को समझने में आसानी हो। क्योंकि हर वह वस्तु, जिसके और आपके बीच में पर्दा हायल हो, उसे दरअसल आपसे ग़ायब कर दिया गया है और आम तौर पर उसे जानने के लिए द्वार की आवश्यकता होती है। लेकिन जब द्वार भी बंद हो, तो चाबी की आवश्यकता है। ऐसे में जब उसी वस्तु का पता मालूम न हो, जो ग़ैब से अवगत होने के लिए ज़रूरी है, तो ग़ैब की जानकारी भला कैसे हो सकती है!" इब्ने हजर की बात संक्षेप में समाप्त हुई।

इसी तरह इब्ने कसीर सूरा लुक़मान की तफ़सीर (3/455) बयान करते हुए लिखते हैं:

"कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जिनका ज्ञान अल्लाह ने अपने पास रखा है और उनके बारे में न किसी निकटवर्ती फ़रिश्ते को बताया है, न किसी नबी तथा रसूल को।

अतः किसी इनसान को पता नहीं कि क़यामत कब होगी? किस वर्ष होगी, किस महीने में होगी और किस दिन तथा रात में होगी? किसी को मालूम नहीं है बारिश कब होगी? दिन में अथवा रात में? कोई नहीं जानता कि माँ के कोख में क्या कुछ पल रहा है? नर या मादा? लाल या काला? तथा वह क्या है? किसी इनसान को यह भी मालूम नहीं कि वह कब मरेगा? शायद कल ही उसकी मौत आ जाए या शायद कल ही वह किसी आपदा में पड़ जाए!"

मैं कहता हूँ: यदि कोई कहे कि आज तो कुछ ऐसे यंत्र आ चुके हैं, जो भ्रूण के बारे में स्पष्ट कर देते हैं कि वह पुरुष है या स्त्री? तो याद रखना चाहिए कि यह ग़ैब की बात जानने के दायरे में नहीं आता। क्योंकि यह जानकारी यंत्रों के माध्य से प्राप्त हुई है। यदि कोई कहे कि मैं माँ की कोख में क्या कुछ पल रहा है, जानता हूँ और उसके बाद उसका पेट चीर कर जानकारी प्राप्त करे, तो क्या हम कह सकते हैं कि वह ग़ैब की बात जानता है? एक बात और भी है। यह यंत्र सदा पूरे तौर पर सही जानकारी भी नहीं देते। कई बार ऐसा होता है कि कहा जाता है कि पेट में बेटा है, लेकिन बाद में पता चला कि बेटी थी।

 अल्लाह के लिए प्रसन्नता विशेषता को प्रमाणित करना

7- अनस बिन मालिक -रज़ियल्लाहु अनहु- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

"बंदा जब अल्लाह के सामने तौबा करता है, तो वह उसकी तौबा से, तुममें से उस व्यक्ति से कहीं अधिक प्रन्न होता है, जब वह किसी रेगिस्तान में अपनी सवारी पर यात्रा कर रहा हो, फिर उसकी सवारी छूटकर भाग जाए और उसके खाने-पीने का सारा सामान भी उसी के ऊपर हो। अतः, वह निराश होकर एक पेड़ के नीचे आए और उसकी छाया मे लेट जाए। उसे सवारी वापस मिलने की कोई आशा दिखाई न दे। वह इसी अवस्था में हो कि अचानक अपनी सवारी को अपने पास खड़ा देखे और उसकी लगाम पकड़कर अति उत्साहित होकर कह उठे: ऐ अल्लाह तू मेरा बंदा है और मैं तेरा रब हूँ! यानी वह अति उत्साह में भूल कर बैठे।" [53]

इसे इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।

7- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी (11/102) (हदीस संख्या: 6309) तथा इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम (4/2105) (हदीस संख्या: 2747) में रिवायत किया है।

यह हदीस पवित्र एवं महान अल्लाह के प्रसन्न होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है, हालाँकि हमारी यह आस्था है कि अल्लाह सृष्टियों के गुणों से पवित्र है।

शरीयत में तौबा नाम है, गुनाह को -जो एक बुरी चीज़ है- छोड़ देने, उसके करने पर शर्मिंदा होने, उसे दोबारा न करने का संकल्प लेने तथा यदि किसी का अधिकार मार रखा हो तो उसे लौटाने अथवा संबंधित व्यक्ति से माफ़ करा लेने का और पश्चाताप क्षमा मांगने का सर्वोच्च प्रकार है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/108) में लिखते हैं:

इस विषय में अयाज़ कहते हैं:

"जो बातें इनसान के मुँह से बेहोशी अथवा बेख़बरी की स्थिति में निकल जाएँ, उनके बारे में उसकी पकड़ नहीं होगी। इसी तरह यदि वह किसी की बात ज्ञान में वृद्धि के लिए अथवा शरई फ़ायदे के मद्देनज़र नक़ल करे और उसमें उपहास, नक़्क़ाली तथा निरर्थक काम करने जैसी बातें शामिल न हों, तो कोई हर्ज नहीं है।"

 अल्लाह के हाथ होने का प्रमाण

8- अबू मूसा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{महान अल्लाह रात में हाथ फैलाता है, ताकि दिन में गुनाह करने वाला तौबा कर लें और दिन में हाथ फैलाता है, ताकि रात में गुनाह करने वाला तौबा कर लें, यहाँ तक कि सूरज अपने डूबने के स्थान से निकल आए।} [54]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

8- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अत-तौबा (4/2113) (हदीस संख्या: 2759) में रिवायत किया है।

यह हदीस अल्लाह के हाथ होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। लेकिन अल्लाह का हाथ हमारे हाथ की तरह नहीं, बल्कि पवित्र एवं उच्च अल्लाह की महानता एवं प्रताप के अनुरूप है। इस मामले में न तशबीह दी जाएगी, न मिसाल प्रस्तुत किया जाएगा और न अल्लाह को उसके इस गुण से ख़ाली माना जाएगा।

इससे यह भी साबित होता है कि तौबा के ग्रहण होने के लिए कोई समय निर्धारित नहीं है। इस मामले में जो कुछ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित है, वह बस इतना है कि प्राण के हलक़ तक आने और सूरज के पश्चिम से निकलने तक तौबा का द्वार खुला रहेगा।

 अल्लाह के गुण रहमत का प्रमाण

9- बुख़ारी तथा मुस्लिम में उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वह कहते हैं: {नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास हवाज़िन के क़ैदी लाए गए। अचानक देखा गया कि क़ैदियों में से एक स्त्री दौड़ रही है। इतने में क़ैदियों में उसे अपना बच्चा मिल गया, तो उसे उठाकर अपने पेट से चिमटा लिया और दूध पिलाने लगी। यह देख अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: "क्या तुमको लगता है कि यह औरत अपने बच्चे को आग में डाल सकती है?" हमने कहा: नहीं, अल्लाह की क़सम! इस पर आपने फ़रमाया: "अल्लाह अपने बंदों पर उससे कहीं ज़्यादा मेहरबान है, जितना यह अपने बच्चे पर मेहरबान है।} [55]

9- इसे बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब अल-अदब (10/426) (हदीस संख्या: 5999) तथा मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अत-तौबह (4/2109) (हदीस संख्या: 2754) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/430) में लिखते हैं:

"पूरी हदीस को देखने से मालूम होता है उस स्त्री का बच्चा गुम हो गया था, और स्तन में दूध जमा हो जाने के कारण वह परेशान थी। अतः, उसे जब भी कोई बच्चा मिलता, कष्ट से बचने के लिए, दूध पिलाने लगती। ऐसे में जब उसे अपना बच्चा मिल गया, तो उसे पकड़ कर सीने से दबा लिया।..."

इस हदीस में इस बात का इशारा है कि आदमी को सभी परिस्थितियों में अल्लाह से संबंध जोड़े रखना चाहिए। यदि कोई यह समझता है कि अमुक व्यक्ति के अंदर दया है, इसलिए उसके पास जाना चाहिए, तो उसे जानना चाहिए कि अल्लाह उससे भी अधिक दयावान है, इसलिए हर अक़्लमंद व्यक्ति को अपनी ज़रूरत के लिए उसी के पास जाना चाहिए।

 अल्लाह की व्यापक दया का प्रमाण

10- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह ने जब मखलूक़ की सृष्टि की, तो एक किताब में, जो उसके पास अर्श पर है, लिख दिया: मेरी रहमत मेरे क्रोध पर हावी रहेगी।} [56]

इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

10- इस इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब बदउल ख़ल्क़ (6/287) (हदीस संख्या: 3194) तथा किताब अत-तौहीद (13/404) (हदीस संख्या: 7422) और इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अत-तौबह (4/2107) (हदीस संख्या: 2751) में रिवायत किया है।

अबू सुलैमान ख़त्ताबी कहते हैं:

इस हदीस में किताब से मुराद दो चीज़ों में से एक है: या तो मुराद वह निर्णय है, जो अल्लाह ने किया है और वाजिब किया है। जैसे कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: {अल्लाह ने लिख रखा है कि निश्चय मैं प्रभावशाली रहूँगा और मेरे रसूल।} [57] [सूरा अल-मुजादला: 21] यानी उसने निर्णय कर रखा है। ऐसे में आपके शब्द "जो उसके पास अर्श पर है" का अर्थ होगा: उसका ज्ञान अल्लाह के पास अर्श पर है, जिसे न वह भूलता है, न निरस्त करता है और न बदलता है। जैसा कि उसका फ़रमान है: {मूसा ने कहाः उसका ज्ञान मेरे पालनहार के पास एक लेख (पुस्तक) में सुरक्षित है। मेरा पालनहार न तो चूकता है और नभूलता है।} [58] [सूरा ताहा ; 52] या फिर मुराद लौह-ए-महफ़ूज़ है, जिसमें सारी सृष्टियों, उनसे संबंधित, बातों, जीवन-मरण, रोज़ी-रोटी,निर्णयों और उनके कामों के परिणामों का ज़िक्र है।

मैं कहता हूँ:

इस हदीस से अल्लाह के अर्श, एवं अल्लाह के आकाश से बुलंदी पर अर्श के ऊपर होने तथा अल्लाह की दया एवं क्रोध जैसे गुणों का भी सबूत मिलता है।

 अल्लाह का रहमत के सौ हिस्से बनाना

11- बुख़ारी एवं मुस्लिम ही में अबू हुरैरा - रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह तआला ने कृपा को एक सौ भागों में बाँटकर अपने पास निन्यानवे भाग रख लिए और धरती में एक भाग उतारा। उसी एक भाग के कारण सारी सृष्टियाँ एक-दूसरे पर दया करती हैं, यहाँ तक कि एक चौपाया इस डर से पाँव उठाए रहता है कि कहीं उसके बच्चे को चोट न लग जाए।} [59]

11- इसे बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब अल-अदब (10/431) (हदीस संख्या:6000) तथा मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अत-तौबह (4/2108) (हदीस संख्या: 2752) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर (10/431) में कहते हैं:

क़ुरतुबी कहते हैं: इस हदीस का आशय यह है कि अल्लाह के ज्ञान में था कि वह नेमतें, जो वह अपने बंदों को प्रदान करेगा, सौ प्रकार की हैं। अतः, उन्हें इस दुनिया में एक प्रकार की नेमत प्रदान की, जिससे उनके सारे हितों की रक्षा हो रही है और उन्हें सारी सुख-सुवधाएँ प्राप्त हो रही हैं। फिर जब क़यामत का दिन आएगा, तो अपने मोमिन बंदों को शेष सभी नेमतें प्रदान करेगा और उनकी संख्या सौ तक पहुँच जाएगी। मगर यह सारी नेमतें केवल मोमिनों को प्राप्त होंगी, जिसका इशारा अल्लाह ने अपने इस फ़रमान में किया है: {तथा ईमान वालों पर अत्यंत दयावान है।} [60] [सूरा अल-अहज़ाब: 43] क्योंकि 'رحيم' मुबालग़ा का सेगा है, जिससे ऊपर कुछ नहीं होता। इससे यह समझ में आता है कि काफ़िरों के लिए रहमत के विशाल ख़ज़ाने का कुछ भी हिस्सा नहीं है। न सांसारिक रहमत में से, न उसके बाद की रहमत में से। क्योंकि अल्लाह के ज्ञान के अनुसार रहमत का जो ख़ज़ाना है, वह मोमिनों के लिए संचयित हो चुका है। इसी बात की और अल्लाह तआला के इस कथन में इशारा किया गया है: {उसे मैं उन लोगों के लिए लिख दूँगा, जो अवज्ञा से बचेंगे।} [61] [अल-आराफ़: 156]

12- सहीह मुस्लिम में इसी मायने की एक हदीस सलमान -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, जिसमें है:

{हर रहमत आकाश तथा धरती के बीच के खाली स्थान के बराबर विशाल है।} [62] उसमें आगे है: {जब क़यामत का दिन आएगा, तो उसे इस रहमत के ज़रिया पूरा कर देगा।} [63]

12- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम (4/2109) (हदीस संख्या: 2753) में रिवायत किया है।

 काफ़िरों के अच्छे कर्मों का बदला दुनिया ही में दे दिया जाना

13- अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{काफ़िर जब कोई अच्छा काम करता है, तो उसे दुनिया में ही उसका फल दे दिया जाता है। लेकिन जहाँ तक मोमिन की बात है, तो उसकी नेकियों को अल्लाह उसकी आख़िरत के लिए जमा रखता है और उसके आज्ञापालन के कारण उसे दुनिया में में रोज़ी प्रदान करता है।} [64]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

13- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब सिफ़त अल-मुनाफ़िक़ीन (4/2162) (हदीस संख्या: 2808) में सुलैमान अत-तैमी के माध्यम से रिवारिवायत किया है, जिन्होंने क़तादा से और उन्होंने अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- रिवायत किया है।

ईमाम नववी 'शर्ह सहीह मुस्लिम' (17/150) में लिखते हैं:

उलेमा इस बात पर एकमत हैं कि जिस काफ़िर की मृत्यु कुफ़्र ही की अवस्था में हो गई, उसे आख़िरत में कोई सवाब नहीं मिलेगा, और इसी तरह दुनिया में किए हुए किसी ऐसे कार्य का प्रतिफल भी नहीं मिलेगा, जो अल्लाह की निकटता प्राप्त करने के लिए किया गया हो।

इस हदीस में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि काफ़िर को, उसके उन कर्मों के बदले में दुनिया में खिला-पिला दिया जाता है, जो उसने अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए किए हों। जैसे निकटवर्तियों पर उपकार करना, सच्ची बात बोलना, दास मुक्त करना, अतिथि का आदर करना तथा अच्छे कामों में सहयोग करना आदि। रही बात मोमिन की, तो उसके नेक कामों के प्रतिफल को आख़िरत के लिए सुरक्षित तो रखा जाता ही है, साथ में दुनिया में भी बदला दिया जाता है। यहाँ याद रहे कि दुनिया तथा आख़िरत दोनों स्थानों में बदला दिए जाने में कोई रुकावट भी नहीं है। विशेष रूप से जब शरीयत ने कह दिया है, तो उस पर विश्वास रखना ज़रूरी है।

हाँ, यदि काफ़िर इस तरह की नेकियाँ करे और फिर मुसलमान हो जाए, तो उलेमा के सही मत के मुताबिक़ उसे उन नेकियों का बदला मिलेगा।

 अल्लाह के खुश होने के गुण का प्रमाण

14- सहीह मुस्लिम ही में अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है:

{निश्चय अल्लाह बंदे की इस बात से ख़ुश होता है कि बंदा कुछ खाए तो उस पर अल्लाह की प्रशंसा करे, और कुछ पिए तो उसपर अल्लाह की प्रशंसा करे।} [65]

14- इसे इमाम मुस्लिम ने इपनी सहीह के, किताब अज़-ज़िक्र वद-दुआ (4/2095) (हदीस संख्या: 2734) में रिवायत किया है।

इस हदीस में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अपने पवित्र पालनहार के राज़ी होने के गुण को सिद्ध किया है। अह्ले सुन्नत व जमाअत, अल्लाह के इस गुण को, बिना विवरण दिए तथा उदाहरण प्रस्तुत किए, सिद्ध मानते हैं। जैसा कि स्वयं उसी का फ़रमान है: {उस जैसी कोई चीज़ नहीं। वह ख़ूब सुनने वाला, देखने वाला है।} [66] [अश-शूराः 11] अतः, हम भी अल्लाह के ख़ुश होने के गुण को मानते हैं, लेकिन उसका ख़ुश होना भी उसकी महिमा तथा प्रताप के अनुरूप ही होगा।

देखिए इमाम इब्न तैमिया की 'मजमूअ अल-फ़तावा' (5/26)

 पवित्र एवं महान अल्लाह की महानता

15- अबूज़र -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{आकाश चरचराता उठा और उसका चरचराना उचित भी है। उसमें चार उंगली के बराबर भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ कोई फ़रिश्ता पेशानी रखकर अल्लाह तआला को सजदा न कर रहा हो। अल्लाह की क़सम, अगर तुम वह कुछ जान लो, जो मैं जानता हूँ, तो तुम हँसो कम और रोओ अधिक तथा बिसतरों पर स्त्रियों के साथ आनंद न ले सको एवं अल्लाह से फ़रियाद करते हुए रास्तों की ओर निकल जाओ।} [67]

इस हदीस को इमाम तिरमिज़ी रिवायत किया है और कहा है कि यह हदीस हसन है|

इस हदीस का यह भाग: {अगर तुम वह कुछ जान लो, जो मैं जानता हूँ, तो तुम हँसो कम और रोओ अधिक।} [68] सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम [69] में अनस -रिज़यल्लाहु अनहु- से वर्णित हदीस के रूप में मौजूद है।

15- इसे तिरमिज़ी ने किताब अज़-ज़ुह्द (4/481) (हदीस संख्या: 2312), इब्ने माजा ने किताब अज़-ज़ुह्द (2/1402) (हदीस संख्या ; 4190), इमाम अहमद ने मुसनद (5/173), तहावी ने 'मुश्किल अल-आसार' (2/44), अबुश-शैख़ असबहानी ने अपनी किताब 'अज़मह' (4/982) (हदीस संख्या: 507), हाकिम ने 'अल-मुसतदरक' (2/510), अबू नुऐम ने 'दलाइल अल-नुबुव्वह' (पृष्ठ संख्या: 379) और बैहक़ी ने 'शुअब अल-ईमान' (1/484) (हदीस संख्या: 783 , 784) में रिवायत किया है। इन सभी लोगों ने इसे इसमाईल के माध्यम से रिवायत किया है, वह इबराहीम बिन मुहाजिर से वर्णन करते हैं, वह मुजाहिद से नक़ल करते हैं, वह मुवर्रिक़ से रिवायत करते हैं और वह अबूज़र -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं।

इनमें से कुछ लोगों के यहाँ कुछ इज़ाफ़ा भी है।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन ग़रीब है।

और इमाम हाकिम कहते हैं कि इसकी सनद सहीह है।

बौसीरी कहते हैं: मैं कहता हूँ: इसकी सनद में इबराहीम बिन मुहाजिर नामी एक वर्णनकर्ता है, जो 'सदूक़' तथा कमज़ोर याददाश्त वाला है।

फिर, उसकी मुताबअत भी हुई है। क्योंकि अबू नुऐम ने उसे 'अल-हिलयह' (6/269) में ज़ायदा बिन अबू रिक़ाद के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे यह हदीस ज़ियाद अन-नुमेरी ने बयान की है, जो अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से संक्षिप्त रूप से वर्णन करते हैं।

लेकिन इस हदीस का रावी 'ज़ायदा' मुनकरुलहदीस है, और 'ज़ियाद अन-नुमैरी' कमज़ोर वर्णनकर्ता है।

'أطَّت السماء': वैसे 'الأطيط' शब्द का अर्थ है, कजावे की आवाज़। जबकि 'أطيط الإبل' का अर्थ है, ऊँट का बिलबिलाना। इस हदीस का अर्थ यह है कि आकाश में फ़रिश्तों की भारी संख्या उपस्थित होने के कारण वह बोझल हो गया और चरचराने लगा।

'لخرجتم': यानी तुम घरों से निकल पड़ते।

'الصعدات': यानी रास्ते। जबकि कुछ लोगों के अनुसार इसका अर्थ है, घर के दरवाज़े का सहन और उसके सामने लोगों के गुज़रने का स्थान। जबकि कुछ यह भी कहते हैं कि 'الصعدات' से मुराद सहरा तथा ख़ाली मैदान हैं।

'تجأرون إلى اللَّه': यानी तुम अल्लाह से गिडगिड़ाकर दुआ करते कि तुम्हारी मुसीबत दूर कर दे।

'لو تعلمون ما أعلم': यानी अगर तुम जान लो कि क़यामत के दिन अवज्ञकारियों को क्या कुछ दंड मिलने वाला है किस क़दर सख़्त हिसाब-किताब के दौर से गुज़रना है, तो अल्लाह का भय आशा पर भारी पड़ जाए और तुम बुरे अंत के डर से हँसना कम कर दो और बहुत ज़्यादा रोने लगो।

 अल्लाह पर क़सम खाने का हराम होना

16- और सहीह मुस्लिम में जुनदुब -रज़ियल्लाहु अनहु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{एक व्यक्ति ने कहा: अल्लाह की क़सम, अल्लाह अमुक व्यक्ति को क्षमा नहीं करेगा। इस पर सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने कहा: वह कौन होता है इस बात की क़सम खाने वाला कि मैं अमुक को क्षमा नहीं करूँगा। जाओ मैंने उसे क्षमा कर दिया और तेरे कर्मों को नष्ट कर दिया।} [70]

16- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लि, किताब अल-बिर्र वस-सिलह (4/2023) (हदीस संख्या: 2621) में रिवायत किया है।

इस हदीस में प्रयुक्त शब्द 'يتألى' का अर्थ है, क़सम खाना तथा 'الألية' का अर्थ है, क़सम।

ईमाम नववी 'शर्ह सहीह मुस्लिम' (16/174) में लिखते हैं:

"इस हदीस से अह्ले सुन्नत व जमाअत की इस धारणा की पुष्टि होती है कि यदि अल्लाह चाहे, तो बंदों के गुनाहों को, तौबा के बिना भी माफ़ कर सकता है। जबकि मोतज़िला ने इससे यह प्रमाण लिया है कि कबीरा गुनाहों से सारे इनसान के सारे कर्म नष्ट हो जाएँगे। हालाँकि अह्ले सुन्नत का कहना है कि इनसान के कर्म कुफ़्र के बिना नष्ट नहीं होते। और वे इस हदीस में उल्लेख व्यक्ति के कर्म नष्ट होने का कारण यह बताते हैं कि उसकी नेकियाँ उसके गुनाहों की तुलना में व्यर्थ हो गई। लेकिन यहाँ नष्ट करने की बात मजाज़ी तौर पर कही गई है। जबकि यह भी हो सकता है कि उससे कोई दूसरा ऐसा कार्य भी हुआ होगा, जो कुफ़्र का कारण रहा होगा। इसी तरह एक संभावना यह भी है कि यह हमसे पहले किसी शरीयत की बात रही हो और उस समय वही आदेश रहा हो।"

 मोमिन अल्लाह से आशा भी रखता है और उसका भय भी

17-सहीह बुख़ारी में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{अगर मोमिन जान ले कि अल्लाह के पास गुनाहों की कैसी-कैसी सज़ा है, तो कोई उसकी जन्नत की लालच न करे, और अगर काफ़िर जान ले कि अल्लाह के पास कितनी दया है, तो कोई उसकी जन्नत से निराश न हो।} [71]

17- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अत-तौबह (4/2109) (हदीस संख्या: 2755) में रिवायत किया है।

इसे इमाम बुख़ारी ने भी किताब अर-रिक़ाक़ (11/301), (हदीस संख्या: 6469) में सईद बिन अबू सईद अल-मक़बुरी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से नक़ल करते हैं। इसमें कुछ इज़ाफ़ा भी है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/303) में लिखते हैं:

"कुछ लोगों के अनुसार इस हदीस का अर्थ यह है कि यदि काफ़िर जान ले कि अल्लाह की दया का भंडार कितना विशाल है, तो अल्लाह की यातना की भयावहता का ज्ञान ढक जाए, और उम्मीद की किरण जाग उठे। जबकि इस हदीस का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि इनसान का अल्लाह की दया से संबद्ध रहना और उसकी यातना की परवाह न करना, उसके अंदर अल्लाह की रहमत की आशा जगा देता है। अतः, जो जान ले कि अल्लाह का एक गुण यह है कि वह जिस पर चाहे दया करे और जिससे चाहे बदला ले, तो उसकी दया की उम्मीद रखने वाला उसके प्रतिकार से निश्चिंत न हो और उसके प्रतिकार का भय रखने वाला उसकी दया से मायूस न हो। यही बात छोटे-से-छोटे गुनाह से दूर रहने और मामूली-से-मामूली नेकी के काम को भी लाज़िम जानने का सबब बनती है। कुछ लोग कहते हैं कि इस हदीस के दूसरे वाक्य में एक तरह का एतराज़ है। क्योंकि जन्नत को काफ़िर के लिए बनाया ही नहीं गया है और वह उसका लालच भी नहीं रखता। ऐसे में भला वह जन्नत की आशा क्यों करेगा?

उसका उत्तर यह दिया जाएगा कि इस शब्द का प्रयोग मोमिन को अल्लाह की दया की ओर प्रेरित करने के लिए किया गया है, जो इतनी व्यापक है कि यदि काफ़िर भी उसकी व्यापकता को जान ले, जिसके बारे में लिख दिया गया है कि उसका अंत इस हाल में होना है कि उसे रहमत का किंचित परिमाण भी नहीं मिलेगा, तो वह भी, या तो सशर्त ईमान के साथ या फिर इस शर्त से नज़र बचाते हुए अपनेे असत्य पर होने के यक़ीन और शत्रुता के आधार पर उसी पर जमे रहने के बावजूद, उसकी आशा करने लगे। फिर जब काफ़िर का यह हाल है, तो भला मोमिन उसकी लालच क्यों ने करे, जिसे अल्लाह ने ईमान की दौलत अता की है?"

 जन्नत तथा जहन्नम का इनसान के निकट होना

18- सहीह बुख़ारी में अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जन्नत, तुममें से किसी व्यक्ति से उसके जूते के फीते से भी अधिक निकट है तथा नर्क का भी यही हाल है।} [72]

18- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब अर-रिक़ाक़ (11/321) (हदीस संख्या: 6488) में रिवायत किया है।

इस हदीस में प्रयुक्त शब्द 'الشِراك' का अर्थ है, वह चमड़े का टुकड़ा, जिसके अंदर पैर की उंगली दाख़िल की जाती है। जबकि बाद में इसका प्रयोग पाँव के बचाव के प्रयुक्त हर तसमा (फीता) के लिए होने लगा।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/321) में लिखते हैं:

इब्ने बत्ताल कहते हैं: इस हदीस से मालूम होता है कि आज्ञापलन बंदे को जन्नत की ओर ले जाता है, और अवज्ञा जहन्नम की ओर ले जाती है। साथ ही यह कि आज्ञापालन और अवज्ञा दोनों मामूली चीज़ें भी हो सकती है। एक अन्य हदीस में है: {बंदा अल्लाह तआला को प्रसन्न करने वाली कोई बात करता है, और उसे कोई महत्व नहीं देता, परन्तु उसके कारण अल्लाह उसकी श्रेणियों को बढ़ा देता है। इसी तरह, बंदा अल्लाह तआला को नाराज़ करने वाली कोई बात करता है, और उसे कोई महत्व नहीं देता, परन्तु उसके कारण जहन्नम में गिर जाता है।} [73] [74]

वह आगे कहते हैं:

अतः, आदमी को चाहिए कि किसी छोटे-से-छोटे नेक काम को व्यर्थ जानकर न छोड़े और किसी छोटे-से-छोटे बुरे कार्य को मामूली जानकर न करे। क्योंकि उसे पता नहीं कि जाने किस नेकी की बुनियाद पर अल्लाह उसे माफ़ कर दे, और किस गुनाह की बुनियाद पर अल्लाह उससे नाराज़ हो जाए।

इब्न अल-जौज़ी कहते हैं:

इस हदीस का अर्थ यह है कि इरादे को सही रखकर तथा आज्ञापालन के माध्य से जन्नत प्राप्त करना आसान है, और इसी तरह आकांक्षा के अनुसरण तथा गुनाह मे संलिप्तता के माध्यम से जहन्नम में जाना भी आसान है।

 अल्लाह का उस पर दया करना, जिसके दिल में दया हो

19- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{बड़ी गर्मी का दिन था कि एक व्यभिचारिणी ने एक कुत्ते को कुएँ के चारों ओर चक्कर लगाते देखा, जिसने प्यास के कारण ज़ुबान निकाल रखी थी। अतः, उसने अपना चमड़े का मोज़ा निकाला और उसे पानी पिलाया, तो उसके इस कार्य के कारण उसे क्षमा कर दिया गया।} [75]

19- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अहादीसुल अंबिया (6/511) (हदीस संख्या: 3467) तथा मुस्लिम ने किताब अस-सलाम (4/1761) (हदीस संख्या: 2245) में रिवायत किया है।, और यहां हदीस के शब्द सहीह मुस्लिम से लिए गए हैं।

इस हदीस में आए हुए शब्द 'المواق' का अर्थ है, चमड़े का मोज़ा।

इस हदीस में लोगों पर उपकार करने की प्रेरणा दी गई है। क्योंकि जब कुत्ते को पानी पिलाने के कारण क्षमा कर दिया गया, तो मुसलमान को पानी पिलाना तो उससे अधिक सवाब का काम है।

इस हदीस से यह प्रमाण लिया गया है कि मुश्रिकों को नफ़ली सदक़ा करना जायज़ है। लेकिन उनको सदक़ा उस समय करना चाहिए, जब कोई मुसलमान न मिले। क्योंकि उसका हक़ अधिक बनता है। इसी तरह जब आदमी और जानवर में से किसी एक को तरजीह देने की बात हो और दोनों की ज़रूरत बराबर हो, तो इनसान को तरजीह दी जाएगी।

 बिल्ली को क़त्ल करने का हराम होना

20- आपने फ़रमाया: {एक स्त्री को एक बिल्ली के कारण, जिसे उसने रोक रखा था, जहन्नम जाना पड़ा। न तो उसने उसे कुछ खाने को दिया और न ही छोड़ा कि वह धरती के कीड़ों-मकोड़ों को खा लेती।} [76]

जुहरी कहते हैं: ताकि कोई भरोसा करके न बैठ जाए और कोई निराश न हो। [77]

इसे बुख़ार एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

20- इमाम बुख़ारी ने इसे किताब अल-ख़ल्क़ (6/356) (हदीस संख्या: 3318) तथा इमाम मुस्लिम ने किताब अस-सलाम (4/1760) (हदीस संख्या: 2242) में रिवायत किया है।

इस हदीस में आए हुए शब्द 'خَشاش الأرض' को 'ख़ा' के पेश' और 'ज़ेर' दोनों के साथ पढ़ा जा सकता है, और इसका अर्थ है, धरती के कीड़े-मकोड़े जैसे चूहे आदि।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (6/357) में कहते हैं: "इस हदीस से प्रथम दृष्टया यही मालूम होता है कि उस स्त्री को,बिल्ली को बंद करके मारने के कारण यातना दी गई ।

अयाज़ कहते हैं: यहाँ इस बात की संभावना है कि वह स्त्री काफ़िर थी, इसलिए उसे स्वभाविक रूप से आग की यातना दी गई, या फिर हिसाब-किताब के माध्यम से। "क्योंकि जिससे सख्ती से हिसाब लिया जाएगा, उसे यातना होनी ही है।" [78] साथ ही इस बात की भी संभावना है कि वह स्त्री काफ़िर रही हो, और उसे अज़ाब भी कुफ़्र के कारण हुआ हो, लेकिन इस पाप के कारण उसकी यातना में वृद्धि कर दी गई हो।"

ज़ोहरी के कथन का अर्थ यह है कि जब उन्होंने पहली हदीस बयान की, तो डर महसूस हुआ कि सुनने वाला उसमें बयान की गई अल्लाह की व्यापक रहमत और विशाल आशा पर भरोसा न कर बैठे, इसलिए उसके साथ बिल्ली की हदीस भी जोड़ दी, जिसमें भय दिलाया गया है, ताकि भय और आशा दोनों एकत्र हो जाएँ।

 अल्लाह के आश्चर्य करने के गुण का प्रमाण

21- अबू हुरैरा-रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{हमारे रब को ऐसे लोगों पर आश्चर्य हुआ, जिन्हें बेड़ियों में जकड़कर जन्नत की ओर ले जाया जाता है।} [79] [80] इस हदीस को अहमद और बुख़ारी ने रिवायत किया है।

21- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी किताब अल-जिहाद (6/145) (हदीस संख्या: 3010) तथा अहमद ने मुसनद (2/457) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (6/145) में लिखते हैं:

इब्न अल-जौज़ी कहते हैं: इस हदीस का अर्थ यह है कि उन्हें पकड़ कर क़ैद कर लिया गया। फिर जब वे इस बात से आश्वस्त हो गए कि इस्लाम ही सत्य धर्म है, तो राज़ी-खुशी मुसलमान हो गए, और इस तरह जन्नत में प्रवेश कर गए। गोया बज़ोर-ज़बरदस्ती पकड़ कर क़ैद करना ही प्रथम कारण हुआ। अत: इसी ज़बरदस्ती क़ैद करने को बेड़ी से जकड़ने के रूप में परिभाषित किया गया है। फिर चूँकि वही जन्नत में प्रवेश का कारण था, इसलिए कारण के स्थान पर कारण-फल का प्रयोग कर दिया गया।

 अल्लाह का उन लोगों के बारे में धैर्य, जो उसके बेटा होने की बात कहते हैं

22- अबू मूसा अशअरी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {कोई भी व्यक्ति, कष्टदायक बात सुनकर अल्लाह से अधिक धैर्य नहीं रख सकता। लोग उसके बेटा होने का दावा करते हैं, और इसके बावजूद वह उन्हें स्वस्थ एवं सलामत रखता है, और रोज़ी देता है।} [81]

इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

22- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अल-अदब (10/511) तथा किताब अत-तौहीद (13/360) (हदीस संख्या: 7378) एवं इमाम मुस्लिम ने किताब अत-तौबह (4/2160) (हदीस संख्या: 2804) में रिवायत किया है।

इस हदीस में अल्लाह के धैर्य का प्रमाण है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी 'फ़तहुल बारी' (13/361) में लिखते हैं:

"इस हदीस में आया हुए शब्द 'أصبر' 'इस्म-ए-तफ़ज़ील' के वज़न पर है और 'الصبر' से लिया गया है। तथा अल्लाह का एक नाम 'الصبور' अस्सबूर है, जिसका अर्थ है, वह ज़ात जो अवज्ञाकारियों को दंड देने में जल्दी नहीं करती।

इस हदीस में इस बात की ओर इशारा है कि अल्लाह बंदों के दुराचार के बावजूद उन पर उपकार की शक्ति रखता है। जबकि यह बात मानव प्रवृत्ति में नहीं पाई जाती। वह कुव्यवहार करने वाले के साथ अच्छे व्यवहार की शक्ति रखता है, तो बस इस कारण कि शरीयत ने उसे उसका पाबंद बनाया है। इसके विपरीत पवित्र एवं महान अल्लाह हमेशा उसका सामर्थ्य रखता है। न कोई चीज़ उसे विवश कर सकती है और न उसकी पहुँच से बाहर जा सकती है।" इब्ने हजर की बात थोड़े से परिवर्तन के साथ समाप्त हुई।

 अल्लाह के प्रेम करने के गुण का प्रमाण

23- सहीह बुख़ारी ही में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल- सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जब बरकत वाला एवं महान अल्लाह किसी बंदे से मोहब्बत करता है, तो जिब्रील को पुकारकर कहता है कि अल्लाह अमुक बंदे से मोहब्बत करता है, तो तुम भी उससे मोहब्बत करो। सो जिब्रील उससे मोहब्बत करने लगते हैं। फिर जिब्रील आकाश में आवाज़ लगाते हैं कि अल्लाह अमुक बंदे से मोहब्बत करता है, तो तुम लोग भी उससे मोहब्बत करो। चुनांचे, आकाश वाले भी उससे मोहब्बत करने लगते हैं। फिर धरती में उसके लिए लोकप्रियता रख दी जाती है।} [82]

23- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी किताब अत-तौहीद (13/461) (हदीस संख्या: 7485) में रिवायत किया है।

इस हदीस के अंदर पवित्र एवं महान अल्लाह के लिए प्रेम करने और बात करने दो गुणों को सिद्ध किया गया है। इस हदीस में 'लोकप्रियता' से अभिप्राय दिलों के अंदर प्रेम, चाहत तथा रज़ामंदी डालकर लोकप्रियता प्रदान करना है।

इस हदीस से यह भी मालूम होता है कि लोगों के दिलों में मौजूद प्रेम अल्लाह के प्रेम की निशानी है तथा इसकि पुष्टि इस हदीस से भी होती है: "तुम धरा पर अल्लाह के गवाह हो।" [83]

 इस बात का प्रमाण कि क़यामत के दिन ईमान वालों को अल्लाह को देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा

24- जरीर बिन अब्दुल्लाह बजली -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि हम लोग अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास बैठे हुए थे कि आपने चौदहवीं रात के चाँद पर नज़र डाली और फ़रमाया:

{तुम अपने पालनहार को इसी तरह देख सकोगे, जैसे इस चाँद को देख रहे हो। तुम्हें उसे देखने में कोई कठिनाई नहीं होगी। अतः, यदि हो सके कि सूर्योदय और सूर्यास्त से पहले नमाज़ पर किसी चीज़ को हावी न होने दो, तो ऐसा ज़रूर करो।} [84] फिर यह आयत पढ़ी: {तथा अपने पालनहार की पवित्रता का वर्णन उसकी प्रशंसा के साथ करते रहें सूर्योदय से पहले तथा सूर्यास्त से पहले।} [85] [सूरा ताहा: 130]

इसे मुहद्दिसों के एक समूह ने रिवायत किया है।

24- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब मवाक़ीत अस-सलात (2/23) (हदीस संख्या: 554) तथा किताब अत-तफ़सीर (8/597) (हदीस संख्या: 4851) एवं किताब अत-तौहीद (13/419) (हदीस संख्या: 7434-7435) और इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-मसाजिद (1/439) (हदीस संख्या: 632) में रिवायत किया है।

यह हदीस यह साबित करती है कि क़यामत के दिन ईमान वालों को अल्लाह के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा, और यह जन्नतियों को प्रदान की जाने वाली सबसे बड़ी नेमत होगी। क्योंकि इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम (1/163) (हदीस संख्या: 181) में तथा अन्य ने भी, सुहैब -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है कि अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {जब जन्नती जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे, तो अल्लाह तआला कहेगा: क्या मैं तुम्हें और भी कोई चीज़ दूँ? वे कहेंगे: क्या तूने हमारे चेहरे रौशन नहीं कर दिए? क्या तूने हमें जन्नत में दाख़िल नहीं किया और जहन्नम से नहीं बचाया? तब अल्लाह तआला पर्दा हटा देगा, तो उन्हें ऐसा लगेगा कि उन्हें अपने सर्वशक्तिमान एवं महान रब के दर्शन से अधिक प्रिय कोई वस्तु दी ही नहीं गई है।} [86]

 अल्लाह का, अपने किसी वली से शत्रुता रखने वाले से इंतक़ाम

25- अबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अललाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने फ़रमाया: जिसने मेरे किसी वली से दुश्मनी की, उससे मैं युद्ध का एलान करता हूँ। मेरा बन्दा जिन-जिन इबादतों से मेरी निकटता हासिल करता है, उनमें कोई इबादत मुझे उस इबादत से ज़्यादा पसन्द नहीं, जो मैंने उस पर फर्ज़ की है। जबकि मेरा बन्दा नफ़ल इबादतों की अदायगी से मेरे इतने क़रीब हो जाता है कि मैं उससे मुहब्बत करने लगता हूँ। फिर जब मैं उससे मुहब्बत करता हूँ, तो मैं उसका कान बन जाता हूँ, जिससे वह सुनता है; उसकी आँख बन जाता हूँ, जिससे वह देखता है; उसका हाथ बन जाता हूँ, जिससे वह पकड़ता है और उसका पांव बन जाता हूँ, जिससे वह चलता है। अब अगर वह मुझसे माँगता है, तो मैं उसे देता हूँ; वह अगर पनाह माँगता है, तो उसे पनाह देता हूँ, और मुझे किसी काम में, जिसे करना चाहता हूँ, इतना संकोच नहीं होता, जितना अपने मुसलमान बन्दे की जान निकालने में होता है, इस अवस्था में कि वह मौत को बुरा समझता हो, और मुझे भी उसे कष्ट देना नागवार गुजरता है। हालाँकि मौत तो देनी है।}[87]

इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

25- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब अर-रिक़ाक़ (11/340) (हदीस संख्या: 6502) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/342) में लिखते हैं:

"अल्लाह के वली से मुराद, अल्लाह को जानने वाला, पाबंदी से उसका अनुसरण करने वाला और ख़ालिस दिल से केवल उसी की इबादत करने वाला।

इस हदीस में प्रयुक्त शब्द 'آذنته' का अर्थ है: मैं उसे सूचित करता हूँ।

फ़ाकिहानी कहते हैं: इस हदीस में बड़ी धमकी दी गई है कि जो अल्लाह से युद्ध करेगा, अल्लाह उसका विनाश कर देगा। जब दुश्मनी का यह हाल है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि दोस्ती का भी यही हाल होगा। जो अल्लाह के औलिया से दोस्ती रखेगा, अल्लाह उसे मान-सम्मान प्रदान करेगा।

इस हदीस से यह भी मालूम होता है कि फ़र्ज़ की अदायगी अल्लाह के निकट सबसे प्रिय कार्य है। तूफ़ी कहते हैं: फ़र्ज़ का आदेश अनिवार्यकारी होता है, और उसके उल्लंघन पर दंड भी झेलना पड़ेगा। जबकि नफ़ल का आदेश न तो अनिवार्यकारी होता है और न उसके उल्लंघन पर कोई दंड मिलना है। फिर, फ़र्ज़ तथा नफ़ल दोनों इबादतों में एक समानता है कि दोनों में सवाब मिलता है। लेकिन चूँकि फ़र्ज़ इबादतों का महत्व अधिक है, इसलिए वह अल्लाह को अधिक प्रिय हैं और वह अल्लाह से निकटता प्रदान करने का काम अधिक करती हैं। साथ ही फ़र्ज़ इबादतें जड़ तथा बुनियाद की हैसियत रखती हैं, और नफ़ल इबादतें शाखा और निर्माण की। इसी तरह चूँकि बताए हुए तरीक़े पर फ़र्ज़ इबादतों की अदायगी आदेशकर्ता के आदेश का सम्मान है, इसलिए इनके माध्यम से निकटता प्राप्त करने को सबसे महत्वपूर्ण अमल कहा गया है। रही बात नफ़ल इबादतों के महत्व की, तो याद रखना चाहिए कि फ़र्ज़ अदा करने वाला कभी-कभी सज़ा के भय से भी काम करता है, लेकिन नफ़ल अदा करने वाला केवल सेवाभाव से काम करता है। इसलिए उसे बदले के रूप में प्रेम का उपहार दिया जाएगा, जो सेवाभाव से काम करने वाले का सबसे बड़ा लक्ष्य होता है।"

हाफ़िज़ इब्ने हजर कहते हैं: "इब्ने हुबैरा कहते हैं: अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के फ़रमान: "मेरा बन्दा जिन-जिन इबादतों से मेरी निकटता हासिल करता है, उनमें कोई इबादत मुझे उस इबादत से ज़्यादा पसन्द नहीं, जो मैंने उस पर फर्ज़ की है।" से मालूम होता है कि नफ़ल को फ़र्ज़ से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। क्योंकि नफ़ल को नफ़ल कहा ही इसलिए जाता है कि वह फ़र्ज़ के अतिरिक्त है। अतः, जिसने फ़र्ज़ अदा नहीं किया, उसका नफ़ल बेमानी है। जबकि जिसने फ़र्ज़ अदा किया और उसके बाद नफ़ल की पाबंदी की, तो सचमुच उसने अल्लाह की निकटता प्राप्त करने में रुचि दिखाई।"

 पवित्र तथा उच्च अल्लाह का उतरना

26- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- ही से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{हमारा बरकत वाला और महान तथा उच्च रब हर रात, जबकि रात का एक तिहाई भाग शेष रह जाता है, पहले आसमान पर उतरता है और ऐलान करता है: कोई है जो दुआ करे कि मैं उसकी दुआ ग्रहण करूँ, कोई है जो मुझसे माँगे कि मैं उसे दूँ और कोई है जो मुझसे क्षमा माँगे कि मैं उसे क्षमा करूँ?} [88]

सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम।

26- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी किताब अत-तहज्जुद (3/29) (हदीस संखाय: 1145), किताब अद-दावात (11/128) (हदीस संख्या: 6321) तथा किताब अत-तौहीद (13/464) (हदीस संख्या: 7494) और इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम किताब सलात अल-मुसाफ़िरीन (1/521) (हदीस संख्या: 758) में रिवायत किया है।

पवित्र एवं उच्च अल्लाह का उतरना साबित है। लेकिन, उसके उतरने का कार्य भी उसके प्रताप तथा महानता के अनुरूप होता है। हम न इसमें फेर-बदल करेंगे, न इसका इनकार करेंगे, न इसका विवरण बताएँगे और न इसकी मिसाल देंगे।

इमाम इब्ने तैमिया ने अल्लाह के उतरने के संबंध में एक विस्तृत पुस्तक लिखी है, जिसमें शरई प्रमाणों के आलोक में इस विषय पर विस्तारपूर्वक बात की है। इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए।

 जन्नतों का विवरण और पवित्र एवं उच्च अल्लाह को देखने के सौभाग्य की प्राप्ति

27- अबू मूसा अशअरी -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{दो जन्नतें ऐसी हैं, जो सोने की हैं और उनके बरतन तथा उनकी सारी वस्तुएँ सोने की हैं, और दो जन्नतें ऐसी हैं, जो चांदी की हैं और उनके बरतन एवं दूसरी वस्तुएँ चाँदी की हैं। लोगों और उनके रब के दर्शन के बीच केवल अल्लाह के चहरे की बड़ाई की आड़ होगी और ऐसा अदन नामी जन्नत में होगा।} [89]

इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

27- इसे बुख़ारी ने किताब अत-तफ़सीर (8/623) (हदीस संख्या: 4878, 4880) तथा किताब अत-तौहीद (13/423) (हदीस संख्या: 7444) में रिवायत किया है।

जबकि इमाम मुस्लिम ने किताब अल-ईमान (1/163) (हदीस संख्या: 180) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (13/432) में लिखते हैं:

नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के फ़रमान: "दो जन्नतें" में, अल्लाह तआला के फ़रमान: {उन दोनों के सिवा दो जन्नतें होंगी।} [90] की ओर इशारा है। दरअसल "جنتان" मुबतदा महज़ूफ़ की ख़बर है, और असल वाक्य इस तरह है: "هما جنتان"। इसी तरह "آنيتهما" मुबतदा है और "من فضة" ख़बर है। दहीस के पहले वाक्य से बज़ाहिर पता चलता है कि दो जन्नतें सोने की होंगी और उनमें चाँदी की मिलावट नहीं होंगी और दो जन्नतें केवल चाँदी की होंगी और उनमें सोने की मिलावट नहीं होगी। लेकिन अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- की हदीस कुछ और ही बताती है, जिसमें है कि, हमने कहा: हमें जन्नत के बारे में बताएँ कि उसका निर्माण किस तरह का होगा? तो फ़रमाया: "उसकी एक ईंट सोने की होगी और एक ईंट चाँदी की।" इसे अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और इब्ने हिब्बान ने सहीह कहा है। [91]

दोनों हदीसों के बीच मेल इस तरह किया जाएगा कि पहली हदीस में जन्नत के बरतनों आदि की बात कही गई है, और दूसरी हदीस में जन्नत की दीवारों का ज़िक्र है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि बैहक़ी की 'अल-बास' नामी पुस्तक [92] में अबू सईद ख़ुदरी -रज़ियल्लाहु अन्हु - से वर्णित हदीस में है: {अल्लाह ने जन्नत की दीवार सोने की एक और चाँदी की एक ईंट से तैयार की है।} [93]

हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी 'अल्लाह की महानता की चादर' के बारे में उलेमा के मतों के उल्लेख के पश्चात कहते हैं:

इनका सार यह है कि 'महानता की चादर' अल्लाह को देखने से रोकने का काम करती है। जन्नत में अल्लाह इस चादर को हटा देगा और लोगों को अल्लाह के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा। इस हदीस में जो बात कही गई है उससे अभिप्राय यह है कि जब ईमान वाले जन्नत में अपना स्थान ग्रहण कर लेंगे, तो लोगों के दिलों में मौजूद प्रातापी एवं महान अल्लाह के भय के सिवा कोई और रुकावट नहीं होगी, जो उन्हें अल्लाह के दर्शन से रोक सके। अतः, जब अल्लाह उन्हें यह सम्मान प्रदान करने का इरादा कर लेगा, तो उन पर विशेष दया करेगा और उन्हें पवित्र अल्लाह को देख पाने की शक्ति प्रदान कर देगा।


 अध्याय: अल्लाह का फरमान: {यहाँ तक कि जब उन (फरिश्तों) के हृदयों से घबराहट दूर कर दी जाती है, तो पूछते हैं कि तुम्हारे रब (पालनहार) ने क्या फरमाया? उत्तर देते हैं कि सच फरमाया और वह सर्वोच्च और महान है।} [94] [सूरा सबा: 23]

 काहिनों का झूठ और फ़रेब

28- {अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- कहते हैं: मुझे एक अंसारी सहाबी ने बताया कि एक रात वे अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथ बैठे हुए थे अचानक एक तारा टूटा और चारों ओर रोशनी फैल गई। यह देख आपने पूछा:

"पहले जब इस तरह से तारा टूटता था, तो तुम क्या कहते थे?"

लोगों ने उत्तर दिया: हम कहते थे कि आज रात कोई बड़ा आदमी पैदा हुआ है, या कोई बड़ा आदमी मरा है।

यह सुन आपने कहा:

"तारा किसी बड़े आदमी के पैदा होने या मरने से नहीं टूटता, बल्कि बात यह है कि जब हमारा सर्वशक्तिमान रब कोई निर्णय लेता है, तो अर्श उठाने वाले फ़रिश्ते तसबीह पढ़ते हैं। फिर उनके निचले आकाश वाले तसबीह पढ़ते हैं। यहाँ तक कि तसबीह पढ़ने का सिलसिला सबसे निचले आकाश वालों तक पहुँच जाता है। फिर जो अर्श उठाने वाले फ़रिश्तों से क़रीब होते हैं, वह उनसे पूछते हैं कि तुम्हारे रब ने क्या आदेश दिया है? चुनांचे वह अल्लाह का आदेश बयान करते हैं। इसी तरह आकाश वाले एक-दूसरे से पूछते रहते हैं। यहाँ तक कि वह सूचना सबसे निचले आकाश वालों को पहुँच जाती है। इसी बीच जिन्न उस सूचना को चुपके-से उचक लेते हैं और अपने दोस्तों को आकर सुनाते हैं। अब जितना वह हूबबू बताते हैं, उतना तो सत्य है। लेकिन वह उसमें झूठ मिलाते हैं और बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं।} [94] [95]

इसे मुस्लिम, तिरमिज़ी तथा नसई ने रिवायत किया है।

28- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अस-सलाम (4/1750) (हदीस संख्या: 2229) में रिवायत किया है।

यह हदीस जाहिलियत काल की इस धारणा का खंडन करती है कि तारों का टूटना किसी बड़े व्यक्ति की मृत्यु अथवा जन्म का प्रमाण है।

इस हदीस से यह भी मालूम होता है कि जिन्न चोरी-छिपे आकाश की बातें सुनते हैं और बाद में आकर अपने काहिन मित्र को सुनाते हैं, जो उसमें सौ झूठ बढ़ा देता है। यही कारण है कि आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- की हदीस में आया है, जिसे इमाम मुस्लिम ने (1/1570) (हदीस संख्या: 2228) में रिवायत किया है: {आइशा -रज़ियल्लाहु अनहा- ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! ऐसा होता था कि काहिन लोग हमें कोई बात बताते और हम उसे सत्य पाते थे! तो आपने कहा: "वह एक सत्य शब्द होता था, जिसे जिन्न उचक लेता और अपने मित्र के कान में डाल देता था और उसमें सौ झूठ बढ़ा देता था।} [96]

29- नव्वान बिन समआन -रज़ियल्लाहु अन्हु- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह तआला जब किसी आदेश की वह्य (प्रकाशना) का इरादा करता है, तो वह्य (प्रकाशना) के शब्दों का उच्चारण करता है, जिससे सारे आकाश, सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह के भय से काँपने लगते हैं। जब यह आवाज़ आकाशों में रहने वाले सुनते हैं, तो वह भी बेहोश होकर सजदे में गिर जाते हैं। फिर, सबसे पहले जिबरील -अलैहिस्सलाम- अपना सर उठाते हैं और अल्लाह अपनी वह्य में से जो चाहता है, उनसे बात करता है। फिर जिबरील फ़रिश्तों के पास से गुज़रते हैं। जब-जब वह किसी आकाश से गुज़रते हैं, उसके फ़रिश्ते उनसे पूछते हैं कि ऐ जिबरील, हमारे रब ने क्या कहा? जिबरील कहते हैं: उसने सत्य कहा है तथा वह उच्च एवं विशाल है। चुनांचे सब फ़रिश्ते जिबरील की बात दोहराने लगते हैं। फिर जिबरील वह्य को वहाँ पहुँचा देते हैं, जहाँ पहुँचाने का आदेश सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने उन्हें दिया होता है।} [97]

इसे इब्ने जरीर, इब्ने ख़ुज़ैमा, तबरानी और इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है और शब्द इब्ने अबू हातिम के हैं।

29- इसे इब्ने ख़ुज़ैमा ने 'अत-तौहीद' (1/348) (हदीस संख्या: 206), आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ:294), इब्न अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/226) (हदीस संख्या: 515), इब्न अल-आराबी ने 'अल-मोजम' (883), अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (5/152), बैहक़ी ने 'अल-असमा वस-सिफ़ात' (पृष्ठ: 202, 203), इब्ने जरीर ने अपनी 'अत-तफ़सीर' (2/63) तथा बग़वी ने 'मआलिम अत-तनज़ील' (5/290, 291) में रिवायत किया है।

इन सारे लोगों ने इसे नुऐम बिन हम्माद अल-ख़ुज़ाई के माध्यम से रिवायत किया है, जो वलीद बिन मुस्लिम से, वह अब्दुर रहमान बिन यज़ीद बिन जाबिर से, वह अब्दुल्लाह बिन अबू ज़करिया से, वह रजा बिन हयोवा से और वह नव्वास से वर्णन करते हैं।

इब्ने अबू हातिम कहते हैं -जैसा कि 'तफ़सीर इब्ने कसीर' (3/537) में है- कि मैंने अपने पिता को कहते हुए सुना है:

यह हदीस वलीद बिन मुस्लिम -अल्लाह उन पर दया करे- से संपूर्णतया वर्णित नहीं है।

अल्लामा नासिरुद्दीन अलबानी 'तमामुल मिन्नह' में कहते हैं: "इसकी सनद ज़ईफ़ (कमज़ोर) है। नुऐम बिन हम्माद की स्मरण शक्ति कमज़ोर थी। वलीद बिन मुस्लिम सिक़ा (विश्वस्त) वर्णनकर्ता है, लेकिन तदलीस-ए-तसविया किया करता था।"

मैं कहता हूँ: इसके अर्थ की गवाही के रूप में पिछली सहीह हदीस मौजूद है।


 अध्याय: अल्लाह ताआला का फ़रमान: {तथा उन्होंने अल्लाह का जिस प्रकार सम्मान करना चाहिए था, नहीं किया। क़यामत के दिन सम्पूर्ण धरती उसकी मुट्ठी में होगी तथा आकाश उसके दाएँ हाथ में लपेटे होंगे। वह उन लोगों के शिर्क से पवित्र एवं ऊँचा है।” [99] [सूरा अज़्-ज़ुमर: 67]

 अल्लाह का धरती को मुट्ठी में कर लेना और आकाश को दाएँ हाथ में लपेटना

30- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह धरती को मुट्ठी में कर लेगा और आकाश को अपने दाएँ हाथ में लपेट लेगा और कहेगा: मैं ही बादशाह हूँ! धरती के बादशाह कहाँ हैं?" [98] इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।}

30- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी किताब अत-तौहीद (13/367) (हदीस संख्या: 7382) में रिवायत किया है।

इसे इमाम मुस्लिम ने सिफ़त अल-जन्नह वन-नार (4/2148) (हदीस संख्या: 2787) में रिवायत किया है।

इस हदीस से साबित होता है कि अल्लाह ज़मीन को एक हाथ की मुट्ठी में कर लेगा और दूसरे हाथ में आकाश को लपेट लेगा। यहाँ याद रहे कि अल्लाह के दोनों हाथ दायाँ हैं और उसका कोई भी हाथ बायाँ नहीं है। हमारा रब सृष्टियों की विशेषताओं से बहुत ज़्यादा ऊँचा है।

31- सहीह बुख़ारी ही में अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {क़यामत के दिन अल्लाह धराओं को मुट्ठी में कर लेगा और आकाश उसके दाएँ हाथ में होंगे। फिर कहेगा: मैं ही बादशाह हूँ!} [99]

31- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अत-तौहीद (13/393) (हदीस संख्या: 7412) में क़ासिम बिन यहया के माध्यम से रिवायत किया है, उन्होंने उबैदुल्लाह से नक़ल किया है, उन्होंने नाफ़े से वर्णन किया है और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन उमर से रिवायत किया है।

तथा इमाम मुस्लिम ने इसे सिफ़ात अल-मुनाफ़िक़ीन (1/2148) (हदीस संख्या: 2788) में रिवायत किया है।

32- उन्हीं की एक रिवायत में है कि {एक दिन अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मिंबर पर यह आयत पढ़ी: {तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान नहीं किया, जैसे उसका सम्मान करना चाहिए था और क़यामत के दिन धरती पूरी उसकी एक मुट्ठी में होगी तथा आकाश उसके हाथ में लपेटे हुए होंगे। वह पवित्र तथा उच्च है उस शिर्क से, जो वे कर रहे हैं।} [100] यह आयत सुनाते समय अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अपने हाथ से इशारा कर रहे थे। उसे हिला रहे थे, आगे-पीछे कर रहे थे और फ़रमा रहे थे: "हमारा पालनहार अपनी बड़ाई बयान करते हुए कहेगा: मैं ही शक्तिशाली हूँ! मैं ही महिमावान हूँ! मैं ही बलवान हूँ! मैं ही प्रतिष्ठावान हूँ!" इस पर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को लेकर मिंबर इतना डोलने लगा कि हम कहने लगे कि कहीं आप मिंबर से गिर न पड़ें।}

इसे अह़मद ने रिवायत किया है।

32- इसे इमाम अहमद ने 'अल-मुसनद' (2/72), इब्न अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/240) (हदीस संख्या: 546) तथा इब्ने ख़ुज़ैमा ने 'अत-तौहीद' (1/170) (हदीस संख्या: 95, 96) हम्माद बिन सलमा माध्यम से रिवायत किया है। वह कहते हैं कि हमें बताया इसहाक़ बिन अब्दुल्लाह ने, वह रिवायत करते हैं उबैदुल्लाह बिन मिक़सम से और वह उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं। अल्लामा अलबानी कहते हैं: यह हदीस इमाम मुस्लिम की शर्त पर सहीह है।

33- इसे इमाम मुस्लिम ने उबैदुल्लाह बिन मिक़सम से रिवायत किया है कि वह अब्दुल्लाह बिन अमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- को देख रहे थे कि वह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से कैसे नक़ल कर रहे हैं। आपने फ़रमाया:

{अल्लाह आकाशों तथा धराओं को अपने दोनों हाथों से पकड़कर मुट्ठी बाँध लेगा और कहेगा: मैं ही बादशाह हूँ!" यहाँ तक मैंने मिंबर को देखा कि वह नीचे से डोल रहा था और स्थिति यह बन गई थी कि मैंने मन ही मन कहा कि क्या यह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को लेकर गिर पड़ेगा?!} [101]

33- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब सिफ़ात अल-मुनाफ़िक़ीन (4/2148) में तथा इब्ने माजा (1/71) (हदीस संख्या: 198) ने अबू हाज़िम के माध्यम से रिवायत किया है, जो उबैदुल्लाह बिन मिक़सम से रिवायत करते हैं कि उन्होंने अब्दुल्लाह बिन उमर को देखा कि वह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से कैसे हदीस बयान करते हैं ...

 इस संसार की प्रथम वस्तु क्या है?

34-बुख़ारी एवं मुस्लिम में इमरान बिन हुसैन -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{ऐ बनू तमीम! सुसमाचार ले लो।"

उन्होंने कहा: आपने हमें सुसमाचार तो दिया, लेकिन कुछ दीजिए तो सही।

आपने कहा: "ऐ यमन वालो! सुसमाचार ले लो।"

उन्होंने कहा: हमने सुसमाचार ग्रहण कर लिया। अब आप हमें इस कायनात की प्रथम वस्तु के बारे में बताएँ।

तो आपने कहा: "अल्लाह हर वस्तु से पहले से था और उसका अर्श पानी के ऊपर था। उसने लौह-ए-महफ़ूज़ में हर चीज़ का विवरण लिख रखा है।"

इमरान -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं कि इसी बीच मेरे पास एक आदमी आकर बाला कि ऐ इमरान! तुम्हारी ऊँटनी रस्सी तोड़कर भाग खड़ी हुई है।

अतः, मैं उसकी तलाश में निकल पड़ा। इसलिए मैं नहीं कह सकता कि मेरे बाद और क्या बातें हुईं।

34- इसे इमाम बुख़ारी ने बदउल-ख़ल्क़ (6/286) (हदीस संख्या: 3190, 3191) तथा अत-तौहीद (13/403) (हदीस संख्या: 7418) में रिवायत किया है।

इब्ने कसीर इस हदीस को अपनी तफ़सीर (2/437) में नक़ल करने के बाद लिखते हैं: यह हदीस बुख़ारी तथा मुस्लिम में बहुत-से शब्दों के साथ वर्णित है।

लेकिन मैं कहता हूँ: मुझे यह हदीस सहीह मुस्लिम में मिल न सकी।

आपके फ़रमान: "मुझसे सुसमाचार ले लो।" का अर्थ है, मेरी वह बातें ग्रहण करो, जिन पर अमल करने के नतीजे में तुम्हें जन्नत का सुसमाचार मिलने वालाा है। जैसे अल्लाह के धर्म की समझ हासिल करना और उस पर अमल करना। ... "फ़तहुल बारी" (6/288)

इस हदीस से मालूम होता है कि एक समय ऐसा था, जब अल्लाह के सिवा कुछ न था। न पानी, न अर्श, न और कुछ। क्योंकि यह सारी चीज़ें अल्लाह के सिवा हैं।

आपके फ़रमान: {और अल्लाह का अर्श पानी पर था} [102] का अर्थ है: अल्लाह ने पहले पानी को पैदा किया और उसके बाद अर्श को पानी पर पैदा किया। जबकि इमाम मुस्लिम ने अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से मरफ़ूअन वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {अल्लाह ने सृष्टियों की तक़दीरों का निर्धारण आकाशों तथा धरती की रचना से पचास हज़ार वर्ष पहले कर दिया था, और उस समय उसका अर्श पानी पर था।" [103] [104] तथा आपके फ़रमान: {और उसका अर्श पानी पर था।} [105] में इस बात की ओर इशारा है कि पानी और अर्श से इस कायनात की रचना की शुरूआत हुई थी, क्योंकि वे दोनों आकाश और पृथ्वी से पहले पैदा किये गए थे और उस समय अर्श के नीचे पानी के सिवा कुछ न था।

जबकि अहमद एवं तिरमिज़ी ने अबू रज़ीन उक़ैली से मरफ़ूअन रिवायत किया है, जिसे इमाम तिरमिज़ी ने सहीह भी कहा है: {पानी को अर्श से पहले पैदा किया गया है।} [106] [107] रही उबादा बिन सामित की वह मरफू हदीस, जिसे अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने सहीह भी कहा है: {सबसे पहले अल्लाह ने क़लम को पैदा किया और फिर उससे कहा: लिखो। अतः, उसने वह सारी बातें लिखना शुरू कर दिया, जो क़यामत तक होने वाली हैं।} [108] [109] तो इसके तथा इससे पहली हदीस के बीच समरूपता इस प्रकार लाई जाएगी कि या तो क़लम, पानी तथा अर्श के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की तुलना में प्रथम वस्तु है या फिर उसके द्वारा लिखी जाने वाली वस्तुओं में प्रथम वस्तु है।

 अल्लाह को किसी के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता

35- जुबैर बिन मुहम्मद बिन जुबैर बिन मुतइम अपने पिता से और वह उनके (यानी जुबैर के) दादा (जुबैर बिन मुतइम) से रिवायत करते हैं कि उन्होंने कहा: {एक देहाती अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आया और कहने लगा: ऐ अल्लाह के रसूल! जानें मुश्किल में पड़ गईं, बाल-बच्चे भूख से परेशान हो गए, धन घट गए और मवेशी नष्ट हो गए। अतः, अपने पालनहार से हमारे लिए बारिश माँगिए। हम आपको अल्लाह के सामने और अल्लाह को आपके पास सिफ़ारिशी के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।

यह सुन अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

"तेरा बुरा हो! क्या तू जानता है कि क्या कह रहा है?" उसके बाद अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तसबीह पढ़ने लगे और इतनी देर तक तसबीह पढ़ते रहे कि उसका प्रभाव सहाबा के चेहरों पर नज़र आने लगा। फिर फ़रमाया: "तेरा बुरा हो! अल्लाह को किसी सृष्टि के सामने सिफ़ारिशी के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। अल्लाह की शान इससे कहीं बड़ी है। तेरा बुरा हो! क्या तू जानता है कि अल्लाह क्या है? उसका अर्श उसके आकाशों पर कुछ यूँ है।" यह कहते समय आपने अपनी उँगलियों से अपने ऊपर गुंबद की शक्ल बनाकर दिखाया। "और वह उसके बोझ से उसी तरह चरचराता है, जैसे कजावा उस पर सवार व्यक्ति के बोझ से चरचराता है।} [110]

इस हदीस को अहमद तथ अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

35- इसे अबू दाऊद (4726), इब्ने ख़ुज़ैमा ने 'अत-तौहीद' (पृष्ठ: 69), आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (293) तथा इब्न अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (575) में ज़ईफ़ (दुर्बल) सनद से रिवायत किया है। क्योंकि इसमें इब्ने इसहाक़ नामी एक मुदल्लिस वर्णनकर्ता का अनअना है।

नोट: मुझे यह हदीस इमाम अहमद की मुसनद में न मिल सकी।

 इनसान के झुटलाने पर सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह का धैर्य

36- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{सर्वशक्तिमान तथा महान अल्लाह कहता है: आदम की संतान ने मुझे झुठलाया, हालाँकि उसे ऐसा नहीं करना था। उसने मुझे गाली दी, हालाँकि ऐसा करने का उसे कोई अधिकार नहीं था। उसका मुझे झुठलाना यह कहना है कि उसने मुझे जिस प्रकार से पहली बार पैदा किया है, उसी प्रकार कदापि दोबारा पैदा नहीं करेगा। जबकि पहली बार पैदा करना मेरे लिए दूसरी बार पैदा करने से अधिक आसान नहीं था। उसका मुझे गाली देना, यह कहना है कि अल्लाह ने पुत्र बना लिया है। हालाँकि मैं एक तथा निष्काम हूँ। न मैंने जना है और न ही जना गया हूँ, और न कोई मेरी बराबरी का है।} [111]

36- इसे बुख़ारी ने किताब अत-तफ़सीर (8/739) (हदीस संअखया: 4974) में रिवायत किया है।

'الصمد' अस-समद ,पवित्र एवं महान अल्लाह का एक नाम है और उससे मुराद वह सरदार है, जिसके यहाँ सारे सरदारों की सरदारी समाप्त हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं कि इससे मुराद वह हस्ती है, जो हमेशा क़ायम व दायम रहे। कुछ लोगों के अनुसर 'अस-समद' वह है,जो निः छिद्र हो। जबकि एक मत यह है इससे मुराद वह हस्ती है, जिसके पास लोग ज़रूरतों के समय पहुँचते हैं। "अल-निहायह" (3/ 52)

तथा इमाम बुख़ारी अपनी सहीह में कहते हैं कि अरब के लोग अपने प्रतिष्ठित लोगों को 'अस-समद' कहते हैं।

37- तथा एक रिवायत में अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है:

{जहाँ तक उसके मुझे गाली देने की बात है, तो उससे मुराद उसका यह कहना है कि मेरी संतान है। जबकि मैं इस बात से पवित्र हूँ कि पत्नी अथवा संतान बनाऊँ।} [112]

इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।

[37] इसे इमाम बुख़ारी ने अत-तफ़सीर (8/168) (हदीस संख्या: 4482) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे यह हदीस अबुल यमान ने बयान की, वह कहते हैं कि हमें शोऐब ने बताया, वह अब्दुल्लाह बिन अबू हुसैन से वर्णन करते हैं, वह कहते हैं कि हमसे नाफ़े बिन ज़ुबैर ने बयान किया, जो अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से रिवायत करते हैं।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (8/168) में लिखते हैं:

"इसे गाली का नाम इसिए दिया गया, क्योंकि इसमें अल्लाह का निरादर और हतक है। क्योंकि संतान के लिए पत्नी चाहिए, जो गर्भ धारण करे तथा बच्चा जने और उसके लिए ज़रूरी है कि पहले निकाह हुआ हो और निकाह करने का मतलब यह हुआ कि उसे निकाह की ज़रूरत भी रही हो। जबकि अल्लाह तआला इन सभी बातों से पाक एवं पवित्र है।"

तथा हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (8/740) में कहते हैं:

चूँकि अल्लाह स्वयंभू है और तमाम वस्तुओं के अस्तित्व में आने से पहले से अस्तित्व में है, और हर पैदा होने वाली चीज़ नश्वर होती है, इसलिए उसके पिता होने का प्रश्न नहीं उठता। इसी तरह चूँकि उसकी कोई सृष्टि उसकी जैसी नहीं होती और उसके साथ उठती-बैठती भी नहीं है कि कोई उसकी पत्नी बने और बच्चा जने, इसलिए उसके लिए संतान होना भी संभव नहीं है। इसी बात को अल्लाह के इस फ़रमान में स्पष्ट किया गया है: {उसके संतान कहाँ से हो सकती है, जबकि उसकी पत्नी ही नहीं है?} [113]

 ज़माने को गाली देना हराम है

38- सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम ही में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वह कहते है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{पवित्र एवं उच्च अल्लाह ने फ़रमाया: आदम की संतान मुझे कष्ट देती है। वह ज़माने को गाली देती है। जबकि मैं ही ज़माने (का मालिक) हूँ। मेरे ही हाथ में सारे मामले हैं। मैं ही रात और दिन को पलटता हूँ।} [114]

38- इसे बुख़ारी ने अत-तफ़सीर (8/574) (हदीस संख्या: 4826) तथा अत-तौहीद (13/464) (हदीस संख्या: 7491) में और मुस्लिम ने अल-अदब (4/1762) (हदीस संख्या: 2246) में रिवायत किया है। 'मैं ही ज़माना हूँ' के संबंध में हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (8/575) में लिखते हैं: ख़त्ताबी फ़रमाते हैं: मैं ज़माने का मालिक और उन कामों की योजना बनाने वाला हूँ, जिनका संबंध लोग ज़माने से जोड़ते हैं। अतः, जिसने ज़माने को बुरा कहा, उसने दरअसल उस अल्लाह को बुरा कहा, जो उसका संचालनकर्ता है।

नववी (153) में कहते हैं: अरब के लोग आपदाओं, दुर्घटनाओं और मुसीबतों, जैसे मृत्यु, बुढ़ापे अथवा आर्थिक नुक़सान आदि के समय ज़माने को गाली देते और कहते: हाय ज़माने की बरबादी! अतः, आपने फ़रमा दिया कि इन मुसीबतों के उतारने वाले को गाली मत दो। क्योंकि उन्हें उतारने का काम अल्लाह करता है। अतः, गाली अल्लाह को लगेगी। जहाँ तक केवल ज़माने की बात है, तो उसका कोई अमल नहीं है। क्योंकि वह भी अन्य सृष्टियों की भाँति अल्लाह की एक सृष्टि है।

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के फ़रमान: "अल्लाह ही ज़माने का (मालिक) है" का अर्थ है: वही मुसीबतों तथा दुर्घठनाओं को उतारने वाला और कायनात का सृष्टिकर्ता है।और अल्लाह बेहतर जानता है।


 अध्याय: तक़दीर (भाग्य) पर ईमान

अल्लाह तआला का फ़रमान है: {जिनके लिए पहले ही से हमारी ओर से भलाई का निर्णय हो चुका है, वही उस से दूर रखे जाएँगे।} [115] [सूरा अल-अंबिया: 101]

एक और स्थान में वह फ़रमाता है: {तथा अल्लाह का निश्चित किया आदेश पूरा होना ही है।} [116] [सूरा अल-अहज़ाब: 38]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {हालाँकि तुमको और जो तुम करते हो उसको अल्लाह ही ने पैदा किया है।} [117] [अस-साफ़्फ़ात: 96]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {निश्चय ही हमने प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न किया है एक अनुमान अर्थात तक़दीर के साथl} [118] [सूरा अल-क़मर: 49]

 सृष्टि की तक़दीर का निर्धारण कब हुआ?

39- सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह ने सृष्टियों की तक़दीरों का निर्धारण आकाशों तथा धरती की रचना से पचास हज़ार वर्ष पहले कर दिया था और उस समय उसका अर्श पानी पर था।} [119]

39- इसे मुस्लिम ने किताब अल-क़द्र (4/2044) (हदीस संख्या: 2653) में इब्न वह्ब के माध्यम से रिवायत किया है। वह कहते हैं: मुझे बताया अबू हानी ने, वह रिवायत करते हैं अबू अब्दुर रहमान हुबली से और वह रिवायत करते हैं अब्दुल्लाह बिन अम्र से।

क़दर قدر दााल के ज़बर के साथ है। हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/477) में लिखते हैं: किरमानी कहते हैं कि क़दर से मुराद अल्लाह का आदेश है। जबकि अन्य उलेमा कहते हैं: क़ज़ा से मुराद है अज़ल में दिया गया अल्लाह का सार-रूपि सकल आदेश और क़दर उस आदेश के विभिन्न अंशों और विवरणों को कहते हैं।

तथा अबू मुज़फ़्फ़र अस-समआनी कहते हैं: तक़दीर से संबंधित बातों को जानने का एकमात्र स्रोत क़ुरआन तथा हदीस हैं। क़यास और अक़्ल का यहाँ कोई काम नहीं है। जो इस मूल सिद्धांत से हटेगा, वह विस्मय तथा हैरानी के अथाह समुद्र में गोते लगाता फिरेगा, और कहीं दिल का क़रार हासिल नहीं कर सकेगा। क्योंकि तक़दीर अल्लाह का भेद है, जिसका ज्ञान एक विशेष हिकमत के तहत उसने अपने पास रखा है, और किसी रसूल तथा निकटवर्ती फ़रिश्ते को भी नहीं बताया है।"

हाफ़िज़ इब्ने हजर कहते हैं: तथा तबरानी ने हसन सनद से अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {जब तक़दीर का ज़िक्र हो, तो अधिक बात करने से बचो।} [120] अल्लामा शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ फ़रमााते हैं:

जहाँ तक तक़दीर पर ईमान का संबंध है, तो उसके अंदर चार बातों पर विश्वास शामिल है:

पहली बात: पवित्र एवं महान अल्लाह को, जो हो चुका, उसकी भी और होने वाला है, उसकी भी ख़बर है। वह बंदों के हालात से अवगत है। वह उनकी रोज़ी, आयु तथा कर्म आदि सारे मामलों का ज्ञान रखता है। इनमें से कोई बात उसकी नज़रों से ओझल नहीं रहती। जैसा कि स्वयं उसी का फ़रमान है: {निश्चय अल्लाह हर वस्तु को जानने वाला है।} [121] उसका यह भी फ़रमान है: {ताकि तुम जान लो कि अल्लाह हर चीज़ पर सक्षम है, और अल्लाह ने ज्ञान के एतबार से हर चीज़ को घेर रखा है।} [122]

दूसरी बात: पवित्र एवं महान अल्लाह ने अपने सारे फ़ैसलों तथा निर्णयों को लिख रखा है। स्वयं उसी ने कहा है: {हमें ज्ञान है जो कम करती है धरती उनका अंश तथा हमारे पास एक सुरक्षित पुस्तक है।} [123] एक और स्थान में उसने कहा है: {और हमने हर चीज़ को एक स्पष्ट किताब में सहेज रखा है।} [124] एक और स्थान में उसने कहा है: {क्या आपने नहीं जाना कि आकाश तथा धरती की प्रत्येक वस्तु अल्लाह के ज्ञान में है। यह सब लिखी हुई किताब में सुरक्षित है। अल्लाह के लिए यह कार्य अत्यन्त सरल है।} [125]

तीसरी बात: उसकी इच्छा पर ईमान और यह विश्वास रखना कि वह जो चाहता है, होता है और जो नहीं चाहता, नहीं होता। जैसा कि पवित्र अल्लाह का फ़रमान है: {अल्लाह जो चाहता है, करता है।} [126] सर्वशक्तिमान अल्लाह ने एक अन्य स्थान में फ़रमाया: {उसकी शान यह है कि वह जब किसी चीज़ का इरादा करता है, तो कह देता है कि हो जा, तो हो जाता है।} [127] एक और स्थान में उसने कहा है: {तथा तुम समस्त संसार के पालनहार के चाहे बिना कुछ नहीं कर सकते।} [128]

चौथी बात: कायनात की सारी विद्यमान वस्तुओं को उसी ने पैदा किया है। उसके सिवा कोई स्रष्टा और उसके अतिरिक्त कोई पालनहार नहीं है। पवित्र अल्लाह ने स्वयं कहा है: {अल्लाह ही प्रत्येक वस्तु का पैदा करने वाला तथा वही प्रत्येक वस्तु का रक्षक है।} [129] वह यह भी कहता है: {हे मनुष्यो! याद करो अपने ऊपर अल्लाह के पुरस्कार को, क्या कोई स्रष्टा है अल्लाह कि सिवा, जो तुम्हें जीविका प्रदान करता हो आकाश तथा धरती से? नहीं है कोई वंदनीय, परन्तु वही। फिर तुम कहाँ फिरे जा रहे हो?} [130]

इस तरह, अहले सुन्नत व जमाअत के निकट तक़दीर पर ईमान के अंदर यह चारों बातें शामलि हैं, जबकि कुछ बिदअतियों ने इनमें से कुछ बातों का इनकार किया है। शैख़ बिन बाज़ की बात समाप्त हुई।

 अमल की अनिवार्यता तथा हाथ पर हाथ धरे बैठने की मनाही

40- अली बिन अबू तालिब -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

"तुम में से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसका ठिकाना जन्नत अथवा जहन्नम में लिख न दिया गया हो।" सहाबा ने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल! क्या हम लिखे हुए पर भरोसा करके अमल करना छोड़ न दें? तो आपने उत्तर दिया:

"तुम अमल किए जाओ। क्योंकि अमल को हर उस व्यक्ति के लि आसान कर दिया जाता है, जिसके लिए उसे पैदा किया गया है। जो सौभाग्यशाली होगा, उसके लिए सौभाग्यशाली लोगों जैसा अमल करना आसान कर दिया जाएगा और जो अभागा होगा, उसके लिए अभागा लोगों जैसा अमल करना आसान कर दिया जाएगा।" उसके बाद आपने यह आयत पढ़ी: "फिर जिसने दान किया और भक्ति का मार्ग अपनाया और भली बात की पुष्टि करता रहा, तो हम उसके लिए सरलता पैदा कर देंगे।} [131] [सूरा अल-लैल: 5-8] बुख़ारी एवं मुस्लिम।

40- इसे बुख़ारी ने किताब अल-जनाइज़ (3/225) (हदीस संख्या: 1362) तथा अत-तफ़सीर (8/709) (हदीस संख्या: 4948, 4949) एवं मुस्लिम ने किताब अल-क़द्र (4/2039) (हदीस संख्या:2647) में रिवायत किया है।

बग़वी (1/133) कहते हैं कि ख़त्ताबी कहते हैं: सहाबा का यह कहना कि "क्या हम लिखे हुए पर भरोसा करके अमल करना छोड़ न दें?" दरअसल उनकी ओर से इबादत के अमल-दख़ल को ख़त्म करने के आदेश का मुतालबा था। इसे इस तौर से समझा जा सकता है कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का पहले से सब कुछ लिखे होने की सूचना देना, एक तरह से उनके बारे में अल्लाह के परोक्ष ज्ञान की सुचना देना था, जो लोगों के ख़िलाफ़ जा रहा था। अतः उन्होंने सोचा कि उसे अमल से किनारा करने का प्रमाण बना लिया जाए। ऐसे में नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उन्हें बताया कि यहाँ दो बातों का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है, जिनमें से कोई एक बात दूसरी बात का प्रभाव समाप्त नहीं करती। पहली बात गुप्त है; यानी अल्लाह का आदेश जो जन्नत या जहन्नम में जाने का असल कराण है। जबकि दूसरी बात प्रकट तथा ज़ाहिर है ; यानी बंदे की बंदगी, जो आवश्यक रूप से उसकी निशानी होनी चाहिए। लेकिन यह निशानी दरअसल काल्पनिक है और वास्तविकता का पता नहीं देती। यहाँ कहा जा सकता है कि लोगों के साथ इस तरह का मामला इसलिए किया गया और उन्हें इबादत का आदेश इसलिए दिया गया, ताकि उनकी निगाहों से ओझल गुप्त कारण से उनका भय भी क़ायम रहे और उन्हें दिखने वाले ज़ाहिर से उनकी उम्मीद भी जुड़ी रहे। इस तरह, भय और आशा दोनों को इबादत के साथ जोड़ दिया गया है, ताकि ईमान की विशेषता संपूर्ण आकार ले सके। फिर यह बताय दिया कि हर आदमी के लिए उसी पथ पर चलना आसान कर दिया जाता है, जिसके लिए उसे पैदा किया गया है और दुनिया में इनसाम का कर्म आख़िरत में उसेक अंजाम का प्रमाण है। फिर यह आयत तिलावत फ़रमाई: {फिर जिसने दान किया और भक्ति का मार्ग अपनाया} [132] ... {परन्तु, जिसने कंजूसी की और ध्यान नहीं दिया।} [133] [सूरा अल-लैल: 5-8] यह सारी चीज़ें ज़ाहिर के हुक्म में हैं, जबकि इनके पीछे लोगों के बारे में सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह का निर्णय है, जो हिकमत वाला और हर चीज़ की ख़बर रखने वाला है। उसके किसी कार्य के बारे में पूछा नहीं जाएगा, लेकिन बंदों से उनके हर कर्म के बारे में पूछा जाएगा।

इसकी आप अन्य दो मिसालें ले सकते हैं। एक ओर यह बताया गया है कि बंदे की रोज़ी पहले ही से निर्धारित है, लेकिन दूसरी ओर उसे रोज़ी कामने का आदेश दिया गया है। इसी तरह एक ओर यह कहा गया है कि बंदे की आयु पहले से निर्धारित है, परन्तु दूसरी ओर इलाज तथा उपचार की बात कही गई है। इन दोनों जगहों में आप देखेंगे कि जो गुप्त है, वही प्रभावी कारण है और जो सामने है, वह काल्पनिक कारण है। इसके बावजूद सभी लोग यह मानते हैं कि यहाँ गुप्त कारण के आधार पर प्रकट कारण को छोड़ा नहीं जाएगा।

 अल्लाह का इनसान से उस समय वचन लेने का ज़िक्र, जब वह आदम की पीठ में था

41- मुस्लिम बिन यसार जुहनी कहते हैं कि {उमर बिन ख़त्ताब -रज़ियल्लाहु अनहु- से इस आयत के बारे में पूछा गया: {तथा वह समय याद करो, जब आपके पालनहार ने आदम के पुत्रों की पीठ से उनकी संतति को निकाला।} [134] [सूरा अल-आराफ़: 172] इसपर उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- ने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को सुना कि जब आपसे इसके बारे में पूछा गया, तो आपने फ़रमाया:

"अल्लाह ने आदम को पैदा किया और उनकी पीठ पर अपना दायाँ हाथ फेरा और उससे उनकी कुछ संतानों को निकाला और कहा:

मैंने इन लोगों को जन्नत के लिए पैदा किया है और ये लोग जन्नतियों का ही काम करेंगे। फिर उनकी पीठ पर हाथ फेरा और उससे उनकी कुछ संतानों को निकाला और फ़रमाया: मैंने इन लोगों को जहन्नम के लिए पेैदा किया है और ये लोग जहन्नमियों का ही काम करेंगे। यह सुन एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! फिर कर्म किस काम के?

तो आपने उत्तर दिया: "अल्लाह जब किसी बंदे को जन्नत के लिए पैदा करता है, तो उसे जन्नतियों के काम में लाग देता है, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी जन्नतियों का काम करते हुए होती है और उसके बदले उसे जन्नत में दाख़िल कर देता है। तथा जब किसी बंदे को जहन्नम के लिए पैदा करता है, तो उसे जहन्नमियों के काम में लगा देता है, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी जहन्नमियों का काम करते हुए होती है और उसे जहन्नम में दाख़िल कर देता है।"

इसे इमाम मालिक और हाकिम ने रिवायत किया है और हाकिम ने इसे इमाम मुस्लिम की शर्त पर कहा है।

जबकि अबू दाऊद ने इसे एक अन्य सनद से रिवायत किया है। इन्होंने इसे मुस्लिम बिन यसार से रिवायत किया है, जो नुऐम बिन रबीआ से रिवायत करते हैं और वह उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं।

41- इसे मालिक ने मवत्ता, किताब अल-क़द्र (2/898, 899) में रिवायत किया है। मालिक ही की सनद से इसे अबू दाऊद ने किताब अस-सुन्नह (4/226) (हदीस संख्या: 4703), तिरमिज़ी ने अत-तफ़सीर (5/248) (हदीस संख्या: 3075), नसई ने 'अल-कुबरा' (6/247) (हदीस संखाय: 11190), अजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 170), इब्ने हिब्बान (1437) (हदीस संख्या: 6166), बैहक़ी ने 'अल-असमा वस-सिफ़ात' (पृष्ठ: 325), बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/138) (हदीस संख्या: 77) और हाकिम ने 'मुसतदरक' (1/27) में रिवायत किया है। इन सारे लोगों ने इसे इमाम मालिक के माध्यम से रिवायत किया है, जिन्होंने ज़ैद बिन अबू उनैसा से रिवायत किया है, जिन्होंने अब्दुल हमीद बिन अब्दुर रहमान बिन ज़ैद से वर्णन किया है और जिसने मुस्लिम से रिवायत किया है।

इमाम तिरमिज़ी फ़रमाते हैं: यह हदीस हसन है। मुस्लिम बिन यसार ने उमर -रज़ियल्लाहु अन्हु- से हदीस नहीं सुनी है। जबकि कुछ वर्णनकर्ताओं ने मुस्लिम बिन यसार तथा उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- के बीच एक अपरिचित वर्णनकर्ता का उल्लेख किया है।

हाकिम कहते हैं कि यह हदीस सहीह है, तथा बुख़ारी एवं मुस्लिम की शर्त पर है।

लेकिन ज़हबी के अनुसार यह हदीस मुरसल है।

जबकि हाकिम ने एक अन्य स्थान (2/324-325) में उसे इमाम मुस्लिम की शर्त पर सहीह कहा है और ज़हबी ने उनसे सहमति दिखाई है।

इसी तरह हाकिम ने एक अन्य स्थान (2/544) में इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम की शर्त पर सहीह कहा है और ज़हबी ने उनसे सहमति व्यक्त की है।

अबू दाऊद ने उसे किताब अस-सुन्नह (4/226) (हदीस संख्या: 4704) में उमर बिन जोसम के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं: मुझसे यह हदीस बयान की ज़ैद बिन अबू उनैसा ने, जो रिवायत करते हैं अब्दुल हमीद बिन अब्दुर रहमान से, जो मुस्लिम बिन यसार से वर्णन करते हैं और वह नुऐम बिन रबीआ से नक़ल करते हैं। वह कहते हैं: मैं उमर बिन ख़त्ताब के पास था ...। जबकि मालिक की हदीस ज़्यादा पूरी है और नुऐम एक अपरिचित वर्णनकर्ता है।

मुनज़िरी कहते हैं: लेकिन इस हदीस का अर्थ अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से उमर बिन ख़त्ताब -रज़ियल्लाहु अन्हु- आदि के माध्यम से इतनी अधिक सनदों से वर्णित है कि उनका उल्लेख संभव नहीं है। उन सारी रिवायतों में है कि आपसे इस आयत के बारे में, यानी उसमें उल्लिखित आदम की संतान की पीठों से उनकी संततियों को निकालने का विवरण पूछा गया।

"وإِذ أخذ": यानी जब निकाला।

"ثم مسح ظهره": यानी फिर आदम की पीठ पर हाथ फेरा।

"ففيم العمل ؟": यानी ऐ अल्लाह के रसूल! जब बात वैसी ही है, जैसी आपने बताई कि तक़दीर लिखी जा चुकी है, तो फिर अमल का क्या फ़ायदा? या तो फिर अमल का संबंध किस चीज़ से है? या हमें अमल का आदेश क्यों दिया गया है?!

"استعمله بعمل أهل الجَنَّة": यानी उसे जन्नतियों का अमल करने वाला बना देता है, और उसका सामर्थ्य प्रदान करता है।

42- इसहाक़ बिन राहवैह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की बक़िय्या बिन वलीद ने, वह कहते हैं कि मुझे बताया ज़ुबैदी मुहम्मद बिन वलीद ने, वह वर्णन करते हैं राशिद बिन साद से, वह रिवायत करते हैं अब्दुर रहमान बिन अबू क़तादा से, वह वर्णन करते हैं अपने पिता से और वह रिवायत करते हैं हिशाम बिन हकीम बिन हिज़ाम से कि {एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! क्या कार्य शुरू होते हैं या उनका निर्णय पहले ही से ले लिया गया होता है? तो आपने फ़रमाया:

"जब अल्लाह ने आदम की संतान को उनकी पीठ से निकाला, तो उन्हें स्वयं उन्हीं पर गवाह बनाया, फिर उन्हें उनके दोनों हथेलियों पर फैला दिया और कहा: यह लोग जन्नत के लिए हैं और यह लोग जहन्नम के लिए हैं। अतः, जन्नत वालों के लिए जन्नतियों का काम करना आसान कर दिया जाएगा और जहन्नम वालों के लिए जहन्नमियों का काम करना आसान कर दिया जाएगा।"

42- यह हदीस सहीह है।

इसे बुख़ारी ने 'अत-तारीख अल-कबीर' (8/191-192) में रिवायत किया है।

 माँ के पेट में ही कर्म, आयु, रोज़ी तथा भाग्यवान अथवा भाग्यहीन होने जैसी बातों का लिख दिया जाना

43- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अनहुमा- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जो कि सच्चे हैं और जिनको सच्चा माना भी गया है, हमें बताया है:

{तुममें से हर व्यक्ति की सृष्टि-सामग्री उसकी माँ के पेट में चालीस दिनों तक वीर्य के रूप में एकत्र की जाती है। फिर इतने ही समय में वह जमे हुए रक्त का रूप धारण कर लेती है। फिर इतने ही दिनों में मांस का लोथड़ा बन जाती है। फिर अल्लाह उसकी ओर एक फ़रिश्ते को चार बातों के साथ भेजता है: वह उसका क्रम, उसकी आयु, उसकी रोज़ी तथा यह भी लिख देता है कि वह अच्छा होगा या बुरा। अतः, उसकी क़सम, जिसके अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है, तुममें से कोई जन्नत वालों के काम करता रहता है, यहाँ तक कि उसके और जन्नत के बीच केवल एक हाथ की दूरी रह जाती है, कि इतने में उस पर तक़दीर का लिखा ग़ालिब आ जाता है और वह जहन्नम वालों के काम करने लगता है और उसमें प्रवेश कर जाता है। इसी तरह तुममें से कोई जहन्नम वालों के काम करता रहता है, यहाँ तक उसके और जहन्नम के बीच केवल एक हाथ की दूरी रह जाती है कि इतने में उस पर तक़दीर का लिखा ग़ालिब आ जाता है और वह जन्नत वालों के काम करने लगता है और जन्नत में प्रवेश कर जाता है।} [135]

बुख़ारी एवं मुस्लिम

43- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब बदउल ख़ल्क़ (6/303) (हदीस संख्या: 3208), किताब अल-अंबिया (6/363) (हदीस संख्या: 3332), किताब अल-क़द्र (11/477) (हदीस संख्या:6594) एवं किताब अत-तौहीद (13/440) (हदीस संख्या: 7454) तथा इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-क़द्र (4/2036) (हदीस संख्या:2643) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/479) में लिखते हैं:

हीदस में आए हुए शब्द अन-नुतफ़ा का असल अर्थ है, स्वच्छ जल जो बहुत कम मात्रा में हो। जबकि नुतफ़ा से यहाँ अभिप्राय वीर्य है। और उसकी वास्तविकता यह है कि जब संभोग के माध्यम से पुरुष का वीर्य स्त्री के वीर्य के साथ मिलता है और अल्लाह इससे भ्रूण उत्पन्न करना चाहता है, तो उसके सामान उपलब्ध कर देता है।

इब्न अल-असीर 'अन-निहायह' में कहते हैं: यह हो सकता है कि यहाँ एकत्र किए जाने से मुराद वीर्य का गर्भाशय में ठहरे रहना हो। यानी वीर्य चालीस दिनों तक गर्भाशय में रहकर आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार किया किया जाता है ,यहाँ तक कि सूरत गर्हण करने की अवस्था में आजाता है , फिर उसे आकार दिया जाता है।

"ثم يكون علقة": यानी वह चालीस दिनों तक जमे हुए रक्त के रूप में रहता है और उसके बाद, बाद वाला रूप धारण करता है।

"العلقة": गाढ़ा जमा हुआ रक्त। उसके अंदर मौजूद तरावट के कारण तथा जिस जगह से वह गुज़रता है, उस जगह से चिमट जाने के कारण उसे यह नाम दिया गया है।

"المضغة": मांस का टुकड़ा। उसे यह नाम इसलिए मिला, क्योंकि वह एक बार चबाने के बराबर होता है।

ज्ञात हो कि रोज़ी लिखने से मुराद इस बात का निर्धारण है कि वह कम मिलेगी या अधिक तथा हलाल रास्ते से आएगी या हराम रास्ते से। इसी तरह आयु लिखने से मुराद यह लिखना है कि आयु लंबी होगी या छोटी और अमल लिखने से अभिप्राय यह लिखना है कि वह अच्छा होगा या बुरा?

तथा "شقي أم سعيد" का अर्थ यह है कि फ़रिश्ता दोनों शब्दों में से कोई एक लिख देता है। मसलन, यह लिख देता है कि इस भ्रूण की आयु इतनी होगी, रोज़ी इतनी तथा ऐसी मिलेगी, कर्म ऐसा रहेगा और अपने अंतिम कर्म के अनुसार वह सौभाग्यशाली होगा या दुर्भाग्यशाली होगा।

इस हदीस में इनसान को जो मिल जाए उसी से प्रसन्न रहने की प्रेरणा के साथ-साथ लालच से सावधान रहने का आदेश दिया गया है। क्योंकि जब यह तय है कि रोज़ी पहले से निर्धारित है, तो उसके पीछे हमेशा भागते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन रोज़ी कमाने की आदेश इसलिए दिया गया है, क्योंकि यह उन अस्बाब में से है, जो इस दुनिया में अल्लाह की हिकमत के ऐन मुताबिक़ हैं।

इस हदीस से यह भी मालूम होता है कि इनसान का कर्म उसके जन्नत अथवा जहन्नम में जाने का सबब है। वैसे यह दीस, अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के इस फ़रमान के विरोध में नही है कि {तुममें से कोई महज़ अपने अमल के कारण जन्नत में प्रवेश नहीं कर सकता।} [136] [137] क्योंकि यदि बंदे पर अल्लाह की कृपा न हो, तो वह जन्नत में प्रवेश का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि इनसान का कर्म, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, अपने दम पर इनसान को जन्नत में दाख़िल नहीं कर सकता और वह जन्नत का बदल भी नहीं बन सकता। क्योंकि यदि अमल पूर्ण रूप से अल्लाह की मर्ज़ी के अनुसार अदा हुआ हो, तब भी वह अल्लाह की नेमत के बराबर नहीं हो सकता। बल्कि इनसान के सारे अच्छे कर्म अल्लाह की एक नेमत की बराबरी नहीं कर सकते। इस तरह देखा जाए तो अल्लाह की नेमतें शुक्रगुज़ारी का मुतालबा करती हैं और इनसान उनका यथोचित शुक्र अदा नहीं कर सकता। ऐसी परिस्थिति में यदि अल्लाह बंदे को अज़ाब देता है, तो वह ज़ालिम नहीं कहलाएगा और यदि दया करता है, तो उसकी दया बंदे के कर्म से बेहतर वस्तु होगी। यहाँ एक बात और भी ध्यान देने की है कि जिसे अभागा लिख दिया जाता है, उसका हाल दुनिया में किसी को पता नहीं होता। इसी तरह जिसे सौभाग्यशाली लिख दिया जाता है, उसका हाल भी किसी को मालूम नहीं होता। लेकिन कभी-कभी कुछ लक्षणों से थोड़ा-बहुत अंदाज़ा हो जाता है, जिसको लोगों के बीच आदमी की अच्छी चर्चा से बल मिल जाता है।

इस हदीस में बंदे को इस बात पर उभारा गया है कि वह बुरे अंत से अल्लाह की शरण माँगे।

 वीर्य के गर्भाशय में ठहरने के बाद फ़रिश्ते का उसके पास आना

44- हुज़ैफ़ा बिन उसैद -रज़ियल्लाहु अन्हु- अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के हवाले से बयान करते हैं कि आपने फ़रमाया:

{वीर्य के गर्भाशय में ठहरने के चालीस अथवा पैंतालीस दिनों के बाद फ़रिश्ता उसके पास आता है और कहता है कि ऐ मेरे रब! यह बुरा होगा या अच्छा? चुनांचे जो कुछ उत्तर मिलता है, उसे लिख देता है। उसके बाद कहता है: ऐ मेरे रब! यह पुरुष होगा या स्त्री? चुनांचे जो कुछ उत्तर मिलता है, उसे लिख देता है। इसी तरह उसके कर्म, प्रभाव, आयु और रोज़ी को भी लिख देता है। फिर सहीफ़ों को लपेट दिया जाता है। बाद में न कुछ बढ़ाया जा सकता है न घटाया जा सकता है।} [138]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

44- इसे मुस्लिम ने किताब अल-क़द्र (4/2037) (हदीस संख्या: 2644) में रिवायत किया है। मुस्लिम (4/2038) ने इसे इकरिमा बिन ख़ालिद तथा कुलसूम के माध्यम से रिवायत किया है, और वह दोनों अबु तुफैल से वर्णन करते हैं और वह हुज़ैफ़ा से इसी की भाँति रिवायत करते हैं।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (11/482) में लिखते हैं:

:यहाँ फ़रिश्ते से मुराद वह फ़रिश्ते हैं, जो गर्भाशयों पर नियुक्त हैं, जैसा कि हुज़ैफ़ा बिन असीद की रिवायत में आता है कि गर्भाशय पर नियुक्त एक फ़रिश्ता आता है।

 अल्लाह ने कुछ लोगों को जन्नत के लिए उसी समय पैदा किया, जब वे अपने पिताओं की पीठ में थे और कुछ लोगों को जहन्नम के लिए उसी समय पैदा किया जब वे अपने पिताओं की पीठ में थे।

45- तथा सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- कहती हैं:

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को एक अंसारी बच्चे के जनाज़े के लिए बुलाया गया, तो मैंने कहा: उसके लिए सुसमाचार है! वह जन्नत के गौरैयों में से एक गौरैया है। न कुछ बुरा किया है और न उसकी आयु को पहुँचा है। यह सुन आपने कहा:

{ऐ आइशा! मामाला इससे अलग भी हो सकता है। अल्लाह ने जन्नत के लिए उसमें रहने वाले पैदा किए। जब उन्हें उसके लिए पैदा किया, तो वे अपने पिताओं की पीठ में थे। तथा जहन्नम के लिए भी उसमें रहने वाले पैदा किए। जब उन्हें उसके लिए पैदा किया, तो वे अपने पिताओं की पीठ में थे।} [139]

45- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-क़द्र (4/2050) (हदीस संख्या: 2662) में रिवायत किया है।

नववी कहते हैं (16/207):

सभी विश्वस्त मुस्लिम विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि बचपन में मरने वाला मुस्लिम बच्चा जन्नती है, क्योंकि वह शरई आदेशों तथा निषेधों के अनुपालन का पाबंद नहीं है। अलबत्ता, कुछ ऐसे लोग, जो किसी गिनती में नहीं आते, आइशा -रज़ियल्लाहु अनहा- की इस हदीस की वजह से इस संबंध में कुछ बोलने से परहेज़ करते हैं।

लेकिन उलेमा ने उनका उत्तर यह दिया है कि शायद आपने उन्हें बिना किसी अवश्यंभावी प्रमाण के, यक़ीन के साथ कुछ कहने में जल्दबाज़ी दिखाने से मना किया है, जिसका एक अन्य उदाहरण यह है कि जब साद बिन अबू वक़्क़ास -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने एक व्यक्ति के बारे में कहा कि आप उसे भी दें, मैं उसे मोमिन समझता हूँ, तो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: बल्कि मुसलमान कहो। [140]

जबकि एक संभावना यह है भी कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह बात उस समय कही, जब आपको पता नहीं था कि मुसलमान बच्चे जनन्नत में होंगे। बाद में जब यह मालूम हो गया, तो फ़रमाया: {जिस मुस्लिम के तीन बच्चे बालिग़ होने से पूर्व ही मर जाएँ, उसे अल्लाह बच्चों पर अपार दया के कारण जन्नत में दाखिल करेगा।} [141] [142] इस आशय की अन्य हदीसें भी मौजूद हैं। और अल्लाह ही ज़्यादा जानता है।

अब जहाँ तक मुश्रिकों के बच्चों की बात है, तो उनके बारे में तीन मत हैं: अधिकतर उलेमा का कहना है कि वे अपने माता-पिता के साथ जहन्नम में जाएँगे। कुछ लोगों ने उनके बारे में कुछ भी कहने से गुरेज़ किया है। जबकि इस संबंध में सही मत, जो शोधप्रिय उलेमा का मत है, यह है कि वे जन्नती हैं। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। एक प्रमाण इबराहीम -अलैहिस्सलाम- से संबंधित यह हदीस भी है: {कि जब अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बताया कि आपने इबराहीम -अलैहिस्सलाम- को जन्नत में देखा, और उनके आस-पास लोगों के बच्चे मौजूद थे, तो वहाँ उपस्थित किसी व्यक्ति ने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल! और मुश्रिकों के बच्चे? तो आपने उत्तर दिया: "मुश्रिकों के बच्चे भी।"} इस ह़दीस को इमाम बुख़ारी ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।

 हर वस्तु क़दर (अल्लाह के पूर्व ज्ञान और लिखे) के अनुसार है

46- अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {हर वस्तु अल्लाह के क़दर (अल्लाह के पूर्व ज्ञान और लिखे) के अनुसार है। यहाँ तक विवशता और तत्परता भी।} [143]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

46- इसे मालिक ने अल-मुवत्ता, किताब अल-क़द्र (2/899) में रिवायत किया है और उनके ही तरीक से मुुस्लिम ने अल-क़द्र (4/2045) (हदीस संख्या: 2655) और बुख़ारी ने ख़ल्क़ अफ़आल अल-इबाद (पृृष्ठ: 25) में रिवायत किया है।

"العجز": यानी विवशता। कुछ लोगों के अनुसार इसका अर्थ है: ज़रूरी काम को छोड़ देना, टाल-मटोल करना तथा उचित समय से देर करना। यह भी संभव है कि यहाँ नेकी के कामों से विवशता मुराद हो।

"الكيس": यह "العجز" (विवशता) का विरीतार्थक शब्द है। यानी किसी कार्य के प्रति तत्परता, मुस्तैदी तथा प्रवीणता। इस हदीस का अर्थ यह है कि अल्लाह को विवश व्यक्ति की विवशता तथा तत्पर व्यक्ति की तत्परता का ज्ञान पहले से है और उसने इन सब बातों को लिख रखा है।

 अल्लाह के फ़रमान: {تَنَزَّلُ الْمَلَائِكَةُ وَالرُّوحُ فِيهَا} (उसमें फ़रिश्ते तथा जिबरील उतरते हैं।) [147] का अर्थ

47- क़तादा -रज़ियल्लाहु अन्हु- उच्च एवं महान अल्लाह के फ़रमान: {تَنَزَّلُ الْمَلَائِكَةُ وَالرُّوحُ فِيهَا بِإِذْنِ رَبِّهِم مِّن كُلِّ أَمْرٍ} (उसमें फ़रिश्ते तथा जिबरील अपने पालनहार की आज्ञा से हर काम को पूरा करने के लिए उतरते हैं।) [144] [सूरा अल-क़द्र: 4] की व्याख्या करते हुए कहते हैं: "उस रात को साल भर के अंदर होने वाले सभी कार्यों का निर्णय लिया जाता है।"

इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ और इब्ने जरीर ने रिवायत किया है।

इसी तरह की बात अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा-, हसन बसरी, अबू अब्दुर रहमान अस-सुलमी, सईद बिन जुबैर तथा मुक़ातिल से वर्णित है।

47- इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने अपनी तफ़सीर (3/386) और इब्ने जरीर (15/260) ने रिवायत किया है। देखिए: 'अद-दुर्र अल-मनसूर' (8/568, 569)

 लोह-ए-महफ़ूज़ एक श्वेत मोती से बना है

48- अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- कहते हैं: अल्लाह ने लौह-ए-महफ़ूज़ को श्वेत मोती से बनाया है, जिसकी दोनों दफ़तियाँ लाल याक़ूत की हैं, उसकी क़लम नूर है, उसकी लिखावट नूर है, उसकी चौड़ाई धरती तथा आकाश के बीच की दूरी के बराबर है, उस पर अल्लाह प्रत्येक दिन तीन सौ साठ बार नज़र डालता है और हर बार कुछ पैदा करता है, किसी को रोज़ी देता है, किसी को जीवन देता है, किसी को मारता है, किसी को इज़्ज़त देता है, किसी को अपमान देता है और जो चाहे करता है। इसी का उल्लेख उच्च एवं महान अल्लाह के इस फ़रमान में है: {प्रत्येक दिन वह एक नए कार्य में है।} [145] [सूरा अर-रहमान: 29]

इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़, इब्न अल-मुनज़िर, तबरानी और हाकिम ने रिवायत किया है।

इब्न अल-क़य्यिम ये और इस तरह की अन्य हदीसों का उल्लेख करने के बाद कहते हैं [146]:

अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- के इस कथन में दैनिक निर्णय का उल्लेख है, जबकि उससे पहले एक वार्षिक निर्णय होता है, उससे पहले इनसान के शरीर में प्राण डालते समय उम्र भर का निर्णय होता है, उससे पहले भी एक बार उम्र भर का निर्णय उस समय होता है जब इनसान की रचना का आरंभ होता है और वह मांस के टुकड़े के रूप में होता है, उससे पहले इनसान को अस्तित्व में लाने का निर्णय हुआ था, जो आकाशों तथा धरती की सृष्टि के बाद हुआ था और उससे पहले आकाशों तथा धरती की रचने से पचास हज़ार साल पू्र्व एक निर्णय हुआ था। इनमें से हर निर्णय पूर्ववर्ती निर्णयों के विवरण की हैसियत रखता है।

इसमें इस संसार के महान पालनहार के अनंत ज्ञान, सामर्थ्य तथा हिकमत एवं उसकी ओर से फ़रिश्तों एवं ईमान वाले बंदों की अधिक प्रशंसा का प्रमाण है।

आगे फ़रमाया:

इससे स्पष्ट हो गया कि यह सारी तथा इस तरह की अन्य हदीसें इस बात पर एकमत हैं कि अल्लाह के द्वारा लिया गया पूर्व निर्णय इनसान को अमल से नहीं रोकता और तक़दीर पर भरोसा करके हाथ पर हाथ धरे बैठ जाने की अनुमति नहीं देता। बल्कि, इस के विपरीत अधिक मेहनत एवं तत्परता के साथ अल्लाह की इबादत करने को अनिवार्य करता है।

यही कारण है कि जब किसी सहाबी ने इस तरह की बातें सुनीं, तो फ़रमाया: अब मेरी इबादत का जज़्बा और अधिक हो गया है ।

जबकि अबू उसमान नहदी ने सलमान से कहा: मैं उससे, जो पहले लिखा जा चुका है, उसकी तुलना में कहीं अधिक प्रसन्न हूँ, जो अब हो रहा है।

उनका कहना यह है कि जब मामला ऐसा है कि अल्लाह ने पहले से सब कुछ लिख रखा है और मेरे लिए उसके पथ पर चलना आसान कर दिया है, तो मुझे उन असबाब की बनिस्बत, जो बाद में ज़ाहिर हो रहे हैं, अल्लाह के पहले से लिखे निर्णय पर अधिक ख़ुशी है।

48- इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़, इब्ने मुनज़िर, हाकिम और तबरानी (12/72) (हदीस संख्या: 12511) ने ज़ियाद बिन अब्दुल्लाह के माध्यम से, उन्होंने लैस से, उन्होंने अब्दुल मलिक बिन सईद बिन जुबैर से, उन्होंने अपने पिता से और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से रिवायत किया है।

हैसमी (3/221) कहते हैं: इसमें लैस बिन अबू सुलैम नामी वर्णनकर्ता है, जो सिक़ा तो है, लेकिन मुदल्लिस है। जबकि उसके शेष वर्णनकर्ता सिक़ा (विश्वस्त) हैं।

 तक़दीर पर विश्वास से ईमान की मिठास मिलती है

49- वलीद बिन उबादा कहते हैं: {मैं अपने पिता के पास उस समय गया, जब वह बीमार थे और मुझे लगता था कि अब वह जीवित नहीं रहेंगे। अतः, मैंने उनसे कहा: प्रिय पिता! आप मुझे वसीयत करें, और मेरे लिए थोड़ा-सा प्रयास करें। उन्होंने कहा: तुम लोग मुझे बिठा दो। जब उन्हें बिठा दिया गया, तो बोले: तुम ईमान का मज़ा उस समय तक नहीं चख सकते और सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह का ज्ञान उस समय तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक भली-बुरी तक़दीर पर विश्वास न रखो। मैंने कहा: पिता जी! मैं कैसे जानूँ कि भली-बुरी तक़दीर क्या है? उन्होंने कहा: तुम विश्वास रखो कि जो तुम्हारे हाथ आ गया, वह तुमसे छूटने वाला नहीं था और जो छूट गया, वह हाथ आने वाला नहीं था। ऐ मेरे बेटे! मैंने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को कहते हुए सुना है:

"अल्लाह ने सबसे पहले क़लम को पैदा किया और उसके बाद उससे कहा: लिख! अतः, उसने उसी समय वह सब कुछ लिखना आरंभ कर दिया, जो क़यामत के दिन तक होने वाला है।" ऐ मेरे बेटे! यदि तुम्हारी मृत्यु इस अवस्था में हुई कि तुम इस अक़ीदे पर क़ायम न हो, तो जहन्नम में प्रवेश करोगे। [147]

इसे अह़मद ने रिवायत किया है।

49- इसे अहमद ने 'मुसनद' (5/317) और इब्ने अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/48) (हदीस संख्या: 103) में इब्ने लहीआ के माध्यम से, उन्होंने यज़ीद बिन अबू हबीब से, उन्होंने वलीद बिन उबादा से और उन्होंने अपने पिता से संक्षिप्त रूप में रिवायत किया है। जबकि इब्ने अबू आसिम (1/51) (हदीस संख्या: 111) ने उसके प्रथम भाग को सुलैमान बिन हबीब अल-मुहारिबी के माध्यम से उन्होंने वलीद बिन उबादा से और उन्होंने अपने पिता से रिवायत किया है।

तथा तिरमिज़ी ने इसे किताब अल-क़द्र (4/398) (हदीस संख्या: 2155) में यहया बिन मूसा के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की है अबू दाऊद तयालिसी ने, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की है अब्दुल वाहिद बिन सुलैम ने, जो अता से वर्णन करते हैं और वह वलीद से रिवायत करते हैं। इसमें एक घटना भी है। इसी तरह इसे तिरमिज़ी ने किताब अत-तफ़सीर (5/394) हदीस संख्या: 3319) और इब्ने अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/49) (हदीस संख्या: 105) में अबू दाऊद तयालिसी के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की है अब्दुल वाहिद बिन सुलैम से, जो वर्णन करते हैं अता बिन अबू रबाह से, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की है वलीद ने, जो अपने पिता से संक्षेप में वर्णन करते हैं। तिरमिज़ी ने इसे हसन ग़रीब कहा है। जबकि अबू दाऊद ने इसे किताब अस-सुन्नह (5/317) में इबराहीम बिन अबू अबला के माध्यम से रिवायत किया है, जो अबू हफ़सा से रिवायत करते हैं कि उबादा ने अपने बेटे से कहा ...

इब्न अबू आसिम (1/48) (हदीस संख्या: 104) ने इसे अब्दुल्लाह बिन साइब के माध्यम सेरिवायत किया है, जो अता से रिवायत करते हैं और वह वलीद से रिवायत करते हैं।

इसी तरह अहमद (5/317) और इब्ने अबू आसिम (1/50) (हदीस संख्या: 107) ने इसे मुआविया बिन सालेह के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अय्यूब बिन अबू ज़ैद अल-हिमसी ने, जो उबादा बिन वलीद बिन उबादा से रिवायत करते हैं।

जबकि आजुर्री (178) ने इसे ज़ोहरीके माध्यम से रिवायत किया है, जो मुहम्मद बिन उबादा से रिवायत करते हैं और वह अपने पिता से रिवायत करते हैं।

इस हीदस के अब्दुल्लाह बिन अब्बास और अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुम- से वर्णित अन्य शवाहिद भी हैं। देखिए: इब्ने अबू आसिम की पुस्तक 'अस-सुन्नह' (1/49-51)

 दवा-इलाज तथा अन्य सांसारिक साधन अपनाने का आदेश

50- अबू ख़िज़ामा अपने पिता -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णन करते हैं कि उन्होंने कहा: {ऐ अल्लाह के रसूल! झाड़-फूँक जो हम कराते हैं, दवा-इलाज जिसका हम सहारा लेते और बीमारी से बचने के अन्य उपायों, जो हम अपनाते हैं, के बारे में आपका क्या ख़याल है? क्या ये चीज़ें अल्लाह के निर्णय को टाल सकती हैं? तो आपने उत्तर दिया:

"ये भी अल्लाह के निर्णय का हिस्सा हैं।} [148]

इस हदीस को इमाम अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने इसे हसन कहा है।

50- यह हदीस सहीह है। इसे अहमद ने मुसनद (3/421) और तिरमिज़ी ने किताब अत-तिब्ब (4/349) (हदीस संख्या: 2065) तथा किताब अअल-क़द्र (4/395) (हदीस संख्या: 2148) और इब्ने माजा ने किताब अत-तिब्ब (2/1137) (हदीस संख्या: 3473) में रिवायत किया है। इन सारे लोगों ने इसे सुफ़यान बिन उययना के माध्यम से रिवायत किया है, तथा उन्होंने ज़ोहरी से और उन्होंने अबू ख़िज़ामा से रिवायत किया है।

इसे इमाम अहमद ने (3/421) में मुहम्मद बिन वलीद अज़-ज़बीदी के माध्यम से रिवायत किया है, जो ज़ोहरी से रिवायत करते हैं।

इसी तरह अहमद ने (3/421) में अम्र के माध्यम से भी रिवायत किया है, जो इब्ने शिहाब ज़ोहरी से रिवायत करते हैं।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

मुसनद अहमद, तिरमिज़ी की एक रिवायत और इब्ने माजा में है: इब्ने अबी ख़िज़ामा अपने पिता से रिवायत करते हैं।

 शक्तिशाली मोमिन कमज़ोर मोमिन के मुकाबले में अल्लाह के समीप अधिक बेहतर तथा प्रिय है।

51- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{शक्तिशाली मोमिन कमज़ोर मोमिन के मुकाबले में अल्लाह के समीप अधिक बेहतर तथा प्रिय है। किंतु, प्रत्येक के अंदर भलाई है। जो चीज़ तुम्हारे लिए लाभदायक हो, उसके लिए तत्पर रहो और अल्लाह की मदद माँगो तथा असमर्थता न दिखाओ। फिर यदि तुम्हें कोई विपत्ति पहुँचे, तो यह न कहो कि यदि मैंने ऐसा किया होता, तो ऐसा और ऐसा होता। बल्कि यह कहो कि अल्लाह ने ऐसा ही भाग्य में लिख रखा था और वह जो चाहता है, करता है। क्योंकि ‘अगर’ शब्द शैतान के कार्य का द्वार खोलता है।} [149]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

51- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-क़द्र (4/2052) (हदीस संख्या 2664) में रिवायत किया है।


 अध्याय: फ़रिश्तों और उन पर ईमान का बयान

अल्लाह तआला का फ़रमान है: {भलाई ये नहीं है कि तुम अपना मुख पूर्व अथवा पश्चिम की ओर फेर लो, बल्कि वास्तव में अच्छा वह व्यक्ति है जो अल्लाह पर, परलोक के दिन पर, फरिशतों पर, अल्लाह की किताबों पर और नबियों पर ईमान रखने वाला हो।} [150] [सूरा अल-बक़रा: 177]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {निश्चय जिन्होंने कहा कि हमारा पालनहार अल्लाह है, फिर इसी पर स्थिर रह गए, तो उन पर फ़रिश्ते उतरते हैं (और कहते हैं) कि भय न करो और न उदास रहो तथा उस स्वर्ग से प्रसन्न हो जाओ, जिसका वचन तुम्हें दिया जा रहा है।} [151] [सूरा फ़ुस्सिलत: 30]

एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {मसीह कदापि अल्लाह के बंदे होने को अपमान नहीं समझते और न समीपवर्ती फ़रिश्ते।} [152] [सूरा अन-निसा: 172]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {और उसी का है, जो आकाशों तथा धरती में है और जो फ़रिश्ते उसके पास हैं, वे उसकी इबादत (वंदना) से अभिमान नहीं करते और न थकते हैं। वे रात और दिन उसकी पवित्रता का गान करते हैं तथा आलस्य नहीं करते।} [153] [सूरा अल-अंबिया: 19 , 20]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {जो बनाने वाला है संदेशवाहक फ़रिश्तों को दो-दो, तीन-तीन, चार-चार परों वाला।} [154] [सूरा फ़ातिर: 1]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {वह फ़रिश्ते, जो अपने ऊपर अर्श को उठाए हुए हैं, तथा जो उसके आस-पास हैं, वह पवित्रतागान करते रहते हैं अपने पालनहार की प्रशंसा के साथ तथा उस पर ईमान रखते हैं और क्षमायाचना करते रहते हैं उनके लिए जो ईमान लाए हैं।} [155] [सूरा अल-मोमिन: 7]

 फ़रिश्तों को नूर से पैदा किया गया है

52- आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से रिवायत है, वह कहती हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{फ़रिश्ते नूर से पैदा किए गए हैं, जिन्न धधकती आग से पैदा किए गए हैं और आदम -अलैहिस्सलाम- उस चीज़ से पैदा किए गए हैं, जिसके बारे में तुम्हें बताया गया है।} [156]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

52- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अज़-ज़ुह्द (4/2294) (हदीस संख्या:2996) में रिवायत किया है।

"الجان": यानी जिन्न

"المارج": यानी आग की वह लपटें, जिनमें आग का कालापन मिला हुआ हो।

अल्लामा शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ -रहिमहुल्लाह- फ़रमाते हैं:

जहाँ तक फ़रिश्तों पर ईमान का संबंध है, तो वह उन पर सार रूप से तथा विस्तार रूप से ईमान रखने पर आधारित है। चुनाँचे एक मुसलमान विश्वास रखता है कि फ़रिश्ते अल्लाह की एक सृृृष्टि हैं, जिनको उसने महज़ अपने आज्ञापालन के लिए पैदा किया है और उनके बारे में बताया है कि वह अल्लाह के सम्मानित बंदे हैं, जो उससे आगे बढ़कर बात नहीं करते और केवल उसी के आदेश का पालन करते हैं।

फ़रिश्ते भी बहुत तरह के हैं। कुछ फ़रिश्ते अल्लाह का अर्श उठाए रखने के कार्य पर नियुक्त हैं, कुछ जन्नत तथा जहन्नम की चौकीदारी का काम करते हैं, और कुछ बंदों के कर्मों को लिखकर सुरक्षित करने की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं।

विस्तार में जाएँ, तो हम उन सभी फ़रिश्तों पर ईमान रखते हैं, जिनका नाम अल्लाह तथा उसके रसूल ने लिया है, जैसे जिबरील, मीकाईल, जहन्नम के दारोगा मालिक तथा सूर में फूँक मारने के कार्य पर नियुक्त फ़रिश्ता इसराफ़ील।

 प्रत्येक दिन 'अल-बैत अल-मामूर' में सत्तर हज़ार फ़रिश्ते प्रवेश करते हैं

53- {मेराज की कुछ हदीसों में साबित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को 'अल-बैत अल-मामूर' की सैर कराई गई, जो सातवें आकाश में और कुछ लोगों के अनुसार छठे आकाश में काबा की सीध में स्थित है। आकाश में उसका वही सम्मान है, जो धरती में काबा का है। आपने देखा कि वहाँ प्रत्येक दिन सत्तर हज़ार फ़रिश्ते प्रवेश करते हैं और क़यामत तक उनको दोबारा वहाँ जाना नसीब नहीं होता।} [157]

53- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब बदउल-ख़ल्क़ (6/302) (हदीस संख्या: 3207) और इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-ईमान (1/149) (हदीस संख्या: 164) में रिवायत किया है।

इमाम मुस्लिम ने इसे साबित अल-बुनानी के माध्यम से भी रिवायत किया है, जो अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु- से और वह नबी -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- से रिवायत करते हैं।

54- आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से रिवायत है, वह कहती हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {आकाश में क़दम रखने के बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कोई फ़रिश्ता सजदे में न हो या नमाज़ में खड़ा न हो। इसी का उल्लेख फ़रिश्तों के इस कथन में है।} [158]: {तथा हम ही (आज्ञापालन के लिए) पंक्तिबद्ध हैं और हम ही तस्बीह (पवित्रता गान) करने वाले हैं।} [159] [सूरा अस-साफ़्फ़ात: 165, 166]

इसे मुहम्मद बिन नस्र, इब्न अबू हातिम, इब्न जरीर तथा अबुश-शैख़ ने रिवायत किया है।

54- यह हदीस सहीह है। इसे मुहम्मद बिन नस्र अल-मरवज़ी ने किताब 'अस-सलात' (1/260), इब्ने जरीर तबरी ने अपनी तफ़सीर (23/111, 112) तथा अबुश-शैख़ ने अपनी किताब 'अल-अज़मह' (3/984) (हदीस संख्या: 508) में फ़ज़्ल बिन ख़ालिद अबू मुआज़ अन-नहवी के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की उबैद बिन सुलैमान ने, जो कहते हैं कि मैंने ज़ह्हाक को अल्लाह तआला के इस कथन के बारे में: {तथा हम ही (आज्ञापालन के लिए) पंक्तिबद्ध हैं। और हम ही तस्बीह (पवित्रता गान) करने वाले हैं।} [160] कहते हुए सुना है कि मसरूक़ बिन अजदा आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से रिवायत करते थे कि उन्होंने कहा: नबी -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया...। फिर हदीस बयान की।

लेकिन उसकी सनद में फ़ज़्ल बिन ख़ालिद नाम का एक वर्णनकर्ता है, जिसे इब्ने हिब्बान के अतिरिक्त किसी ने सिक़ा नहीं कहा है। अलबत्ता, इसके कई शवाहिद मौजूद हैं, जो अबूज़र -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित हैं। यह हदीस, हदीस संख्या (15) में गुज़र चुकी है।

साथ ही अबुश-शैख़ की पुस्तक 'अल-अज़मह' (3/982-986), मरवज़ी की पुस्तक 'अस-सलात' तथा अल्लामा अलबानी की पुस्तक 'अस-सिलसिलह अस-सहीहह' (हदीस संख्या: 1059) भी देख सकते हैं।

55- तबरानी ने जाबिर बिन अब्दुल्लाह -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से रिवायत किया है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{सातों आकाशों में पाँव धरने के बराबर, बित्ता भर और हथेली भर भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कोई फ़रिश्ता नमाज़ में खड़ा न हो, या कोई फ़रिश्ता रुकू में न हो अथवा कोई फ़रिश्ता सजदे में न हो। इसके बावजूद जब क़यामत का दिन आएगा, तो सबके सब कहेंगे: ऐ अल्लाह! तू पवित्र है। हमसे तेरी वैसी इबादत हो न सकी, जैसी होनी चाहिए थी। हाँ, हमने इतना ज़रूर किया है कि किसी को तेरा साझी नहीं ठहराया।}

55- इसे तबरानी ने अपनी पुस्तक 'अल-कबीर' (2/200) (हदीस संख्या: 1751) में उरवा बिन मरवान के तरीक़ से रिवायत किया है, जबकि मरवज़ी ने 'ताज़ीम क़द्र अस-सलात' (1/267) में ज़करिया बिन अदी के तरीक़ से रिवायत किया है और दोनों ने अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन अब्दुल करीम बिन मालिक से, उन्होंने अता बिन अबू रबाह से और उन्होंने जाबिर से रिवायत किया है। हैसमी अपनी पुस्तक 'मजमा अज़-ज़वाइद' (1/52) में कहते हैं: इसमें उरवा बिन मरवान नामी एक वर्णनकर्ता है।

लेकिन मैं कहता हूँ: परन्तु, मरवज़ी के यहाँ ज़करिया बिन अदी ने उसकी मुताबअत कर दी है।

साथ ही पिछली हदीस एवं अन्य हदीसें उसकी शाहिद का काम करती हैं ।

 अर्श को उठाए हुए फ़रिश्तों की कुछ विशेषताएँ

56- जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {मुझे इस बात की अनुमति दी गई है कि अर्श को उठाने वाले फ़रिश्तों में से एक फ़रिश्ते के बारे में बताऊँ। दरअसल, उसकी कर्णपाली (कान की लौ) से कंधे तक की दूरी सात सौ साल की दूरी के बराबर है।} [161]

इसे अबू दाऊद ने, तथा बैहक़ी ने 'अल-असमा वस-सिफ़ात' में और ज़िया ने 'अल-मुख़तारह' में रिवायत किया है।

फ़रिश्तों के बीच जिबरील -अलैहिस्सलाम- को उच्च स्थान प्राप्त है। अल्लाह ने उनको अमानतदार, अच्छे व्यवहार का मालिक तथा शक्तिशाली कहा है। {सिखाया है जिसे उनको शक्तिवान ने। बड़े शक्तिशाली ने। फिर वह सीधा खड़ा हो गया।} [162] [सूरा अन-नज्म: 5, 6]

उनकी शक्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने लूत -अलैहिस्सलाम- के समुदाय के नगरों को, जिनकी संख्या सात थी, उनके अंदर रहने वाले लोगों के साथ-साथ, जिनकी संख्या चार लाख के आस-पास थी, उनके साथ रहने वाले चौपायों तथा जानवरों एवं खेतों तथा मकानों समेत, अपने पंख के एक किनारे में उठाकर आकाश के इतना निकट ले गए कि फ़रिश्तों को उनके कुत्तों के भूँकने तथा मुर्गों के बाँग देने की आवाज़ सुनाई देने लगी, फिर उनको पलटकर उनके ऊपरी भाग को नीचे कर दिया।

यह उनके शक्तिशाली होने का एक उदाहरण है।

अल्लाह तआला के शब्द "ذو مرۃ" का अर्थ है: अच्छी तथा सुंदर बनावट वाला और बड़ा शक्तिशाली।

यह अर्थ इब्ने-अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- का बताया हुआ है।

जबकि अन्य लोगों के अनुसार "ذو مرۃ" का अर्थ शक्तिशाली है।

अल्लाह तआला ने जिबरील -अलैहिस्सलाम- की कुुछ अन्य विशेषताएँ इस प्रकार बयान की हैं: {यह (क़ुरआन) एक मान्यवर स्वर्ग दूत का लाया हुआ कथन है। जो शक्तिशाली है। अर्श के मालिक के पास उच्च पद वाला है। जिसकी बात मानी जाती है और बड़ा अमानतदार है।} [163] [सूरा अत-तकवीर: 19-21] यानी वह बड़ी क़ूवत तथा शक्ति के मालिक हैं और अर्श वाले के पास बड़ा पद तथा प्रतिष्ठा रखते हैं। {जिसकी बात मानी जाती है और बड़ा अमानतदार है।} [164] यानी निकटवर्ती फ़रिश्तों में उनकी बात मानी जाती है, और बड़े अमानतदार हैं। यही कारण है कि वह अल्लाह एवं उसके रसूलों के बीच दूत का काम करते हैं।

56- यह हदीस सहीह है। इसे अबू दाऊद ने किताब अस-सुन्नह (4/332) (हदीस संख्या: 4727) और बैहक़ी ने 'अल-असमा वस-सिफ़ात' (846) में इबराहीम बिन तहमानके माध्यम से रिवायत किया है, जो मूसा बिन उक़बा से रिवायत करते हैं तथा वह मुहम्मद बिन मुंकदिर से रिवायत करते हैं और वह जाबिर बिन अब्दुल्लाह -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णन करते हैं।

तथा इसे अबू नुऐम ने जाबिर एवं अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुम- से इसी की भाँति रिवायत किया है, जिसमें कुछ वृद्धि भी है।

अबू नुऐम कहते हैं: हमसे हदीस बयान की अब्दुल्लाह बिन ख़ालिद मक्की बिन अबदान ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सईद बिन मुहम्मद ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की जाफ़र बिन उमर ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की मुहम्मद बिन अजलान ने, उन्होंने रिवायत की है मुहम्मद से और वह वर्णन करते हैं जाबिर तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुम- से।

इस हदीस की एक शाहिद अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु- से भी वर्णित है, जिसे तबरानी ने 'अल-औसत' (2/425) में रिवायत किया है और हाफ़िज़ ने 'फ़तहुल बारी' (8/665) में सहीह कहा है।

देखिए: 'अस-सिलसिलह अस-सहीहह' (हदीस संख्या: 150, 151)

 जिबरील -अलैहिस्सलाम- के पंख

57- जिबरील अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास विभिन्न रूप में आते थे। आपने उनको, उसी रूप में, जिसमें अल्लाह ने उनको पैदा किया है, दो बार देखा है। उनके छः सौ पर थे।

इसे बुख़ारी ने अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

57- इसे बुख़ारी ने बदउल ख़ल्क़ (6/313) (हदीस संख्या: 3332), अत-तफ़सीर (8/610) (हदीस संख्या: 4856, 4857) में और मुस्लिम ने किताब अल-ईमान (1/158) (हदीस संख्या: 174) में रिवायत किया है।

58- तथा इमाम अहमद ने अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है, वह कहते हैं: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जिबरील को उनके असली रूप में देखा है। उनके छः सौ पर थे और प्रत्येक पर क्षितिज को ढांप रहा था। उनके परों से विभिन्न प्रकार के इतने रंग, मोती और याक़ूत झड़ रहे थे कि अल्लाह ही बेहतर जानता है।} [165]

इसकी सनद क़वी (मज़बूत) है।

58- यह हदीस सहीह है। इसे अहमद ने मुसनद (1/395) में हज्जाज के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की शरीक ने, जो आसिम से रिवायत करते हैं और वह अबू वाइल से तथा वह अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत करते हैं।

तथा अबुश शैख ने 'अल-अज़मह' (3/978) (हदीस संख्या: 502) में आदम के माध्यम से रिवायत किया है, जो शरीक से रिवायत करते हैं।

जबकि अहमद ने इसे मुसनद (1/407) में हुसैन बिन आसिम के माध्यम से रिवायत किया है, जो अबू वाइल से रिवायत करते हैं।

इसी तरह अहमद ने (1/412, 460), अबुश-शैख़ ने (3/977) (हदीस संख्या: 501) और अबू याला ने (8/409) (हदीस संख्या: 4993) (9/243) (हदीस संख्या: 5360) में इसे हम्माद बिन सलमा के माध्यम से रिवायत किया है, जो आसिम से तथा वह ज़िर्र से और वह अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत करते हैं।

इस हदीस की और भी बहुत सारी सनदें हैं, जिन्हें 'अल-बिदायह वन-निहायह' में नक़ल करने के बाद इब्ने कसीर कहते हैं: ये सनदें जय्यिद (उत्तम) हैं, जिनसे केवल इमाम अहमद ने इस हदीस को रिवायत किया है।

 जिबरील के कपड़ों का वर्णन

59- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं कि {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जिबरील को उनके असली रूप में देखा, जो हरे रंग का जोड़ा पहने हुए थे और आकाश तथा धरती के बीच के पूरे खाली स्थान को भर रखा था।

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

59- इसे तिरमिज़ी ने किताब अत-तफ़सीर (5/369) (हदीस संख्या: 3283) और अहमद ने मुसनद (1/394, 418), अबू याला ने अपनी मुसनद (8/434) (हदीस संख्या: 5018) और बैहक़ी ने दलाइल अन-नुबुव्वह (2/367) में इसराईल बिन अबू इसहाक़ के माध्यम से रिवायत किया है, जबकि वह अब्दुर रहमान बिन यज़ीद से और वह अब्दुल्लाह बिन मसऊद से उसी की भाँति रिवायत करते हैं।

जबकि तयालिसी (43) (हदीस संख्या: 323) ने इसे क़ैस के माध्यम से और उन्होंने अबू इसहाक़ से इसी की भाँति रिवायत किया है।

मुझे यह हदीस सहीह मुस्लिम में न मिल सकी। जबकि सुयूती 'अद-दुर्र अल-मनसूर' (6/123) में कहते हैं: "फ़रयाबी, अब्द बिन हुमैद और तिरमिज़ी ने इसकी तख़्रीज की है, और इन्होंने इसे सहीह भी कहा है। इसी तरह इब्ने जरीर, इब्न अल-मुनज़िर, तबरानी, अबुश-शैख़,और हाकिम ने भी इसे सहीह कहा है। इब्न मरदुवैह, अबू नुऐम और बैहक़ी ने 'दलाइल अन-नुबुव्वह' में अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अनहु- से अल्लाह तआला के फ़रमान: {مَا كَذَبَ الْفُؤَادُ مَا رَأَىٰ} (जो कुछ उन्होंने देखा उसे उनके दिल ने नहीं झुठलाया।) [166] के बारे में रिवायत किया है कि वह कहते हैं: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जिबरील को देखा। उनके शरीर पर रेशम से बने दो बारीक कपड़े थे। उन्होंने आकाश तथा धरती के बीच के खाली स्थान को भर रखा था।} [167]

60- आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{मैंने जीबरील को उतरते हुए देखा। उन्होंने पूरब तथा पश्चिम के बीच के खाली स्थान को भर रखा था। उनके शरीर पर रेशमी कपड़े थे, जिनपर मोती और याक़ूत टँके हुए थे।} [168]

इसे अबुश-शैख़ ने रिवायत किया है।

60- मुझे यह हदीस इन शब्दों के साथ अबुश शैख़ की पुस्तक 'अल-अज़मह' में न मिल सकी। मुझे अबुश शैख़ की 'अल-अज़मह' (3/972) (हदीस संख्या:495) में जो हदीस मली, वह इस प्रकार है: आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से वर्णित है, वह कहती हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {मेंने जिबरील -अलैहिस्सलाम- को उतरते हुए देखा। उनके भारी भरकम शरीर ने आकाश तथा धरती के बीच के ख़ाली स्थान को ढाँप रखा था।} [169]

इसलिए कहा जा सकता है कि शायद लेखक -अल्लाह उनपर दया करे- ने उसे अर्थ को ध्यान में रखते हुए ज़िक्र किया है।

अलबत्ता इसे इन शब्दों के साथ इमाम मुस्लिम ने (1/158) में रिवायत किया है।

61- इब्ने जरीर ने अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से वर्णन किया है, वह कहते हैं: जिबरील का अर्थ हैअब्दुल्लाह (अल्लाह का दास), मीकाईल अल्लाह का अर्थ है उबैदुल्लाह ( अल्लाह का छोटा दास) तथा हर वह नाम, जिसमें 'ईल' शब्द है, उसका अर्थ '(अब्दुल्लाह) अल्लाह का दास' है।

61- इसे तबरी (1620) ने रिवायत किया है।

62- तथा तबरानी में अली बिन हुसैन से भी इसी तरह की रिवायत मौजूद है, जिसमें यह वृद्धि है: तथा इसराफ़ील का अर्थ है, अब्दुर्रहमान (रहमान का दास)

62- इसे तबरी ने (1625) तथा (1655) में रिवायत किया है।

 जिबरील -अलैहिस्सलाम- सर्वश्रेष्ठ फ़रिश्ते हैं

63- तबरानी ने अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{क्या मैं तुम्हें न बताऊँ कि सर्वश्रेष्ठ फ़रिश्ता कोन है? सर्वश्रेष्ठ फ़रिश्ता जिबरील हैं।}

63- इसे तबरानी ने 'अल-कबीर' (11/160) (हदीस संख्या: 11361) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की इबराहीम बिन नाइला असबहानी ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की शैबान बिन फ़र्रूख़ ने, वह कहते हैं हमसे हदीस बयान की अबू हुरमुज़ नाफ़े ने, वह रिवायत करते हैं अता बिन अबू रबाह से और वह वर्णन करते हैं अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {क्या मैं तुम्हें न बताऊँ कि सर्वश्रेष्ट फ़रिश्ता कौन है? सर्वश्रेष्ठ फ़रिश्ता जिबरील -अलैहिस्सलाम- हैं, सर्वश्रेष्ठ नबी आदम -अलैहिस्सलाम- हैं और सर्वश्रेष्ठ स्त्री मरयम बिंत इमरान हैं।}

हैसमी 'मजमा अज़-ज़वाइद' (8/198) में कहते हैं: इसकी सनद में नाफ़े बिन हुरमुज़ नाम का एक वर्णनकर्ता है, जो कि मतरूक है।

एक अन्य स्थान (3/140) में वह कहते हैं: वह ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

इसी तरह की बात उन्होंने एक और स्थान (2/165) में कही है।

 फ़रिश्तों का जहन्नम से भय

64- {अबू इमरान जूनी का वर्णन है कि उन्हें यह हदीस पहुँची है कि जिबरील -अलैहिस्सलाम- नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास रोते हुए आए, तो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उनसे पूछा:

"आप रो क्यों रहे हैं?"

उन्होंने उत्तर दिया: रोऊँ, क्यों नहीं? जिस दिन से अल्लाह ने जहन्नम को पैदा किया है, मेरी आँख इस भय से सूख नहीं पाई कि कहीं मैं अल्लाह की अवज्ञा कर बैठूँ और वह मुझे उसमें डाल दे।

इसे इमाम अहमद ने 'अज़-ज़ुह्द' में रिवायत किया है।

64- इस हदीस के संबंध में सुयूती ने 'अद-दुर्र अल-मनसूर' (1/93) में 'अज़-ज़ुह्द' का हवाला दिया है, लेकिन मुझे उसकी प्रकाशित प्रति में यह हदीस न मिल सकी।

अबू इम्रान अल-जौनी का नाम अब्दुल मलिक बिन हबीब हैं, और वह एक ताबई और सिक़ा (विश्वस्त) वर्णनकर्ता हैं, अतः हदीस मुरसल है।

 फ़रिश्ते केवल अल्लाह की अनुमति से उतरते हैं

65- बुख़ारी में अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जिबरील से कहा:

{क्या आप हमारे पास जितनी बार आते हैं, उससे अधिक नहीं आ सकते?} [170] तो यह आयत उतरी: {हम केवल आपके पालनहार के आदेश से उतरते हैं। उसी का है, जो हमारे सामने है और जो कुछ हमारे पीछे है और जो इसके बीच में है, तथा आपका पालनहार भूलने वाला नहीं है।} [171] [सूरा मरयम: 64]

श्रेष्ठ फ़रिश्तों में से एक मीकाईल -अलैहिस्लाम- हैं, जिनके ज़िम्मे बारिश बरसाने तथा पौधे उगाने के काम हैं:

65- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, बदउल-ख़ल्क़ (6/305) (हदीस संख्या: 2218) तथा अत-तफ़सीर (8/428) (हदीस संख्या: 4731) एवं अत-तौहीद (13/440) (हदीस संख्या: 7455) में रिवायत किया है।

66- तथा इमाम अहमद ने अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जिबरील से पूछा:

{बात क्या है कि मैंने मीकाईल को कभी हँसते हुए नहीं देखा?" उन्होंने उत्तर दिया: वह उस दिन से नहीं हँसे, जिस दिन जहन्नम को पैदा किया गया है।} [172]

श्रेष्ठ फ़रिश्तों में से एक इसराफ़ील -अलैहिस्सलाम- हैं, जो अर्श उठाने वाले फरिशतों में से एक हैं और जो सूर में फूँक मारेंगे।

66- इसे इमाम अहमद (3/224) ने रिवायत किया है। वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अबुल यमान ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इब्ने अय्याश ने, वह वर्णन करते हैं उमारा बिन ग़ज़िय्या अंसारी से, वह कहते हैं कि मैंने इब्न अल-मअल्ली के द्वारा मुक्त किए हुए दास जुबैर बिन उबैद को कहते हुए सुना है कि मैंने साबित अल-बुनानी से सुना कि उन्होंने अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु- से यह हदीस बयान की है।

इसे आजुर्री ने (पृष्ठ: 395) में इसी सनद से रिवायत किया है।

हैसमी 'मजमा अज़-ज़वाइद' (1/385) में कहते हैं: इसे अहमद ने इसमाईल बिन अय्याश कीरिवायत से बयान किया है जिसे उन्होंने मदनियों से रिवायत किया है। इस हदीस की यह रिवायत ज़ईफ़ (दुर्बल) है और इसके शेष वर्णनकर्ता सिक़ा (विश्वस्त) हैं।

 सूर वाले फ़रिश्ते ने उसमें फूँक मारने के लिए उसे अपने मुँह से लगा रखा है

67- तिरमिज़ी और हाकिम ने अबू सईद ख़ुदरी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने हसन भी कहा है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{"मैं कैसे चैन से रह सकता हूँ, जो सूर वाले फ़रिश्ते ने सूर को मुँह से लगा रखा है, पेशानी को झुका रखा है और इस प्रतीक्षा में कान लगा रखा है कि कब उसे आदेश मिल जाए और फूँक मार दे?"

सहाबा ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! ऐसे में हम क्या कहें?

आपने फ़रमाया: "तुम कहो: हमारे लिए अल्लाह ही काफ़ी है और वह अच्छा काम बनाने वाला है,हमने अल्लाह पर भरोसा किया।} [173]

67- इसे इब्न अल-मुबारक ने 'अज़-ज़ुह्द' (557) (हदीस संख्या: 1597) में रिवायत किया है और उन्हीं की सनद से तिरमिज़ी ने किताब सिफ़त अल-क़ियामह (4/536) (हदीस संख्या: 2431) रिवायत किया है। जबकि अहमद (4/374) ने ख़ालिद बिन तहमान के माध्यम से, उन्होंने अतिय्या से और उन्होंने अबू सईद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है।

जबकि हुमैदी (2/333) (हदीस संख्या: 754), अहमद (3/7) तथा अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (7/312) में सुफ़यान के माध्यम से, उन्होंने मुतर्रिफ़ से और उन्होंने अतिय्या से रिवायत किया है।

हाकिम (4/559) ने इसे मुतर्रिफ़ के माध्यम से और उन्होंने अतिय्या से रिवायत किया है।

तथा अबुश शैख ने 'अल-अज़मह' (3/854) (हदीस संख्या: 397) में अम्मार अद-दुह्नी के माध्यम से रिवायत किया है और उन्होंने अतिय्या से रिवायत किया है।

इसी तरह अबू नुऐम (2/105) ने सुफ़यान सौरी के माध्यम से, उन्होंने अम्र बिन उमय्या से और उन्होंने अतिय्या से रिवायत किया है।

इसकी सनद में अतिय्या ऊफ़ी नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

लेकिन उसकी मुताबअत अबू सालेह ने कर दी है।

इसे अबू याला (2/339) (हदीस संख्या: 1084) तथा इब्ने हिब्बान (3/105) (हदीस संख्या: 823) ने जरीर के माध्यम से, उन्होंने, आसर से, उन्होंने अबू सालेह से और उन्होंने अबू सईद ख़ुदरी -रज़यल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

जबकि अबुश शैख़ ने 'अल-अज़मह' (3/851) (हदीस संख्या: 396) और हाकिम (4/559) ने आमश के माध्यम से, उन्होंने अबू सालेह से और उन्होंने अहू सईद -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

 इसराफ़ील की विशेषता, जो कि अर्श को उठाने वाले फ़रिश्तों में शामिल हैं

68- अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अर्श को उठाकर रखने वाले फ़रिश्तों में एक फ़रिश्ते का नाम इसराफ़ील है, जिसके कंधे पर अर्श का एक कोना है। उसके दोनों क़दम निचली सातवीं धरती पर है और उसका सर ऊपरी सातवें आकाश तक पहुँचा हुआ है।} इसे अबुश शैख़ ने तथा अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' में रिवायत किया है।

68- इसे अबुश शैख़ (2/697) (हदीस संख्या: 288), (3/949) (हदीस संख्या: 477) तथा अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (6/65) में मुहम्मद बिन मुसफ़्फ़ा के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की है यहया बिन सईद ने, जो इसमाईल बिन अय्याश से रिवायत करते हैं, वह अहवस बिन हकीम से रिवायत करते हैं, वह शह्र बिन हौशब से रिवायत करते हैं और वह अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत करते हैं।

इसकी सनद में यहया बिन सईद अत्तार नाम का एक वर्णनकर्ता है, जो ज़ईफ़ (दुर्बल) है और अहवस बिन हकीम भी कमज़ोर याददाश्त वाला वर्णनकर्ता है।

69- तथा अबुश शैख़ ने औज़ाई से वर्णन किया है कि वह कहते हैं: अल्लाह की किसी सृष्टि की आवाज़ इसराफ़ील से अधिक सुंदर नहीं है। जब वह तसबीह पढ़ने लगते हैं, तो सातों आकाशों वालों की नमाज़ तथा तसबीह को काट देते हैं।

श्रेष्ठ फ़रिश्तों में से एक मृत्यु का फ़रिश्ता भी है:

उनका नाम स्पष्ट रूप से क़ुरआन तथा सहीह हदीसों में उल्लिखित नहीं है। जबकि कुछ आसार में उसका नाम अज़राईल आया है। [174] अल्लहा बेहतर जानता है। यह बात हाफ़िज़ इब्ने कसीर ने कही है। वह आगे कहते हैं: ज़िम्मेवारियों की दृष्टि से फ़रिश्ते कई प्रकार के होते हैं:

कुछ फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए हैं।

कुछ फ़रिश्ते कर्रूबी कहलाते हैं, जो अर्श के आस-पास रहते हैं। ये तथा अर्श को उठाए रखने वाले फ़रिश्ते निकटवर्ती फ़रिश्ते कहलाते हैं और सर्वश्रेष्ठ फ़रिश्ते शुमार होते हैं। जैसा अल्लाह तआला का फ़रमान है: {मसीह कदापि अल्लाह के बंदे होने को अपमान नहीं समझते और न समीपवर्ती फ़रिश्ते।} [175] [सूरा अन-निसा: 172][176]

कुछ फ़रिश्ते सातों आकाशों में रहते हैं और रात-दिन तथा सुबह-शाम अल्लाह की इबादत में लगे रहते हैं। जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {वे रात और दिन उसकी पवित्रता का गान करते हैं तथा आलस्य नहीं करते।} [177] [अल-अंबिया: 20]

कुछ फ़रिश्ते 'अल-बैत अल-मामूर' आते-जाते रहते हैं।

मैं कहता हूँ: बज़ाहिर यही लगता है कि आकाशों में रहने वाले फ़रिश्ते ही 'अल-बैत अल-मामूर' आते-जाते रहते हैं।

कुछ फ़रिश्ते जन्नतों की दखभाल तथा जन्नतियों के आदर-सत्कार, जैसे उनके लिए वस्त्रतों, खाने-पीने की वस्तुओं, आभूषणों एवं ठहरने के स्थानों आदि, जिन्हें न किसी आँख ने देखा है, न किसी कान ने सुना है और न किसी दिल में उनका ख़याल आया है, की व्यवस्था हेतु नियुक्त हैं। जबकि कुछ फ़रिश्ते जहन्नम -अल्लाह हमें उससे बचाए- की देखभाल पर नियुक्त हैं। इन फ़रिश्तों को ज़बानिया कहा जाता है। इन के अगुवा उन्नीस फ़रिश्तेहैं। इनके अगुआ तथा जहन्नम के दरोगा का नाम मालिक है। इन्हीं फ़रिश्तों का ज़िक्र अल्लाह तआला के इस फ़रमान में है: {तथा कहेंगे जो अग्नि में हैं, नरक के रक्षकों से: अपने पालनहार से प्रार्थना करो कि हमसे किसी दिन कुछ यातना हल्की कर दे।} [178] [अल-मोमिनून: 49] और अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {तथा वे पुकारेंगे कि हे मालिक! तेरा पालनहार हमारा काम ही तमाम कर दे। वह कहेगा: तुम्हें इसी दशा में रहना है।} [179] [सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़: 77] और अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {जिस पर कड़े दिल, कड़े स्वभाव वाले फ़रिश्ते नियुक्त हैं। वह अल्लाह के आदेश की अवज्ञा नहीं करते तथा वही करते हैं, जिसका आदेश उन्हें दिया जाए।} [180] [सूरा अत-तहरीम: 6] और अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {नियुक्त हैं उनपर उन्नीस (रक्षक फ़रिश्ते)। और हमने नरक के रक्षक फ़रिश्ते ही बनाए हैं।} [181] अल्लाह के इस कथन तक: {और आपके पालनहार की सेनाओं को उसके सिवा कोई नहीं जानता।} [182] [अल-मुद्दस्सिर: 30-31]

तथा कुछ फ़रिश्ते इनसानों की सुरक्षा पर नियुक्त हैं। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: {उस (अल्लाह) के रखवाले (फ़रिश्ते) हैं, उसके आगे तथा पीछे, जो अल्लाह के आदेश से उसकी रक्षा कर रहे हैं।} [183] [सूरा अर-राद: 11]

अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं: यह ऐसे फ़रिश्ते हैं, जो इनसान के आगे तथा पीछे से उसकी रक्षा करते हैं। फिर जब अल्लाह का आदेश आएगा, तो उसे छोड़कर हट जाएँगे। [184]

मुजाहिद कहते हैं: हर बंदे पर एक फ़रिश्ता नियुक्त होता है, जो उसके सोते-जागते जिन्नों, इनसानों और हानिकारक जावरों से उसकी सुरक्षा करता है। जब भी इनमें से कोई चीज़ उसे कष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से आती है, तो वह उससे कहता है: दूर हो जाओ। हाँ, यदि कोई ऐसी वस्तु आए, जिसकी अनुमति अल्लाह ने दी हो, तो वह उसे पहुँच जाती है।

तथा कुछ फ़रिश्ते बंदों के कर्मों की सुरक्षा पर नियुक्त हैं। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: {जबकि (उसके) दाएँ-बाएँ दो फ़रिश्ते लिख रहे हैं। वह नहीं बोलता कोई बात, मगर उसे लिखने के लिए उसके पास एक निरीक्षक तैयार होता है।} [185] [सूरा क़ाफ़: 17, 18] और अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {जबकि तुमपर निरीक्षक हैं। जो माननीय लेखक हैं। वे, जो कुछ तुम करते हो, जानते हैं।} [186] [सूरा अल-इनफ़ितार: 10-12]

69- इसे अबुश शैख़ ने 'अल-अज़मह' (3/856) (हदीस संख्या: 400) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की मुहम्मद बिन इसहाक़ बिन वलीद ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सलमा ने, वह कहते हैं कि मैंने रव्वाद बिन जर्राह को कहते हुए सुना और वह कहते हैं कि मैंने औज़ाई को कहते हुए सुना है और उसके बाद यह हदीस बयान की है।

लेकिन इसकी सनद में रव्वाद बिन जर्राह नाम का वर्णनकर्ता है, जो अंतिम आयु में इख़्तिलात का शिकार होने के कारण मतरूक हो गया था।

 अल्लाह के फ़रिश्तों से हया करने की अनिवार्यता तथा निर्वस्त्र होने की मनाही

70- बज़्ज़ार ने अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह तुम्हें निर्वस्त्र होने से मना करता है। अतः, अल्लाह के फ़रिश्तों से हया करो, जो तुम्हारे साथ रहते हैं। वे सम्मानित लिखने वाले हैं, जो केवल तीन अवस्थाओं में ही तुम्हारा साथ छोड़ते हैं ; पेशाब-पाखाने के समय, सहवास के समय और स्नान के समय। अतः, जब तुममें से कोई खाली स्थान में स्नान करे, तो अपने कपड़े, दीवार की आड़ अथवा किसी अन्य वस्तु के द्वारा परदा करे।}

हाफ़िज़ इब्ने कसीर कहते हैं: "उनके सम्मान का मतलब यह है कि उनसे हया की जाए और उन्हें बुरा कर्म लिखने पर मजबूर न किया जाए। क्योंकि उन्हें रचना तथा स्वभाव के दृष्टिकोण से सम्मानित बनाकर पैदा किया गया है।"

उन्होंने आगे जो कुछ कहा है, उसका सार है: उनकी मर्यादा तथा मान-सम्मान का एक उदाहरण यह है कि वे ऐसे घर में प्रवेश नहीं करते, जिसमें कुत्ता, छवि, जुनुबी व्यक्ति एवं मूर्ति हो। इसी तरह ऐसे लोगों के साथ नहीं होते, जिनके साथ कुत्ता अथवा घंटी हो।

70- 'कश्फ़ अल-असतार', किताब अत-तहारह (1/160) (हदीस संख्या: 317) के अनुसार इसे बज़्ज़ार ने अपनी मुसनद में हफ़्स बिन सुलैमान के माध्यम से रिवायत किया है, उन्होंने अलक़मा बिन मरसद से रिवायत किया है, उन्होंने मुजाहिद से रिवायत किया है और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है।

जबकि बज़्ज़ार कहते हैं: हमारी जानकारी के अनुसार यह हदीस अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से केवल इसी सनद से वर्णित है तथा हफ़्स हदीस के एक कमज़ोर वर्णनकर्ता हैं।

हैसमी (1/268) कहते हैं: "इसे बज़्ज़ार ने रिवायत किया है और साथ ही यह भी कहा है कि यह हदीस अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से केवल इसी सनद से वर्णित है, और जाफ़र बिन सुलैमान एक दुर्बल वर्णनकर्ता है।

हैसमी कहते हैं कि: लेकिन मैं कहता हूँ: जाफ़र बिन सुलैमान सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम के वर्णनकर्ताओं में शामिल हैं और यही हाल इसके शेष वर्णनकर्ताओं का भी है।और अल्लाह बेतरह जानता है।

मैं कहता हूँ: इसकी सनद में जाफ़र नहीं, बल्कि हफ़्स यानी हफ़्स बिन सुलैमान अल-असदी अबू उमर बज़्ज़ार हैं, जो आसिम के शिष्य, (प्रसिद्ध) क़ारी, हफ़्स बिन अबू दाऊद हैं। संभव है कि हैसमी से लिखने में गलती हुई हो।

हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी हफ़्स के बारे में कहते हैं: यह क़िराअत के इमाम होने के बावजूद हदीस वर्णन के संबंध में मतरूक हैं।

जबकि इस हदीस की एक शाहिद याला बिन उमय्या से इन शब्दों के साथ मरफ़ूअन वर्णित है: {बेशक सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह हया करने वाला और परदा करने वाला है, तथा हया और परदे को पसंद करता है। अतः, जब तुममें से कोई व्यक्ति स्नान करे, तो परदा करे। आपने यह बात एक व्यक्ति से कही थी, जो निर्वस्त्र होकर स्नान कर रहा था।} [187] इसे अबू दाऊद ने रवायत किया है। (4/39) (हदीस संख्या: 4012)। इसी तरह उसकी एक शाहिद बह्ज़ बिन हकीम की मर्फ़ू हदीस भी है, जिसे वह अपने पिता से और वह उनके दादा से इन शब्दों में रिवायत करते हैं: {लोगों की तुलना में अल्लाह इस बात का अधिक हक़दार है कि उससे हया की जाए।} [188] इसे अबू दाऊद, नसई, तिरमिज़ी तथा इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

नववी (4/32) कहते हैं: ज़रूरत के समय एकांत में शरीर के छुपानेयोग्य भागों को खोलना जायज़ है। उदाहरणस्वरूप स्नान, पेशाब-पाखाना और स्त्री से सहवास आदि के समय एकांत में खोला जा सकता है। परन्तु इन अवस्थाओं के लिये भी लोगों की उपस्थिति में खोलना हराम है। उलेमा कहते हैं: स्नान के समय एकांत में भी तहबंद आदि से परदा रखना छुपानेयोग्य अंगों को खोलने से अच्छा है। अलबत्ता, नहाने तथा इस तरह के अन्य कामों में आवश्यकता के समय खोलना भी जायज़ है। मगर हाँ, सही मत के अनुसार आवश्यकता से अधिक खोलना हराम है।

 हमारे पास फ़रिश्तों का रात तथा दिन में बारी-बारी आना-जाना

71- मालिक, बुख़ारी एवं मुस्लिम ने अबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{तुम्हारे पास रात तथा दिन के फ़रिश्ते बारी-बारी आते-जाते रहते हैं, जो फ़ज्र तथा अस्र की नमाज़ में एकत्र होते हैं। फिर जब वह फ़रिश्ते अल्लाह की ओर चढ़ते हैं, जो तुम्हारे पास रात गुज़ारकर जाते हैं, तो अल्लाह, जो बेहतर जानता है, उनसे पूछता है कि तुम मेरे बंदों को किस अवस्था में छोड़ आए हो? वह उत्तर देते हैं: हम जब उन्हें छोड़ आए थे, तो वे नमाज़ पढ़ रहे थे और जब उनके पास पहुँचे थे, तब भी वे नमाज़ पढ़ रहे थे।} [189]

71- इसे इमाम मालिक ने 'अल-मुवत्ता' किताब क़स्र अस-सलात फ़ी अस-सफ़र (1/170) में और उन्हीं की सनद से इमाम बुख़ारी ने किताब मवाक़ीत अस-सलात (2/33) (हदीस संखअया: 555) तथा किताब अत-तौहीद (13/415) (हदीस संखअया: 7429), (13/461) (हदीस संखअया: 7468) और इमाम मुस्लिम ने किताब अल-मसाजिद (1/439) (हदीस संखअया: 632), साथ ही इमाम बुख़ारी ने बदउल ख़ल्क़ (6/306) (हदीस संख्या: 3223) तथा इमाम मुस्लिम (1/429) (हदीस संख्या: 632) एवं अहमद (2/2/31) में रिवायत किया है। हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी 'फ़तहुल बारी' में लिखते हैं:

"तुम्हारे पास बारी-बारी आते-जाते रहते हैं": यानी तुम नमाज़ियों अथवा मोमिनों के पास।

"फ़रिश्ते": कुछ लोगों के अनुसार इससे मुराद लोगों की निगरानी में लगे हुए फ़रिश्ते हैं। जबकि क़ुरतुबी कहते हैं: मेरे निकट अधिक स्पष्ट बात यह है कि इनसे मुराद निगरानी पर नियुक्त फ़रिश्ते नहीं हैं। इस मत को इस बात से भी बल मिलता है कि यह साबित नहीं है कि निगरानी पर नियुक्त फ़रिश्ते कभी बंदों से अलग होते हैं और न यह साबित है कि रात की निगरानी पर नियुक्त फ़रिश्ते अलग होते हैं और दिन के अलग। साथ ही यह कि यदि वे निगरानी पर नियुक्त फ़रिश्ते ही होते, तो उनसे केवल उस अवस्था के बारे में पूछा न जाता, जिसमें वे लोगों को छोड़ गए हैं। जैसा कि हदीस के इस भाग में है: {तुम मेरे बंदों को किस अवस्था में छोड़ आए हो?} [190]

क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं: इन दो नमाज़ों के समय फ़रिश्तों के एकत्र होने की हिकमत की बात करें तो दरअसल उसके पीछे बंदो पर अल्लाह की दया और कृपा काम कर रही है कि उसने उस समय फ़रिश्तों को एकत्र करने का निर्णय लिया, जब बंदे इबादत में व्यस्त होते हैं, ताकि बंदों के हक़ में उनकी गवाही बेहतरीन गवाही साबित हो।

इस हदीस से पता चलता है कि नमाज़ सर्वश्रेष्ठ इबादत है, क्योंकि सवाल व जवाब उसी के बारे में हुआ है। इस हदीस में उक्त दोनों नमाज़ों के महत्व की ओर भी इशारा है, क्योंकि इन दोनों नमाज़ों में फ़रिश्तों के दोनों गिरोह उपस्थित रहते हैं, जबकि शेष नमाज़ों में एक ही गिरोह उपस्थित रहता है। इस हदीस से इन दोनों समयों की श्रेष्ठता का भी बोध होता है। इसमें हमें फ़रिश्तों के हमसे प्रेम से भी अवगत किया गया है, ताकि हम उनसे और अधिक प्रेम करें और इसके माध्यम से अल्लाह की निकटता प्राप्त करें। इसमें फ़रिश्तों से अल्लाह के बात करने का उल्लेख है।

72- तथा एक रिवायत में है कि अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने फ़रमाया: यदि तुम चाहो, तो यह आयत पढ़ लो: {तथा प्रातः (फ़ज्र के समय) क़ुरआन पढ़िए। वास्तव में प्रातः क़ुरआन पढ़ना उपस्थिति का समय है।} [191] [सूरा अल-इसरा: 78]

72- इसे बुख़ारी ने किताब अत-तफ़सीर (8/399) (हदीस संख्या: 4717) ने अब्दुर रज़्ज़ाक़ के माध्यम से , उन्होंने मामर से, उन्होंने ज़ोहरी से, उन्होंने अबू सलमा तथा इब्न अल-मुसय्यिब से और उन्होंने अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है।

तथा मुस्लिम ने इसे किताब अल-मसाजिद (1/450) (हदीस संख्या: 649) में अब्दुल आला से रिवायत किया है, जो मामर से, वह ज़ोहरी से, वह सईद बिन मुसय्यिब से और वह अबू हुरैरा से रिवायत करते हैं। दोनों तरीक़ से अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मर्फ़ूअन वर्णित है: {जमात के साथ पढ़ी गई नमाज़, अकेले पढ़ी गई नमाज़ की तुलना में पच्चीस गुना अधिक सवाब रखती है। आगे फ़रमाया: "रात के फ़रिश्ते तथा दिन के फ़रिश्ते अस्र की नमाज़ में एकत्र होते हैं।" अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने कहा: यदि चाहो, तो यह आयत पढ़ सकते हो: {तथा प्रातः (फ़ज्र के समय) क़ुरआन पढ़िए। वास्तव में प्रातः क़ुरआन पढ़ना उपस्थिति का समय है।} [192]} इस हदीस के शब्द सहीह मुस्लिम के हैं।

 फ़रिश्ते ज्ञान के चर्चे की महफ़िलों को घेरे रहते हैं

73- इमाम अहमद तथा मुस्लिम ने यह हदीस रिवायत की है:

{जब भी कुछ लोग अल्लाह के किसी घर में अल्लाह की किताब को पढ़ने और उसे सीखने-सिखाने के उद्देश्य से एकत्र होते हैं, तो उन पर शांति की धारा बरसती है, अल्लाह की रहमत उन्हें ढाँप लेती है, और अल्लाह उनकी चर्चा अपने निकटवर्ती फ़रिश्तों के बीच करता है। तथा जिसका कर्म उसे पीछे छोड़ दे, उसके कुल तथा वंश की श्रेष्ठता उसे आगे नहीं ले जा सकता।} [193]

73- इसे इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह, किताब अज़-ज़िक्र वद-दुआ (4/2074) (हदीस संख्या: 2699) में रिवायत किया है।

" يتدارسونه": इसके अंदर क़ुरआन सीखना, सिखाना और परस्पर क़ुरआन के अर्थ और तफ़सीर के बारे में चर्चा करना आदि सारी बातें शामिल हैं।

"نزلت عليهم السكينة": इसमें शांति, प्रतिष्ठा, स्थायित्व एवं विशुद्ध अंतःकरण आदि दिल को सुकून पहुँचाने वाली चीज़ें शामिल हैं।

"غشيتهم الرحمة": यानी उन्हें अल्लाह की दया ढाँप लेती है।

"حفتهم الملائكة": यानी उन्हें फ़रिश्ते घेर लेते हैं।

"من بطأ به عمله": यानी जिस व्यक्ति को उसका बुरा अमल तथा अच्छे अमल में कोताही पीछे कर दे, उसे आख़िरत में कुल तथा वंश की श्रेष्ठता तथा पूर्वजों की उत्कृष्टता न कुछ लाभ देगी, न जल्दी जन्नत पहुँचाने का काम करेगी। बल्कि वहाँ आज्ञाकारियों को, चाहो वो हब्शी दास ही क्यों न हों, अमल न करने वालों से आगे रखा जाएगा, चाहे वे कितने ही ऊँचे ख़ानदान और क़ुरैशी ही क्यों न हों।

 फ़रिश्ते ज्ञान अर्जन करने वाले के लिए अपने पर बिछाते हैं

74- मुसनद तथा सुनन की किताबों में यह हदीस मौजूद है:

{फ़रिश्ते ज्ञान अर्जन करने वाले के लिए उसके कार्य से प्रसन्न होकर अपने पंख बिछाते हैं।} [194]

ऐसी हदीसों की संख्या बहुत ज़्यादा है, जिनमें फ़रिश्तों का ज़िक्र आया है।

74- यह हदीस सहीह है। इसे इमाम अहमद ने मुसनद (4/239) (हदीस संख्या: 240, 241), तिरमिज़ी ने किताब अद-दावात (5/519) (हदीस संख्या: 3535, 3536), नसई ने किताब अत-तहारह (1/105) (हदीस संख्या: 158), अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने 'अल-मुसन्नफ़' (1/204) (हदीस संख्या: 793, 795) में तथा इब्ने ख़ुज़ैमा (1/97) (हदीस संख्या: 193), दारिमी (1/85) (हदीस संख्या: 363), इब्ने हिब्बान 1/285) (हदीस संख्या: 85) तथा तबरानी ने 'अल-कबीर' (8/66) (हदीस संख्या: 7352, 7373, 7382, 7388) में रिवायत किया है। इन सभों ने इसे आसिम बिन अबू अन-नुजूद के माध्यम से, उन्होंने ज़िर्र बिन अबू हुबैश से और उन्होंने सफ़वान बिन अस्साल से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया...। फिर पूरी हदीस बयान की।

जबकि हाकिम (1/200) ने इसे अब्दुल वह्हाब बिन बुख़्त के माध्यम से रिवायत करते हैं और वह ज़िर्र बिन अबू हुबैश से और वह रिवायत करते हैं सफ़वान से।

इसी तरह तबरानी (8/63) (हदीस संख्या: 7347) ने इसे मिनहाल बिन अम्र के माध्यम से रिवायत किया है, जो रिवायत करते हैं ज़िर्र बिन अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद से और वह रिवायत करते हैं सफ़वान से।


 अध्याय: सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की किताब की वसीयत

अल्लाह तआला का फ़रमान है: {(हे लोगो!) जो तुम्हारे पालनहार की ओर से तुमपर उतारा गया है, उस पर चलो और उसके सिवा दूसरे सहायकों के पीछे न चलो। तुम बहुत थोड़ी शिक्षा लेते हो।} [195] [सूरा अल-आराफ़: 3]

 अल्लाह की किताब और नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत को मज़बूती से पकड़ने की अनिवार्यता

75- ज़ैद बिन अरक़म -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने ख़ुतबा दिया और अल्लाह की प्रशंसा एवं स्तुति के बाद फ़रमाया:

"तत्पश्चात! लोगो! सुन लो! मैं एक इनसान ही हूँ। समीप है कि मेरे पास मेरे पालनहार का दूत आए और मैं दुनिया से चला जाऊँ। अलबत्ता, मैं तुम्हारे बीच दो भारी चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ। एक है, अल्लाह की किताब, जिसमें मार्गदर्शन तथा प्रकाश है। अतः, अल्लाह की किताब को ग्रहण करो और मज़बूती से थामे रहो।" चुनांचे, आपने अल्लाह की किताब को पकड़ने पर उभारा और उसकी प्रेरणा दी, और उसके बाद फ़रमाया: "मेरे परिजनों का भी ख़याल रखना।" तथा एक स्थान में है: "अल्लाह की किताब ही अल्लाह की मज़बूत रस्सी है। जो उसका अनुसरण करेगा, वह सीधे मार्ग पर होगा और जो उसे छोड़ देगा, वह गुमराही का शिकार हो जाएगा।} [196]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम किताब फ़ज़ाइल अस-सहाबा (4/1873) (हदीस संख्या: 2408) में रिवायत किया है।

 अल्लाह की किताब और नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत को छोड़ना गुमराही है

76- तथा सहीह मुस्लिम ही में, जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- की एक लंबी हदीस में है कि {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अरफ़ा के दिन के खुतबे में फ़रमाया:

"मैं तुम्हारे बीच ऐसी चीज़ छोड़े जा रहा हूँ कि यदि उसे मज़बूती से थामे रहोगे, तो कभी गुमराह नहीं होगे। उससे अभिप्राय अल्लाह की किताब है। देखो, तुम लोगों को मेरे बारे में पूछा जाएगा, तो भला तुम क्या उत्तर दोगे?" सहाबा ने कहा: हम गवाही देंगे कि आपने अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया, अपनी ज़िम्मेवारी निभाई और हिताकांक्षी रहे। इस पर आपने अपनी तर्जनी को आकाश की ओर उठाया और उससे लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार फ़रमाया: "ऐ अल्लाह, तू गवाह रह।} [197]

76- इसे मुस्लिम ने अल-हज्ज (2/886) (हदीस संख्या: 1218) में रिवायत किया है।

 जिसने अल्लाह की किताब के अनुसार निर्णय करना छोड़ दिया, उसे अल्लाह तोड़कर रख देगा

77- अली -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि {मैंने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को कहते हुए सुना है:

"देखो, आगे बहुत-से फ़ितने सामने आएँगे।"

मैंने कहा ऐ अल्लाह के रसूल: उनसे निकलने का रास्ता क्या है?

फ़रमाया: "अल्लाह की किताब। उसमें तुमसे पहले जो कुछ हो चुका है, उसकी सूचना है; तुम्हारे बाद जो कुछ होगा, उसकी जानकारी है तथा तुम्हारे बीच होने वाले मतभेदों का निर्णय है। वह निर्णयकारी पुस्तक है, उपहास की वस्तु नहीं। जो अभिमानी उसे छोड़ेगा, उसे अल्लाह तोड़कर रख देगा, और जो उसे छोड़कर किसी अन्य स्रोत से मार्गदर्शन तलाश करेगा, उसे अल्लाह गुमराह कर देगा। वह अल्लाह की मज़बूत रस्सी है, हिकमत से परिपूर्ण वर्णन है और सीधा रास्ता है। वह ऐसी पुस्तक है कि उसके अनुसरण के बाद आकांक्षाएँ भटक नहीं सकतीं, ज़बानें उसे पढ़ने में कठिनाई महसूस नहीं करतीं, उलेमा उससे आसूदा नहीं होते, बार-बार दोहराने से वह पुरानी नहीं होती और उसकी आश्चर्यजनक चीज़ें कभी समाप्त नहीं होंगी। यह वही पुस्तक है, जिसे सुनकर जिन्न बेसाख्ता कह उठे: {हमने एक विचित्र क़ुरआन सुना है। जो सीधी राह दिखाता है। अतः, हम उस पर ईमान ले आए।} [198] [सूरा अल-जिन्न: 1, 2] जिसने उसके अनुसार कहा उसने सच कहा, जिसने उस पर अमल किया वह प्रतिफल का हक़दार बन गया, जिसने उसके अनुसार निर्णय किया उसने न्याय किया और जिसने उसकी ओर बुलाया उसे सीधी राह प्राप्त हो गई।}

इसे इमाम तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और ग़रीब कहा है।

77- इसे तिरमिज़ी ने फ़ज़ाइल अल-क़ुरआन (5/158) (हदीस संख्या: 2956) में तथा दारिमी (2/312) (हदीस संख्या: 3334) ने हुसैन बिन अली अल-जोफ़ी के माध्यम से रिवायत किया है, जो हमज़ा अज़-ज़य्यात से रिवायत करते हैं, वह अबू अल-मुख़तार अत-ताई से वर्णन करते हैं, वह हारिस आवर के भतीजे से रिवायत करते हैं, वह हारिस आवर से रिवायत करते हैं और वह अली -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णन करते हैं।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: हम इस हदीस को केवल इसी तरीक़ से जानते हैं, और इसकी सनद मजहूल है तथा हारिस पर कलाम है। मैं कहता हूँ: इसमें एक वर्णनकर्ता हारिस का भतीजा भी है, जो कि मजहूल है और हारिस भी ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

78- अबू दरदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{“अल्लाह ने अपनी किताब में जो हलाल किया, वह हलाल है, तथा जो हराम किया, वह हराम है, और जिससे ख़ामोशी अख़्तियार की वह आफ़ियत है। अतः, तुम अल्लाह की प्रदान की हुई आफ़ियत को क़बूल करो। बेशक अल्लाह तआला भूलने वाला नहीं है।” फिर आपने यह आयत पढ़ी: {और तेरा रब भूलने वाला नहीं है।} [199]} [सूरा मरयम: 64]

इसे बज़्ज़ार, इब्ने अबू हातिम और तबरानी ने रिवायत किया है।

78- इसे बज़्ज़ार ने रिवायत किया है, जैसा कि 'कश्फ़ अल-असतार' किताब अल-इल्म (1/78) (हदीस संख्या: 123) तथा किताब अत-तफ़सीर (3/58) हदीस संख्या: 2231) में है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की इबराहीम बिन अब्दुल्लाह ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सुलैमान बिन अब्दुर रहमान अद-दिमश्क़ी ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इसमाईल बिन अय्याश ने, वह वर्णन करते हैं आसिम बिन रजा बिन हैवा से, वह वर्णन करते हैं अपने पिता से और वह वर्णन करते हैं अबू दरदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया ...

बज़्ज़ार कहते हैं: इसकी सनद सालेह (स्वीकार्य) है।

हैसमी (1/171) में कहते हैं: इसे बज़्ज़ार ने तथा तबरानी ने 'अल-कबीर' में रिवायत किया है और इसकी सनद हसन है और इसके सभी वर्णनकर्ता सिक़ा हैं।

मैं कहता हूँ: इसकी सनद में सुलैमान नाम का एक वर्णनकर्ता है, जो 'सदूक़' है तथा त्रुटियों का शिकार हो जाता है, और आसिम नाम का भी एक वर्णनकर्ता है, जो 'सदूक़' है और भ्रम का शिकार हो जाता है।

 सीधा रास्ता ही इस्लाम है

79- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रजयिल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह ने एक सीधे मार्ग का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसके दोनों जानिब दो दीवारें हैं। दोनों दीवारों में द्वार खुले हुए हैं। द्वारों पर परदे लटके हुए हैं। मार्ग के अंतिम छोर पर एक आवाज़ देने वाला यह कहकर आवाज़ दे रहा है कि मार्ग पर सीधे चलते रहो तथा इधर-उधर न मुड़ो। उसके ऊपर भी एक आवाज़ देने वाला आवाज़ दे रहा है। जब भी कोई बंदा कोई द्वार खोलना चाहता है, तो वह कहता है: तेरा बुरा हो! उसे मत खोल। यदि उसे खोल दिया, तो उसमें प्रवेश कर जाएगा।} [200]

फिर आपने उसकी व्याख्या की और फ़रमाया कि मार्ग से मुराद इस्लाम है, खुले हुए द्वार अल्लाह की हराम की हुई चीज़ें हैं, लटके हुए परदे अल्लाह की ओर से निर्धारित दंड हैं, मार्ग के अंतिम छोर पर पुकारने वाला क़ुरआन है और ऊपर से पुकारने वाला हर मोमिन के दिल में अल्लाह का उपदेशक है।

इसे रज़ीन ने रिवायत किया है, तथा अहमद एवं तिरमिज़ी ने इसे नव्वास बिन समआन से इसी की भाँति रिवायत किया है।

79- मिशकात अल-मसाबीह (1/67) (हदीस संख्या:191) के अनुसार इसे रज़ीन ने रिवायत किया है।

इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-अमसाल (5/133) (हदीस संख्या: 2859) में और नसई ने 'अल-कुबरा' (6/361) (हदीस संख्या: 11233) में बक़िय्या बिन वलीद के माध्यम से रिवायत किया है, जो बुहैर बिन साद से रिवायत करते हैं, जो ख़ालिद बिन मादान से वर्णन करते हैं, वह जुबैर बिन नुफ़ैर से रिवायत करते हैं और वह नव्वास से रिवायत करते हैं।

जबकि अहम ने मुसनद (4/182) तथा आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 11) में और हाकिम ने (1/73) में लैस बिन साद के माध्यम से रिवायत किया है, जो मुआविया बिन सालेह से रिवायत करते हैं कि उनसे हदीस बयान की अब्दुर रहमान बिन जुबैर ने, जो अपने पिता से रिवायत करते हैं और वह नव्वास से रिवायत करते हैं।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस ग़रीब है।

जबकि हाकिम कहते हैं कि यह मुस्लिम की शर्त पर सहीह है और मुझे इसमें कोई इल्लत नहीं दिखती। ज़हबी ने भी उनसे सहमति जताई है।

 क़ुरआन की मुतशाबेह आयतों के पीछे पड़ने वालों से सावधान रहने का आदेश

80- आइशा -रजि़यल्लाहु अन्हा- से रिवायत है, वह कहती हैं:

{अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह आयत तिलावत की: {उसी ने आप पर यह पुस्तक (क़ुरआन) उतारी है, जिसमें कुछ आयतें मुहकम (सुदृढ़) हैं, जो पुस्तक का मूल आधार हैं।} [201] और उसके अंत यानी यहाँ तक पढ़ा:

{और बुद्धिमान लोग ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।} [202] [सूरा आल-ए-इमरान: 7]

वह कहती हैं: जब तुम ऐसे लोगों को देखो, जो क़ुरआन की मुतशाबेह आयतों के पीछे पड़े हों, तो समझ लो कि यह वही लोग हैं, जिनका अल्लाह ने क़ुरआन में नाम लिया है। अतः, उनसे बचते रहो।}

बुख़ारी एवं मुस्लिम।

80- इसे बुख़ारी ने किताब अत-तफ़सीर (8/209) (हदीस संअखया: 4547) में रिवायत किया है।

साथ ही इमाम मुस्लिम ने किताब अल-इल्म (4/2053) में रिवायत किया है।

लेखक इसे दोबारा (हदीस संख्या: 107) के तहत लाएँगे। अतः, उसकी पाद टिप्पणी देख लें।

 शैतान के मार्गों पर चलने से मनाही

81- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- बयान करते हैं कि {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने हमें बताने के लिए अपने हाथ से एक लकीर खींची और फिर फ़रमाया:

"यह अल्लाह का मार्ग है।" फिर उसके दाएँ और बाएँ एक-एक लकीर खींची तथा फ़रमाया: "यह अलग-अलग मार्ग हैं, और इनमें से हर मार्ग पर शैतान बैठा है, जो लोगों को उसकी ओर बुलाता है।" फिर यह आयत पढ़ी: {तथा (उसने बताया कि) ये (इस्लाम ही) अल्लाह की सीधी राह है। अतः इसी पर चलो और दूसरी राहों पर न चलो, अन्यथा वह राहें तुम्हें उसकी राह से दूर करके तितर-बितर कर देंगी। यही है, जिसका आदेश उसने तुम्हें दिया है, ताकि तुम उसके आज्ञाकारी रहो।} [203]} [सूरा अल-अनआम: 153]

इस हदीस को अहमद, दारिमी और नसई ने रिवायत किया है।

81- इसे अहमद (1/435), दारिमी (1/60) (हदीस संख्या: 208), नसई ने 'अल-कुबरा' किताब अल-तफ़सीर (6/343) (हदीस संख्या: 11174) में, तयालिसी (33) (हदीस संख्या: 244), इब्ने हिब्बान (1/181) (हदीस संख्या: 6,7), आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 10) में एवं हाकिम (2/318) ने हम्माद बिन ज़ैद के माध्यम से रिवायत किया है, जो आसिम बिन अबू अन-नुजूद से रिवायत करते हैं और वह वाइल से रिवायत करते हैं, तथा वह अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत करते हैं।

साथ ही नसई (6/343) (हदीस संख्या: 11175) ने भी इसे रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की फ़ज़्ल बिन अब्बास बिन इबराहीम ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अहमद बिन यूनुस ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अबू बक्र ने, जो वर्णन करते हैं आसिम से और वह रिवायत करते हैं ज़िर्र बिन अब्दुल्लाह बिन मसऊद से।

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सिवा किसी और के अनुसरण की मनाही

82- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि {नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के कुछ साथी तौरात की कुछ बातें लिख लिया करते थे। लोगों ने इसकी सूचना अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को दी, तो आपने फ़रमाया:

"सबसे निर्बुद्धि और पथभ्रष्ट समुदाय वह है, जिसने अपने नबी की लाई हुई शिक्षाओं को छोड़कर किसी अन्य नबी की शक्षाओं को अपनाया और अपने समुदाय को छोड़कर किसी अन्य समुदाय को अपनाया।" फिर अल्लाह ने यह आयत उतारी: {क्या उन्हें पर्याप्त नहीं कि हमने उतारी है आप पर ये पुस्तक (क़ुरआन) जो पढ़ी जा रही है उन पर? वास्तव में, इसमें दया और शिक्षा है, उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।} [204]} [अल-अनकबूत: 51]

इसे इसमाईली ने अपने मोजम और इब्ने मरदवैह ने रिवायत किया है।

82- इसे इसमाईली ने अपने मोजम (3/772) (हदीस संख्या: 384) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की दाऊद बिन रशीद ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की फ़िह्र बिन ज़ियाद अर-रक़्क़ी ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इब्राहीम बिन यज़ीद ने, वह रिवायत करते हैं अम्र बिन दीनार से, वह रिवायत करते हैं यहया बिन जअद से और वह वर्णन करते हैं अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से।

लेकिन मुझे फ़िह्र का परिचय न मिल सका।

जबकि 'अद-दुर्र अल-मंसूर' में उसे इब्ने मरदवैह और दैलमी की मुसनद अल-फ़िरदौस के हवाले से नक़ल किया गया है।

83- अब्दुल्लाह बिन साबित बिन हारिस अंसारी -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं: {उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास एक किताब ले आए, जिसमें तौरात के कुछ अंश लिख हुए थे और बोले: इसे मैंने एक अह्ले किताब से प्राप्त किया है, ताकि आपके सामने प्रस्तुत करूँ। यह देख अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के चेहरे का रंग इतना ज़्यादा बदल गया कि मैंने उस तरह बदलते हुए कभी नहीं देखा था। इस पर अब्दुल्लाह बिन हारिस ने उमर -रज़ियल्लाहु अन्हु- से कहा: क्या आप अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का चेहरा नहीं देख रहे हैं?! अतः, उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- ने कहा: हम अल्लाह के पालनहार, इस्लाम के धर्म और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के नबी होने पर संतुष्ट एवं प्रसन्न हैं। तब जाकर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का गुस्सा ठंडा हुआ और फ़रमाया:

"अगर मूसा भी उतर आएँ, और तुम मुझे छोड़ उनका अनुसरण करने लगो, तो पथभ्रष्ट हो जाओगे। मैं नबियों में से तुम्हारा हिस्सा हूँ और तुम उम्मतों में से मेरा हिस्सा हो।}

इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़, इब्ने साद और हाकिम ने 'अल-कुना' में रिवायत किया है।

83- इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने 'अल-मुसन्नफ़' (6/113) (हदीस संख्या: 10164) में और उन्हीं के तरीक़ से अहमद ने 'मुसनद' (3/470) (4/265) में सुफ़यान सौरी के माध्यम से, उन्होंने जाबिर से, उन्होंने शाबी से और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन साबित से रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी 'अल-इसाबह' (4/30) में कहते हैं: इमाम बुख़ारी कहते हैं कि जाबिर जोफ़ी की हदीस सहीह नहीं होती।

और हैसमी 'मजमा अज़-ज़वाइद' (1/173) में कहते हैं: इस हदीस को अहमद तथा तबरानी ने रिवायत किया है और इसके सारे वर्णनकर्ता सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम के वर्णनकर्ता हैं, सिवाए जाबिर अल-जोफ़ी के, जो कि ज़ईफ़ है।

मैं कहता हूँ: इस हदीस के कई शवाहिद हैं, जो इसे प्रबल तथा सहीह बना देते हैं, और उन्हें आप अल्लामा अलबानी की पुस्तक 'इरवा अल-ग़लील' (1589) में देख सकते हैं।


 अध्याय: नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अधिकार

अल्लाह तआला का फ़रमान है: {हे ईमान वालो! अल्लाह की आज्ञा का पालन करो और रसूल की आज्ञा का पालन करो, तथा अपने शासकों की आज्ञा का पालन करो। फिर यदि किसी बात में तुम आपस में विवाद कर लो, तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान रखते हो। यह तुम्हारे लिए अच्छा और इसका परिणाम अच्छा ह।} [205] [सूरा अन-निसा: 59] एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {तथा नमाज़ की स्थापना करो, ज़कात दो तथा रसूल की आज्ञा का पालन करो, ताकि तुम पर दया की जाए।} [206] [सूरा अन-नूर: 56] और अल्लाह तआला का फ़रमान हैः {तथा जो तुम्हें रसूल दें, तुम उसे ले लिया करो और जिस चीज़ से रोकें, रुक जाया करो।} [207] पूरी आयत [सूरा अल-हश्र: 7]

 ऐसे व्यक्ति से युद्ध करने की अनिवार्यता, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- और आपकी शिक्षाओं पर ईमान न लाए

84- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {मुझे आदेश दिया गया है कि लोगों से युद्ध करूँ, यहाँ तक कि इस बात की गवाही दें कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ क़ायम करें और ज़कात अदा करें। अगर उन्होंने इतना कर लिया तो अपनी जान तथा माल को इस्लाम के अधिकार के सिवा हमसे सुरक्षित कर लिया और उनका हिसाब महान और शक्तिशाली अल्लाह पर है।} [208]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

84- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम किताब अल-ईमान (1/52) (हदीस संख्या: 21) में रिवायत किया है। यह हदीस अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णनकर्ताओं की बहुत-सी सनदों (शृंखलाओं) से वर्णित हैं, जिन्हें आप सहीह इब्ने हिब्बान के हाशिए (1/399) (1/452) में देख सकते हैं।

शैख़ मुहम्मद मुहम्मद अबू शहबा -उन पर अल्लाह दया करे- कहते हैं:

सहाबा यह समझते थे कि सुन्नत पर अमल करना भी क़ुरआन पर ही अमल करना है, क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो।} [209]

इमाम बुख़ारी ने अपनी सहीह के अंदर अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है कि उन्होंने फ़रमाया: {अल्लाह की लानत है गोदने वाली और गुदवाने वाली, चेहरे के बाल उखड़वाने वाली और सुंदरता के लिए दाँतों के बीच अंतर पैदा करने वाली स्त्रियों पर, जो अल्लाह की रचना में परिवर्तन करती हैं। यह सुन उम्मे याक़ूब ने कहा: यह क्या है? इस पर अब्दुल्लाह ने कहा: मैं भला उस पर लानत क्यों न करूँ, जिस पर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने लानत की है और वह अल्लाह की किताब में भी मौजूद है? उम्मे याक़ूब ने कहा: अल्लाकी क़सम, मैंने अल्लाह की किताब शुरू से अंत तक पढ़ी है, मुझे उसमें इसका उल्लेख नहीं मिला। अब्दुल्लाह ने कहा: यदि तुमने सचमुच पढ़ा होता, तो उसे ज़रूर पाती। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: {और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो। और जिस चीज से रोकें, रुक जाया करो।} [210] [211]}

यह आयत उन बातों के आधार की हैसियत रखती है, जो हदीस में आई हैं और जिनका उल्लेख क़ुरआन में नहीं है। इसी उज्ज्वल मार्ग पर सहाबा और उनके बाद के इमामगण चलते आए हैं।

इमाम शाफ़िई से वर्णित है कि वह मस्जिदे हराम के अंदर लोगों से बात कर रहे थे कि इसी बीच बोले: तुम मुझे जिस चीज़ के बारे में भी पूछोगे, मैं तुम्हें उसका उत्तर अल्लाह की किताब से दूँगा। इस पर एक व्यक्ति ने कहा: यदि कोई व्यक्ति एहराम की अवस्था में भिड़ को मार दे, तो उसके बारे में आप क्या कहते हैं? इमाम शाफ़िई ने उत्तर दिया: उस पर कुछ नहीं है। उसने कहा: यह अल्लाह की किताब में कहाँ है? तब इमाम शाफ़िई ने पहले तो यह आयत पढ़ी: {وَمَا آتَاكُمُ الرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَاكُمْ عَنْهُ فَانتَهُوا} (और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो। और जिस चीज से रोकें, रुक जाया करो।) [212] और उसके बाद सनद के साथ उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- से यह नक़ल किया कि उन्होंने फ़रमाया: आदमी एहराम की अवस्था में भिड़ को मार सकता है। [213]

 ईमाम की मिठास कब महसूस होगी?

85- बुख़ारी तथा मुस्लिम में अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{तीन चीज़ें जिसके अंदर होंगी, वह ईमान की मिठास महसूस कर पाएगा। पहली: अल्लाह और उसके रसूल उसके निकट सबसे प्रिय हों। दूसरी: किसी इनसान से केवल अल्लाह के लिए प्रेम रखे। तीसरी: जब अल्लाह ने उसे कुफ़्र से बचा लिया है, तो वह वापस कुफ़्र की खाई में पड़ने को वैसे ही नापसंद करे, जैसे जहन्नम में डाला जाना उसे नापसंद हो।} [214]

85- इसे बुख़ारी ने किताब अल-ईमान (1/72) हदीस संख्या: 21), किताब अल-अदब (10/463) (हदीस संख्या: 6041), मुस्लिम ने किताब अल-ईमान (1/66) (हदीस संख्या: 43) तथा बुख़ारी ने किताब अल-ईमान (1/60) हदीस संख्या: 16) किताब अल-इकराह (12/315) (हदीस संख्या: 6941) और मुस्लिम ने किताब अल-ईमान (1/66) में रिवायत किया है।

86- तथा बुख़ारी एवं मुस्लिम में अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु- ही से मर्फूअन रिवायत है:

{तुममें से कोई व्यक्ति उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक मैं उसके निकट, उसकी संतान, उसके पिता और तमाम लोगों से अधिक प्यारा न हो जाऊँ।} [215]

86- इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी, किताब अल-ईमान (1/58) (हदीस संख्या:15) में रिवायत किया है।

तथा मुस्लिम ने किताब अल-ईमान (1/67) (हदीस संख्या: 44) एवं नसई ने किताब अल-ईमान (8/488) (हदीस संख्या: 5028) में रिवायत किया है।

 हदीस को छोड़कर क़ुरआन को काफ़ी समझने वाले का खंडन

87- मिक़दाम बिन मादीकरिब किंदी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{समीप है कि ऐसा समय आए कि एक व्यक्ति अपने तख़्त पर टेक लगाए बैठा होगा और जब उसे मेरी कोई हदीस सुनाई जाएगी, तो कहेगा: हमारे और तुम्हारे बीच सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की पुस्तक (ही काफ़ी) है। हम उसमें जो चीज़ हलाल पाएँगे, उसे हलाल मानेंगे और उसमें जो चीज़ हराम पाएँगे, उसे हराम मानेंगे!! सुन लो, बेशक जिस चीज़ को अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने हराम कहा है, वह उसी तरह हराम है, जैसे अल्लाह की हराम की हुई चीज़ हराम है।} [216]

इसे तिरमिज़ी और इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

87- यह हदीस हसन है। इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/37) (हदीस संख्या: 2664), इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/6) (हदीस संख्या: 12), अहमद (4/132), दारिमी (1/117) (हदीस संख्या: 592), तबरानी (20274) (हदीस संख्या: 649), बैहक़ी (7/76) (9/331) और हाकिम (1/109) ने मुआविया बिन सालेह के माध्यम से रिवायत किया है, जो हसन बिन जाबिर लख़मी से रिवायत करते हैं और वह मिक़दाम से रिवायत करते हैं।

यहां पर शब्द इब्ने माजा के हैं।

तथा इसे अबू दाऊद ने किताब अस-सुन्नह (4/200) (हदीस संख्या: 4604), अहमद (4/131), तबरानी (20283) (हदीस संख्या: 670) तथा बैहक़ी ने दलाइल अन-नुबुव्वह (6/549) में हरीज़ बिन उसमान से रिवायत किया है, जो इब्ने अबू औफ़ से रिवायत करते हैं और वह मिक़दाम से।

इसी तरह इब्ने हिब्बान (1/189) (हदीस संख्या: 12), तबरानी (20283) (हदीस संख्या: 669) तथा बैहक़ी (9/332) ने मरवान बिन रौबा के माध्यम से रिवायत किया है, जो इब्ने अबू औफ़ से और वह मिक़दाम से इसी की भाँति रिवायत करते हैं।

इस हदीस के कई शवाहिद भी हैं, जिनमें से एक अबू राफ़े की हदीस है।

जिसे अबू दाऊद ने (हदीस संख्या: 4605), तिरमिज़ी ने (हदीस संख्या: 2663), इब्ने माजा ने (हदीस संख्या: 13) हुमैदी ने (हदीस संख्या: 551) तथा इब्ने हिब्बान ने (1/190) (हदीस संख्या: 13) में रिवायत किया है।

इमाम ख़त्ताबी -अल्लाह उन पर दया करे- कहते हैं:

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के शब्द: "أوتيت الكتاب ومثله معه" के दो अर्थ हो सकते हैं:

पहला अर्थ: आपको ज़ाहिरी वह्य, जिसकी तिलावत की जाती है के साथ-साथ अदृश्य वह्य भी दी गई थी, जिसकी तिलावत नहीं की जाती है।

दूसरा अर्थ: आपको तिलावत में रहने वाली वह्य के रूप में किताब प्रदान की गई थी और उसके साथ-साथ उसकी व्याख्या का भी अधिकार दिया गया था। अतः, आप क़ुरआन के कठिन स्थानों का सरलीकरण कर सकते थे तथा उसके किसी विशिष्ट आदेश को साधारण एवं साधारण आदेश को विशिष्ट घोषित कर सकते थे। आपकी इस व्याख्या को मानना और उसका अनुसरण करना भी उसी प्रकार ज़रूरी होगा, जिस प्रकार क़ुरआन को मानना और उसपर अमल करना ज़रूरी है।

आपके शब्द: [217] {يوشك رجل شبعان...} के द्वारा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की उन सुन्नतों की मुख़ालफ़त से सावधान किया गया है, जिनका उल्लेख क़ुरआन में नहीं है। यही वह ग़लती है, जो ख़ारिजियों और राफ़िज़ियों ने की। उन्होंने क़ुरआन के ज़ाहिर को ले लिया और उन सुन्नतों को छोड़ दिया, जो क़ुरआन की व्याख्या की हैसियत रखती हैं, जिसके कारण विस्मय में पड़ गए और पथभ्रष्ट हो गए।

तथा आपने अपने शब्दों: [218] {متكئ على أريكته} द्वारा बताया है कि ऐसे लोग विलासप्रिय और सुखोपभोगी होंगे, जो घरों से चिपके रहेंगे और ज्ञान के उचित स्रोतों से ज्ञान प्राप्त नहीं करेंगे।

इस हदीस में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के एक चमत्कार का प्रमाण है।

शैख़ मुहम्मद मुहम्मद अबू शहबा -उन पर अल्लाह दया करे- कहते हैं:

यह हदीस नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के एक चमत्कार का प्रमाण प्रस्तुत करती है। क्योंकि पहले भी और बाद में भी ऐसे लोग प्रकट होते रहे हैं, जो हदीस को छोड़कर केवल क़ुरआन को प्रयाप्त मानने की अपवित्र धारणा की ओर लोगों को बुलाते रहे हैं। दरअसल, इससे उनका उद्देश्य आधे इस्लाम और यदि आप चाहें तो कह सकते हैं कि पूरे इस्लाम को ध्वस्त कर देना है। क्योंकि जब हदीसों तथा सुन्नतों को छोड़ दिया जाएगा, तो क़ुरआन के अधिकतर भाग का समझना असंभव हो जाएगा। और जब, हदीसें छोड़ दी गईं और क़ुरआन का समझना नामुमकिन हो गया, तो इस्लाम का जो होगा, उसे समझा जा सकता है।


 अध्याय: नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का सुन्नत को अनिवार्य जानने पर उभारने, उसकी प्रेरणा देने और बिदअत, विभेद तथा बिखराव से सावधान करने का बयान

अल्लाह तआला का फ़रमान हैः {तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम आदर्श है, उसके लिए, जो आशा रखता हो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) की, तथा याद करे अल्लाह को अत्यधिक।} [219] [सूरा अल-अहज़ाब: 21] एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {जिन लोगों ने अपने धर्म में विभेद किया और कई समुदाय हो गए, आपका उनसे कोई संबंध नहीं। उनका निर्णय अल्लाह को करना है। फिर वह उन्हें बताएगा कि वह क्या कर रहे थे।} [220] [सूरा अल-अनआम: 159]

एक और स्थान पर अल्लाह तआला ने फ़रमाया: {अल्लाह तआला ने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित कर दिया है, जिसको स्थापित करने का उसने नूह को आदेश दिया था, और जो (प्रकाशना के द्वारा) हमने तेरी ओर भेज दिया है तथा जिसका विशेष आदेश हमने इब्राहीम तथा मूसा एवं ईसा को दिया था कि धर्म को स्थापित रखना तथा इसमें फूट न डालना।} [221] [सूरा अश-शूरा: 13]

 नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत तथा संमार्गी ख़लीफाओं की सुन्नत को मज़बूती से थामे रहने और बिदअत से सावधान रहने की वसीयत

88- इरबाज़ बिन सारिया -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने हमारे सामने एक प्रभवाी संबोधन रखा, जिससे आँखें बह पड़ीं और दिल सहम गए। अतः, एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! ऐसा प्रतीत होता है कि यह विदा करने वाले का उपदेश है। ऐसे में आप हमें क्या वसीयत करते हैं? आपने कहा: "मैं तुम्हें अल्लाह का भय रखने तथा शासक की बात सुनने एवं मानने की वसीयत करता हूँ, चाहे तुम्हारा शासक एक हबशी दास ही क्यों न हो! क्योंकि तुममें से जो लोग जीवित रहेंगे, वे बहुत-से मतभेद देखेंगे। अतः, तुम मेरी सुन्नत तथा मेरे बाद मेरे संमार्गी ख़लीफाओं की सुन्नत को मज़बूती से थामे रहना और दाढ़ से पकड़े रहना। साथ ही धर्म के नाम पर किए जाने वाले नित-नए कामों से बचते रहना। क्योंकि धर्म के नाम पर किया जाने वाला हर नया काम बिदअत है और हर बिदअत गुमराही है।} [222]

इसे अबू दाऊद, तिरमिज़ी तथा इब्ने माजा ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने सहीह कहा है।

तथा तिरमिज़ी की एक अन्य रिवायत में है:

{मैंने तुम्हें एक ऐसे प्रकाशमय मार्ग पर छोड़ा है, जिसकी रात भी दिन की तरह रौशन है। मेरे बाद इससे वही भटकेगा, जिसके भाग्य में विनाश लिखा हो। जो मेरे बाद जीवित रहेगा, वह बहुत-सारे मतभेदा देखेगा...} [223]

फिर उसी अर्थ की हदीस बयान की।

88- यह ददीस सहीह है। इसे अबू दाऊद ने किताब अस-सुन्नह (4/200) (हदीस संख्या:4607), अहमद ने मुसनद (4/126, 127), आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 46), इब्ने अबू आसिम ने 'किताब अस-सुन्नह' (1/19) (हदीस संख्या: 32, 57) संक्षिप्त तरीक़े से, और इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह (1/178) (हदीस संख्या: 5) में वलीद बिन मुस्लिम के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सौर बिन यज़ीद ने, वह कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की ख़ालिद बिन मादान ने, वह कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की अब्दुर रहमान बिन अम्र अस-सुलमी और हज्र बिन हज्र ने और दोनों इरबाज़ से रिवायत करते हैं।

इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/44) (हदीस संख्या: 2676), इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/17) (हदीस संख्या: 44), तहावी ने 'मुश्किल अल-आसार' (2/69) तथा आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 47) में और दारिमी (1/43) (हदीस संख्या: 96), इब्ने अबू आसिम (1/29) एवं हाकिम (1/109) ने इसे सौर के तरीक़ से रिवायत तो किया है, लेकिन हज्र बिन हज्र का ज़िक्र नहीं किया है।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

इसी तरह हाकिम ने भी इसे सहीह कहा है और ज़हबी ने उनसे सहमति व्यक्त की है।

इसे तिरमिज़ी (5/43) (हदीस संख्या: 7676) तथा इब्ने अबू आसिम (1/17) (हदीस संख्या: 27), और बैहक़ी (6/541) ने बक़िय्या बिन वलीद के माध्यम से रिवायत किया है, जो बहीर बिन साद से रिवायत करते हैं, वह ख़ालिद बिन मादान से रिवायत करते हैं और वह अब्दुर रहमान बिन अम्र बिन इरबाज़ से रिवायत करते हैं। तिरमिज़ी और इब्ने अबू आसिम की रिवायत संक्षिप्त है।

जबकि इब्ने माजा (1/15) (हदीस संख्या: 42) और इब्ने अबू आसिम (1/17) (हदीस संख्या: 26) ने इसे संक्षेप में वलीद बिन मुस्लिम के माध्यम से रिवायत किया है, जो अब्दुल्लाह बिन अला से रिवायत करते हैं, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की यहया बिन अबू मुता ने और वह वर्णन करते हैं इरबाज़ से।

इसी तरह इब्ने अबू आसिम (1/18) (हदीस संख्या: 28, 29) ने इसे मुहाजिर बिन हबीब के माध्यम से रिवायत किया है, जो इरबाज़ से संक्षेप में रिवायत करते हैं। साथ ही उन्होंने (हदीस संख्या: 30) इसे यहया बिन जाबिर के माध्यम से भी रिवायत किया है, जो अब्दुर रहमान बिन अम्र बिन इरबाज़ से संक्षेप में रिवायत करते हैं।

आपके शब्द: " عضوا عليها بالنواجذ": यानी सुन्नत को पूरी शक्ति से पकड़े रहो, उसे अनिवार्य जानो और उसके प्रति उत्साह दिखाओ। जैसे किसी चीज़ को दाँत से काटने वाला, उसे पूरी शक्ति से दाँत से पकड़ता है कि कहीं वह छूट न जाए।

"النواجذ": कुचली के दाँत। कुछ लोग दाढ़ के दाँत भी कहते हैं।

जहाँ तक दूसरी रिवायत की बात है, तो उसकी सनद:

सहीह है। उसे इब्ने माजा (1/16) (हदीस संख्या: 43) तथा आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 47) में और इब्ने अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/26) (हदीस संख्या: 48) में मुआविया बिन सालेह के तरीक़ से रिवायत किया है कि ज़मरा बिन हबीब ने उनसे बयान किया कि अब्दुर रहमान बिन अम्र ने उनको बताया कि उन्होंने इरबाज़ से सुना है।

साथ ही इसे इब्ने अबू आसिम (हदीस संख्या: 49) ने ख़ालिद बिन मादान के माध्यम से भी रिवायत किया है, जो जुबैर बिन नुफ़ैर से रिवायत करते हैं और वह इरबाज़ से रिवायत करते हैं।

"البيضاء": यानी स्पष्ट धर्म-मार्ग तथा प्रमाण, जो संदेहों से परे है। उसमें संदेह जताना भी दरअसल उससे संदेह दूर करने की तरह है और इसी की ओर इशारा यह कहकर किया गया है कि उसकी रात उसके दिन की तरह है।

 सबसे उत्तम तरीक़ा, नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का तरीक़ा है

89- मुस्लिम में जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{तत्पश्चात; निस्संदेह सबसे अच्छी बात अल्लाह की किताब है, और सबसे उत्तम तरीक़ा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का तरीक़ा है, और सबसे बुरी चीज़ धर्म के नाम पर की जाने वाली नई चीज़ें हैं और हर बिदअत (धर्म के नाम पर की जाने वाली नई चीज़) गुमराही है।} [224]

89- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-जुमुअह (1/592) (हदीस संख्या: 867) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर असक़लानी 'फ़तहुल बारी' (13/253) में कहते हैं:

'المحدثات' शब्द 'محدثة' का बहुवचन है और इससे मुराद धर्म के नाम पर किए जाने वाले वह सारे नए काम हैं, जिनका कोई शरई आधार न हो। उसी को शरीयत की परिभाषा में बिदअत कहा जाता है। जबकि जिस काम का कोई शरई आधार हो, वह बिदअत नहीं है। इससे समझ में आता है कि बिदअत शरई दृष्टिकोण से तो एक ग़लत वस्तु है, जबकि शाब्दिक रूप से ऐसा नहीं है। क्योंकि शब्दिक रूप से हर उस नए काम को बिदअत कहा जाएगा, जिसका पहले से कोई उदाहरण न रहा हो। चाहे वह काम प्रशंसनीय हो या निंदनीय। यही बात आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- की हदीस में उल्लिखित शब्द "المحدثة" एवं "الأمر المحدث" के बारे में भी कही जाएगी। हदीस के शब्द इस प्रकार हैं: {जिसने हमारे इस धर्म में कोई ऐसा काम शुरू किया, जो उसका भाग नहीं है, तो वह अमान्य एवं अग्रहणीय है।} [225] [226]

इमाम शाफ़िई कहते हैं: बिदअत के दो प्रकार हैं: अभिनंदित बिदअत तथा निंदित बिदअत। जो सुन्नत के अनुरूप हो, वह अभिनंदित बिदअत है और जो सुन्नत के विपरीत हो, वह निंदित बिदअत है। [227]

इब्ने मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने फ़रमाया: आज तुम फ़ितरत (विशुद्ध धर्म) पर हो। लेकिन बाद में तुम धर्म के नाम पर नई चीज़ें अपना लोगे तथा अन्य लोग भी ऐसा करेंगे। अतः, जब तुम धर्म के नाम पर किया जाने वाला कोई नया कार्य देखो, तो पहले तरीक़े (सुन्नत) को सीने से लगा लेना।

 रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की अवज्ञा जहन्नम का प्रवेश द्वार है

90- सहीह बुख़ारी में अबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल- सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{मेरी उम्मत के सभी लोग जन्नत में प्रवेश करेंगे, सिवाए उसके जो इनकार करे।

किसी ने पूछा: भला इनकार कौन करेगा?

फ़रमाया: "जिसने मेरा अनुसरण किया, वह जन्नत में प्रवेश करेगा, और जिसने मेरी अवज्ञा की, उसने (जन्नत में प्रवेश करने से) इनकार किया।} [228]

90- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अल-एतिसाम (13/249) (हदीस संख्या: 7280) में मुहम्मद बिन सिनान से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की फ़ुलैह ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की हिलाल बिन अली ने, जो अता बिन यसार से रिवायत करते हैं और वह अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णन करते हैं।

"أبى": यानी जो प्रवेश करने से रुक जाए।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (13/254) में लिखते हैं:

इस हदीस की सर्वव्यापकता अपने स्थान पर बाक़ी है, क्योंकि आपकी उम्मत का कोई भी व्यक्ति जन्नत में जाने से मना नहीं करेगा। यही कारण है कि सहाबा ने पूछा डाला: "इनकार भला कौन करेगा?" जिसके उत्तर में आपने स्पष्ट कर दिया कि उनके जन्नत में जाने से मना करने का अर्थ है अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत को नकारना, और आपकी अवज्ञा करना। अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- की एक अन्य सहीह हदीस में आया है: {जिसने मेरा अनुसरण किया, उसने अल्लाह का अनुसरण किया।} [229] [230] दरअसल, यह हदीस अल्लाह तआला के इस फ़रमान से ली गई है: {जिसने रसूल की आज्ञा का अनुपालन किया, (वास्तव में) उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया।} [231] यानी चूँकि मैं उसी बात का आदेश देता हूँ, जिसका आदेश अल्लाह देता है, अतः जिसने मेरे आदेश का पालन किया, उसने दरअसल मुझे आदेश देने की बात कहने वाले के आदेश का पालन किया। जबकि इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है: चूँकि अल्लाह ने मेरे अनुसरण का आदेश दिया है, इसलिए जिसने मेरा अनुसरण किया, उसने दरअसल अल्लाह के उस आदेश का पालन किया, जिसमें मेरे अनुसरण का हुक्म दिया गया है। साथ ही यही हाल अवज्ञा का भी है।

 जिसने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के तरीक़े से मुँह मोड़ा,उसका संबंध आपसे नहीं है

91- बुख़ारी तथा मुस्लिम में अनस -रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं: {तीन आदमी नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की बीवियों के पास आए और नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की इबादत के बारे में पूछने लगे। जब उन्हें बताया गया, तो गोया कि उन्होंने आपकी इबादत को बहुत कम समझा। फिर कहने लगे: हम आपकी कब बराबरी कर सकते हैं? क्योंकि आपके तो अगले-पिछले सब गुनाह माफ कर दिए गए हैं। चुनांचे उनमें से एक कहने लगा: मैं तो जीवन भर पूरी-पूरी रात नमाज़ पढ़ता रहूँगा। दूसरे ने कहा: मैं हमेशा रोज़े रखूँगा और कभी रोज़ा नहीं छोड़ूँगा। जबकि तीसरे ने कहा: मैं औरतों से दूर रहूँगा और कभी शादी नहीं करूँगा। चुनाँचे, नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- उनके पास आए और फ़रमाया: "तुम लोगों ने ऐसी-ऐसी बातें की हैं? अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हारी तुलना में अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला और तक़वा अख़्तियार करने वाला हूँ। लेकिन मैं रोज़े भी रखता हूँ और रोज़ा छोड़ता भी हूँ। रात को नमाज़ भी पढ़ता हूँ और सोता भी हूँ। साथ ही औरतों से निकाह भी करता हूँ। जान लो, जो आदमी मेरे तरीक़े से मुँह मोड़ेगा, वह मुझसे नहीं है।} [232]

91- इसे बुख़ारी ने किताब अन-निकाह (9/104) (हदीस संख्या: 5063)

तथा मुस्लिम ने किताब अन-निकाह (2/1020) (हदीस संख्या: 1401) में रिवायत किया है।

"الرهط": तीन से दस आदमीयों के लिए बोला जाताहै।

आपका फ़रमान: {मैं, तुम्हारे बीच अल्लाह से सबसे अधिक डरने वाला हूँ।} [233]

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (9/105) में लिखते हैं:

इसमें उन तीन व्यक्तियों की इस धारणा का खंडन है कि जिसे क्षमा कर दिया गया हो, उसे अधिक इबादत की आवश्यकता नहीं रहती, जबकि अन्य लोगों को उसकी ज़रूरत होती है। आपने स्पष्ट कर दिया कि यद्यपि आप उनकी तरह इबादत में अतिशयोक्ति नहीं करते, लेकिन उनसे अधिक अल्लाह का भय रखते हैं। इसका कारण यह है कि अतिशयोक्ति करने वाले के बारे में इस बात का भय लगा रहता है कि वह उकता कर इबादत छोड़ बैठेंगे, जबकि संतुलन के साथ इबादत करने वाले उसे जारी रखने की स्थिति में अधिक होते हैं और बेहरत अमल वह है, जिसे इनसान जारी रख सके।

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के फ़रमान: "من رغب عن سنتي فليس مني" में 'सुन्नत' से मुराद आपका तरीक़ा है, वह सुन्नत नहीं जो फ़र्ज़ के मुक़ाबले में प्रयुक्त है।

हदीस का मतलब यह है कि जिसने मेरा तरीक़ा छोड़कर किसी अन्य के तरीक़े को अपनाया, वह मुझमें से नहीं है। यहाँ आपका इशारा रहबानियत की ओर है, जिसके मानने वालों ने अतिशयोक्ति का आविष्कार किया था, और बाद में उसे निभाया भी नहीं था, जैसा कि अल्लाह तआला ने बयान किया है, और उन्हें दोषी ठहराया उस कार्य को पूरा ना करने की वजह से जिसकी उनहो ने प्रतिज्ञा ली थी।

जबकि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का तरीक़ा सरलता पर आधारित अल्लाह का दिया हुआ तरीक़ा है। आप रोज़ा छोड़ते भी थे, ताकि रोज़े की शक्ति पैदा हो। सोते भी थे, ताकि रात में नमाज़ पढ़ने की ताक़त आए और शादी भी करते थे, ताकि वासना में कमी आए, स्वयं को व्यभिचार से बचाया जा सके और इनसानी नस्ल में वृद्धि हो।

जहाँ तक आपके शब्द: "فليس مني" का संबंध है, तो यदि सुन्नत पर अमल न करने का कारण उसकी वास्तविक व्याख्या से हटकर अलग व्याख्या हो, तो वह मुझमें से नहीं का अर्थ होगा, वह मेरे तरीक़े पर नहीं है और इससे आदमी इस्लाम से बाहर नहीं होगा। परन्तु, यदि उसका कारण सुन्नत से बेरुख़ी और अपने अमल को उत्तम समझने की मानसिकता हो, तो मुझमें से नहीं का अर्थ होगा, वह मेरे धर्म पर नहीं है, क्योंकि इस तरह का अक़ीदा एक तरह का कुफ़्र (अविश्वास) है।

 'ग़ुरबा' के हक़ में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की दुआ

92- अबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{इस्लाम की शुरूआत अजनबी हालत में हुई और शीघ्र ही वह पहले के समान अजनबी हो जाएगा। ऐसे में, शुभ सूचना है अजनबियों के लिए।} [234]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

92- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-ईमान (1/130) (हदीस संख्या:1459) में रिवायत किया है।

"طوبى": यह शब्द "الطيب" से "فُعلى" के वज़न पर है। उलेमा ने "طوبى" शब्द के कई अलग-अलग मायने बताए हैं:

अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- कहते हैं कि उसका अर्थ है, प्रसन्नता और आँखों की ठंडक। जबकि इकरिमा कहते हैं कि उसका अर्थ है, क्या ही अच्छा है जो उनके लिए है।

नववी कहते हैं: क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं कि इस हदीस में एक सामान्य बात कही गई है कि इस्लाम पहले एकाध लोगों में फैला, फिर बड़े स्तर पर फैलता गया और पूरी दुनिया में छा गया। लेकिन एक समय ऐसा आएगा कि वह सिकुड़ने लगेगा और इक्का-दुक्का लोगों ही में बाक़ी रह जाएगा, और हुबहू वही स्थिति पैदा हो जाएगी, जो शुरू में थी।

 जब तक आदमी की आकांक्षाएँ अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की लाई हुई शरीत के अधीन न हो जाएँ, तब ईमान के ना होने की बात

93- अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक उसकी इच्छाएँ मेरी लाई हुई शरीयत के अधीन न हो जाएँ।}

इसे बग़वी ने शर्ह-अस-सुन्नह में रिवायत किया है और नववी ने सहीह कहा है।

93- इसे बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/212) (हदीस संख्या: 104), इब्ने अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (15) तथा ख़तीब ने 'तारीख़-ए-बग़दाद' (4/369) में हिशाम बिन हस्सान के माध्यम से रिवायत किया है, जो मुहम्मद बिन सीरीन से रिवायत करते हैं, वह अतिय्या बिन औस से रिवायत करते हैं और वह अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से रिवायत करते हैं।

ख़तीब तबरेज़ी 'मिशकात अल-मसाबीह' (1/59) में कहते हैं: नववी अपनी 'अल-अरबईन' में कहते हैं: यह हदीस सहीह है। हमें यह हदीस 'किताब अल-हुज्जह' में सहीह सनद से मिली है।

लेकिन इब्ने रजब हंबली ने अपनी किताब 'जामे अल-उलूम वल-हिकम' (2/393) में कई कारणों से इसे ज़ईफ़ (दुर्बल) कहा है।

 जहन्नम से मुक्ति प्राप्त करने वाले समुदाय की विशेषता

94- अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से ही वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {मेरी उम्मत पर बिल्कुल वैसा ही समय आएगा, जैसा कि बनी इस्राईल पर आया था। यहाँ तक कि यदि उनमें से किसी ने अपनी माँ के साथ खुल्लम-खुल्ला ज़िना किया होगा, तो मेरी उम्मत में भी इस प्रकार का व्यक्ति होगा, जो ऐसा करेगा। तथा बनी इस्राईल बहत्तर फ़िर्कों (दलों) में बट गए थे, और मेरी यह उम्मत तिहत्तर फ़िर्कों में बट जाएगी। उनमें से एक के अतिरिक्त बाक़ी सब नरकवासी होंगे।"

सहाबा ने पूछा: वह कौन-सा वर्ग होगा ऐ अल्लाह के रसूल?

फ़रमाया: "वह वर्ग, जो उस मार्ग पर चल रहा होगा, जिस पर मैं चल रहा हूँ और मेरे सहाबा चल रहे हैं।} [235]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

94- इस हदीस को तिरमिज़ी ने किताब अल-ईमान (5/26) (हदीस संख्या: 2641), आजुर्री ने 'अश-शरीयह' (पृष्ठ: 15-16), मरवज़ी ने 'अस-सुन्नह' (18) तथा लालकाई ने 'शर्हु उसूलि एतिक़ादि अह्लिस सुन्नह वल जमाअह' (1/99) (हदीस संख्या: 145, 146) में अब्दुर रहमान बिन ज़ियाद इफ़रीक़ी के माध्यम से रिवायत किया है, जो अब्दुल्लाह बिन यज़ीद से और वह अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से रिवायत करते हैं।

इसकी सनद में अब्दुर रहमान इफ़रीक़ी नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

लेकिन इस हदीस के कई शवाहिद मौजूद हैं, जिनके लिए सलीम हिलाली की पुस्तक 'दरउल इरतियाब अन हदीसि मा अना अलैहि वल असहाब' देखी जा सकती है।

मुनावी अपनी पुस्तक 'फ़ैज़ अल-क़दीर' (5/347) में कहते हैं:

इमाम इब्ने तैमिया -अल्लाह उनपर दिया करे- ने फ़रमाया:

उम्मत के विभिन्न समुदायों में विभाजित हो जाने की बात नबी-ए-मुस्तफ़ा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से मशहूर है और वर्णनकर्ताओं के एक समूह ने सहाबा के एक समूह से उसे रिवायत किया है।

तीबी कहते हैं: 'मिल्लत' (समुदाय) शब्द का असल अर्थ है: वह बातें, जो अल्लाह ने इसलिए बताई हैं, ताकि लोग उनके ज़रिए अल्लाह की निकटता प्राप्त कर सकें। इस शब्द का प्रयोग समग्र रूप से अल्लाह की बताई हुई सभी बातों के लिए होता है। बाद में इसके प्रयोग का दायरा बढ़ा और असत्य समुदायों के लिए भी इसका प्रयोग होने लगा। चुनांचे, कहा गया:"यानी कुफ़्र एक ही मिल्लत (समुदाय) है"। इस वाक्य का अर्थ यह है कि वे बहुत-से समुदायों में बटे हुए हैं और उनमें से हर समुदाय दूसरे समुदाय से अलग धर्म एवं माान्यताएँ रखता है। चुनांचे उनके इसी तरीक़े को कल्पित रूप से 'मिल्लत' कह दिया गया।

"كلهم في النَّار": यानी ऐसे बुरे कार्य करेंगे, जो उनके जहन्नम जाने का कारण बनेंगे।

"إلا ملة واحدة": यानी केवल एक संप्रदाय के लोग।

[236] {ما أنا عليه وأصحابي}: यानी सत्य आस्थाओं तथा सत्कर्मों का मार्ग। मुक्ति केवल उसी को मिलेगी, जो उनके तरीक़े को पकड़े रहे, उनके पदचिह्नों पर चले और छोटे-बड़े हर मामले में उन्हीं का अनुसरण करे।

इब्ने तैमिया कहते हैं: अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बताया है कि आपकी उम्मत 73 संप्रदायों में बट जाएगी, और निस्संदेह यह वही लोग हैं, जिनका ज़िक्र इस आयत: {وَخُضْتُمْ كَالَّذِي خَاضُوا} (और तुम भी उलझते हो, जैसे वह उलझते रहे।) [237] में है। फिर यह विभेद, जिसके बारे में बताया गया है, या तो यह धर्म के मामले में होगा, या धर्म तथा दुनिया दोनों के मामले में होगा, फिर धर्म से शुरू होकर दुनिया तक पहुँचेगा और कभी केवल दुनिया के बारे में होगा।

 गुमराही की ओर बुलाने वाले का गुनाह

95- और सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{जिसने किसी हिदायत की ओर बुलाया, उसे उतना ही सवाब मिलेगा, जितना उसका अनुसरण करने वालों को मिलेगा। लेकिन इससे उन लोगों के सवाब में कोई कमी नहीं होगी। तथा जिसने गुमराही की ओर बुलाया, उसे उतना ही गुनाह होगा, जितना गुनाह उसका अनुसरण करने वालों को होगा। परन्तु इससे उन लोगों के गुनाह में कोई कमी नहीं होगी।} [238]

95- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-इल्म (4/2060) (हदीस संख्या: 2674) में रिवायत किया है।

 "जिसने किसी अच्छे काम की राह दिखाई, उसे उसके करने वाले के बराबर सवाब मिलेगा।"

96- और सहीह मुस्लिम में अबू मसऊद अंसारी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है: {एक व्यक्ति अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आया और बोला: मेरा रास्ता कट गया है, अतः, मेरे लिए सवारी का प्रबंध कर दें। आपने कहा: "मेरे पास भी तो नहीं है।" इसप र एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं एक व्यक्ति का पता दे सकता हूँ, जो उसके लिए सवारी का प्रबंध कर दे। यह सुन अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

"जिसने किसी अच्छे काम की राह दिखाई, उसे उसके करने वाले के बराबर सवाब मिलेगा।} [239]

96- इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने किताब अल-इमारह (3/1506) (हदीस संख्या: 1893) में रिवायत किया है।

इसी तरह इमाम बुख़ारी ने 'अल-अदब अल-मुफ़रद' (242) में तथा तयालिसी (85) (हदीस संख्या: 611) ने भी रिवायत किया है। "إنه أبدع بي": यानी सवारी के थक जाने या मर जाने के कारण मेरा रास्ता कट गया है।

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की कोई सुन्नत जीवित करने का सवाब

97- अम्र बिन औफ़ -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफूअन वर्णित है:

{जिसने मेरी किसी सुन्नत को, जो मेरे बाद मुर्दा हो चुकी थी, जीवित किया, उसे बाद में उस पर अमल करने वाले तमाम लोगों के बराबर सवाब मिलेगा, और इससे उनके सवाब में कोई कटौती नहीं होगी। इसी तरह जिसने धर्म के नाम पर कोई ऐसा काम किया, जो अल्लाह और उसके रसूल को पसंद न हो, तो उसे बाद में अमल करने वाले तमाम लोगों के बराबर गुनाह होगा और इससे उनके गुनाहों में कोई कटौती नहीं होगी।} [240]

इसे तिरमिज़ी तथा इब्ने माजा ने रिवायत किया है, तिरमिज़ी ने हसन कहा है और शब्द इब्ने माजा के हैं।

97- इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/44) (हदीस संख्या: 2677) तथा इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/76) (हदीस संख्या: 210) में कसीर बिन अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस के माध्यम से रिवायत किया है, जो अपने पिता से तथा वह उनके दादा से रिवायत करते हैं।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन है।

मैं कहता हूँ: इसमें कसीर बिन अब्दुल्लाह नामी एक वर्णनकर्ता है, जो अत्यधिक दुर्बल है।

 फ़ितनों के कारण

98- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं:

{तुम्हारा उस समय क्या हाल होगा, जब तुमपर फ़ितने का इस तरह राज होगा कि छोटा उसी में बड़ा होगा, बड़ा उसी में बूढ़ा होगा, उसका प्रचलन इस हद तक बढ़ जाएगा कि सब लोग उसका पालन करेंगे, और जब उसमें कोई परिवर्तन किया जाएगा, तो आवाज़ उठेगी कि एक सुन्नत छोड़ दी गई! किसी ने पूछा कि ऐ अबू अब्दुर रहमान! ऐसा कब होगा? उन्होंने उत्तर दिया: जब तुम्हारे बीच क़ुरआन पढ़ने वाले अधिक होंगे और समझने वाले कम, धन-दौलत की बारिश होगी और अमानतदार घट जाएँगे, आख़िरत के अमल से दुनिया तबल की जाएगी और दुनियादारी के उद्देश्य से धर्म का ज्ञान प्राप्त किया जाएगा।} [241]

इसे दारिमी ने रिवायत किया है।

98- इसे दारिमी ने अल-मुक़द्दिमह (1/58) (हदीस संख्या: 191) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमें सुनाया अबू याला ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की आमश ने, वह वर्णन करते हैं शोबा से, वह वर्णन करते हैं शक़ीक़ से, वह कहते हैं कि अब्दुल्लाह ने कहा।

तथा दारिमी ने इसे अल-मुक़द्दिमह (1/58) (हदीस संख्या: 192) में एक अन्य सनद से रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की अम्र बिन औन ने, वह वर्णन करते हैं ख़ालिद बिन अब्दुल्लाह से, वह वर्णन करते हैं यज़ीद बिन अबू ज़ियाद से, वह रिवायत करते हैं इबराहीम से, वह वर्णन करते हैं अलक़मा से और वह रिवायत करते हैं अब्दुल्लाह बिन मसऊद से।

साथ ही बैहक़ी ने इसे 'अल-मदख़ल' (1/64) में रिवायत किया है।

 इस्लाम को ध्वस्त करने वाली चीज़ें

99- {ज़ियाद बिन हुदैर -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि उमर -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने मुझसे पूछा: क्या तुम जानते हो कि कौन-सी चीज़ें इस्लाम को ध्वस्त करने का काम करती हैं? मैंने उत्तर दिया कि नहीं। तो फ़रमाया: जो चीज़ें इस्लाम को ध्वस्त करने का काम करती हैं, वह हैं: आलिम की त्रुटि, मुनाफ़िक़ का क़ुरआन के द्वारा वाद-विवाद करना और पथभ्रष्टता की ओर ले जाने वाले शासनकर्ताओं का शासन।} [242]

इसे भी दारिमी ने रिवायत किया है।

99- इसे दारिमी ने अल-मुक़द्दिमह (1/63) (हदीस संख्या: 220) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमें हदीस सुनाई मुहम्मद बिन उयय्ना ने, वह कहते हैं कि हमें हदीस सुनाई अली बिन मुसहिर ने, जो रिवायत करते हैं अबू इसहाक़ से, वह रिवायत करते हैं शाबी से और वह वर्णन करते हैं ज़ियाद बिन हुदैर से।

 सदाचारी पूर्वजों के पदचिह्नों पर चलने की अनिवार्यता

100- हुज़ैफा- रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं: {हर वह इबादत जिसे मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सहाबा किराम ने इबादत नहीं समझा, उसे तुम भी इबादत न समझो। क्योंकि उन्होंने बाद में आने वालों के लिए कुछ कहने की गुन्जाईश नहीं छोड़ी है। अतः, ऐ क़ुरआन के पाठको, अल्लाह तआलाल से डरो और अपने पूर्वजों के तरीके को अपनाओ।}

इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

100- जबकि बुख़ारी ने अल-एतिसाम बिल-किताब वस-सुन्नह (13/250) (हदीस संख्या: 7282) में हुज़ैफ़ा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है, वह कहते हैं: ऐ क़ुरआन के पाठको! तुम सीधे मार्ग पर दृढ़ता से जमे रहो। क्योंकि तुम अन्य लोगों की तुलना में काफ़ी आगे निकल चुके हो। अब यदि तुम दाएँ-बाएँ की राह लोगे, तो बड़े भटकाव के शिकार हो जाओगे।

101- तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं: तुममें से जो व्यक्ति किसी का तरीक़ा अपनाना चाहे, वह उन लोगों का तरीक़ा अपनाए, जो दुनिया से जा चुके हैं। क्योंकि जीवित व्यक्ति के बारे में फ़ितने में पड़ने का अंदेशा बना रहता है। मैं बात मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथियों की कर रहा हूँ, जो इस उम्मत के सर्वश्रेष्ठ लोग थे। वे सबसे नेकदिल, ज्ञान के धनी और दिखावा तथा बनावट से दूर रहने वाले लोग थे। अल्लाह ने अपने नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का साथ निभाने और अपने धर्म को स्थापित करने के लिए उनका चयन किया था। अतः, उनके मर्तबे को पहचानो, उनके पदचिह्नों पर चलो और जहाँ तक हो सके, उनके आचार-विचार को अपनाओ। क्योंकि वे सीधे मार्ग पर चलकर गए हैं।"

इसे रज़ीन ने रिवायत किया है।

101- मिशकात अल-मसाबीह (1/67) (हदीस संख्या: 193) के अनुसार इसे रज़ीन ने रिवायत किया है।

अल्लामा नासिरुद्दी अलबानी लिखते हैं: यह हदीस मुनक़ते है। इसे इब्ने अब्दुलबर्र ने भी 'जामे बयान अल-इल्म व फ़ज़लिहि' (2/97) में क़तादा के माध्यम से रिवायत किया है और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत किया है।

 क़ुरआन के बारे अर्थहीन वाद-विवाद का हराम होना

102- अम्र बिन शोऐब अपने पिता से और वह अपने दादा से रिवायत करते हैं कि उन्होंने कहा: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने कुछ लोगों को क़ुरआन के बारे में वाद-विवाद करते हुए सुना, तो फ़रमाया: "तुमसे पहले गुज़रे हुए लोग इसी बात के कारण हलाक हुए थे; उन्होंने अल्लाह की किताब की कुछ आयतों का उसकी कुछ दूसरी आयतों से टकराव पैदा कर दिया था। जबकि अल्लाह की किताब इस तरह उतरी है कि उसका एक भाग दूसरे भाग की पुष्टि करता है। अतः, उसके एक भाग के द्वारा दूसरे भाग से न झुठलाओ। उसमें से जितना जानते हो, बस उतने ही की बात करो और जितना नहीं जानते हो, उसे जानने वाले के हवाले कर दो।} [243]

इसे अहमद और इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

102- यह हदीस हसन है। इसे अहमद (2/185) ने रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की है अब्दुर-रज़्ज़ाक़ ने, वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की है मामर ने, वह वर्णन करते हैं ज़ोहरी से और वह रिवायत करते हैं अम्र से। शब्द अहमद ही के हैं।

साथ ही इसे इब्ने माजा (1/33) (हदीस संख्या: 85) ने इसी अर्थ की हदीस दाऊद बिन अबू हिंद के माध्यम से रिवायत किया है, जो अम्र बिन शोऐब से रिवायत करते हैं, जो अपने पिता से और वह अपने दादा से रिवायत करते हैं।


 अध्याय: ज्ञान प्राप्त करने पर उभारने और ज्ञान प्राप्त करने की कैफ़ियत का बयान

 तक़लीद का हराम होना

103- सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम की एक हदीस में क़ब्र की परीक्षा के बारे में आया है कि {अल्लाह की नेमतों का हक़दार बंदा कहेगा: अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हमारे पास स्पष्ट निशानियों और मार्गदर्शन के साथ आए, तो हमने आपकी बात मानी, ईमान ले आए और आपका अनुसरण किया। जबकि अल्लाह के दंड का हक़दार व्यक्ति कहेगा: मैंने लोगों को एक बात कहते हुए सुना, तो मैंने भी कह दिया।} [244]

103- इसे बुख़ारी ने किताब अल-इल्म (1/182) (हदीस संख्या: 86), किताब अल-वुज़ू (1/288) एवं अपनी सहीह के अन्य बहुत-से स्थानों में और मुस्लिम ने किताब अल-कुसूफ़ (2/624) (हदीस संख्या: 905) में हिशाम बिन उरवा के माध्यम से रिवायत किया है, जो फ़ातिमा बिंत अल-मुनज़िर से रिवायत करते हैं, और वह असमा बिंत अबू बक्र से रिवायत करती हैं।

बग़वी कहते हैं (1/289):

शरई ज्ञान के दो प्रकार हैं: सिद्धांतों का ज्ञान तथा साधारण बातों का ज्ञान। जहाँ तक सिद्धाँतों के ज्ञान का संंबंध है, तो उससे अभिप्राय है पवित्र एवं महान अल्लाह को उसके एकत्व, सदगुणों एवं रसूलों की पुष्टि समेत जानना। हर विवेकी तथा व्यस्क बंदे के लिए इससे अवगत होना ज़रूरी है और इसकी निशानियाँ तथा प्रमाण इस क़दर स्पष्ट हैं कि यहाँ हीले-बहाने की कोई गुंजाइश नहीं है। अल्लाह तआला का फ़रमान है: {जान लो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है और तुम अपने पापों की क्षमा माँगो।} [245] [सूरा मुहम्मदः 19] और अल्लाह तआला ने फ़रमायाः {हम शीघ्र ही उनको संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर अपनी निशानियाँ दिखा देंगे। यहाँ तक कि उनके सामने यह बात खुल जाएगी कि यही सत्य है।} [246] [सूरा फ़ुस्सिलत: 53]

और जहाँ तक साधारण बातों के ज्ञान की बात है, तो उससे अभिप्राय फ़िक़्ह एवं धर्मादेशों का ज्ञान है। इस ज्ञान के भी दो प्रकार हैं: फ़र्ज़-ए-ऐन तथा फ़र्ज़-ए-किफ़ाया। जहाँ तक फ़र्ज़-ए-ऐन की बात है, तो उसके उदाहरण के तौर पर आप तहारत, नमाज़ और रोज़े आदि से संबंधित बातों को ले सकते हैं। हर व्यस्त तथा विवेकी मुसलमान के लिए इन बातों का जानना ज़रूरी है। नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- फ़रमाते हैं: "ज्ञान प्राप्त करना हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है।" [247] इसी तरह हर वह इबादत, जिसे अल्लाह ने किसी व्यक्ति पर फ़र्ज़ किया है, तो उसे उसके मसायल से अवगत होना पड़ेगा। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी के पास धन है, तो उसे ज़कात के मसायल सीखने पड़ेंगे और किसी पर हज फ़र्ज़ है, तो उसे हज के मसायल जानने होंगे।

और जहाँ तक उस ज्ञान की बात है, जो फ़र्ज़-ए-किफ़ाया है, तो उससे अभिप्राय इतना ज्ञान प्राप्त करना है कि आदमी इजतिहाद के मर्तबे को पहुँच जाए और फ़तवा देने के योग्य हो जाए। यदि किसी नगर में एक व्यक्ति भी इतना ज्ञान प्राप्त नहीं करता, तो पूरे नगर वासी पाप के भागीदार होंगे, और यदि एक व्यक्ति भी इस लायक़ हो गया, तो अन्य लोग इस फ़र्ज़ से मुक्त हो जाएँगे, और उन्हें अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के संबंध में उसकी बात माननी होगी। अल्लाह तआला का फ़रमान है: {यदि तुम्हें ज्ञान न हो, तो ज्ञानियों से पूछ लो।} [248] [सूरा अन-नह़्ल: 43]

 तमाम लोगों पर उलेमा की श्रेष्ठता

104- तथा बुख़ारी एवं मुस्लिम में मुआविया -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह जिसके साथ भलाई का इरादा करता है, उसे धर्म की समझ प्रदान करता है।} [249]

104- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अल-इल्म (1/164) (हदीस संख्या: 71), फ़र्ज़ अल-ख़ुमुस (6/217) (हदीस संख्या: 3116) तथा अल-एतिसाम बिल-किताब वस-सुन्नह (13/263) (हदीस संख्या: 7312) एवं मुस्लिम नेे किताब अज़-ज़कात (2/719) (हदीस संख्या: 1037) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (1/164) में लिखते हैं:

इस हदीस में उस व्यक्ति को भलाई का पात्र बताया गया है, जो अल्लाह के धर्म यानी इस्लाम का ज्ञान प्राप्त करे। साथ ही इससे यह भी मालूम होता है कि इस्लाम का ज्ञान महज़ प्रयास से प्राप्त नहीं हो सकता, बल्कि यह अल्लाह का वरदान है। वह जिसे प्रदान करता है, उसी को मिलता है। तीसरी बात, जो इस हदीस से मालूम हुई यह है कि ऐसे लोग, जिनको अल्लाह का यह वरदान प्राप्त होगा, क़यामत तक मौजूद रहेंगे। इमाम बुख़ारी ने पूर्ण विश्वास के साथ कहा है कि इस तरह के लोगों के मुराद आसार (हदीस) का ज्ञान रखने वाले लोग हैं।

जबकि इमाम अहमद फ़रमाते हैं कि यदि इनसे अह्ले हदीस मुराद नहीं हैं, तो मैं नहीं जानता कि और कौन हो सकते हैं?

क़ज़ी अयाज़ कहते हैं कि इमाम अहमद की मुराद अह्ले सुन्नत और अह्ले हदीस का अक़ीदा रखने वाले लोग हैं।

नववी कहते हैं: इस बात की संभावना है कि इस जमात में अल्लाह के आदेश का पालन करने वाले और भलाई के कामों में लगे हुए कई प्रकार के लोग, जैसे मुजाहिद, फ़क़ीह, मुहद्दिस, पारसा, भलाई का आदेश देने वाले और बुराई से रोकने वाले आदि शामिल हों। यह भी ज़रूरी नहीं है कि वे एक स्थान में पाए जाएँ, बल्कि अलग-अलग जगहों में भी हो सकते हैं।

हाफ़िज़ इबने हजर कहते हैं: इस हदीस में इस बात का भी इशारा है कि जो व्यक्ति इस्लाम की समझ हासिल न करे यानी इस्लाम के मूल सिद्धांतों और उनसे जुड़े हुए आवश्य मसायल न सीखे, वह भलाई से वंचित रहता है। क्योंकि जो अपने रब का आदेश न जाने वह फ़क़ीह और फ़िक़्ह का तालिब नहीं हो सकता, इसलिए यह कहना उचित होगा कि उसके साथ भलाई का इरादा नहीं किया गया। इससे अन्य लोगों की तुलना में उलेमा के श्रेष्ठ होने और ज्ञान की अन्य शाखाओं के मुक़ाबले में इस्लाम की सही समझ प्राप्त करने की श्रेष्ठता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।

105- बुख़ारी तथा मुस्लिम ही में अबू मूसा अशअरी -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह ने जो हिदायत और ज्ञान देकर मुझे भेजा है, उसकी मिसाल तेज़ बारिश की सी है, जो ज़मीन पर बरसती है। फिर धरती का कुछ भाग उपजाऊ होता है, जो पानी को सोख लेता है और बड़ी मात्रा में घास तथा हरियाली उगा देता है। जबकि धरती का कुछ भाग पैदावार के लायक नहीं होता, वह पानी को रोक लेता है और उसके द्वारा अल्लाह लोगों को फ़ायदा पहुँचाता है, तो लोग वह पानी पीते हैं, अपने जानवरों को पिलाते हैं और उससे खेती-बाड़ी करते हैं। साथ ही बारिश धरती के कुछ ऐसे भाग पर भी बरसती है, जो टीलों की शक्ल में होता है। वह न पानी को जमा रखता है और न हरियाली उगाता है। यही मिसाल उस आदमी की है, जिसने अल्लाह के धर्म की समझ हासिल की और जो शिक्षा देकर अल्लाह तआला ने मुझे भेजा है, उससे फ़ायदा उठाया। उसने उसे ख़ुद सीखा और दूसरों को सिखाया तथा यह उस आदमी की मिसाल भी है, जिसने इसपर तवज्जो नहीं दी तथा अल्लाह की हिदायत को, जो मैं लेकर आया हूँ, स्वीकार नहीं किया।} [250]

105- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अल-इल्म (1/175) (हदीस संख्या: 79) तथा इमाम मुस्लिम ने किताब अल-फ़ज़ाइल (4/1787) (हदीस संख्या: 2282) में रिवायत किया है।

इमाम बग़वी -उनपर अल्लाह की कृपा हो- कहते हैं:

{فكانت منها ثغبة}: इस वाक्य में प्रयुक्त शब्द "الثغبة" का प्रयोग पर्वतों तथा चट्टानों के बीच के उस स्थान के लिए होता है, जहाँ पानी एकत्र होता है, और इसका बहुवचन "ثغبان" है।

"[251]كانت منها أجادِب": इस वाक्य में प्रयुक्त शब्द "أجادِب" उस सख़्त भूमि के लिए होता है, जो पानी को रोके रखे और उसे जल्दी धरती में उतरने न दे। असमई कहते हैं: इससे मुराद वह भूमि है, जिसमें घास न उगे और न उस पर हरियाली की चादर बिछे, बल्कि वह बिल्कुल खाली और साफ़ हो।

इस हदीस में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने आलिम की मिसाल बारिश से दी और आलिम की बात ग्रहण करने अथवा न करने के मामले में लोगों के दिलों की मिसाल धरती से दी, जो कभी पानी को आत्मसात कर लेती है और कभी नहीं भी करती है। चुनांचे ज्ञान तथा हदीस प्राप्त करने और उनकी विस्तृत समझ हासिल करने वाले की मिसाल उर्वर भूमि से दी, जो बारिश के पानी को ग्रहण करने के बाद हरियाली उगाती है, जिससे लोग फ़ायदा उठाते हैं, जबकि उन्हें केवल याद कर लेने और उनकी विस्तृत समझ हासिल न करने वाले की मिसाल सख़्त ज़मीन से दी है, जो पानी एकत्र रखती है, जिससे लोग लाभ उठाते हैं। इन दोनों के विपरीत जो न ज्ञान तथा हदीस याद करे और न उनकी समझ हासिल करे, उसकी मिसाल उन टीलों से दी है, जो न हरियाली उगाती हैं और न पानी रोक रखती हैं और इस तरह वह अपने अंदर किसी प्रकार का लाभ नहीं रखती।

नववी (15/47-48) में कहते हैं:

जहाँ तक इस हदीस के उद्देश्य की बात है, तो वह है अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए मार्गदर्शन का उदाहरण बारिश से देना। इस हदीस का आशय यह है कि जिस तरह भूमि के तीन प्रकार हैं, उसी तरह इनसान के भी तीन प्रकार हैं:

पहले प्रकार की भूमि वह है, जो बारिश को आत्मसात कर ले और उसके शरीर में जान पड़ जाए। फिर वह हरियालियों से लहलहा उठे और इनसान तथा जानवर सबको फ़ायदा पहुँचाए। यही हाल पहले प्रकार के इनसान का भी है। जब उसे मार्गदर्शन तथा ज्ञान प्राप्त होता है, तो उसे सुरक्षित कर लेता है, जिससे उसके दिल में जीवन के दीप जल उठते हैं। फिर वह उस पर अमल करता है तथा दूसरों को भी सिखाता है। इस तरह वह स्वयं भी लाभान्वित होता है और दूसरों को भी लाभान्वित करता है।

दूसरे प्रकार की भूमि वह है, जो पानी को आत्मसात तो नहीं करती, लेकिन उसे दूसरों के लिए जमा रखती है और इनसान तथा जानवर सभी उससे लाभान्वित होते हैं। यही हाल दूसरे प्रकार के लोगों का है। उनके पास याद रखने की क्षमता तो होती है, लेकिन न क़ुरआन तथा हदीस के प्रमाणों से मसायल निकालने की क्षमता होती है और न अधिक से अधिक अमल करने का जज़्बा। ऐसे में वे उसे अपने पास सुरक्षित रखते हैं, यहाँ तक कि कोई ज्ञान का प्यासा आता है और उनसे ज्ञान प्राप्त करके उससे लाभान्वित होता है। इस तरह यह लोग प्राप्त मार्गदर्शन तथा ज्ञान से अन्य लोगों को फ़ायदा पहुँचाने का काम करते हैं।

तीसरे प्रकार की भूमि, वह लवणयुक्त भूमि है, जो न पानी को अपने अंदर रिसने देती हो और न उसे रोके रखती हो कि अन्य लोग लाभ उठाएँ। यही हाल तीसरे प्रकार के लोगों का भी है। न उनके पास ज्ञान को सुरक्षित रखने की शक्ति होती है और न उससे मसायल निकालने की क्षमता। न वे ज्ञान की बात सुनने के बाद उससे खुद लाभान्वित होते हैं, न उसे याद रखते हैं कि अन्य लोग लाभान्वित हों।

106- तथा सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम ही में आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{जब तुम ऐसे लोगों को देखो, जो क़ुरआन की मुतशाबेह आयतों के पीछे पड़े हों, तो समझ लो कि यह वही लोग हैं, जिनका अल्लाह ने क़ुरआन में नाम लिया है। अतः, उनसे बचते रहो।} [252]

106- यह हदीस, हदीस संख्या: 79 के तहत गुज़र चुकी है।

[नोट] इमाम अबू जाफ़र तहावी 'मुश्किल अल-आसार' [3/210] में इस हदीस को नक़ल करने तथा अल्लाह तआला के इस फ़रमान: [253] {وَالرَّاسِخُونَ فِي الْعِلْمِ يَقُولُونَ آمَنَّا بِهِ كُلٌّ مِّنْ عِندِ رَبِّنَا} (तथा जो ज्ञान में पक्के हैं, वह कहते हैं कि हम इस पर ईमान लाए। सब हमारे पालनहार के पास से है।) को दर्ज करने के बाद लिखते हैं: क़ुरआन की मुतशाबिह आयतों के साथ सत्यवादी लोगों का यही रवैया होता है। वह उन्हें उनके जानकार यानी सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की ओर लौटाते हैं और फिर क़ुरआन की मुहकम (सुदृढ़) आयतों, जो क़ुरआन का मूल आधार हैं, के आलोक में उनका अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। यदि अर्थ स्पष्ट हो जाता है, तो उन पर उसी तरह अमल करते हैं, जैसे मुहकम (सुदृढ़) आयतों पर अमल करते हैं। किन्तु यदि अपने ज्ञान की कमी के कारण उनके अर्थ तक पहुँच नहीं पाते, तो वे उन पर ईमान रखते हैं और उनके वास्तविक ज्ञान को अल्लाह के हवाले कर देते हैं। इस मामले में अटकलबाज़ी से काम बिल्कुल नहीं लेते, जो अन्य स्थानों में भी हराम है, तो यहाँ और अधिक हराम होना चाहिए।"

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के 'हवारी' (परममित्र) वही हैं, जो आपकी सुन्नत का अनुसरण करते हैं

107- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: {अल्लाह ने मुझसे पहले किसी उम्मत में जो भी रसूल भेजा, अपनी उम्मत में उसके कुछ मित्र एवं साथी हुआ करते थे, जो उसकी सुन्नत पर अमल करते और उसके आदेश का अनुसरण करते थे। फिर उनके बाद ऐसे उत्तराधिकारी आए जो कि जो वह कहते थे, वह करते नहीं थे और वह करते थे, जिसका उन्हें आदेश नहीं दिया गया था। तो जिसने उनसे हाथ से जिहाद किया वह मोमिन है, जिसने उनसे दिल से जिहाद किया, वह मोमिन है तथा जिसने उनसे ज़बान से जिहाद किया, वह भी मोमिन है। तथा इसके अतिरिक्त एक राई के दाने के बराबर भी ईमान नहीं है।} [254]

इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।

107- इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अल-ईमान (1/69) (हदीस संख्या:50) में रिवायत किया है।

नववी (2/28) में कहते हैं:

जहाँ तक इस हदीस में प्रयुक्त शब्द "حوارِيون" है, तो उसके अर्थ के बारे में उलेमा के बीच मतभेद है। अज़हरी आदि कहते हैं: इनसे मुराद नबियों के परममित्र एवं खासुल खास साथी हैं, जो हर ऐब से पाक हों।

"يهتدون بهديه": यानी जो उनके तरीक़े और पदचिह्नों पर चलते हैं।

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अतिरिक्त किसी के अनुसरण का हराम होना, यद्यपि कोई नबी ही क्यों न हो

108- जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि उमर -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल! हमें यहूदियों की कुछ बातें अच्छी लगती हैं, तो क्या आप उचित समझते हैं कि हम उनमें से कुछ बातों को लिख लें? इस पर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{क्या तुम भी यहूदियों एवं ईसाइयों की तरह विस्मय के शिकार होना चाहते हो? मैं तुम्हारे पास एक प्रकाशमान तथा साफ़-सुथरी शरीयत लेकर आया हूँ। यदि मूसा भी जीवित होते, तो उन्हें भी मेरा अनुसरण करना पड़ता।} [255]

इसे अह़मद ने रिवायत किया है।

108- बज़्ज़ार की पुस्तक 'कश्फ़ुल असतार' (3/387) (हदीस संख्या: 124) के अनुसार इसे अहमद ने हुशैम के माध्यम से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की मुजालिद ने, जो वर्णन करते हैं आमिर शाबी से, जो रिवायत करते हैं जाबिर से कि उमर ने ...। फिर पूरी हदीस बयान की।

इसकी सनद में मुजालिद नाम का एक वर्णनकर्ता है, जो ज़ईफ़ (दुर्बल) है। लेकिन उसकी मुताबअत कर दी गई है:

क्योंकि 'कश्फ़ुल असतार' (1/78) (हदीस संख्या: 124) के अनुसार इसे बज़्ज़ार ने एक अन्य तरीक़ से रिवायत किया है, जो इस प्रकार है: हम्माद बिन ज़ैद कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की ख़ालिद ने, वह कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की आमिर ने और वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की जाबिर ने।

109- अबू सालबा ख़ुशनी -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{अल्लाह तआला ने कुछ चीज़ें फ़र्ज़ की हैं; उन्हें नष्ट न करो, कुछ सीमाएँ निर्धारित की हैं; उन्हें पार न करो, कुछ चीज़ें हराम की हैं; उनके निकट न जाओ और कुछ चीज़ों से, जान-बूझकर तुम्हारे ऊपर दयास्वरूप खामोशी बरती है; उनके पीछे मत पड़ो।}

यह हदीस हसन है। इसे दारक़ुतनी आदि ने रिवायत किया है।

109- इसे दारक़ुतनी ने किताब अर-रज़ाअ (4/183) (हदीस संख्या: 42) में इसहाक़ अल-अज़रक़ के तरीक़ से रिवायत किया है। जबकि हाकिम ने किताब अल-अतइमह (4/115) में और बैहक़ी ने अज़-ज़हाया (10/12) में अली बिन मुसहिर के तरीक़ से रिवायत किया है और दोनों ने दाऊद बिन अबू हिंद से रिवायत किया है, जिन्होंने मकहूल से और उन्होंने अबू सालबा ख़ुशनी से मरफ़ूअन रिवायत किया है। लेकिन इसकी सनद मुंकते हैं। क्योंकि मकहूल ने अबू सालबा से मुलाक़ात नहीं की थी।

वैसे, यह हदीस मौक़ूफ़ तौर पर भी वर्णित है:

उसे बैहक़ी (10/12) ने हफ़्स बिन ग़ियास से के माध्यम, उन्होंने दाऊद बिन अबू हिंद से, उन्होंने मकहूल से और उन्होंने अबू सालबा से मौक़ूफन रिवायत किया है।

मिज़्ज़ी अपनी पुस्तक 'तहज़ीब अल-कमाल' (33/168) में कहते हैं: मकहूल ने अबू सालबा ख़ुशनी से हदीस नहीं सुनी है।

अल्बत्ता, अबू दरदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से उसकी एक शाहिद भी मौजूद है, जिसे बज़्ज़ार ने रिवायत किया है, जैसा कि 'कश्फ़ुल असतार' (3/58) (हदीस संख्या: 2231) में है। साथ ही उसे हाकिम (2/375) एवं बैहक़ी (10/12) ने भी रिवायत किया है और हाकिम ने सहीह कहा है तथा ज़हबी ने उनकी पुष्टि की है।

तथा बज़्ज़ार कहते हैं: इसकी सनद सालेह (स्वीकार्य) है।

तथा हैसमी (7/55) कहते हैं: इसके वर्णनकर्ता सिक़ा (विश्वस्त) हैं।

 विभेद तथा सांप्रदायिकता का हराम होना

110- बुख़ारी एवं मुस्लिम में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{मैं तुम्हें जिस चीज़ से रोकूँ, उससे बचते रहो और जिस चीज़ का आदेश दूँ, उसे जहाँ तक हो सके किए जाओ, क्योंकि तुमसे पहले के लोगों को उनके अधिक प्रश्नों और नबियों के विरोध ने हलाक किया है।} [256]

110- इसे बुख़ारी ने किताब अल-एतिसाम (13/251) (हदीस संख्या: 7288), मुस्लिम ने किताब अल-फ़ज़ाइल (4/1831) (हदीस संख्या: 1337) तथा (4/1831) एवं (4/1830) में रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (13/260) में लिखते हैं:

इस आदेश से आशय किसी ऐसी वस्तु के बारे में पूछने से मना करना है, जो वास्तविक रूप से सामने न आई हो, इस भय से कि कहीं आकाश से उसके अनिवार्य अथवा हराम होने का आदेश न उतर आए। इसी तरह अधिक प्रश्न करने से भी बचना है, क्योंकि इसमें अकसर अतिशयोक्ति होने के साथ-साथ इस बात का भय भी रहता है कि उत्तर में कौई कठिन आदेश न दे दिया जाए, जो कभी-कभी अनुपालन में कोताही का कारण बन जाता है और इस तरह आदमी शरीयत-विरोध में पड़ जाता है। इसी तरह इसके अंदर बहुत ज़्यादा खोद-कुरेद से भी मनाही है, क्योंकि कभी-कभी इसका परिणाम कुछ उसी तरह सामने आता है, जो बनी इसराईल के साथ हुआ था। घटना यूँ हैं कि उन्हें एक गाय ज़बह करने का आदेश दिया गया था। अब यदि वे कोई भी गाय ज़बह कर देते, तो आदेश का अनुपालन हो जाता। लेकिन उन्होंने खोद-कुरेद शुरू कर दी और कठिनाई में पड़ते चले गए।

हाफ़िज़ा इब्ने जहर कहते हैं: मना की हुई वस्तु से बचने का आदेश सर्वव्यापी रहेगा, जब तक उसके मुक़ाबले में कोई ऐसा प्रमाण न हो, जो उस मना किए हुए कार्य की अनुमति न दे दे। जैसे एक आयत से पता चलता है कि मरे हुए जानवर को खाना हराम है, लेकिन दूसरी आयत यह बताती है कि मजबूरी की अवस्था में उसे खाया जा सकता है।

मैं तुम्हें जिस बात का आदेश दूँ, उसे जहाँ तक हो सके, करो:

नववी कहते हैं: यह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की एक सारगर्भित बात और इस्लाम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके दायरे में बहुत-से शरई आदेश आते हैं। मसलन, यदि कोई नमाज़ का कोई रुक्न अथवा शर्त अदा न कर सकता हो, तो उतना अदा करे, जितना कर सकता है। यही हाल वज़ू और शरीर के छिपानेयोग्य अंगों के छिपाने का भी है। इसके अतिरिक्त और भी बहत-से उदाहरण हैं, जिनका उल्लेख यहाँ संभव नहीं है।

जबकि उनके अतिरिक्त अन्य लोग कहते हैं: जो कुछ कामों से विवश हो, उससे उन कामों की ज़िम्मेवारी ख़त्म नहीं होगी, जो उसके वश में हैं। इसी बात को फ़क़ीहों ने इस अंदाज़ में कही है कि असंभव संभव की ज़िम्मेवारी ख़त्म नहीं करता। मसलन, नमाज़ के जिन अरकान की अदायगी इनसान के वश में न हो, वे उसे शेष अरकान की अदायगी से मुक्त नहीं कर सकते।

हाफ़ीज़ इब्ने हजर असक़लानी (263) कहते हैं: तुमसे पहले के समुदायों को उनके बहुत ज़्यादा प्रश्न करने की आदत ने हलाक कर दिया।

बग़वी 'शर्ह अस-सुन्नह' में कहते हैं:

प्रश्न दो तरह के होते हैं: एक वह प्रश्न, जो आवश्यकता पड़ने पर आदमी सीखने के उद्देश्य से करे। ऐसे प्रश्न जायज़ ही नहीं, बल्कि इनका आदेश दिया गया है। अल्लाह तआला फ़रमाता है: (जानने वालों से पूछ लो, यदि तुम नहीं जानते।) [257] सहाबा का अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से युद्ध में प्राप्त धन तथा 'कलाला' आदि के बारे प्रश्न करना इसी के तहत आता है। दूसरे वह प्रश्न जो किसी को फँसाने तथा नीचा दिखाने के लिए किए जाएँ और इस हदीस में इसी तरह के प्रश्न से मना किया गया है।

इब्ने अरबी कहते हैं: प्रश्न करने की यह मनाही नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के ज़माने में थी। क्योंकि उस समय यह भय था कि कहीं कोई ऐसा आदेश न उतर जाए, जो उनको कठिनाई में डाल दे,परंतु बाद में इस का भय न रहा। लेकिन सदाचारी पूर्वजों के जो कथन इस विषय में वर्णित हैं उनमें से अकसर में ऐसी बातों के बारे में पूछने से मना किया गया है, जो अभी प्रकट ही नहीं हुई हैं।

 अह्ले हदीस के हक़ में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की दुआ

111- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह उस बंदे को प्रफुल्ल व प्रसन्न रखे, जो मेरी बात सुने, उसे याद तथा सुरक्षित रखे और दूसरे को पहुँचा दे। क्योंकि कई फ़िक़्ह के वाहक फ़क़ीह नहीं होते और कई फ़िक़्ह के वाहक उसे ऐसे व्यक्ति तक पहुँचा देते हैं जो उससे अधिक फ़क़ीह होते हैं। तीन बातों के संबंध में एक मुसलमान के दिल से चूक नहीं होती: केवल अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए काम करना, मुसलमानों का शुभाकांक्षी रहना और उनकी जमात के साथ आवश्यक रूप से जुड़ा रहना। क्योंकि मुसलमानों की दुआ उनको अपने घेरे में रखती है।} [258]

इसे शाफ़िई ने तथा बैहक़ी ने 'अल-मदख़ल' में रिवायत किया है। जबकि अहमद, इब्ने माजा एवं दारिमी ने इसे ज़ैद बिन साबित -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है।

111- यह हदीस सहीह है। इसे शाफ़िई ने अपनी मुसनद (1514), तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/34) (हदीस संख्या: 2658) में तथा हुमैदी (1/47) (हदीस संख्या: 88), बैहक़ी ने 'अद-दलाइल' (1/23), बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/236) (हदीस संख्या: 112) में अब्दुल मलिक बिन उमैर के माध्यम से रिवायत किया है, जो अब्दुर रहमान बिन अब्दुल्लाह बिन मसऊद से और वह अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत करते हैं।

जबकि तिरमिज़ी (हदीस संख्या: 2657), इब्ने माजा (1/85) (हदीस संख्या: 232), अहमद (1/437) तथा अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (7/331), इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह (1/268) (हदीस संख्या: 66) तथा बैहक़ी ने 'अद-दलाइल' (6/540) एक अन्य तरीक़ से रिवायत किया है, जो इस प्रकार है: सिमाक ने अब्दुर रहमान बिन अब्दुल्लाह से रिवायत किया है, जो अपने पिता से संक्षेप में रिवायत करते हैं।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

इसके अतिरिक्त अबू नुऐम ने इसे 'अख़बार असबहान' (2/90) में मुर्रा के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत करते हैं।

112- तथा अहमद, अबू दाऊद और तिरमिज़ी ने इसे ज़ैद बिन साबित -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है।

112- यह हदीस सहीह है। इसे अबू दाऊद ने किताब अल-इल्म (4/322) (हदीस संख्या: 3660) तथा तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/33) (हदीस संख्या: 2656) में, दारिमी (1/65) (हदीस संख्या: 235) तथा इब्ने अबू आसिम ने 'अस-सुन्नह' (1/45) (हदीस संख्या: 94) में, तहावी ने 'मुश्किल अल-आसार' (2/232) में एवं तबरानी (1/58/5) (हदीस संख्या: 4890) तथा इब्ने हिब्बान (1/270) (हदीस संख्या: 67), (2/454) (हदीस संख्या: 680)में शोबा के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अम्र बिन सुलैमान से, वह अब्दुर रहमान बिन इब्बान से, वह अपने पिता से और वह ज़ैद बिन साबित से रिवायत करते हैं।

ज्ञात हो कि अबू दाऊद, तिरमिज़ी तथा तहावी की रिवायत संक्षिप्त है।

इब्ने माजा (1/84) (हदीस संख्या: 230) और तबरानी (5/171) (हदीस संख्या: 2924) ने इसे यहया बिन अब्बाद के तरीक़ से रिवायत किया है, जिन्होंने अपने पिता से और उन्होंने ज़ैद बिन साबित से रिवायत किया है।

तबरानी के शब्द संक्षिप्त हैं।

इसी तरह तबरानी ने एक अन्य स्थान (5/172) (हदीस संख्या: 4925) में मुहम्मद बिन वह्ब के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अपने पिता से और वह ज़ैद बिन साबित से रिवायत करते हैं, और इमाम तिरमिज़ी कहते हैं कि ज़ैद -रज़ियल्लाहु अन्हु- की यह हदीस हसन है।

बग़वी कहते हैं: अबू सुलैमान ख़त्ताबी कहते हैं: अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के शब्द:

(अल्लाह उस व्यक्ति को प्रफुल्ल तथा प्रसन्न रखे) [259] में दरअसल शादाब, खुशहाल एवं प्रसन्न रहने की दुआ है। जबकि कुछ लोग कहते हैं कि प्रफुल्ल रहने से मुराद चेहरे की शादाबी नहीं है, बल्कि इससे मुराद समाज के अंदर मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा है। हदीस के अगले वाक्य का अर्थ यह है कि बहुत-से हदीस याद रखने वाले लोग फ़क़ीह तो होते हैं, लेकिन उसमें पारंगत नहीं होते ऐसे में वह हदीस को याद रखते हैं और ऐसे दक्ष व्यक्ति को पहुँचा देते हैं, जो उससे ऐसे मसायल निकालता है, जो वह निकाल नहीं सकते थे, या ऐसे व्यक्ति को पहुँचा देते हैं जो उनसे बड़ा फक़ीह हो जाता है ।

आपके शब्द: [260] "لا يغل عليهن" में "يغل" "या" के फ़तहा और "ग़ैन" के कसरा के साथ है। यह शब्द "الغِل " से लिया गया है, जो कीना-कपट के अर्थ में है। ऐसे में हदीस का अर्थ हुआ, उसके अंदर कीना-कपट इस तरह प्रवेश नहीं करता कि उसे सत्य से दूर हटा दे। जबकि "يغل" शब्द को "या" के ज़म्मा के साथ भी पढ़ा गया है। ऐसे में यह "الأغلال" से होगा, जिसका अर्थ है, ख़यानत।

 ज्ञान केवल तीन हैं और उनके सिवा अतिरिक्त चीज़ें हैं

113- अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{ज्ञान केवल तीन हैं: सुदृढ़ आयत का ज्ञान, प्रचलित सुन्नत का ज्ञान तथा न्याय पर आधारित फ़राइज़ का ज्ञान। इनके सिवा जितने ज्ञान हैं, वह अतिरिक्त हैं।} [261]

इस हदीस को दारिमी तथा अबू दाऊद ने वर्णन किया है।

113- इसे अबू दाऊद ने किताब अल-फ़राइज़ (3/119) (हदीस संख्या: 2885) में, इब्ने माजा (1/21) (हदीस संख्या: 54), दारक़ुतनी ने किताब अल-फ़राइज़ (4/67) में, हाकिम (1/332) और बैहक़ी (6/208) ने अब्दुर रहमान बिन ज़़ियाद के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अब्दुर रहमान बिन राफ़े अत-तन्नूख़ी से और वह अब्दुल्लाह बिन अम्र से रिवायत करते हैं।

लेकिन इसकी सनद में अब्दुर रहमान बिन ज़ियाद बिन अनउम इफ़रीक़ी नामी एक वर्णनकर्ता है, जो ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

"ज्ञान केवल तीन हैं": यानी मूल धार्मिक तथा शरई मसायल के ज्ञान तीन हैं। जबकि शैष चीज़ें अतिरिक्त तथा अनावश्यक हैं।

"सुदृढ़ आयत": ऐसी आयत जो मंसूख़ (निरस्त) न हुई हो।

"प्रचलित सुन्नत": ऐसी सुन्नत जिस पर लगातार अमल होता रहा हो।

"न्याय पर आधारित फ़राइज़": मीरास है। यहाँ मुराद तक़सीम में इस तरह न्याय का ध्यान रखना है कि सारे हिस्सदारों को उसी के अनुरूप दिया जाए, जो क़ुरआन तथा हदीस में उनके लिए निर्धारित है। मीरास को "फरीज़ा" इसलिए कहा गया है, क्योंकि उसका सीखना हर मुजतहिद पर अनिवार्य है।

मुझे यह हदीस सुनन दारिमी में मिल न सकी।

 क़ुरआन के बारे में राये से किसी बात के कहने का हराम होना

114- अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जिसने क़ुरआन के बारे में अपने मन से कोई बात कही, वह अपना ठिकाना जहन्नम में बना ले।} [262]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

114- इसे तिरमिज़ी ने कितबा अत-तफ़सीर (5/183) (हदीस संख्या: 2950), नसई ने 'अल-कुबरा फ़ी फ़ज़ाइल अल-क़ुरआन' (5/31) (हदीस संख्या: 8085) तथा बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/258) (हदीस संख्या: 118, 119) में सुफ़यान सौरी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अब्दुल आला बिन आमिर से रिवायत करते हैं, वह सईद बिन जुबैर से और वह अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णन करते हैं।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

जबकि बग़वी ने उसे हसन कहा है।

115- तथा एक रिवायत में है:

{जिसने क़ुरआन के बारे में बिना जानकारी के कोई बात कही, वह अपना ठिकाना जहन्नम में बना ले।} [263]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

115- इसे तिरमिज़ी ने (5/183), नसई ने 'अल-कुबरा' (5/30) (हदीस संख्या: 8084), अहमद ने (1/233, 269), तबरानी ने (12/35) (हदीस संख्या: 12392) और बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/257) (हदीस संख्या: 117) में अब्दुल आला बिन आआमिर के तरीक़ से रिवायत किया है, जो सईद बिन जुबैर से और वह अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत करते हैं।

इमाम तिरमिज़ी और बग़वी कहते हैं: यह हदीस हसन है।

मैं कहता हूँ: इसकी दोनों सनदो में अब्दुल आला बिन आमिर नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि ज़ईफ़ (दुर्बल) है।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के कई साथियों तथा अन्य कई विद्वानों से वर्णित है कि उन्होंने बिना ज्ञान के क़ुरआन की तफ़सीर करने से बड़ी सख़्ती से मना किया है।

 जानकारी के बिना फ़तवा देने से डराना

116- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जिसने बिना जानकारी के फ़तवा दिया, उसका गुनाह फ़तवा देने वाले पर होगा तथा जिसने यह जानते हुए भी अपने भाई को किसी बात का मशविर दिया कि वह उसके लिए उचित नहीं है, उसने उसके साथ धोखा किया।} [264]

इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

116- यह हदीस हसन है। इसे इमाम बुख़ारी ने 'अल-अदब अल-मुफ़रद' (101) (हदीस संख्या: 259) में रिवायत किया है।

117- मुआविया -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि नबी -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने कठिन मसलों में पड़ने से मना किया है।

इसे भी अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

117- इसे अबू दाऊद ने किताब अल-इल्म (3/321) (हदीस संख्या: 3656) तथा अहमद ने मुसनद (5/435) में ईसा बिन यूनुस के तरीक़ से, उन्होंने औज़ाई से, उन्होंने अब्दुल्लाह बिन साद से, उन्होंने सनाजी से और उन्होंने मुआविया से रिवायत किया है।

तथा अहमद (5/435) ने इसे रौह के तरीक़ से भी वर्णन किया है, कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की औज़ाई ने, वह वर्णन करते हैं अब्दुल्लाह बिन साद से, वह रिवायत करते हैं सनाजी से और वह अल्लाह के रसूल -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- के एक सहाबी से रिवायत करते हैं।

इस सनद में अब्दुल्लाह बिन साद एक मजहूल वर्णनकर्ता है और शाम वालों ने उसे ज़ईफ़ (दुर्बल) कहा है। देखिए: 'तमाम अल-मिन्नह' (पृष्ठ: 45)

औज़ाई कहते हैं: "الأغلوطات" का मतलब है कठिन तथा मुश्किल मसायल।

 ज्ञान की प्राप्ति के लिए निकलना दरअसल जन्नत का मार्ग तय करना है

118- कसीर बिन क़ैस कहते हैं: मैं दिमश्क़ की मस्जिद में अबू दरदा के साथ बैठा हुआ था कि एक व्यक्ति ने आकर कहा: ऐ अबू दरदा! मैं आपके पास अल्लाह के रसूल -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- के नगर से आया हूँ, क्योंकि मुझे सूचना मिली है कि आप अल्लाह के रसूल -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- से एक हदीस बयान करते हैं। मैं आपके पास किसी अन्य उद्देश्य से नहीं आया हूँ। यह सुन अबू दरदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल -सल्ललल्लाहु अलैहि व सल्लम- को फ़रमाते हुए सुना है:

{जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के पथ पर चलता है, अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है और फ़रिश्ते ज्ञान प्राप्ति करने वाले से खुश होकर उसके लिए अपने पर बिछा देते हैं। निश्चय ही आलिम के लिए आकाशों तथा धरती की सारी चीजें, यहाँ तक कि पानी की मछलियाँ भी क्षमा की प्रार्थना करती हैं। आलिम को आबिद पर वही श्रेष्ठता प्राप्त है, जो चाँद को सितारों पर। उलेमा नबियों के वारिस हैं और नबियों ने दीनार तथा दिरहम विरासत में नहीं छोडा, बल्कि विरासत में केवल ज्ञान छोडा। अत: जिसने इसे प्राप्त कर लिया, उसने नबवी मीरास का बड़ा भाग प्राप्त कर लिया।}[265]

इसे अहमद, दारिमी, अबू दाऊद, तिरमिज़ी तथा इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

118- यह हदीस हसन है। इसे अबू दाऊद ने किताब अल-इल्म (3/317) (हदीस संख्या: 2641) और इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/81) (हदीस संख्या: 223) में, अहमद (5/196) एवं दारिमी (1/83) (हदीस संख्या: 349) ने तथा तहावी ने 'मुश्किल अल-आसार' (1/429) में,और बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (1/275) (हदीस संख्या: 129) में तथा इब्ने हिब्बान (1/289) (हदीस संख्या: 88) ने आसिम बिन रजा बिन हैवा के तरीक़ से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की दाऊद बिन जमील ने और वह रिवायत करते हैं कसीर बिन क़ैस से।

इस हदीस में दाऊद बिन जमील नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि दुर्बल है।

साथ ही तिरमिज़ी ने इसे किताब अल-इल्म (5/47) (हदीस संख्या: 2682) में और अहमद ने (5/196) ने मुहम्मद बिन यज़ीद अल-वासती के तरीक़ से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की आसिम बिन रजा ने और वह रिवायत करते हैं क़ैस बिन कसीर से। इस तरह, आप देख रहे हैं कि इस तरीक़ में दाऊद बिन जमील का उल्लेख नहीं है।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं कि मेरी राय में यह सनद मुत्तसिल नहीं है।

जबकि अबू दाऊद (3/318) (हदीस संख्या: 2642) ने इसे मुहम्मद बिन वज़ीर दिमश्क़ी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की वलीद बिन मुस्लिम ने, वह कहते हैं कि मैं शबीब बिन शैबा से मिला, तो उन्होंने मुझे उसमान बिन अबू सौदा से हदीस बयान की और वह अबू दरदा से रिवायत करते हैं। इसका अर्थ उक्त हदीस जैसा है।

मैं कहता हूँ: इस सनद में मौजूद शबीब नामी वर्णनकर्ता मजहूल है।

बग़वी (1/277) कहते हैं:

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम केकथन: (फ़रिश्ते अपने पर बिछा देते हैं) [266]: कुछ लोगों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि फ़रिश्ते विद्या प्राप्त करने वाले के लिए,उसकी विद्या के सम्मान में, विनम्रता दिखाते हैं। जैसा पवित्र एवं महान अल्लाह का फ़रमान है: {और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका दो।} [267] [सूरा अल-इसरा: 24] एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है: {और झुका दें अपना बाहु उसके लिए, जो ईमान वालों में से आपका अनुयायी हो।} [268] [अश-शुअरा: 215] अर्थात उनके साथ विनम्र व्यवहार करें।

जबकि कुछ लोगों के अनुसार पंख बिछाने का अर्थ है, उड़ना बंद करके ज़िक्र के लिए उतर जाना।

आपके वाक्य:(निश्चय आलिम के लिए आकाशों तथा धरती की सारी चीजें, यहाँ तक कि पानी की मछलियाँ भी क्षमा की प्रार्थना करती हैं।) [269] का अर्थ कुछ लोगों के अनुसार यह है कि अल्लाह तआला मछलियों समेत सारे प्राणियों के दिल में यह डाल देता है कि वे उलेमा के लिए क्षमा याचना करें, क्योंकि वही लोगों को बताते हैं कि कौन-कौन से जानदार लोगों के लिए हलाल हैं और कौ-कौन से हराम।

ज्ञात हो कि ज्ञान इबादत से श्रेष्ठ इसलिए है कि ज्ञान का लाभ ज्ञानवान व्यक्ति के साथ-साथ सारी सृष्टि को मिलता है और उसी के द्वारा धार्मिक चेतना का काम भी संभव हो सकता है। यही कारण है कि उसका दर्जा ठीक नबूवत के बाद आता है।

आपके शब्द:"जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसने बहुत बड़ा भाग प्राप्त कर लिया" का अर्थ है कि उसन नबवी मीरास का बहुत बड़ा भाग प्राप्त कर लिया।

अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- कहते हैं: रात में कुछ देर इल्म सीखना तथा सिखाना रात भर इबादत करने से उत्तम है।

क़तादा कहते हैं: अपने तथा अन्य लोगों के सुधार के उद्देश्य से ज्ञान का एक अध्याय याद करना, साल भर इबादत करने से बेहतर है।

इब्ने वह्ब कहते हैं: मैं इमाम मालक के पास बैठकर उनसे मसायल पूछ रहा था। इसी बीच उन्होंने मुझे उठने के लिए किताबें एकत्र करते हुए देखा, तो फ़रमाया: कहाँ जा रहे हो? मैंने कहा: नमाज़ के लिए जल्दी जाना चाहता हूँ। यह सुन फ़रमाया: तुम जिस काम में हो, यदि इसे सही नियत से किया जाए, तो यह उस काम से कम महत्वपूर्ण नहीं है, जिसके लिए तुम जाना चाहते हो।

इमाम शाफ़िई कहते हैं: ज्ञान प्राप्त करने में समय देना नफ़ल नमाज़ में समय देने से उत्तम है। 'शर्ह अस-सुन्नह' का उद्धरण संक्षिप्त रूप से समाप्त हुआ।

 हिकमत की बात मोमिन का खोया हुआ सामान है

119- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{हिकमत की बात मोमिन का खोया हुआ सामान है। वह उसे जहाँ भी पाए, उसे अपनाने का अधिक हक़ रखता है ।} [270]

इस हदीस को तिरमिज़ी तथा इब्ने माजा ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने 'ग़रीब' कहा है।

119- इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/49) (हदीस संख्या: 2687) और इब्ने माजा ने 'अज़-ज़ुह्द' (2/1395) (हदीस संख्या: 4169) में अब्दुल्लाह बिन नुमैर के तरीक़ से रिवायत किया है, जो इबराहीम बिन फ़ज़्ल से वर्णन करते हैं तथा वह सईद अल-मक़बुरी से रिवायत करते हैं और वह अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हुु- से वर्णन करते हैं।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस ग़रीब है और हम इसे केवल इसी तरीक़ से जानते हैं, जबकि इसमें मौजूद इबराहीम बिन फ़ज़्ल मदनी मख़ज़ूमी नामी वर्णनकर्ता याददाश्त की कमज़ोरी के कारण ज़ईफ़ (दुर्बल) वर्णनकर्ता माना जाता है।

 फ़क़ीह कौन है?

120- {अली -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं: वास्तविक फ़क़ीह वह है जो लोगों को अल्लाह की दया से निराश न करे,उन्हें अल्लाह की अवज्ञा की छूट न दे, अल्लाह की यातना से निश्चिंत न करे और क़ुरआन से मुँह मोड़ कर किसी और वस्तु को न अपनाए। उस इबादत में कोई भलाई नहीं जो ज्ञानरहित हो, उस ज्ञान में कोई भलाई नहीं जो विवेकरहित हो और उस तिलावत में कोई भलाई नहीं जो विचाररहित हो।} [271]

120- इसे दारिमी ने अल-मुक़द्दिमह (1/76) (हदीस संख्या: 304) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की हसन बिन अरफ़ता ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इसमाईल बिन इबराहीम ने, वह वर्णन करते हैं लैस से, वह वर्णन करते हैं यहया बिन अब्बाद से, वह कहते हैं कि अली -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने फ़रमाया।

121- और हसन -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जिस व्यक्ति की मृत्यु इस अवस्था में आए कि वह इस्लाम को जीवित करने के उद्देश्य से ज्ञानार्जन में लगा हुआ हो, तो उसके तथा नबियों के बीच जन्नत में केवल एक दर्जे का अंतर होगा।} [272]

इन दोनों हदीसों को दारिमी ने रिवायत किया है।

121- इसे दारिमी (1/84) (हदीस संख्या: 360) ने रिवायत किया है। वह कहते हैं कि हमें हदीस सुनाई बिश्र बिन साबित अल-बज़्ज़ार ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की नस्र बिन क़ासिम ने, जो रिवायत करते हैं मुहम्मद बिन इसमाईल से, वह वर्णन करते हैं अम्र बिन कसीर से और वह रिवायत करते हैं हसन से।

इसकी सनद दुर्बल है और यह एक मुरसल हदीस है।

इसी तरह नस्र बिन क़ासिम एक मजहूल वर्णनकर्ता है और अम्र बिन कसीर का परिचय मुझे मिल न सका।

जबकि तबरानी ने इसे एक अन्य तरीक़ से कुछ इसी की भाँति मर्फ़ूअन रिवायत किया है, जैसा कि 'मजमा अज़-ज़वाइद' (1/123) में उल्लिखित है। हैसमी कहते हैं कि इसमें मुहम्मद बिन जाद नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि मतरूक है।

मैं कहता हूँ: इसमें मुहम्मद बिन बक्कार नामी वर्णनकर्ता भी है, जो कि कज़्ज़ाब (अति मिथ्यावादी) है।


 अध्याय: ज्ञान का उठा लिया जाना

122- अबू दरदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं: {हम लोग अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथ थे। इसी बीच आपने आकाश की ओर नज़र उठाई और फ़रमाया: "यह वह समय है, जब लोगों का ज्ञान उचक लिया जाएगा और उनके पास ज़रा भी ज्ञान बाक़ी नहीं रहेगा।"} [273]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

122- यह हदीस सहीह है। इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/31) (हदीस संख्या: 2653) तथा हाकिम ने 'अल-इल्म' (1/99) में अब्दुल्लाह के तरीक़ से रिवायत किया है, जो सालेह से रिवायत करते हैं, वह अब्दुर रहमान बिन जुबैर बिन नुफ़ैर से रिवायत करते हैं, वह अपने पिता जुबैर बिन नुफ़ैर से रिवायत करते हैं और वह अबू दरदा से रिवायत करते हैं।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन ग़रीब है।

तथा हाकिम कहते हैं: इसकी सनद सहीह है।

साथ ही औफ़ बिन मालिक -रज़ियल्लाहु अन्हु- से इसकी एक शाहिद मौजूद है,

जिसे नसई ने 'अल-कुबरा' (3/456) (हदीस संख्या: 5909) में और हाकिम (1/99) ने रिवायत किया है।

इसकी एक अन्य शाहिद ज़ियाद बिन लबीद अंसारी से भी वर्णित है, जो अभी आ रही है।

 इस बात पर चेतावनी कि कुरआन पढ़ा तो जाए किंतु उस पर अमल ना किया जाए

123- ज़ियाद बिन लबीद -रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं: {अल्लाह के नबी -सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम- ने किसी चीज़ की चर्चा की और फ़रमाया कि यह उस समय होगा, जब ज्ञान विलुप्त हो जाएगा। मैंने पूछा: ऐ अल्लाह के रसूल! ज्ञान विलुप्त कैसे हो जाएगा, जबकि हम क़ुरआन पढ़ते हैं, अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, हमारे बच्चे भी अपने बच्चों को पढ़ाएँगे और इस तरह यह सिलसिला क़यामत तक जारी रहेगा? आपने उत्तर दिया: "ज़ियाद! तुम्हारी माँ तुमपर रोए! मैं तो तुम्हें मदीने के सबसे समझदार लोगों में गिना करता था और तुम इस तरह का प्रश्न करते हो? क्या तुम इन यहूदियों तथा ईसाइयों को नहीं देखते, जो तौरात तथा इंजील पढ़ते तो हैं, लेकिन दोनों ग्रंथों की शिक्षाओं पर ज़रा भी अमल नहीं करते?} [274]

इसे अहमद और इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

123- इसे इब्ने माजा ने किताब अल-फ़ितन (1/1344) (हदीस संख्या: 4048) में तथा अहमद (4/160, 218) ने वकी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो कहते हैं हमसे हदीस बयान की आमश ने, वह वर्णन करते हैं सालिम बिन अबू अल-जाद से और वह रिवायत करते हैं ज़ियाद से।

तथा इसे अहमद (4/219) तथा हाकिम (1/100) ने मुहम्मद बिन जाफ़र के तरीक़ से भी रिवायत किया है, जो कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की शोबा ने, वह रिवायत करते हैं अम्र बिन मुर्रा से, वह कहते हैं कि मैंने सालिम से सुना, जो ज़ियाद से रिवायत करते हैं।

बूसीरी 'अज़-ज़वाइद' में कहते हैं: इसकी सनद सहीह है और इसके सभी वर्णनकर्ता सिक़ा है, लेकिन यह हदीस मुनक़ते है।

इमाम बुख़ारी 'अत-तारीख़ अस-सग़ीर' में कहते हैं: सालिम बिन अबू अल-जाद ने ज़ियाद बिन लबीद से सुना ही नहीं है।

और यही बात ज़हबी ने 'अल-काशिफ़' में भी कही है।

 ज्ञान को उठा लिए जाने से पहले उसे आवश्यक जानने की वसीयत

124- अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं:

{तुम ज्ञान को आवश्यक जानो, इससे पहले कि उसे उठा लिया जाए। देखो, ज्ञान को उठा लिए जाने का मतलब ज्ञानवान लोगों का उठ जाना है। तुम ज्ञान को आवश्यक जानो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हें कब उसकी ज़रूरत पड़ जाए, या किसी और को तुम्हारे ज्ञान की ज़रूरत पड़ जाए। एक समय ऐसा आएगा कि तुम्हें ऐसे लोग मिलेंगे, जो अल्लाह की किताब की ओर बुलाने का दावा तो करेंगे, लेकिन ख़ुद उन्होंने ही उसे अपनी पीठ के पीछे डाल रखा होगा। तुम ज्ञान को आवश्य जानो तथा बिदअतों, अतिशयोक्ति एवं बाल की खाल निकालने से बचो और पुरानी वस्तु को आवश्यक जानो।} [275]

इसे दारिमी ने उसी की भाँति रिवायत किया है।

124- इसे दारिमी ने अल-मुक़द्दिमह (1/50) (हदीस संख्या: 145) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की सुलैमान बिन हर्ब और अबू नौमान ने, वह वर्णन करते हैं हम्माद बिन ज़ैद से, वह वर्णन करते हैं अय्यूब से और वह वर्णन करते हैं अबू क़िलाबा से कि उन्होंने कहा।

इसके वर्णनकर्ता सहीह के वर्णनकर्ता हैं।

125- सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से मर्फ़ूअन वर्णित है:

{अल्लाह ज्ञान को ऐसे ही बंदों से खींचकर उठा नहीं लेगा, बल्कि ज्ञान को उठाने का काम उलेमा की मृत्यु के माध्यम से केरगा। यहाँ तक कि जब कोई ज्ञानी बाक़ी नहीं रहेगा, तो लोग अज्ञानियों को सरदार बना लेंगे। फिर जब उनसे कुछ पूछा जाएगा, तो बिना ज्ञान के फ़तवा देंगे अतः ख़ुद भी पथभ्रष्ट होंगे और लोगों को भी पथभ्रष्ट करेंगे।} [276]

125- इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अल-इल्म (1/194) (हदीस संख्या: 100) तथा इमाम मुस्लिम ने किताब अल-इल्म (4/2058) (हदीस संख्या: 2673) में रिवायत किया है।

साथ ही बुख़ारी ने इसे किताब अल-एतिसाम (13/282) (हदीस संख्या: 7357) में और मुस्लिम ने (4/2058) में रिवायत किया है।

126- अली -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{समीप है कि लोगों पर ऐसा समय आए, जब इस्लाम का केवल नाम रह जाएगा, और क़ुरआन की केवल लिखावट रह जाएगी। मस्जिदें आबाद तो होंगी, परन्तु हिदायत से ख़ाली होंगी। उलेमा आकाश के नीचे रहने वाले सबसे बुरे प्राणी होंगे। उन्हीं के पास से फ़ितने निकलेंगे और उन्हीं के पास लौटकर जाएँगे।}

इसे बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' में रिवायत किया है।

126- इसे बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' बाब फ़ी नश्र अल-इल्म (2/311) हदीस संख्या: 1908, 1909) तथा इब्ने अदी ने 'अल-कामिल' (4/1543) में अब्दुल्लाह बिन दुकैन के तरीक़ से रिवायत किया है, जो जाफ़र बिन मुहम्मद से, वह अपने पिता से और वह उनके दादा से और वह अली -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत करते हैं।

लेकिन इसकी सनद दो कारणों से ज़ईफ़ (दुर्बल) है:

पहला कारण: अब्दुल्लाह बिन दुकैन का ज़ईफ़ होना।

दूसरा कारण: सनद के अंदर अली बिन हुसैन तथा अली बिन अबू तालिब के बीच माध्यम न होना।


 अध्याय: बहस करने तथा झगड़ने के उद्देश्य से ज्ञान प्राप्त करने की मनाही

 ज्ञान प्राप्त करने के मामले में दिखावे का हराम होना

127- काब बिन मालिक -रज़ियल्लाहु अन्हु- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जिसने उलेमा से बहस करने, नासमझ लोगों से झगड़ने अथवा लोगों का आकर्षण लूटने के लिए ज्ञान प्राप्त किया, उसे अल्लाह जहन्नम में डालेगा।} [277]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

127- यह हदीस हसन है। इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-इल्म (5/32) (हदीस संख्या: 2654) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की अहमद बिन मिक़दाम अल-इजली ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की उमैया बिन ख़ालिद ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इसहाक़ बिन यहया बिन तलहा ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इब्ने काब बिन मालिक ने और वह वर्णन करते हैं अपने पिता से।

तिरमिज़ी कहते हैं: इसहाक़ बिन यहया मुहद्दिसों की नज़र में क़वी नहीं हैं, और याददाश्त के मामले में उनपर कलाम किया गया है।

मैं कहता हूँ: इस हदीस के चार शवाहिद हैं:

पहला शाहिद: अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- की हदीस, जिसे इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/93) (हदीस संख्या: 253) में और अन्य ने रिवायत किया है।

दूसरा शाहिद: जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- की हदीस, जिसे इब्ने माजा (हदीस संख्या: 254) में और अन्य ने रिवायत किया है।

तीसरा शाहिद: अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- की हदीस, जिसे अबू दाऊद (3/323) (हदीस संख्या: 2664) और इब्ने माजा (हदीस संख्या:252) ने रिवायत किया है।

चौथा शाहिद: अब्दुल्लाह बिन मसऊद -रज़ियल्लाहु अन्हु- की हीदस, जिसे दारिमी (1/86) (हदीस संख्या: 373) ने रिवायत किया है, और जो आगे हदीस संख्या: (131) के तहत आ रही है।

 बहस करना गुमराही का कारण है

128- अबू उमामा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मर्फ़ूअन वर्णित है:

{जब भी कोई समुदाय मार्गदर्शन पर होने के बाद पथभ्रष्ट होती है, तो उसे बहस करने की आदत पड़ जाती है।} [278] फिर आपने यह आयत तिलावत की: {उन्होंने आपके सामने यह उदाहरण केवल कुतर्क के लिए दिया। बल्कि वह हैं ही बड़े झगड़ालू लोग।} [279] [सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़: 58]

इसे अहमद, तिरमिज़ी और इब्ने माजा ने रिवायत किया है।

128- इसे तिरमिज़ी ने किताब अत-तफ़सीर (6/353) (हदीस संख्या: 3253) में, इब्ने माजा ने अल-मुक़द्दिमह (1/19) (हदीस संख्या: 48) में तथा अहमद (5/252, 256), तबरानी (8/333) (हदीस संख्या: 8067) और हाकिम (2/447) ने हज्जाज बिन दीनार के तरीक़ से, उन्होंने अबू ग़ालिब से और उन्होंने अबू उमामा से रिवायत किया है।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

हाकिम ने भी इसे सहीह कहा है और ज़हबी ने उनसे सहमति व्यक्त की है।

 अल्लाह के निकट सबसे घृणित व्यक्तियों में से कुछ लोग

129- आइशा -रज़ियल्लाहु अनहा- से रिवायत है, वह कहती हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{अल्लाह के पास सबसे घृणित व्यक्ति वह है, जो अत्यधिक झगड़ालू तथा हमेशा विवाद में रहने वाला हो।} [280]

बुख़ारी एवं मुस्लिम।

129- इसे बुख़ारी ने किताब अल-मज़ालिम (5/106) (हदीस संख्या: 2457), किताब अत-तफ़सीर (8/188) (हदीस संख्या: 4523) और कितबा अल-अहकाम (13/180) (हदीस संख्या: 7188) में रिवायत किया है।

इमाम बग़वी फ़रमाते हैं:

"الألد": यानी बहुत झगड़ने वाला। "اللدد": बहस करना और झगड़ना। कहा जाता है: "رجل ألد، وامرأة لداء، وقوم لد" यानी झगड़ालू पुरुष, झगड़ालू स्त्री तथा झगड़ालू समुदाय। अल्लाह तआला का फरमान है: {तथा आप विरोध करने वालों को सतर्क कर दें।} [281] [सूरा मरमय: 97] एक और स्थान में उसका फ़रमान है: {बल्कि वह हैं ही बड़े झगड़ालू लोग।} [282] [सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़: 58] कहा जाता है: "لددته ألده" यानी मैंने उससे बहस की और उसे पराजय कर दिया।

तथा 'फ़तहुल बारी' (13/181) में है: "الألد" शब्द का अर्थ है, महा झूठा। गोया कहा यह गया है कि जो अधिक झगड़ता तथा बहस करता है, वह झूठ का शिकार भी अधिक होता है।

पवित्र एवं महान अल्लाह अधिक झगड़ालू व्यक्ति से नफ़रत इसलिए करता है, क्योंकि अधिक बहस व तकरार आम तौर पर निंदनीय हरकतों का सबब बनती है। क्योंकि अधिकतर बहसों में दो पक्षों में से कोई एक तो असत्य पर होता ही है।

130- अबू वाइल ने अब्दुल्लाह -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत किया है, वह कहते हैं: "जिसने चार उद्देश्यों के तहत ज्ञान प्राप्त किया, वह जहन्नम में प्रवेश करेगा -या फिर कुछ इसी तरह की बात कही-: उलेमा पर अभिमान करने के लिए, बेवक़ूफ़ों से बहस करने के लिए, लोगों को आकर्षित करने के लिए या अमीरों से कुछ प्राप्त करने के लिए।"

इसे दारिमी ने रिवायत किया है।

130- इसे दारिमी ने अल-मुक़द्दिमह (1/86) (हदीस संख्या: 373) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमें हदीस सुनाई अबू उबैद क़ासिम बिन सल्लाम ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अबू इसमाईल बिन इबराहीम बिन सुलैमान अल-मुअद्दिब ने, जो वर्णन करते हैं आसिम अल-अहवल से, वह वर्णन करते हैं एक व्यक्ति से जिसने उन्हें हदीस सुनाई, अबू वाइल से और वह वर्णन करते हैं अब्दुल्लाह बिन मसऊद से।

इस सनद में एक वर्णनकर्ता मजहूल है।

लेकिन हदीस संख्या: 127 की पाद टिप्पणी में मैंने इसके शवाहिद का उल्लेख कर दिया है।

131- अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है कि उन्होंने कुछ लोगों को धर्म के बारे में बहस करते हुए सुना, तो फ़रमाया: क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह के कुछ बंदे ऐसे हैं, जो अल्लाह के भय से चुप्पी साधे हुए हैं। हालाँकि वे बहरे-गोंगे नहीं, बल्कि विद्वान, सुवक्ता, वाक्पटु तथा श्रेष्ठ लोग और इतिहास के जानकार हैं। लेकिन इसके बावजूद हाल यह है कि जब अल्लाह की महानता को याद करते हैं, तो उनका विवेक छू-मंतर जो जाता है, दिल बैठ जाते हैं और ज़बानें बंद हो जाती हैं। यहाँ तक कि जब इस स्थिति से उभरते हैं, तो सुकर्मों के साथ अल्लाह की ओर दौड़ पड़ते हैं। वे स्वयं को कोताही करने वालों में गिनते हैं, हालाँकि वे चाक-चौबंद एवं सामर्थ्य वाले लोग होते हैं। इसी तरह वे स्वयं को पथभ्रष्ट तथा पापियों में शुमार करते हैं, हालाँकि वे सदाचारी एवं मासूम होते हैं। सुनो, वे अल्लाह के लिए किए हुए अपने अधिक अमल को अधिक नहीं समझते और उसकी प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए थोड़े-मोड़ अमल से संतुष्ट भी नहीं होते। वह अपने अमल का बखान भी नहीं करते। जहाँ भी उनको देखो, कर्तव्यनिष्ठ, डरे-सहमे और भयभीत नज़र आते हैं।

इसे अबू नुऐम ने रिवायत किया है।

132- हसन बसरी ने कुछ लोगों को झगड़ते हुए सुना, तो कहा: {यह इबादत से उकताए हुए, बात बनाने को आसान समझने वाले और परहेज़गारी में पिछड़े हुए लोग हैं, इसीलिए इस तरह की बात कर रहे हैं।}


 अध्याय: संक्षिप्त बात करने और बात-चीत में बनावट तथा अतिशयोक्ति से बचने का बयान

133- अबू उमामा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{हया तथा कम बोलना ईमान की दो शाखाएँ हैं, जबकि अश्लील बातें करना तथा अधिक बोलना निफ़ाक़ की दो शाखाएँ हैं।} [283]

इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

133- यह हदीस सहीह है। इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-बिर्र वल-इहसान (4/329) (हदीस संख्या: 2027) में, इब्ने अबू शैबा ने 'अल-ईमान' (118) में, अहमद (5/269) और हाकिम (1/9) ने तथा बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' (6/133) (हदीस संख्या: 7706) में मुहम्मद बिन मुतर्रिफ़ के तरीक़ से रिवायत किया है, जिन्होंने हस्सान बिन अतिय्या से रिवायत किया है, उन्होंने अबू उमामा से रिवायत किया है।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन ग़रीब है।

इस हदीस में प्रयुक्त शब्द "العي" का अर्थ है, कम बोलना।

"البذاءة": यानी अश्लील बातें करना।

"البيان": यानी अधिक बोलना।

इमाम तिरमिज़ी कहते हैं: जैसे कि हमारे दौर के वक्ताओं का हाल है, जो वक्तव्य देते समय लंबी-चौड़ी बातें करते हैं और लोगों की ऐसी प्रशंसा करते हैं, जो अल्लाह को पसंद नहीं है।

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के निकट नापसंदीदा व्यक्ति कौन है?

134- अबू सालबा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{तुममें मेरे सबसे प्रिय और क़यामत के दिन मुझसे सबसे निकट वह व्यक्ति होगा, जिसका आचरण सबसे अच्छा होगा और मेरे निकट सबसे अप्रिय और क़यामत के दिन मुझसे सबसे दूर वह लोग होंगे, जो बहुत ज़्यादा बातूनी, बिना सावधानी के बात करने वाले और मुँह भर-भर के बोलने वाले हैं।} [284]

इसे बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' में रिवायत किया है।

134- इसे अहमद (4/193, 194), इब्ने अबू शैबा ने 'अल-मुसन्नफ़' (8/515) (हदीस संख्या: 5372) में, इब्ने हिब्बान (2/231) (हदीस संख्या: 482), (12/368) (हदीस संख्या: 5557), तबरानी (22221) (हदीस संख्या: 588), अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (3/97), (5/188) में, बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' (4/250) (हदीस संख्या: 4969) में, बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (12/366) (हदीस संख्या: 3395) में दाऊद बिन अबू हिंद के तरीक़ से रिवायत किया है, जो मकहूल से रिवायत करते हैं और वह अबू सालबा ख़ुशनी से रिवायत करते हैं।

इसकी सनद मुनक़ते है। क्योंकि मकहूल ने अबू सालबा से नहीं सुना है।

लेकिन इसके कई शाहिद मौजूद हैं। जैसे इसके बाद आने वाली हदीस, और अब्दुल्लाह बिन मसऊद की हदीस जिसे तबरानी ने 'अल-कबीर' (हदीस संख्या: 10423) और अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- की हदीस जिसे अहमद (2/369) ने संक्षिप्त में और तबरानी ने 'अस-सग़ीर' (2/25) में रिवायत किया है। अतः, इन शवाहिद के आधार पर हदीस सहीह है।

135- तथा तिरमिज़ी ने भी जाबिर -रज़ियल्लाहु अन्हु- ने इससे मिलती-जुलती हदीस नक़ल की है।

135- इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-बिर्र वस-सिलह (4/325) (हदीस संख्या: 2018) और ख़तीब ने 'तारीख़-ए-बग़दाद' (4/63) में हिब्बान बिन हिलाल के तरीक़ से रिवायत किया है। वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की मुबारक बिन फ़ज़ाला ने, वह रिवायत करते हैं अबू अब्दे रब्बिहि बिन सईद से, वह रिवायत करते हैं मुहम्मद बिन मुनकदिर से और वह रिवायत करते हैं जाबिर -रज़ियल्लाहु अनहु- से।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन सहीह है।

बग़वी 'शर्ह अस-सुन्नह' में कहते हैं:

"الثرثار": यानी बातूनी और बहुत बोलने वाला व्यक्ति। कहा जाता है: "عين ثرثارة" यानी झड़झड़ आँसू बहाने वाली आँख। यहाँ मुराद वह लोग हैं, जो बनावट के साथ बहुत बोलने की आदत रखते हैं।

"المتفيهق": मुँह भर-भरकर बहुत बात करने वाला।

"المتشدقون": बिना किसी सावधानी और रोक-टोक के बहुत ज़्यादा बात करने वाले। जबकि कुछ लोगों के अनुसार इसका अर्थ है, लोगों पर अपने जबड़ों को हिला-हिला कर उनका मज़ाक उड़ाने वाला।

 क़यामत की एक निशानी ऐसे लोगों का प्रकट होना है, जो अपनी ज़बानों से खाएँगे

136- साद अबू वक़्क़ास -रज़ियल्लाहु अन्हु- बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{क़यामत उस समय तक नहीं आएगी, जब तक ऐसे लोग प्रकट न हों, जो उसी तरह अपनी ज़बानों से खाएँगे, जैसे गाय अपनी ज़बान से खाती है।} [285]

इस हदीस को अहमद, अबू दाऊद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।

136- इसे इमाम अहमद ने अपनी मुसनद (1/184) में रिवायत किया है और उन्हीं के तरीक़ से बग़वी ने 'शर्ह अस-सुन्नह' (12/367) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की शुरैह बिन नौमान ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की अब्दुल अज़ीज़ अद-दरावर्दी ने, वह रिवायत करते हैं ज़ैद बिन असलम से और वह साद बिन अबी वक़्क़ास -रज़ियल्लाहु अन्हु- से।

इसे बज़्ज़ार ने आइशा बिंत साद के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अपने पिता से रिवायत करती हैं। इसका उल्लेख 'कश्फ़ अल-अस्तार' (2/448) (हदीस संख्या: 2080) में है।

जबकि बज़्ज़ार (2/448) (हदीस संख्या: 2081) ने इसे अबू हय्यान तैमी के तरीक़ से भी रिवायत किया है, जो कहते हैं कि मुझसे हदीस एक व्यक्ति ने बयान की है जिसका नाम मैं भूल चुका हूँ, वह उमर बिन साद से रिवायत करते हैं और वह अपने पिता से रिवायत करते हैं।

हैसमी 'मजमा अज़-ज़वाइद' (8/116) में कहते हैं: इसे अहमद तथा बज़्ज़ार ने कई सनदों से रिवायत किया है। लेकिन उसमें एक ऐसा वर्णनकर्ता भी है, जिसका नाम नहीं लिया गया है। इसकी सबसे उत्तम सनद वह है, जिससे इमाम अहमद ने रिवायत किया है कि उनसे ज़ैद बिन असलम ने बयान किया और वह साद से रिवायत करते हैं ...

इसके सारे वर्णनकर्ता सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम के वर्णनकर्ता हैं। परन्तु, ज़ैद बिन असलम ने साद से नहीं सुना है। बाक़ी, अल्लाह बेहतर जानता है।

इस हदीस को अल्लामा अलबानी ने 'अस-सिलसिलह अस-सहीहह' (हदीस संख्या: 420) में ज़िक्र करने के बाद लिखा है: "सारांश यह है कि यह हदीस इन तरीकों के आधार पर 'इन शा अल्लाह' हसन अथवा सहीह हो जाती है। क्योंकि अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अन्हु- से भी इसका एक शाहिद मौजूद है। लेकिन मुझे वह हदीस सुनन अबू दाऊद और सुनन तिरमिज़ी में न मिल सकी।" ‏‏शायद अल्लामा अलबानी का इशारा अम्र बिन आस की आने वाली इस हदीस की ओर है:

137- अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अन्हु- से मरफ़ूअन वर्णित है:

{अल्लाह ऐसे सुभाषी व्यक्ति से नफ़रत करता है, जो ऐसे ज़बान चलाता हो, जैसे गाय ज़बान चलाती है।} [286] इसे अबू दाऊद तथा तिरमिज़ी ने रिवायत किय है।

137- इसे तिरमिज़ी ने किताब अल-अदब (5/129) (हदीस संख्या: 2853) में तथा अबू दाऊद ने किताब अल-अदब (4/301) (हदीस संख्या: 5005) में एवं अहमद ने (2/165, 187) में नाफ़े बिन उमर के तरीक़ से रिवायत किया है, जो बिश्र बिन आसिम से रिवायत करते हैं, वह अपने पिता से और वह अब्दुल्लाह बिन अम्र से रिवायत करते हैं।

तिरमिज़ी कहते हैं: यह हदीस हसन ग़रीब है और इस बाब (अध्याय) में साद -रज़ियल्लाहु अन्हु- से भी हदीस वर्णित है।

इस हदीस को अल्लामा नासिरुद्दीन अलबानी ने भी 'अस-सिलसिलह अस-सहीहह' (हदीस संख्या: 880) में ज़िक्र किया है।

138- अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जो व्यक्ति लोगों के दिलों को फाँसने के लिए अलग-अलग अंदाज़ में बात करना सीखे, क़यामत के दिन अल्लाह न उसकी फ़र्ज़ इबादत क़बूल करेगा, न नफ़ल इबादत।} [287] इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

138- इसे अबू दाऊद ने किताब अद-दावात (4/302) (हदीस संख्या: 5006) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की इब्न अस-सर्ह ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की इब्ने वह्ब ने, वह रिवायत करते हैं अब्दुल्लाह बिन मुसय्यिब से, जो जह्हाक बिन शुरहबील से और वह रिवायत करते हैं अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से।

इसकी सनद (वर्णन शृंख्ला) में अब्दुल्लाह बिन मुसय्यिब नामी एक वर्णनकर्ता है, जिसके बारे में हाफ़िज़ इब्ने हजर कहते हैं: वह मुताबअत हो जाने पर मक़बूल है, अन्यथा हदीस वर्णन करने के मामले में कमज़ोर है।

 अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के बात करने का तरीक़ा

139- आइशा -रजि़यल्लाहु अन्हा- से रिवायत है, वह कहती हैं: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की बात के हर शब्द अलग अलग होते, जिसे हर सुनने वाला समझ लेता।" वह कहती हैं: "जब आप हमसे कोई बात कहते और कोई व्यक्ति आपके शब्दों को गिनना चाहता, तो गिन सकता था।" वह कहती हैं: "आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तुम्हारी तरह जल्दी-जल्दी बात नहीं करते थे।} [288]

अबू दाऊद ने इसके कुछ भाग को रिवायत किया है।

139- इस हदीस में कुल तीन वाक्य हैं:

पहला वाक्य: "अल्लाह के रसूल की बात के हर शब्द अलग अलग होते, जिसे हर सुनने वाला समझ लेता।" इसे अबू दाऊद ने किताब अल-अदब (4/261) (हदीस संख्या: 4839) में तथा अहमद ने (6/138) में ज़ोहरी के तरीक़ से रिवायत किया है, जो उरवा से और वह आइशा -रज़ियल्लाहु अन्हा- से रिवायत करते हैं कि उन्हों ने कहा: {अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की बात इतनी स्पष्ट और दो-टूक होती कि हर सुनने वाला समझ जाता।} [289]

दूसरा वाक्य: इसे इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम, किताब अज़-ज़ुह्द (4/2298) (हदीस संख्या: 2493) में रिवायत किया है।

तीसरा वाक्य: इसे बुख़ारी ने किताब अल-मनाक़िब (6/567) (हदीस संख्या: 3568) में तथा मुस्लिम ने किताब अल-फ़ज़ाइल (4/1940) (हदीस संख्या: 2493) में रिवायत किया है।

140-औरअबू हुरैरा- रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया:

{जब किसी बंदे को देखो कि उसके अंदर दुनिया की चाहत कम हो और उसे कम बोलने की आदत हो, तो उसके निकट जाओ, क्योंकि वह हिकमत की बात ही सिखाएगा।} [290]

इसे बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' में रिवायत किया है।

140- इसे बैहक़ी ने 'शोअब अल-ईमान' (4/254) (हदीस संख्या: 4985) में उसमान बिन सालेह के तरीक़ से रिवायत किया है, जो कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की अब्दुल्लाह बिन लहीआ ने, जो कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की दर्राज ने, जो रिवायत करते हैं अब्दुर रहमान बिन हुजैरा से और वह रिवायत करते हैं अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से।

इसकी सनद में अब्दुल्लाह बिन लहीआ नामी वर्णनकर्ता ज़ईफ़ है और दर्राज पर भी कलाम है।

जबकि इसे अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (7/317) में अहमद बिन ताहिर बिन हरमला के तरीक़ से रिवायत किया है, जो अपने दादा हरमला से रिवायत करते हैं, वह इब्ने वह्ब से रिवायत करते हैं और वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सुफ़यान बिन उयय्ना ने, वह कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की अम्र बिन हारिस नामी एक नाटे क़द के मिस्री व्यक्ति ने,जो रिवायत करता है अब्दुर रहमान बिन हुजैरा से और वह अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत करते हैं।

लेकिन इसकी सनद में अहमद बिन ताहिर नामी एक वर्णनकर्ता है, जो कि महा झूठा है।

इसकी एक शाहिद भी है, जो अबू अल-ख़ल्लाद से वर्णित है, जो नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सहाबी होने का सौभाग्य रखते थे। उनसे इसे इब्ने माजा ने अज़-जुह्द (2/1373) (हदीस संख्या: 4101), बुख़ारी ने 'अत-तारीख़ अल-कबीर' (9/27, 28), अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (10/405) तथा तबरानी ने 'अल-कबीर' (22392) (हदीस संख्या: 975) में रिवायत किया है।

लेकिन इसकी सनद भी ज़ईफ़ तथा मुनक़ते है। अबू फ़रवा नामी वर्णनकर्ता ज़ईफ़ है और उसने किसी सहाबी से हदीस नहीं सुनी है।

इस हदीस की एक अन्य शाहिद अब्दुल्लाह बिन जाफ़र से वर्णित है, जिसे अबू याला ने अपनी मुसनद (12/175) (हदीस संख्या: 6803) में रिवायत किया है। लेकिन इसकी सनद में भी उमर बिन हारून नामी एक मतरूक वर्णनकर्ता है।

इसे अल्लामा नासिरुद्दीन अलबानी ने 'अस-सिलसिलह अज़-ज़ईफ़ह' (हदीस संख्या: 1923) में ज़िक्र किया है।

141- बुरैदा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को कहते हुए सुना है:

{कुछ बातें जादू का काम करती हैं, कुछ ज्ञान अज्ञानता से परिपूर्ण होते हैं, कुछ शेर (कविता) हिकमत से भरे होते हैं और कुछ बातें अप्रासंगिक होती हैं।} [291]

141- इसे अबू दाऊद ने किताब अल-अदब (4/303) (हदीस संख्या: 5012) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की मुहम्मद बिन यहया बिन फ़ारिस ने, वह कहते हैं कि हमसे हदीस बयान की सईद बिन मुहम्मद ने, वह कहते हैं हमसे हदीस बयान की अबू तमीला ने, वह कहते हैं कि मुझसे हदीस बयान की अबू जाफ़र नहवी अब्दुल्लाह बिन साबित ने, वह कहते हैं कि मुझेस हदीस बयान की सख़्र बिन अब्दुल्लाह बिन बुरैदा ने, वह रिवायत करते हैं अपने पिता से और वह रिवायत करते हैं उनके दादा से।

अबू दाऊद इस हदीस के बाद कहते हैं: चुनांचे सासआ बिन सौहान ने कहा: अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने सच कहा है। {कुछ बातें जादू का काम करती हैं।} [292] मसलन, किसी पर दूसरे व्यक्ति का अधिकार बनता हो, परन्तु वह अधिकार वाले से अधिक अपनी बात रखने तथा प्रमाण प्रस्तुत करने में निपुण हो, जिसके कारण लोगों को अपनी बातों के जादू में फाँस ले और उसका हक़ ले उड़े। नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वाक्य: {कुछ ज्ञान अज्ञानता से परिपूर्ण होते हैं।} [293] मसलन, कोई आलिम अपनी साख बचाने के लिए कोई ऐसा मसला बताए, जो न जानता है। इस तरह उसका ज्ञान उसे जहालत पर आमादा करता है। नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वाक्य: {कुछ शेर (कविता) हिकमत से भरे होते हैं।} [294] क्योंकि उसमें बहुत-सी सीख की बातें और उदाहरण भी होते हैं, जिनसे लोग नसीहत हासिल करते हैं।

नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वाक्य: {कुछ बातें अप्रासंगिक होती हैं।} [295] मसलन, कोई ऐसे व्यक्ति के सामने अपनी बात रखे, जो न उसे समझ सके और न समझना चाहे।

इसकी सनद ज़ईफ़ (दुर्बल) है। क्योंकि इसमें अब्दुल्लाह बिन साबित नाम का वर्णनकर्ता मजहूल है, और सख़्र नामी वर्णनकर्ता मक़बूल है।

इस हदीस के पहले वाक्य की एक शाहिद अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अन्हुमा- से वर्णित है, जिसे इमाम बुख़ारी ने (10/237) (हदीस संख्या: 5767) में रिवायत किया है।

रही यह बात {कुछ शेर (कविता) हिकमत से भरे होते हैं।} [296] वाले वाक्य की, तो यह सहीह है। इसे तिरमिज़ी (हदीस संख्या: 3756), इब्ने माजा (हदीस संख्या: 3756), अबू दाऊद (हदीस संख्या: 5011) तथा अबू अहमद (1/269, 272) में अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अन्हुमा - से रिवायत किया है।

देखिए: 'सहीह इब्ने हिब्बान' (13/94) (हदीस संख्या: 778)

हाफ़िज़ इब्ने हजर 'फ़तहुल बारी' (10/237) में लिखते हैं:

ख़त्ताबी कहते हैं: अभिव्यक्तियाँ दो तरह की होती हैं:

पहली: जिससे अपनी बात रखने वाले के दिल की बात दूसरे तक पहुँच जाए। चाहे जैसे भी हो।

दूसरी: जिसमें कलाकृति का समावेश हो, और श्रोताओं को विमुग्ध कर देती हो तथा उनके दिलों को फेरने का काम करती हो। इस तरह की अभिव्यक्ति जब दिलों को विमुग्ध करने लगे और इनसान के मन पर इस तरह हावी हो जाए कि उसे सच्चाई तक पहुँचने न दे और सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य दिखाने में सफल हो जाए, तो उसे जादू के समरूप माना जाएगा। ऐसी बातों का उद्देश्य यदि सत्य की तरफ बुलाना हो, तब तो यह प्रशंसनीय है, अन्यथा यदि असत्य की तरफ ले जाने के लिए हो तो निंदनीय है।

वह आगे कहते हैं: इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जो अभिव्यक्ति जादू के जैसी हो, वह बुरी है। लेकिन इस पर यह एतराज़ किया गया है कि अभिव्यक्ति के दूसरे प्रकार को भी जादू कहने से कोई रुकावट नहीं है, क्योंकि जादू शब्द का प्रयोग अनुरक्त करने के लिए भी होता है। वैसे, कुछ लोगों ने इस हदीस को, कथन को सुंदर बनाने और उत्म शब्दों के चयन की प्रशंसा के अर्थ में लिया है। जबकि इसके विपरीत कुछ लोगों ने कथन में बनावट पैदा करने, अनावश्यक सुंदर बनाने का प्रयास करने और वास्तविकता से परे बात करने वालों की निंदा के मायने में भी लिया है।

जहाँ तक आपके शब्द "وإن من القول عيالا" का संबंध है, तो इब्न अल-असीर "अन-निहायह" (3/331) में कहते हैं: इससे आशय, ऐसे व्यक्ति के सामने अपनी बात रखना है, जो न उसे सुनना चाहता हो और न वह बात उससके स्तर की हो। कहा जाता है: "عِلت الضالة أعيل عيلا" यानी मुझे अपने खोए हुए सामान के बारे में पता नहीं चल पा रहा है कि मैं उसे कहाँ ढूँढूँ। ऐसे ही आप समझ लें कि एक व्यक्ति को कोई ऐसा इनसान न मिला, जो उसकी बात सुनने की इच्छा रखता हो, इसलिए ऐसे आदमी के सामने बात रखने लगा, जो उससे दिलचस्पी न रखे।

142- अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अन्हु- से वर्णित है कि {उन्होंने एक दिन ऐसे मोक़े पर, जब एक व्यक्ति खड़े होकर बहुत ज़्यादा बात किए जा रहा था, फ़रमाया: यदि यह संतुलित अंदाज़ में बात करे, तो उसके लिए अच्छा है। मैंने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को कहते हुए सुना है: "मैंने सोचा है -या मुझे आदेश दिया गया है- कि संक्षिप्त अंदाज़ में बात करूँ। क्योंकि संक्षिप्त बात ही अच्छी है।} [297]

इन दोनों हदीसों को अबू दाऊद ने रिवायत किया है।

यह पुस्तक संपन्न हुई। सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे संसार का पालनहार है। हम उसकी नितांत प्रशंसा करते हैं।

142- इसे अबू दाऊद ने किताब अल-अदब (4/302) (हदीस संख्या: 5008) में रिवायत किया है। वह कहते हैं: हमसे हदीस बयान की सुलैमान बिन अब्दुल हमीद बहरानी ने, उनका कहना है कि उन्होंने इसमाईल बिन अबू अय्याश के द्वारा लिखित याददाश्त में पढ़ा है और उसे उनके बेटे मुहम्मद बिन इसमाईल ने बयान किया है, वह कहते हैं कि मुझे मेरे पिता ने हदीस सुनाई, वह कहते हैं कि मुझे ज़मज़म ने हदीस सुनाई, वह वर्णन करते हैं शुरैह बिन उबैद से, वह कहते हैं कि हमसे अबू ज़बया ने बयान किया कि एक दिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अनहु- ने कहा: ...।

अबू ज़बया के बारे में हाफ़िज़ इब्ने हजर कहते हैं कि वह मक़बूल हैं। यानी उस समय जब उनकी मुताबअत हो जाए।


  


[1] इसे हाकिम ने अल-मुसतदरक (3/388-389) में तथा तबरानी ने 'अल-औसत' (3846) में रिवायत किया है، और हाकिम ने सहीह कहा है एवं ज़हबी ने उनका समर्थन किया है। इसकी अन्य सनदें भी हैं, जिनकी ओर हदीस विज्ञान के महाज्ञाता अलबानी ने 'फ़िक़हुस- सीरह' पर अपनी टिप्पणि के (पृष्ठ: 108) में इशारा किया है।

[2] इसे इमाम बुख़ारी ने सहीह बुख़ारी (3456) और इमाम मुस्लिम ने सहीह मुस्लिम (2669) में अबू सईद ख़ुदरी -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

[3] सहीह बुख़ारी: अल-ऐतिसाम बिल-किताब वस-सुन्नह (6889) और सहीह मुस्लिम: अल-इल्म (2669) तथा अहमद (3/84)

[4] मुस्लिम: अल-ईमान (145), इब्ने माजा: अल-फ़ितन (3986) और अहमद (2/389)

[5] इसे इमाम मुस्लिम (145) ने अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

[6] सूरा अश-शूरा, आयत संख्या: 11।

[7] सूरा अस-साफ़्फ़ात, आयत संख्या: 180-182।

[8] सूरा अल-मोमिनून, आयत संख्या: 102, 103।

[9] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या: 28।

[10] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या:255।

[11] सूरा अन-नज्म, आयत संख्या: 26।

[12] सूरा अल-मुद्दस्सिर, आयत संख्या: 48।

[13] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या:10।

[14] मैंने यह 'परिचय' शैख़ अहमद बिन हजर आल बूतामी की किताब "الشيخ محمد بن عبد الوهاب عقيدته السلفية ودعوته الإصلاحية وثناء العلماء عليه" तथा शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन आल अब्दुल लतीफ़ की किताब "دعاوى المناوئين لدعوة الشيخ محمد بن عبد الوهاب عرض ونقد" से संक्षिप्त के साथ लिया है।

[15] सहीह मुस्लिम: अज़-ज़ुह्द वर-रक़ाइक़ (2985), इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4202) तथा अहमद (2/301)

[16] सूरा अज़-ज़ारियात, आयत संख्या: 56।

[17] सूरा अन-निसा, आयत संख्या: 116।

[18] सूरा यूनुस, आयत संख्या: 31।

[19] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या: 3।

[20] सूरा यूनुस, आयत संख्या: 18।

[21] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या:254।

[22] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 255।

[23] सूरा अल-अनफ़ाल, आयत संख्या: 39।

[24] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या: 37।

[25] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या: 80।

[26] सूरा अल-माइदा, आयत संख्या:116|

[27] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या: 57|

[28] सूरा अन-नज्म, आयत संख्या: 19-20|

[29] तिरमिज़ी:अल-फितन (2180) तथा अहमद (5/218)|

[30] इसे तिरमिज़ी (2180), अहमद (5/280), तयालिसी (1346), हुमैदी (848), इब्न आसिम (76) तथा इब्न हिब्बान (1835) ने रिवायत किया है और इसकी सनद सहीह है।

[31] सूरा अल-अनकबूत, आयत संख्या: 65।

[32] सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (179) तथा अहमद (4/405)

[33] सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (179) तथा अहमद (4/405)

[34] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या: 47।

[35] सूरा अर-राद, आयत संख्या: 26।

[36] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या: 143।

[37] मुस्लिम, तिरमिज़ी, इब्ने माजा और महमद की रिवायत में 'दायाँ हाथ' शब्द आया है। जबकि बुख़ारी के शब्द हैं: 'अल्लाह का हाथ'।

[38] हस्तलिखित प्रति में 'تغيضها' शब्द आया है।

[39] अहमद (5/162)

[40] अहमद (5/173)

[41] मुस्लिम: अर-बिर्र वस-सिलह वल-आदाब (2582), तिरमिज़ी: सिफ़त अल-क़यामह वर-रक़ाइक़ वल-वरअ (2420) तथा अहमद (2/235)

[42] सूरा अन-निसा, आयत संख्या: 58

[43] सूरा अन-निसा, आयत संख्या: 58

[44] सूरा अश-शूरा, आयत संख्यया: 11

[45] सूरा अश-शूरा, आयत संख्यया: 11

[46] सूरा अश-शूरा, आयत संख्यया: 11

[47] सूरत अश-शूरा, आयत संख्यया: 11

[48] सूरा अन- नह़्ल, आयत संख्या: 74

[49] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या: 18

[50] सूरा अल-फ़ुरक़ान, आयत संख्या: 33

[51] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या: 54

[52] सहीह बुख़ारी: अत-तौहीद (6944) तथा अहमद (2/52)

[53] सहीह बुख़ारी: अद-दावात (5950), सहीह मुस्लिम: अत-तौबह (2747) तथा अहमद (3/213)

[54] सहीह मुस्लिम: अत-तौबा (2759) तथा अहमद (4/404)

[55] बुख़ारी: अल-अदब (5653), मुस्लिम: अत-तौबह (2754)

[56] बुख़ारी: बदउल ख़ल्क़ (3022), मुस्लिम: अत-तौबह (2751), तिरमिज़ी: अद-दावात (3543) इब्न माजा: अज़-ज़ुह्द (4295) तथा अहमद (2/358)

[57] सूरा अल-मुजादला आयत संख्या: 21

[58] सूरा ताहा, आयत संख्या: 52

[59] बुख़ारी: अर-रिक़ाक़ (6104), मुस्लिम: अत-तौबह (2752), तिरमिज़ी: अद-दावात (3541), इब्न माजा: अज़-ज़ुह्द (4293), अहमद (2/526) और दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2785)

[60] सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या: 43

[61] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या: 156

[62] सहीह मुस्लिम: अत-तौबह (2753)

[63] सहीह मुस्लिम: अत-तौबह (2753)

[64] सहीह मुस्लिम: सिफ़त अल-क़यामह वल-जन्नह वन-नार (2808) तथा अहमद (3/125)

[65] सहीह मुस्लिम: अज़-ज़िक्र वद-दुआ वत-तौबह वल-इसतिग़फार (2734), सुनन तिरमिज़ी: अल-अतइमह (1816) तथा मुसनद अहमद (3/100)

[66] सूरा अश-शूरा, आयत संख्यया: 11

[67] तिरमिज़ी: अज़-ज़ुह्द (2312), इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4190) तथा अहमद (5/173)

[68] सहीह अल-बुख़ारी: अल-जुमुआ (997), सहीह मुस्लिम: अल-कुसूफ़ (901), सुनन नसई: अल-कुसूफ़ (1474), मुसनद अहमद (6/164) तथा मुवत्ता मालिक: अन-निदा लिस-सलाह (444)

[69] इसे इमाम बुख़ारी ने किताब अत-तफ़सीर (8/280) (हदीस संख्या: 4621), किताब अर-रिक़ाक़ (11/319) (हदीस संख्या: 6486) तथा इमाम मुस्लिम ने किताब अल-फ़ज़ाइल (4/1832) (हदीस संख्या: 2359) में रिवायत किया है। हाफ़िज़ इब्न हजर असक़लानी 'फ़तहुल बारी' (11/319) में लिखते हैं: "यहाँ (जानने) से अभिप्राय अल्लाह की महानता, अवज्ञाकारियों से उसके इनतेक़ाम (बदला), मृत्यु के समय एवं क़ब्र के अंदर तथा क़यामत के दिन की भयावहता से संबंधित बातों की जानकारी है। यह भी याद रहे कि यहाँ अधिक रोने तथा कम हँसने की बात कहकर दरअसल दिलों के अंदर भय पैदा करने का काम किया गया है। ... हसन बसरी कहते हैं: जिसने यह जान लिया कि उसे मौत से गुज़रना ही है, क़यामत का वचन पूरा होना ही है और अल्लाह के सामने खड़े होने से बचने की कोई सूरत नहीं है, तो उसे चाहिए कि दुनिया में शोकाकुल रहा करे। किरमानी कहते हैं: इस हदीस में शाब्दिक फ़नकारी दिखाते हुए हँसने के मुक़ाबले में रोने और कम के मुक़ाबले में अधिक शब्दों का प्रयोग किया गया है।"

[70] मुस्लिम, अल-बिर्र वस-सिलह वल-आदाब (2621)

[71] सहीह मुस्लिम: अत-तौबह (2755) सुनन तिनमिज़ी: अद-दावात (3542) तथा अहमद (2/397)

[72] सहीह बुख़ारी: अर-रिक़ाक़ (6123) तथा अहमद (1/442)

[73] सहीह बुख़ारी: अर-रिक़ाक़ (6113), सहीह मुस्लिम: अज़-ज़ुह्द वर-रिक़ाक़ (2988), तिरमिज़ी: अज़-ज़ुह्द (2314), अहमद (2/334) तथा मालिक: अल-जामे (1849)

[74] इसे इमाम बुख़ारी ने (11/308) में अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत किया है।

[75] सहीह बुख़ारी: अहादीस अल-अंबिया (3280), मुस्लिम: अस-सलाम (2245) तथा अहमद (2/510)

[76] बुख़ारी: अहादीस अल-अंबिया (3295), मुस्लिम: अल-बिर्र वस-सिलह वल-आदाब (2242) दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2814)

[77] ज़ुहरी के इस कथन को इमाम मुस्लिम ने ज़िक्र किया है।

[78] यह बात नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से भी सहीह सनद से साबित है। इसे बुख़ारी ने (1/176) में, तथा मुस्लिम ने (2876) में आइशा -रज़ियल्लाहु अनहा- से रिवायत किया है।

[79] 'يقادون' अबू दाऊद का शब्द है। जबकि बुख़ारी में 'يدخلون الجنَّة' और अहमद में 'يجاء بهم' है।

[80] अबू दाऊद: अल-जिहाद (2677) तथा अहमद (2/302)

[81] सहीह बुख़ारी: अल-अदब (5748), सहीह मुस्लिम: सिफ़त अल-क़ियामह वल-जन्नह वन-नार (2804) तथा अहमद (4/405)

[82] सहीह बुख़ारी: अल-अदब (5693), सहीह मुस्लिम: अल-बिर्र वस-सिलह वल-आदाब (2637), तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3161), अहमद (2/413) तथा मालिक: अल-जामे (1778)

[83] इसे बुख़ारी ने (1367) में, तथा मुस्लिम ने (949) में रिवायत किया है।

[84] सहीह बुख़ारी: मवाक़ीत अस-सलात (529), सहीह मुस्लिम: अल-मसाजिद व मवाजे अस-सलात (633), सुनन तिरमिज़ी: सिफ़त अल-जन्नह (2551), अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4729), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमा (177) तथा अहमद (4/360)

[85] सूरा ताहा, आयत संख्या: 130

[86] सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (181), सुनन तिरमिज़ी: सिफ़त अल-जन्नह (2552), इब्न माजा: अल-मुक़द्दिमह (187) तथा अहमद (4/332)

[87] सहीह बुख़ारी: अर-रिक़ाक़ (6137)

[88] सहीह बुख़ारी: अल-जुमुअह (1094), मुस्लिम: सलात अल-मुसाफ़िरीन व क़सरुहा (758), सुनन तिरमिज़ी: अस-सलात (446), अबू दाऊद: अस-सलात (1315), इब्ने माजा: इक़ामह अस-सलात वस-सुन्नह फ़ीहा (1366), अहमद (2/419), मालिक: अन-निदा लिस-सलात तथा अद-दारिमी: अस-सलात (1479)

[89] सहीह बुख़ारी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (4598), सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (180), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (186), अहमद (4/416) तथा दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2822)

[90] सूरा अर-रहमान, आयत संख्या: 62

[91] इसे अहमद ने (2/304, 305, 445) में, तिरमिज़ी ने (2526) में, इब्ने हिब्बान ने (2387) में, तयालिसी ने (2583) में तथा दारिमी ने (2/33) में ज़ईफ़ (दुर्बल) सनद से रिवायत किया है। लेकिन इसके कई शवाहिद हैं, जो इसे शक्ति प्रदान करते हैं। देखें इमाम अबू नुऐम असबहानी की पुस्तक 'सिफ़त अल-जन्नह' (100) तथा (136)

[92] हदीस संख्या: 261)। इसे अबू नुऐम ने 'अल-हिलयह' (6/204), बज़्ज़ार ने अपनी मुसनद (4/189 - अतिरिक्त हदीसों वाले भाग), अबुश-शैख़ ने जैसा कि 'हादी अल-अरवाह' (पृष्ठ: 95) में है तथा इब्न अबू अद-दुनया ने जैसा कि 'अल-बिदायह वन-निहायह' (2/384) में है, रिवायत किया है और इसकी सनद 'जय्यिद' (उत्म) है। क्योंकि वोहैब बिन ख़ालिद ने जरीरी से उनकी याददाश्त के बिगड़ने से पहले रिवायत किया है। इसका उल्लेख 'अल-कवाकिब अन-नय्यिरात' (पृष्ठ: 174) नामी पुस्तक में मौजूद है।

[93] सुनन अत-तिरमिज़ी: सिफ़त अल-जन्नह (2525)

[94] सहीह मुस्लिम (2229), सुनन तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3224) तथा अहमद (1/218)

[95] मुस्लिम, तिरमिज़ी तथा नसई में 'يقرفون' का शब्द आया है यानी उसके साथ झूठ मिलाते हैं।

[96] अल-बुख़ारी: अल-अदब (5859), मुस्लिम: अस-सलाम (2228) तथा अहमद (6/87)

[97] अल-बुख़ारी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (4424), तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3223) एवं इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (194)

[98] सहीह बुख़ारी: अर-रिक़ाक़ (6154), मुस्लिम: सिफ़त अल-क़यामह वल-जन्नह वन-नार (2787), इब्न माजा: अल-मुक़द्दिमह (192), अहमद (2/374) तथा दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2799)

[99] सहीह बुख़ारी: अत-तौहीद (6977), सहीह मुस्लिम: सिफ़त अल-क़ियामह वल-जन्नह वन-नार (2787), अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4732) तथा दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2799)

[100] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या: 67

[101] सहीह बुख़ारी: अत-तौहीद (6977), सहीह मुस्लिम: सिफ़त अल-क़ियामह वल जन्नह वन-नार (2788) तथा इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4275)

[102] सूरा हूद, आयत संख्या: 7

[103] मुस्लिम: अल-क़द्र (2653) तिरमिज़ी: अल-क़द्र (2156), तथा अहमद (2/169)

[104] इसे मुस्लिम (2653) ने रिवायत किया है।

[105] सूरा हूद, आयत संख्या: 7

[106] सुनन तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3109), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (182) तथा अहमद (4/11)

[107] इसे इमाम अहमद (4/11, 12), इब्ने माजा (182) तथा तिरमिज़ी (3109) ने रिवायत किया है और इसकी सनद, इसके वकी बिन अदस नामी एक वर्णनकर्ता के अपरिचित होने के कारण, ज़ईफ़ (कमज़ोर) है।

[108] सुनन तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3319) तथा अहमद (5/317)

[109] इसे तिरमिज़ी (2155, 3319), अहमद (5/317), तयालिसी (577), इब्ने अबू आसिम (107) तथा आजुर्री (पृष्ठ: 177) ने दो सनदों से रिवायत किया है, जो एक-दूसरे को शक्ति प्रदान करती हैं।

[110] सहीह बुख़ारी: अल-अदब (5742), मुस्लिम: सलात अल-इसतिसक़ा (897), नसई: अल-इसतिसक़ा (1518), अबू दाऊद: अस-सलात (1174), इब्ने माजा: इक़ामह अस-सलात वस-सुन्नह फ़ीहा (1180), अहमद (3/261) तथा मालिक: अल-जामे (1768)

[111] सहीह बुख़ारी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (4690), नसई: अल-जनाइज़ (2078) तथा अहमद (2/351)

[112] अल-बुख़ारी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (4212)

[113] सूरा अल-अनआम, आयत संख्या:101

[114] सहीह बुख़ारी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (4549), मुस्लिम: अल-अदब आदि (2246), अबू दाऊद: अल-अदब (5274), अहमद (2/238) तथा मालिक: अल-जामे (1846)

[115] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या:101

[116] सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या: 38

[117] सूरा अस-साफ़्फ़ात, आयत संख्या: 96

[118] सूरा अल-क़मर, आयत संख्या: 49

[119] मुस्लिम: अल-क़द्र (2653) तिरमिज़ी: अल-क़द्र (2156) तथा अहमद (2/169)

[120] इसकी तख़रीज के लिए देखिए: 'अस-सिलसिलह अस-सहीह़ह' (हदीस संख्या: 34)

[121] सूरा अल-अनफ़ाल, आयत संख्या: 75

[122] सूरा अत-तलाक़, आयत: 12

[123] सूरा क़ाफ़: 4

[124] सूरा यासीन, आयत संख्या: 12

[125] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या: 70

[126] सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या: 18

[127] सूरा यासीन, आयत संख्या:82

[128] सूरा अल-तकवीर, आयत संख्या: 29

[129] सूरा अज़-ज़ुमर, आयत संख्या: 62

[130] सूरा फ़ातिर, आयत संख्या: 3

[131] सूरा अल-लैल, आयत संख्या: 5-7

[132] सूरा अल-लैल, आयत संख्या: 5

[133] सूरा अल-लैल, आयत संख्या: 8

[134] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या:172

[135] सहीह बुख़ारी: बदउल ख़ल्क़ (3036), सहीह मुस्लिम: अल-क़द्र (2643), सुनन तिरमिज़ी: अल-क़द्र (2137), सुनन अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4708), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (76) तथा अहमद (1/414)

[136] सहीह बुख़ारी: अल-मर्ज़ा (5349), सहीह मुस्लिम: सिफ़त अल-क़ियमह वल-जन्नह वन-नार (2816), इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4201) तथा अहमद (2/256)

[137] इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है

[138] मुस्लिम: अल-क़द्र (2644) तथा अहमद (4/7)

[139] मुस्लिम: अल-क़द्र (2662), अन-नसई: अल-जनाइज़ (1947), अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4713), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (82) तथा अहमद (6/208)

[140] इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

[141] अल-बुख़ारी: अल-जनाइज़ (1315), अन-नसई: अल-जनाइज़ (1873), इब्ने माजा: मा जाअ फ़ी अल-जनाइज़ (1605) तथा अहमद (3/152)

[142] इसे अहमद ने हसन सनद से रिवायत किया है। जैसा कि सहीह अल-जामे (5772) में है।

[143] मुस्लिम: अल-क़द्र (2655), अहमद (2/110), अल-जामे (1663)

[144] सूरा अल-क़द्र, आयत: 4

[145] सूरा अर-रहमान, आयत संख्या: 29

[146] 'शिफ़ाउल अलील' (1/61-74)

[147] तिरमिज़ी: अलक़द्र (2155)

[148] सुनन तिरमिज़ी: अत-तिब्ब (2065) तथा इब्ने माजा: अत-तिब्ब (3437)

[149] सहीह मुस्लिम: अल-क़द्र (2664), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (79) तथा अहमद (2/370]

[150] सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या 177

[151] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या:30

[152] सूरा अन-निसा, आयत संख्या:172

[153] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या: 19-20

[154] सूरा फ़ातिर, आयत संख्या: 1

[155] सूरह ग़ाफ़िर, आयत संख्या: 7

[156] मुस्लिम: अज़-ज़ुह्द वर-रिक़ाक़ (2996) तथा अहमद (6/153)

[157] नसई: अस-सलात (448) तथा अहमद (4/210)

[158] तिरमिज़ी: अज़-ज़ुह्द (2312), इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4190) तथा अहमद (5/173)

[159] सूरा अस-साफ़्फ़ात, आयत संख्या: 165, 166

[160] सूरा अस-साफ़्फ़ात, आयत संख्या: 165, 166

[161] अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4727)

[162] सूरा अन-नज्म, आयत: 5, 6

[163] सूरा अत-तकवीर, आयत संख्या: 19- 21

[164] सूरा अत-तकवीर, आयत संख्या: 21

[165] बुख़ारी: बदउल ख़ल्क़ (3060), मुस्लिम: अल-ईमान (174) तथा अहमद (1/395)

[166] सूरा अन-नज्म, आयत: 11

[167] सहीह बुख़ारी: बदउल-ख़ल्क़ (3061), सुनन तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3283) तथा अहमद (1/449)

[168] अहमद (6/120)

[169] सहीह बुख़ारी: बदउल-ख़ल्क़ (3062). सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (177) तथा तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3068)

[170] सहीह बुख़ारी: बदउल-ख़ल्क़ (3046), सुनन तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3158)) तथा अहमद (1/357)

[171] सूरा मरयम, आयत संख्या: 64

[172] अहमद (3/224)

[173] तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (3243) तथा अहमद (3/7)

[174] यह सहीह सनद से साबित नहीं है। देखिए शैख़ बक्र अबू ज़ैद की पुस्तक 'मोजम अल-मनाही अल-लफ़ज़िय्यह' (पृष्ठ: 238)

[175] यह भी साबित नहीं है। देखिए अल्लामा अलबानी की पुस्तक 'सिलसिलह अल-अहादीस अज़-ज़ईफ़ह' (923)

[176] सूरा अन-निसा, आयत संख्या:172

[177] सूरा अल-अंबिया, आयत संख्या: 20

[178] सूरा ग़ाफ़िर, आयत संख्या: 49

[179] सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़, आयत संख्या: 77

[180] सूरा अत-तहरीम, आयत संख्या: 6

[181] सूरा अल-मुद्दस्सिर, आयत संख्या: 30-31

[182] सूरा अल-मुद्दस्सिर, आयत संख्या:31

[183] सूरा अर-राद, आयत: 11

[184] देखिए: सुयूती की पुस्तक 'अद-दुर्र अल-मनसूर' (4/613)

[185] सूरा क़ाफ़, आयत: 17, 18

[186] सूरा अल-इनफ़ितार, आयत: 10, 11

[187] नसई: अल-ग़ुस्ल वत-तयम्मुद (406), अबू दाऊद: अल-हम्माम (4012) तथा अहमद (4/224)

[188] तिरमिज़ी: अल-अदब (2794), अबू दाऊद: अल-हम्माम (4017) तथा इब्ने माजा: अन-निकाह (1920)

[189] सहीह बुख़ारी: बदउल ख़ल्क़ (3051), मुस्लिम: अल-मसाजिद व मवाज़े अस-सलात (632), अन-नसई:अस-सलात (485), अहमद (2/486) तथा मालिक: अन-निदा लिस-सलात (413)

[190] सहीह बुख़ारी: मवाक़ीत अस-सलात (530), मुस्लिम: अल-मसाजिद व मवाज़े अस-सलात (632), नसई: अस-सलात (485), अहमद (2/396) तथा मालिक: अन-निदा लिस-सलात (413)

[191] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या: 78

[192] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या: 78

[193] सहीह मुस्लिम: अज़-ज़िक्र वद-दुआ वत-तौबह वल-इसतिग़फ़ार (2699), सुनन तिरमिज़ी: अल-क़िराआत (2945), अबू दाऊद: अस-सलात (1455), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (225), अहमद (2/252) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (344)

[194] तिरमिज़ी: अद-दावात (3535), नसई: अत-तहारह (158) तथा अहमद (4/239)

[195] सूरा अल-आराफ़, आयत संख्या: 3

[196] मुस्लिम: फ़ज़ाइल अस-सहाबा (2408), अहमद (4/367) तथा दारिमी: फ़ज़ाइल अल-क़ुरआन (3316)

[197] अबू दाऊद: अल-मनासिका (1905), इब्ने माजा: अल-मनासिक (3074) तथा दारिमी: अल-मनासिक (1850)

[198] सूरा अल-जिन्न, आयत: 1-2

[199] सूरा मरयम, आयत संख्या: 64

[200] तिरमिज़ी, अल-अमसाल (2859) , अहमद (4/183)

[201] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या: 7

[202] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या: 7

[203] सूरा अल-अनआम, आयत संख्या:153

[204] सूरा अल-अनकबूत, आयत संख्या: 51

[205] सूरा अन-निसा, आयत संख्या:59

[206] सूरा अन-नूर, आयत संख्या: 56

[207] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या 7

[208] सहीह बुख़ारी: अल-ईमान (25) तथा सहीह मुस्लिम: अल-ईमान (22)

[209] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या: 7

[210] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या: 7

[211] बुख़ारी: अल-लिबास (5595), मुस्लिम: अल-लिबास वज़-ज़ीनह (2125), तिरमिज़ी: अल-अदब (2782), नसई: अज़-ज़ीनह (5099), अबू दाऊद: अत-तरज्जुल (4169), इब्ने माजा: अन-निकाह (1989), अहमद (1/434) और दारिमी: अल-इसतिज़ान (2647)

[212] सूरा अल-हश्र, आयत संख्या: 7

[213] बैहक़ी की पुस्तक 'मारिफ़त अस-सुनन वल-आसार' (10755)

[214] बुख़ारी: अल-ईमान (16), मुस्लिम: अल-ईमान (43), तिरमिज़ी: अल-ईमान (2624), नसई: अल-ईमान व शराइउहु (4988), इब्ने माजा: अल-फ़ितन (4033) तथा अहमद (3/103)

[215] बुख़ारी: अल-ईमान (15), मुस्लिम: अल-ईमान (44), नसई- अल-ईमान व शराइउहु (5013), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (67), अहमद (3/278) तथा दारिमी: अर-रिक़ाक़ (2741)

[216] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2663), अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4605) तथा इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (13)

[217] अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4604)

[218] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2664), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (12) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (586)

[219] सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या: 21

[220] सूरा अल-अनआम, आयत संख्या:159

[221] सूरा अश-शूरा, आयत संख्यया:13

[222] तिरमिज़ी, किताबुल-इल्म (2676), इब्ने माजा, अल-मुक़द्दिमह (44), अहमद (4/126), दारिमी, अल-मुक़द्दिमह (95)

[223] तिरमिज़ी, किताबुल-इल्म (2676), अबू दाऊद, अस-सुन्नत (4607), इब्ने माजा, अल-मुक़द्दिमह (44), अहमद (4/126), दारिमी, अल-मुक़द्दिमह (95)

[224] बुख़ारी: अल-एतिसाम बिल किताब वस-सुन्नह (6849) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (207)

[225] बुख़ारी अस-सुल्ह (2550), मुस्लिम अल-अक्ज़िया (1718), अबू दाऊद अस्-सुन्नत (4606), इब्ने माजा अल- मुक़द्दिमह (14) तथा मुसनद अहमद (6/270)

[226] इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।

[227] इस बात में संदेह है कि यह कथन सचमुच इमाम शिफ़िई का ही है या नहीं।

[228] सहीह बुख़ारी: अल-एतिसाम बिल-किताब वस-सुन्नह (6851), मुस्लिम: अल-इमारह (1835), नसई: अल-इसतिआज़ह (5510), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (3) तथा अहमद (2/361)

[229] सहीह बुख़ारी: अल-जिहाद वस-सियर (2797), मुस्लिम: अल-इमारह (1835), नसई: अल-इसतिआज़ह (5510), इब्ने माजा: अल-जिहाद (2859) तथा अहमद (2/387)

[230] इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।

[231] सूरा अन-निसा, आयत संख्या:80

[232] बुख़ारी, अन-निकाह (4776), मुस्लिम, अन-निकाह (1401), नसई, अन-निकाह (3217) तथा अहमद (3/285)

[233] बुख़ारी: अन-निकाह (4776)

[234] मस्लिम: अल-ईमान (145), इब्ने माजा: अल-फ़ितन (3986), अहमद (2/389)

[235] इब्ने माजा: अल-फ़ितन (3993) तथा अहमद (3/120)

[236] तिरमिज़ी: अल-ईमान (2641)

[237] सूरा अत-तौबा, आयत: 69

[238] मुस्लिम: अल-इल्म (2674), तिरमिज़ी: अल-इल्म (2674), अबू दाऊद: अस-सुन्नत (4609 ), अहमद (2/397), अद-दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (513)

[239] सहीह मुस्लिम: अल-इमारह (1893), सुनन तिरमिज़ी: अल-इल्म (2671) तथा अहमद (4/120)

[240] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2677) तथा इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (210)

[241] दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (185)

[242] दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (214)

[243] सहीह मुस्लिम: अल-इल्म (2666), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (85) तथा अहमद (2/185]

[244] बुख़ारी: अल-इल्म (86), मुस्लिम: अल-कुसूफ़ (905) तथा मालिक: अन-निदा लिस-सलात (447)

[245] सूरा मुहम्मद, आयत संख्या: 19

[246] सूरा फ़ुस्सिलत, आयत संख्या: 53

[247] यह हदीस हसन है। सुयूती ने इस हदीस के सारे तरीक़ों को एकत्र करके उनकी तख़रीज का काम एक 'जुज़' में कर दिया है, जो अली बिन हसन हलबी के शोध के साथ छप चुका है।

[248] सूरा अन- नह़्ल, आयत संख्या: 43

[249] अल-बुख़ारी: अल-इल्म (71), मुस्लिम: अल-इमारह (1037), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (221), अहमद (4/93), मालिक: अल-जामे (1667) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (226)

[250] बुख़ारी: अल-इल्म (79), मुस्लिम: अल-फ़ज़ाइल (2282) तथा अहमद (4/399)

[251] बुख़ारी: अल-इल्म (79), मुस्लिम: अल-फ़ज़ाइल (2282) तथा अहमद (4/399)

[252] बुख़ारी: तफसीर अल-क़ुरआन (4273), मुस्लिम: अल-इल्म (2665), तिरमिज़ी: तफसीर अस-क़ुरआन (2994), अबू दाऊद: अस-सुन्नह (4598), इब्न माजा: अल-मुक़द्दिमह (47), अहमद (6/48) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (145)

[253] सूरा आल-ए-इमरान, आयत संख्या: 7

[254] मुस्लिम: अल-ईमान (50) तथा अहमद (1/458)

[255] मुसनद अहमद (3/387) तथा अद-दारमी अल-मुक़द्दिमह (435)

[256] बुख़ारी: अल-एतिसाम बिल किताब वस-सुन्नह (6858), मुस्लिम: अल-फ़ज़ाइल (1337), तिरमिज़ी: अल-इल्म (2679), नसई: मनासिक अल-हज्ज (2619), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (2) तथा अहमद (2/258)

[257] सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या: 43

[258] तिरमिजी: अल-इल्म (2658)) तथा इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह 232)।

[259] तिरमिज़ी, किताबुल-इल्म (2656), अबू दाऊद, अल-इल्म (3660), इब्ने माजा, अल-मुक़द्दिमह (230), अहमद (5/183), दारिमी, अल-मुक़द्ददिमह (229)

[260] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2658)

[261] अबू दाऊद: अल-फ़राइज़ (2885) तथा इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (54)

[262] तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (2951) तथा अहमद (1/233)

[263] तिरमिज़ी: तफ़सीरुल क़ुरआन (2950), अहमद (1/233)

[264] अबू दाऊद: अल-इल्म (3657), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (53), अहमद (2/321) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (159)

[265] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2682), अबू दाऊद: अल-इल्म (3641), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (223) तथा अहमद (5/196)

[266] तिरमिज़ी: अद-दावात (3535), नसई: अत-तहारह (158) तथा अहमद (4/239)

[267] सूरा अल-इसरा, आयत संख्या:24

[268] सूरा अश-शुअरा, आयत संख्या: 215

[269] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2682), अबू दाऊद: अल-इल्म (3641), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (223) तथा अहमद (5/196)

[270] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2687) तथा इब्ने माजा: अज़-ज़ुह्द (4169)

[271] दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (297)

[272] दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (354)

[273] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2653) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (288)

[274] दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (288)

[275] दारिमी: अम-मुक़द्दिमह (143)

[276] सहीह बुख़ारी: अल-इल्म (100), सहीह मुस्लिम: अल-इल्म (2673), सुनन तिरमिज़ी: अल-इल्म (2652), इब्ने माजा: अल-मुक़द्दिमह (52), अहमद (2/162) तथा दारिमी: अल-मुक़द्दिमह (239)

[277] तिरमिज़ी: अल-इल्म (2654)

[278] तिरमिज़ी, तफ़सीर अल-क़ुरआन (3253) तथा इब्ने माजा, अल-मुक़द्दिमह (48)

[279] सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़, आयत संख्या: 58

[280] बुख़ारी:अल-मज़ालिम वल-ग़सब (2325), मुस्लिम: अल-इल्म (2668), तिरमिज़ी: तफ़सीर अल-क़ुरआन (2976), नसई: अदाब अल-क़ुज़ात (5423) तथा अहमद (6/205)

[281] सूरा मरयम, आयत संख्या: 97

[282] सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़, आयत संख्या: 58

[283] तिरमिज़ी: अल-बिर्र वस-सिलह (2027) एवं अहमद (5/269)

[284] तिरमिज़ी: अल-बिर्र वस-सिलह (2018)

[285] अहमद (1/184)

[286] तिरमीज़ी: किताब अल-अदब (2853) तथा अबू दाऊद: किताब अल-अदब (5005)

[287] अबू दाऊद: अल-अदब (5006)

[288] अल-बुख़ारी: अल-मनाक़िब (3375), मुस्लिम: अज़-ज़ुह्द वर-रक़ाइक़ (2493), तिरमिज़ी: अल-मनाक़िब (3639), अबू दाऊद: अल-इल्म (6/157)

[289] तिरमिज़ी: किताब अल-मनाक़िब (3639) तथा अबू दाऊद: अल-अदब (4839)

[290] इब्ने माजा: अज़-जुह्द (4101)

[291] मुस्लि अल-जुमुअह (869), अहमद (4/263), दारिमी: अस-सलात (1556)

[292] मुस्लि अल-जुमुअह (869), अहमद (4/263) तथा दारिमी: अस-सलाह (1556)

[293] अबू दाऊद: अल-अदब (5012)

[294] तिरमिज़ी: अल-अदब (2845) तथा अब्ने माजा: अल-अदब (3756)

[295] अबू दाऊद: अल-अदब (5012)

[296] तिरमिज़ी: अल-अदब (2845) तथा इब्ने माजा: अल-अदब (3756)

[297] अबू दाऊद: अल-अदब (5008)