नव मुस्लिम के लिए संक्षिप्त एवं मुफ़ीद किताब
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयालु एवं अति कृपाशील है।
प्रस्तावना
सभी प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, हम उसकी प्रशंसा और गुणगान करते हैं, उसी से सहायता माँगते हैं और उसी से क्षमा याचना करते हैं। तथा हम अपनी आत्मा की बुराइयों और अपने दुष्कर्मों से अल्लाह की शरण में आते हैं। जिसे अल्लाह हिदायत दे उसे कोई गुमराह करने वाला नहीं है, और जिसे वह गुमराह करे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं है। तथा मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पुज्य नहीं है, वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं है। और गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) उसके बंदे तथा रसूल हैं।
तत्पश्चात:
अल्लाह ताआला ने मनुष्य को बड़ा सम्मान दिया है और उसे बहुत-सी सृष्टियों से उत्कृष्ट बनाया है। स्वयं अल्लाह ने कहा है: "वास्तव में हमने आदम की संतान को श्रेष्ठता प्रदान की है।" [सूरह अल- इसरा: 70] फिर उसने इस उम्मत के लोगों को अतिरिक्त सम्मान यह दिया कि उनकी ओर अपने सर्वश्रेष्ठ नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को भेजा, उनपर अपना सबसे उत्कृष्ठ ग्रंथ क़ुरआन उतारा और उनके लिए अपने महानतम धर्म इस्लाम को पसंद किया। महान अल्लाह ने कहा है: "(हे मुसलमानों!) तुम सबसे अच्छी उम्मत हो, जिसे सब इंसानों के लिए पैदा किया गया है ,तुम भलाई का आदेश देते हो तथा बुराई से रोकते हो, और अल्लाह पर ईमान (विश्वास) रखते हो। यदि अह्ले किताब ईमान लाते, तो उनके लिए अच्छा होता। उनमें कुछ ईमान वाले हैं और अधिकतर अवज्ञाकारी हैं।" [सूरह आल-ए-इमरान: 110] इन्सान पर अल्लाह का सबसे बड़ा उपकार यह है कि वह उसे इस्लाम का मार्ग दिखाए और उसपर मज़बूती से जमे रहने तथा उसके विधि-विधानों पर अमल करने का संयोग प्रदान करे। इस किताब के माध्यम से, जो आकार में छोटी लेकिन विषय वस्तु की दृष्टि से बड़ी है, एक नया-नया इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाला व्यक्ति उन बातों को सीख सकता है जिनकी इस नए मार्ग की यात्रा आरंभ करते समय अनदेखी नहीं की जा सकती। इसमें संक्षिप्त तथा आसान शैली में इस महान धर्म की बुनियादी बातों को समझा दिया गया है। जब इन्सान इन बुनियादी बातों को समझ लेता है और इनके अनुसार काम करता है तो आगे अधिक ज्ञान अर्जन करता जाता है और अपने महान पालनहार, नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- और इस्लाम धर्म के बारे में जानकारी बढ़ाता जाता है। फलस्वरूप अपने रब की इबादत अंतर्दृष्टि तथा ज्ञान के साथ करता है, उसका दिल संतुष्ट रहता है और वह अल्लाह की इबादत तथा उसके नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अनुसरण के मार्ग पर चलकर अपने ईमान में वृद्धि करता जाता है।
दुआ है कि अल्लाह इस किताब के हर शब्द में बरकत दे, इससे इस्लाम तथा मुसलमानों को लाभ पहुँचाए, इसे केवल अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने का साधन बनाए और सभी जीवित तथा मृत मुसलमानों को इसका प्रतिफल प्रदान करे।
अल्लाह का दरूद व सलाम बरसे हमारे नबी मुह़म्मद तथा आपके परिजनों और सभी साथियों पर।
मुहम्मद बिन शैबा अश-शहरी
2/11/1441 हिजरी
मेरा रब अल्लाह है
• महान अल्लाह कहता है: "हे लोगो! केवल अपने उस रब की इबादत (वंदना) करो, जिसने तुम्हें तथा तुमसे पहले वाले लोगों को पैदा किया है, इसी में तुम्हारा बचाव है।" [सूरह अल-बक़रा: 21]
• महान अल्लाह कहता है: "वह अल्लाह ही है, जिसके अतिरिक्त कोई सच्चा पुज्य नहीं है।" [सूरह अल-हश्र: 22]
• महान अल्लाह कहता है: "उसके जैसी कोई नहीं है,तथा वह सुनने और देखने वाला है।" [सूरह अश-शूरा: 11]
• अल्लाह ही मेरा और सारी चीज़ों का पालनहार है, अधिपति है, सृष्टिकर्ता है, जीविका दाता है और हर चीज़ की योजना बनाने वाला है।
• वही केवल इबादत का हक़दार है। उसके सिवा न कोई पालनहार है और न सत्य पूज्य।
• उसके अच्छे-अच्छे नाम तथा ऊँचे-ऊँचे गुण हैं, जिन्हें स्वयं उसने अपने लिए तथा उसके नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसके लिए सिद्ध किया है। यह सारे नाम तथा गुण संपूर्णता तथा सुंदरता की पराकाष्ठा को प्राप्त किए हुए हैं। उस जैसा कोई नहीं है और वह सुनने वाला तथा देखने वाला है।
उसके कुछ अच्छे नाम इस प्रकार हैं:
अर-रज़्ज़ाक़, अर-रहमान, अल-क़दीर, अल-मलिक, अस-समी, अस-सलाम, अल-बसीर, अल-वकील, अल-ख़ालिक़, अल-लतीफ़, अल-काफ़ी और अल-ग़फ़ूर।
अर-रज़्ज़ाक़ (रोज़ी देने वाला): जो सारे बंदों की रोज़ी का ज़िम्मेवार है, जिसके बिना उनके जिस्म व जान व दिल नहीं चल सकते।
अर-रहमान (कृपाशील): बड़ी व्यापक कृपा का मालिक, जो कृपा हर चीज़ को शामिल है।
अल-क़दीर (क्षमतावान): संपूर्ण क्षमता वाला, जो कभी न विवश होता है और न उनको सुस्ती आती है।
अल-मलिक (बादशाह): जो महानता, आधिपत्य तथा संचानल जैसी विशेषताओं से विशिष्ट तथा तमाम वस्तुओं का मालिक एवं उन्हें अपने हिसाब से संचालित करने वाला है।
अस-समी (सुनने वाला): जिसे गुप्त एवं व्यक्त तमाम सुनी जाने वाली बातों का पता है।
अस-सलाम (दोषरहित): हर कमी, त्रुटि और दोष से पाक।
अल-बसीर (देखने वाला): जिसकी निगाहों से कोई छोटी से छोटी चीज़ भी ओझल नहीं है।जो हर चीज़ को देखने वाला, हर चीज़ की सूचना और हर रहस्य का ज्ञान रखने वाला है ।
काम बनाने वाला: अपनी सृष्टियों को रोज़ी देने वाला, उनके हितों का रक्षक, वह अपने वलियों का दोस्त है, उनके लिए आसानियाँ पदा करता है और उनके सारे मामले हल करता है।
अल-ख़ालिक़ (सृष्टिकर्ता): सारी वस्तुओं का सृष्टिकर्ता और उन्हें बिना किसी पूर्व उदाहरण के अस्तित्व में लाने वाला।
अल-लतीफ़ (कृपालु): जो अपने बंदों पर दया तथा कृपा करता है और उनकी मुरादें पूरी करता है।
अल-काफ़ी (यथेष्ट): जो अपने बंदे की तमाम ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफ़ी है और जिसकी सहायता के बाद किसी और की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती है।
अल-ग़फ़ूर (क्षमा करने वाला): जो अपने बंदों को उनके गुनाहों के कुप्रभाव से बचाता है और उन्हें उनके किए की सज़ा नहीं देता।
मुसलमान अल्लाह की अद्भुत सृष्टि पर विचार करता है और सोचता है कि अल्लाह छोटी-छोटी सृष्टियों का भी कितना ध्यान रखता है और उनके लिए भोजन के प्रबंध की कितनी चिंता करता है कि उनके अंदर आत्म विश्वास आ जाता है। अतः पवित्र है वह अल्लाह, जो उनका सृष्टिकर्ता है और उनपर कृपावान है। यह उसकी कृपा ही का नतीजा है की इन निर्बल सृष्टियों के लिए सारी सहायक वस्तुएँ तथा काम की चीज़ें उपलब्ध करता है।
मेरे नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हैं
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "(हे ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम्हीं में से अल्लाह का एक रसूल आ गया है। उसे वह बात भारी लगती है जिससे तुम्हें दुःख हो। वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखते हैं और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान् हैं।" [सूरह अत-तौबा: 128]।
एक अन्य स्थान में फ़रमाया है: "और (हे नबी!) हमने आपको समस्त संसार के लिए दया बना कर भेजा।" [सूरह अल-अंबिया: 107]।
मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- दया हैं और उपहार स्वरूप प्रदान किए गए हैं:
हमारे नबी मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हैं, जो नबियों तथा रसूलों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हैं। अल्लाह ने आपको इस्लाम धर्म के साथ संपूर्ण मनुष्य संप्रदाय की ओर भेजा था, ताकि लोगों को भलाई का मार्ग दिखाएँ, जिसमें सबसे पहले तौहीद (एकेश्वरवाद) आता है, और बुराई से रोकें, जिसका सबसे भयानक रूप शिर्क ( बहुदेववाद) है।
आपने जो आदेश दिए हैं उनका पालन करना, जो सूचनाएँ दी हैं उनकी पुष्टि करना और जिन बातों से रोका है उनसे रुक जाना तथा आपके बताए हुए तरीक़े के अनुसार ही अल्लाह की इबादत करना ज़रूरी है।
आपका तथा आपसे पहले के तमाम नबियों का एक मात्र संदेश था, केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना, जिसका कोई साझी नहीं है।
प्यारे नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के कुछ गुण इस प्रकार हैं:
सत्यता, दया, सहनशीलता, धैर्य, वीरता, उदारता, उच्च व्यवहार, न्याय, विनम्रता और क्षमा।
पवित्र क़ुरआन मेरे रब की वाणी है
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "हे लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण आ गया है और हमने तुम्हारी ओर स्पष्ट रोशनी (क़ुरआन) उतार दी है।" [सूरह अन-निसा: 174]।
पवित्र क़ुरआन अल्लाह की वाणी है, जिसे उसने अपने नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर उतारा है, ताकि लोगों को अंधकार से प्रकाश की ओर निकाल लाए और उन्हें सीधा मार्ग दिखाए।
उसे पढ़ने वाले को बड़ा प्रतिफल प्राप्त होता है और जो उसके बताए हुए मार्ग पर चलता है वह सही पथ पर चलता है।
आइए इस्लाम के स्तंभों के बारे में जानते हैं:
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है: "इस्लाम के पाँच स्तंभ (अरकान) हैं, इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई इबादत एवं उपासना के लायक़ नहीं है और यह कि मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ स्थापित करना, ज़कात देना, रमज़ान महीने के रोज़े रखना तथा अल्लाह के पवित्र घर (काबा) का हज करना।"
इस्लाम के स्तंभ ऐसी इबादतें हैं जिनका पालन करना हर मुसलमान पर ज़रूरी है। किसी इन्सान के इस्लाम सही होने के लिए ज़रूरी है कि वह उनके ज़रूरी होने का विश्वास रखने के साथ-साथ उनका पालन करे। क्योंकि इस्लाम रूपी भवन इन्हीं स्तंभों पर खड़ा है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए इन्हें इस्लाम के स्तंभ कहे जाते हैं।
ये स्तंभ इस प्रकार हैं:
प्रथम स्तम्भ: इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पुज्य नहीं है और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के रसूल हैं।
महान अल्लाह ने कहा है: "तथा जान लो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है।" [सूरह मुहम्मद: 19]।
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला ने फरमाया है: "(ऐ ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम ही में से एक रसूल आ गया है, उसको वह बात भारी लगती है जिससे तुम्हें दुःख हो। वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखता है और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान है।" [सूरह अत-तौबा: 128]।
"ला इलाहा इल्लल्लाहु" की गवाही देने का अर्थ यह है कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है।
जबकि मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अल्लाह के रसूल होने की गवाही देने का अर्थ यह है कि -आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने जो आदेश दिया है उसका अनुपालन करना, जो सूचनाएँ दी हैं उनकी पुष्टि करना, जिन बातों से रोका है उनसे रुक जाना तथा अल्लाह की उपासना उसी तरीक़ा अनुसार करना जो आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने दर्शाया है।
दूसरा स्तंभ: नमाज़ स्थापित करना।
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "तथा नमाज़ स्थापित करो।" [सूरह अल-बक़रा: 110]।
नमाज़ स्थापित करने का मतलब यह है कि उसे अल्लाह के बताए हुए और उसके रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के सिखाए हुए तरीक़े के अनुसार अदा किया जाए।
तीसरा स्तंभ: ज़कात देना।
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "तथा ज़कात दो।" [सूरह अल-बक़रा: 110]।
अल्लाह ने ज़कात फ़र्ज़ इसलिए की है, ताकि मुसलमानों के ईमान की परीक्षा ली जाए, अल्लाह ने धन के रूप में जो नेमत दे रखी है उसका शुक्र अदा हो तथा ग़रीबों और जरूरतमंदों के लिए सहायता हो।
ज़कात देने से अभिप्राय उसे उसके हक़दारों को देना है।
यह धन का एक अनिवार्य हिस्सा है जब वह एक निश्चित परिमाण को पहुंच जाए। ज़कात आठ प्रकार के लोगों को दी जाती है, जिनका उल्लेख अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में किया है और जिनमें फ़क़ीर तथा मिस्कीन भी शामिल हैं।
ज़कात का उद्देश्य धनवानों के दिलों में दया तथा करुणा की भावना को जागृत करना, मुसलमान के व्यवहार एवं धन को स्वच्छ बनाना, निर्धनों तथा ज़रूरतमंद लोगों को संतुष्ट करना तथा मुस्लिम समाज के सभी सदस्यों के बीच प्रेम एवं भाईचारा पर आधारित संबंधों को सुदृढ़ बनाना है। यही कारण है कि एक नेक मुसलमान उसे आंतरिक प्रसन्नता के साथ निकालता है और ज़कात देने को अपना सौभाग्य समझता है। क्योंकि इसके द्वारा अन्य लोगों के जीवन में खुशी लाई जाती है।
ज़कात ज़ख़ीरा किए हुए सोना, चाँदी, नक़दी नोट और ऐसे व्यापारिक धन जिन्हें लाभ के उद्देश्य से क्रय-विक्रय के लिए तैयार रखे गया हो, उनका 2.5% अदा करना होता है। इन धनों की ज़कात उस समय देनी होती है जब उनकी क़ीमत निश्चित हद तक पहुंच जाएँ और इन पर एक पूरा वर्ष गुज़र जाए।
इसी तरह एक निश्चित संख्या में होजाने पर पशुओं जैसे ऊँट, गाय और बकरियों पर भी ज़कात अनिवार्य है, जब वे वर्ष का अधिकतर भाग धरती की घास चरकर गुज़ारते हों और उनका मालिक उन्हें खिलाने का प्रबंध न करता हो।
इसी प्रकार, धरती से निकलने वाले अनाजों, फलों, खनिजों तथा ख़ज़ानों पर भी ज़कात वाजिब है, जब वे एक निश्चित परिमाण को पहुंच जाएयं ।
चौथा स्तंभ: रमज़ान महीने के रोज़े रखना।
महान अल्लाह ने कहा है: "ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े उसी प्रकार अनिवार्य कर दिए गए हैं, जिस प्रकार तुमसे पूर्व लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुम अल्लाह से डरो।" [सूरह अल-बक़रा: 110]।
रमज़ान हिजरी कैलेंडर का नवाँ महीना है। मुसलमानों के यहाँ यह एक सम्मानित तथा अन्य महीनों की तुलना में एक विशिष्ट महीना है। इस पूरे महीने का रोज़ा रखना इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक स्तंभ है।
रमज़ान महीने का रोज़ा रखने से मुराद, पूरे रमज़ान महीने के दिनों में फ़ज्र प्रकट होने के बाद से सूर्यास्त तक खाने, पीने, संभोग तथा अन्य सारे रोज़ा तोड़ने वाले कार्यों से दूर रहकर अल्लाह की इबादत करना है।
पाँचवाँ स्तंभ: अल्लाह के घर का हज करना।
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का हज अनिवार्य है, जो वहाँ तक पहुंचने की ताक़त रखता हो।" [सूरह आल-ए-इमरान: 97]।
हज जीवन में एक बार ऐसे व्यक्ति को करना है जो मक्का तक पहुँचने की शक्ति रखता हो। हज नाम है विशिष्ट दिनों में विशिष्ट इबादतों को करने के लिए मक्का में स्थितअल्लाह के पवित्र घर काबा तथा अन्य पवित्र स्थानों तक पहुँचने का। अल्लाह के अंतिम नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- और पुर्व के अन्य नबियों ने भी हज किया है। इबराहीम अलैहिस्सलाम को तो अल्लाह ने आदेश दिया था कि लोगों के अंदर हज का एलान कर दें। इसका उल्लेख अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में भी किया है। उसने कहा है: "और लोगों में हज की घोषणा कर दे। वे आएँगे तेरे पास पैदल तथा प्रत्येक दुबली-पतली सवारियों पर, जो प्रत्येक दूरस्थ मार्ग से आएँगी।" [सूरह अल-हज: 27]।
आइए ईमान के स्तंभों के बारे जानते हैं:
अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से ईमान के बारे में पूछा गया तो फ़रमाया: "ईमान यह है कि तुम अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों, अंतिम दिन तथा भाग्य के अच्छे एवं बुरे होने पर विश्वास रखो।"
ईमान के स्तंभ से मुराद ऐसी हार्दिक इबादतें हैं जो हर मुसलमान पर अनिवार्य हैं और जिन पर विश्वास रखे बिना किसी व्यक्ति का इस्लाम सही नहीं हो सकता है। यही कारण है कि उन्हें ईमान के स्तंभ का नाम दिया गया है। इनके तथा इस्लाम के स्तंभों के बीच अंतर यह है कि इस्लाम के स्तंभ ऐसे ज़ाहिरी कार्य हैं जिन्हें इन्सान शरीर के अंगों द्वारा करता है, जैसे ज़बान से अल्लाह के एकमात्र पूज्य होने और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अल्लाह के संदेष्टा होने का इक़रार करना, नमाज़ पढ़ना और ज़कात देना आदि। जबकि ईमान के स्तंभ ऐसे हृदय के कार्य हैं जिन्हें इन्सान अपने हृदय द्वारा करता है। जैसे अल्लाह, उसकी किताबों और उसके रसूलों पर विश्वास रखना।
ईमान का अर्थ: ईमान नाम है अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों, आख़िरत के दिन, भले-बुरे भाग्य और जो कुछ अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- हिदायत लाए हैं, उन पर हृदय से दृढ़ विश्वास रखना , तथा ज़बान का दिल के अनुरूप प्रतिक्रिया देना , जैसे ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, क़ुरआन पढ़ना, अल्लाह की पवित्रता बयान करना और उसकी प्रशंसा करना,
तथा शरीर के जाहरी अंगों से अमल करना, जैसे कि नमाज़ पढ़ना, हज करना और रोज़ा रखना... एवं हृदय से अमल करना, जैसे अल्लाह का भय रखना, उसपर भरोसा करना और उसके प्रति निष्ठावान रहना।
विशेषज्ञों ने इसकी संक्षिप्त परिभाषा करते हुए कहा है: ईमान नाम है हृदय में विश्वास रखने, ज़बान से पुष्टि करने और शरीर के अंगों द्वारा अमल करने का, जो पुण्य के काम से बढ़ता और गुनाह के काम से घटता है।
पहला स्तंभ: अल्लाह पर ईमान
महान अल्लाह ने कहा है: "वास्तव में, ईमान वाले वही हैं जो ईमान लाए अल्लाह पर।" [सूरह अन-नूर: 62]।
अल्लाह पर ईमान की मांग यह है कि उसे उसके रब होने और पूज्य होने में एक, तथा उसे अपने नामों एवं गुणों में बेमिसाल माना जाए। इसके अंदर निम्नलिखित बातें आती हैं:
- अल्लाह के अस्तित्व पर ईमान रखना।
- उसके पालनहार तथा हर चीज़ का मालिक, सृष्टिकर्ता, अन्नदाता तथा संचालनकर्ता होने पर ईमान रखना।
- अल्लाह के पूज्य होने तथा इस बात पर ईमान रखना कि केवल वही सारी इबादतों, जैसे नमाज़, दुआ, नज़्र, ज़बह, मदद माँगना और शरम माँगना आदि का हक़दार है और इनमें उसका कोई साझी नहीं है।
- अल्लाह के सुंदर नामों तथा उच्च गुणों पर ईमान रखना जिन्हें स्वयं उसने अपने लिए या उसके नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसके लिए सिद्ध किया है। इसी तरह अल्लाह को उन नामों एवं गुणों से पवित्र मानना जिनसे उसने स्वयं अपने आपको या जिनसे उसके नबी ने उसे पवित्र बताया है। साथ ही इस बात का विश्वास रखना कि उसके सभी नाम एवं गुण सुंदरता और श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचे हुए हैं, तथा यह कि उसके जैसी कोई वस्तु नहीं है और वह सुनने वाला देखने वाला है।
दूसरा स्तंभ: फ़रिश्तों पर ईमान
महान अल्लाह ने कहा है: "सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो आकाशों तथा धरती का पैदा करने वाला है, (और) दो-दो, तीन-तीन, चार-चार परों वाले फ़रिश्तों को संदेशवाहक बनाने वाला है। वह उत्पत्ति में जो चाहता है अधिक करता है। निःसंदेह अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।" [सूरह फ़ातिर: 1]।
हम इस बात पर ईमान रखते हैं कि फ़रिश्ते अदृश्य सृष्टि हैं तथा वे अल्लाह के बंदे हैं, जिन्हें अल्लाह ने नूर से पैदा किया है और अपना आज्ञाकारी बनाया है।
हमारा विश्वास है कि फ़रिश्ते एक महान सृष्टि हैं, जिनकी शक्ति एवं संख्या का ज्ञान केवल अल्लाह को है। उनमें से हर एक के लिए अल्लाह की दी हुई कुछ विशेषताएँ, नाम और काम हैं। एक फ़रिश्ते का नाम जिबरील है, जिसका काम था अल्लाह के संदेश को उसके पैग़ंबरों तक पहुँचाना।
तीसरा स्तंभ: किताबों पर ईमान
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "(हे मुसलमानो!) तुम सब कहो कि हम अल्लाह पर ईमान लाए, तथा उसपर जो (क़ुरआन) हमारी ओर उतारा गया, और उसपर जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब तथा उनकी संतान की ओर उतारा गया, और जो मूसा तथा ईसा को दिया गया, तथा जो दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम इनमें से किसी के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।" [सूरह अल-बक़रा: 136]।
किताबों पर ईमान से मुराद है इस बात की अकाट्य पुष्टि करना कि सारे आसमानी ग्रंथ अल्लाह की वाणी हैं।
और इस बात की भी अकाट्य पुष्टि करना कि उन्हें सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की ओर से उसके रसूलों के माध्यम से उसके बंदों पर स्पष्ट सत्य के साथ उतारा गया है।
एवं इस बात की अकाट्य पुष्टि करना किअपने अंतिम संदेष्टा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को पूरे मनुष्य संप्रदाय की ओर भेजने के साथ ही अल्लाह ने आपको दी गई शरीयत द्वारा पिछली सारी शरीयतों को निरस्त कर दिया है और क़ुरआन को सारे आकाशीय ग्रंथों की संरक्षक, उनपर गवाह तथा उनका निरस्तकर्ता घोषित किया है। उसने इस बात की ज़िम्मेवारी भी ली है कि उसमें कोई परिवर्तन या उसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी है। महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "वास्तव में, हमने ही यह ज़िक्र (क़ुरआन) उतारा है और हम ही इसके रक्षक हैं।" [सूरह अल-हिज्र: 9]। क्योंकि पवित्र क़ुरआन मनुष्य की ओर उतारी जाने वाली अंतिम पुस्तक है, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अंतिम रसूल हैं और इस्लाम धर्म क़यामत के दिन तक लोगों के लिए अल्लाह का पसंद किया हुआ धर्म है। महान अल्लाह का फ़रमान है: "निःसंदेह अल्लाह के निकट धर्म केवल इस्लाम है।" [सूरह आल-ए-इमरान: 19]।
आसमानी ग्रंथ, अल्लाह ने जिनका उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है, इस प्रकार हैं:
पवित्र क़ुरआन: इसे अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर उतारा है।
तौरात: इसे अल्लाह ने अपने नबी मूसा -अलैहिस्सलाम- पर उतारा था।
इंजील: इसे अल्लाह ने अपने नबी ईसा -अलैहिस्सलाम- पर उतारा था।
ज़बूर: इसे अल्लाह ने अपने नबी दाऊद -अलैहिस्सलाम- पर उतारा था।
इब्राहीम के ग्रंथ: इन्हें अल्लाह ने अपने नबी इब्राहीम -अलैहिस्सलाम- पर उतारा था।
चौथा स्तंभ: रसूलों पर ईमान
महान अल्लाह ने फ़रमाया है: "हमने हर उम्मत (समूदाय) में रसूल भेजा कि (लोगों ) केवल अल्लाह की उपासना करो और उसके अलावा सभी पुज्यों से बचोl" [सूरह अन-नह्ल: 36]।
रसूलों पर ईमान का अर्थ है इस बात की अकाट्य पुष्टि कि अल्लाह ने हर समुदाय में एक संदेष्टा भेजा है जिसने उसे केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाया और उसके अतिरिक्त पूजे जाने वाले सब पूज्यों को नकारने का आह्वान किया।
इसी तरह इस बात की भी अकाट्य पुष्टि होनी चाहिए कि सारे नबीगण मनुष्य तथा अल्लाह के बंदे थे, सच्चे थे तथा पुष्टि करने वाले थे, धर्मपरायण तथा अमानतदार थे, सत्य का मार्ग दिखाने वाले और सत्य पर चलने वाले थे, जिन्हें अल्लाह ने उनकी सच्चाई को प्रमाणित करने वाले चमत्कार (मोजिज़े) प्रदान किए थे। साथ ही यह कि उन्होंने अल्लाह की ओर से प्रदान किए हुए संदेश को पहुँचाया और सारे के सारे नबी स्पष्ट सत्य और उज्जवल मार्ग पर थे।
मूल रूप से शुरू से अंत तक सारे के सारे नबियों का आह्वान एक था और वह है, केवल एक सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की इबादत करना और किसी को उसका साझी न बनाना।
पाँचवाँ स्तंभ: आख़िरत के दिन पर ईमान
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "अल्लाह के सिवा कोई सत्य वंदनीय नहीं है, वह अवश्य तुम्हें प्रलय के दिन एकत्र करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है, तथा बात कहने में अल्लाह से अधिक सच्चा कौन हो सकता है?" [सूरह अन-निसा: 87]।
आख़िरत के दिन पर ईमान से मुराद है, आख़िरत के दिन से संबंधित सारी बातें, जिनकी सूचना सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने अपनी किताब में दी है या फिर जिनके बारे में हमारे नबी -मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बताया है, की अकाट्य पुष्टि। आख़िरत से संबंधित कुछ बातें; इन्सान की मृत्यु, दोबारा जीवित किया जाना, सब लोगों को एकत्र किया जाना, सिफ़ारिश, मीज़ान, हिसाब, जन्नत और जहन्नम आदि हैं।
छठा स्तंभ: भली-बुरी तक़दीर पर ईमान
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "निश्चय ही हमने एक अनुमान से प्रत्येक वस्तु को पैदा किया है।" [सूरह अल-क़मर: 49]।
भली-बुरी तक़दीर पर ईमान का अर्थ है, इस बात का पूर्ण विश्वास कि इस दुनिया में सृष्टियों पर जो भी घटनाएँ घटती हैं, वह अल्लाह की जानकारी में हैं, उसी के अनुमान एवं फ़ैसले से यह सब घटित होती हैं, उसके आदेश और फ़ैसले में कोई उसका साझी नहीं। उनका विवरण इन्सान की सृष्टि से पहले लिख लिया गया है। साथ ही यह कि इन्सान का अपना इरादा और उसकी अपनी चाहत भी होती है और और वह सत्य में अपने कर्मों का कर्ता है, लेकिन यह सारी चीज़ें अल्लाह के ज्ञान, इरादे और चाहत के दायरे से बाहर नहीं हैं।
भाग्य पर ईमान की निम्नलिखित चार श्रेणियाँ हैं:
पहली: अल्लाह के विस्तृत एवं समग्र ज्ञान पर विश्वास रखना।
दूसरी: इस बात पर विश्वास रखना कि अल्लाह ने क़यामत तक घटित होने वाली सारी घटनाओं को लिख रखा है।
तीसरी: अल्लाह के अचूक इरादे तथा संपूर्ण सामर्थ्य पर विश्वास रखना और मानना कि वह जो चाहे, होगा और जो न चाहे, नहीं होगा।
चौथी: इस बात पर विश्वास रखना कि अल्लाह ही ने सारी सृष्टि की रचना की है और इस कार्य में उसका कोई साझी नहीं है।
अब हम वज़ू सीखेंगे:
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "निश्चय ही अल्लाह तौबा करने वालों तथा पवित्र रहने वालों से प्रेम करता है।" [सूरह अल-बक़रा: 22]।
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: "तुम मेरे इस वज़ू की तरह वज़ू करो।"
नमाज़ की महानता यह है कि अल्लाह ने उससे पहले तहारत (पाक होने) को अनिवार्य किया है और उसे उसके सही होने की शर्त क़रार दिया है। तहारत नमाज़ की चाभी और उसकी महत्ता का ऐसा एहसास है जिससे दिल नमाज़ की ओर खिंचा चला आता है। अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: "स्वच्छता आधा ईमान है ... तथा नमाज़ प्रकाश है।"
एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "जो अच्छी तरह वज़ू करता है, उसके पाप उसके शरीर से निकल जाते हैं।"
इस तरह जब बंदा अपने पालनहार के सामने उपस्थित होता है, तो वह वज़ू के रूप में अनुभूव होने वाली स्वच्छता प्राप्त कर चुका होता है और इस इबादत की अदायगी के माध्यम से आंतरिक स्वच्छता भी प्राप्त कर चुका होता है, साथ ही वह अल्लाह के प्रति निष्ठावान होता है और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के तरीक़े का अनुपालन कर रहा होता है।
वो कार्य, जिनके लिए वज़ू करना अनिवार्य है:
1- हर प्रकार की नमाज़, फ़र्ज़ हो या नफ़ल।
2- काबा का तवाफ़ (चक्कर लगाना)।
3- क़ुरआन को छूना।
पवित्र पानी से वज़ू तथा स्नान करना:
पवित्र पानी से मुराद हर वह पानी है जो आसमान से बरसा हो या धरती से फूटा हो और अपनी असल अवस्था पर बाकी हो, और उसके तीन गुणों यानी रंग, स्वाद तथा गंध में से कोई गुण किसी ऐसी चीज़ के कारण न बदला हो जो पानी की पवित्रता को समाप्त कर देती है।
वज़ू का तरीक़ा:
पहला काम: नीयत करना। नीयत का स्थान दिल है। इसका अर्थ है, अल्लाह की निकटता प्राप्त करने हेतु दिल में किसी इबादत की नीयत करना।
दूसरा चरण: दोनों हथेलियों को धोना।
तीसरा चरण: कुल्ली करना।
कुल्ली करने का मतलब है मुँह में पानी डालकर अंदर घुमाना और उसके बाद बाहर निकाल देना।
चौथा चरण: नाक में पानी लेना।
नाक में पानी लेने का अर्थ है, सांस के माध्यम से नाक के अंतिम भाग तक पानी ले जाना।
उसके बाद नाक झाड़ना। यानी नाक के अंदर जो गंदगियाँ हों, उन्हें साँस द्वारा निकाल बाहर करना।
पाँचवाँ चरण: चेहरे को धोना।
चेहरे की सीमाएँ:
चेहरा शरीर के उस भाग को कहते हैं जिससे किसी का सामना होता है।
चौड़ाई में इसकी सीमा एक कान से दूसरे कान तक है।
जबकि लंबाई में इसकी सीमा सर के बाल उगने के सामान्य स्थान से ठुड्डी के अंतिम भाग तक है।
चेहरे को धोने में उसके हल्के बाल, उसका सफ़ेद भाग और कान के सामने की पट्टियों को धोना भी शामिल है।
सफ़ेद भाग से मुराद कान के सामने की पट्टी और कान की लौ के बीच का भाग है।
कान के सामने की पट्टी से मुराद वह बाल हैं जो कान के छिद्र के सामने की उभरी हुई हड्डी के ऊपर होती है, जिसका विस्तार ऊपर में सर के अंदर तक और नीचे कान के सामने के भरे हुए भाग तक रहता है।
इसी तरह चेहरे को धोने की अनिवार्यता में दाढ़ी के घने बालों का बाहरी और लटका हुआ भाग भी शामिल है।
छठा चरण: दोनों हाथों को उँगलियों के किनारों से कोहनियों तक धोना।
हाथों के साथ कोहनियों को धोना भी फ़र्ज़ है।
सातवाँ चरण: हाथों से पूरे सर का, कानों के साथ ,एक बार मसह (छूना) करना।
मसह का आरंभ सर के अगले भाग से करते हुए दोनों हाथों को गुद्दी तक ले जायेगा और फिर उनको वापस लायेगा।
और दोनों तर्जनीयों को अपने दोनों कानों में डालेगा।
और अपने दोनों अंगोठों को कानों के ज़ाहिरी भाग के चारों ओर फेरेगा और इस प्रकार कान के बाहरी एवं भीतरी भाग का मसह करेगा।
आँठवाँ चरण: दोनों पैरों को उँगलियों के किनारों से एड़ियों तक धोना। पैरों को धोते समय टखनों को धोना भी फ़र्ज़ है।
टखनों से मुराद पिंडली के सबसे निचले भाग में दो उभरी हुई हड्डियाँ है।
वज़ू, निम्नलिखित कारणों से टूट जाता है:
1- दोनों रास्तों से निकलने वाली चीज़ें से, जैसे पेशाब, पाखाना, वायु, वीर्य और मज़ी।
2- गहरी नींद, झपकी, नशा अथवा पागलपन के कारण अक़्ल के लुप्त हो जाने से।
3- स्नान को अनिवार्य करने वाली सारी चीज़ें, जैसे जनाबत, माहवारी और प्रसवोत्तर रक्तस्रवण आदि।
जब इन्सान पेशाब या पाखाना करे, तो उसे अनिवार्य रूप से गंदगी को या तो पवित्र करने वाले पानी से साफ़ करना है, जो कि उत्तम है, या फिर अन्य गंदगी दूर करने वाली वस्तुओं से जैसे पत्थर, मिट्टी, पेपर अथवा कपड़े आदि से साफ़ करना है। इस शर्त के साथ कि तीन अथवा अधिक बार इस तरह साफ़ करना है कि सफ़ाई प्राप्त हो जाए तथा किसी पवित्र एवं हलाल वस्तु से साफ़ किया जाए।
चमड़े एवं कपड़े आदि के मोज़ों पर मसह
जब इन्सान चमड़े अथवा कपड़े आदि का मोज़ा पहना हुआ हो, तो उन्हें धोने की बजाय उनपर मसह किया जा सकता है। लेकिन कुछ शर्तों के साथ, जो इस प्रकार हैं:
1- उन्हें छोटी तथा बड़ी नापाकियों से संपूर्ण पवित्रता, जिसमें पैरों को भी धोया गया हो, प्राप्त करने के बाद पहना जाए।
2- दोनों मोज़े पवित्र हों, नापाक नहीं।
3- मसह अपनी नियत अवधि में किया जाए।
4- मोज़े हलाल हों। मसलन चुराए हुए या छीने हुए न हों।
अरबी शब्द "الخف" से मुराद पतले चमड़े आदि का मोज़ा है। इसी के समान वह जूते भी हैं, जो दोनों क़दमों को ढाँपे होते हैं।
जबकि अरबी शब्द "الجورب" (अल-जौरब) से मुराद कपड़े आदि का मोज़ा है। अरबी में इसे "الشراب" (अश्शराब) भी कहा जाता है।
मोज़ों पर मसह की अनुमति का रहस्य
मोज़ों पर मसह करने की अनुमति दरअसल मुसलमानों को आसानी प्रदान करने के लिए दी गई है, जिन्हें मोज़ा रखकर पैरों को धोने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है, विशेष रूप से जाड़े के मौसम में, सख़्त ठंडी के समय और यात्रा में।
मसह की अवधि:
मसह की अवधि निवासी के लिए एक दिन एक रात (24 घंटा) है।
जबकि यात्री के लिए तीन दिन तीन रात (72 घंटा) है।
मसह की इस अवधि का आरंभ वज़ू टूटने के बाद मोज़े पर पहले मसह से होगा।
मोज़ों पर मसह का तरीक़ा:
1- दोनों हाथों को तर किया जाए।
2- हाथ को क़दम के ऊपरी भाग (उँगलियों के किनारों से पिंडली के आरंभिक भाग तक) पर फेरा जाए।
3- दाएँ क़दम का मसह दाएँ हाथ से और बाएँ क़दम का मसह बाएँ हाथ से किया जाएगा।
मसह को निष्प्रभावी करने वाली चीज़ें:
1- हर वह चीज़ जिसके कारण स्नान वाजिब होता हो।
2- मसह की अवधि का समाप्त हो जाना।
स्नान
जब कोई पुरुष अथवा स्त्री संभोग करे या फिर नींद अथवा जागने की अवस्था में वासना से उसका वीर्य स्खलन हो जाए, तो दोनों पर स्नान करना वाजिब होगा, ताकि नमाज़ पढ़ सकें एवं अन्य ऐसे कार्य कर सकें, जिनके लिए तहारत (पाक होना) अनिवार्य है। इसी तरह जब कोई स्त्री माहवारी एवं निफ़ास (प्रसवोत्तर रक्तस्रवण ) से पवित्र हो, तो नमाज़ पढ़ने या अन्य कोई ऐसा कार्य करने से पहले जिसके लिए तहारत अनिवार्य है, उसपर स्नान करना अनिवार्य है।
स्नान का तरीक़ा कुछ इस प्रकार है:
स्नान का तरीक़ा यह है कि मुसलमान किसी भी तरह से हो, अपने पूरे शरीर में पानी बहाए, जिसमें कुल्ला करना तथा नाक झाड़ना भी शामिल है। पूरे शरीर पर पानी बहा देने से बड़ी नापाकी दूर हो जाएगी और पवित्रता प्राप्त हो जाएगी।
जुंबी जब तक स्नान न कर ले, निम्नलिखित कार्य नहीं कर सकता:
1- नमाज़।
2- काबा का तवाफ़।
3- मस्जिद में रुकना। यदि न रुके, तो केवल गुज़र जाने की अनुमति है।
4- मुसहफ़ को छूना।
5- क़ुरआन पढ़ना।
तयम्मुम
जब किसी मुसलमान को पवित्रता प्राप्त करने के लिए पानी न मिल सके या किसी रोग आदि के कारण पानी का प्रयोग न कर सके और नमाज़ का समय निकल जाने का भय हो, तो वह मिट्टी से तयम्मुम करेगा।
इसका तरीक़ा यह है कि अपने हाथों को एक बार पवित्र मिट्टी पर मारे और उनसे केवल अपने चेहरे तथा दोनों हथेलियों का मसह करे। इसके लिए मिट्टी का पाक होना शर्त है।
तयम्मुम निम्नलिखित चीज़ों से टूट जाता है:
1- तयम्मुम उन तमाम चीज़ों से खत्म जाता है, जिनसे वज़ू खत्म होता है।
2- तयम्मुम जिस काम के लिए किया गया है, उसे शुरू करने से पहले पानी मिल जाने से भी तयम्मुम टूट जाता है।
नमाज़ कैसे पढ़ें
अल्लाह ने मुसलमान पर दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ की हैं, और वह हैं: फ़ज्र, ज़ुहर, अस्र, मग़्रिब तथा इशा।
नमाज़ के लिए तैयारी
जब नमाज़ का समय हो जाए तो यदि मुसलमान छोटी नापाकी में या बड़ी नापाकी में हो, तो उससे पवित्रता प्राप्त करेगा।
बड़ी नापाकी से मुराद वह नापाकी है जिसके कारण मुसलमान पर स्नान करना अनिवार्य हो जाता है।
छोटी नापाकी से मुराद वह नापाकी है जिसके कारण मुसलमान पर वज़ू करना अनिवार्य होता है।
मुसलमान पाक वस्त्र धारण कर, पवित्र स्थान में, अपने शरीर के ढ़ाँपने योग्य भागों को ढाँपकर नमाज़ पढ़ेगा।
मुसलमान नमाज़ के समय उचित वस्त्र से सुशोभित होकर उपस्थित होगा और अपने शरीर को ढाँपकर रखेगा। पुरुष के लिए नमाज़ की स्थिति में नाभि तथा घुटने के बीच के भाग के किसी भी अंग को खोलना जायज़ नहीं है।
स्त्री के लिए नमाज़ की अवस्था में चेहरे तथा दोनों हथेलियों के अतिरिक्त शरीर के अन्य किसी भाग को खोलना जायज़ नहीं है।
नमाज़ की हालत में कोई मुसलमान नमाज़ के साथ खास अज़कार तथा दुआओं के अतिरिक्त कोई शब्द ज़बान से नहीं निकालेगा, इमाम को ध्यान से सुनेगा, तथा नमाज़ की अवस्था में इधर-उधर नहीं देखेगा। लेकिन यदि नमाज़ में पढ़ी जाने वाली क़ुरआन की आयतें, अज़कार तथा दुआओं को याद न कर सके, तो नमाज़ के अंत तक अल्लाह को याद करेगा और उसकी पवित्रता बयान करेगा और जल्द से जल्द नमाज़ तथा उसके अज़कार एवं दुआओं को याद कर लेगा।
आएं अब नमाज़ सीखते हैं
चरण 1 : उस नमाज़ की नीयत करना जिसे अदा करना हो। याद रहे कि नीयत दिल से होता है।
वज़ू कर लेने के बाद क़िबला की ओर मुँह कर लेंगे और यदि शक्ति हो तो खड़े होकर नमाज़ पढ़ेंगे।
चरण 2: दोनों हाथों को दोनों कंधों के बराबर उठाना है और नमाज़ में प्रवेश करने के इरादे से "अल्लाहु अकबर" कहना है।
चरण 3: हदीस में आई हुई दुआ-ए-इसतिफ़ताह (नमाज़ आरंभ करने की दुआ) पढ़ना है। एक दुआ-ए-इसतिफ़ताह इस प्रकार है: "सुबहानकल्लाहुम्मा व बिहम्दिका, व तबारक्स्मुका, व तआला जद्दुका, व लाइलाहा गैरुका" (तू पवित्र है ऐ अल्लाह! हम तेरी प्रशंसा करते हैं, तेरा नाम बरकत वाला है, तेरी महिमा उच्च है तथा तेरे सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं है)।
चरण 4: धुतकारे हुए शैतान से अल्लाह की शरण माँगना है। वह इस तरह: "मैं बहिष्कृत शैतान से अल्लाह की शरण में आता हूँ।"
चरण 5: फिर हर रकात में सूरा फ़ातिहा पढ़ना है, जो इस प्रकार है: "शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है।" "सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसारों का पालनहार है। जो अत्यंत कृपाशील तथा दयावान है। जो प्रतिकार (बदले) के दिन का मालिक है। (हे अल्लाह) हम केवल तेरी ही उपासना करते हैं तथा कवल तुझ ही से सहायता माँगते हैं। हमें सुपथ (सीधा मार्ग) दिखा। उनका मार्ग, जिनको तूने पुरष्कृत किया। उनका नहीं, जिन पर तेरा प्रकोप हुआ और न ही उनका, जो कुपथ (गुमराह) हो गए।"
सूरा फ़ातिहा के बाद प्रत्येक नमाज़ की केवल पहली तथा दूसरी रकात में क़ुरआन का जितना भाग हो सके, पढ़ना है। यह यद्यपि वाजिब नहीं है, लेकिन इससे बड़ा प्रतिफल प्राप्त होता है।
चरण 6: उसके बाद "الله أكبر" कहेंगे और फिर इस तरह रुकू करेंगे कि पीठ सीधी रहे, दोनों हाथ दोनों घुटनों पर रहें और उनकी उँगलियाँ एक-दूसरी से अलग रहें। फिर रुकू में कहेंगे: "سبحان ربي العظيم" अर्थात् मेरा महान पालनहार पवित्र है।
चरण 7: रुकू से सर ,"سمع الله لمن حمده" कहते हुए और अपने दोनों हाथों को कंधों के बराबर उठाते हुए, उठाएंगे ,फिर जब शरीर ठीक सीधा हो जाए तो कहेंगे: "ربنا ولك الحمد"।
चरण 8: "अल्लाहु अकबर" कहेंगे और दोनों हाथों, दोनों घुटनों, दोनों क़दमों तथा पेशानी एवं नाक पर सजदा करेंगे और सजदे में कहेंगे:"سبحان ربي الأعلى"।
चरण 9: फिर "अल्लाहु अकबर" कहेंगे और सजदा से उठेंगे। जब इस तरह ठीक से बाएँ क़दम पर बैठ जाएंगे कि दायाँ क़दम खड़ा हो और पीठ बिलकुल सीधी हो, तो कहेंगे: "رب اغفر لي"।
चरण 10: फिर"अल्लाहु अकबर" कहना है और पहले सजदा ही की तरह एक और सजदा करना है।
चरण 11: फिर "अल्लाहु अकबर" कहते हुए सजदा से उठना है और सीधा खड़ा हो जाना है। इस तरह नमाज़ की शेष रकातों में वही कुछ करना है जो पहली रकात में किया है ।
जुहर, अस्र, मग़्रिब, अस्र तथा इशा की नमाज़ की दूसरी रकात के बाद पहला तशह्हुद पढ़ने के लिए बैठ जाना है। तशह्हुद इस प्रकार है: "हर प्रकार का सम्मान, समग्र दुआ़एँ एवं समस्त अच्छे कर्म व अच्छे कथन अल्लाह के लिए हैं। हे नबी! आपके ऊपर सलाम, अल्लाह की कृपा तथा उसकी बरकतें हों, हमारे ऊपर एवं अल्लाह के नेक बंदों के ऊपर भी सलाम की जलधारा बरसे, मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवाय कोई सत्य माबूद (पूज्य) नहीं एवं मुहम्मद अल्लाह के बंदे तथा उसके रसूल हैं।" फिर इसके बाद तीसरी रकात के लिए खड़ा हो जाएंगे।
प्रत्येक नमाज़ की अंतिम रकात के बाद में अंतिम तशह्हुद पढ़ने के लिए बैठेंगे, जो इस प्रकार है: "हर प्रकार का सम्मान, समग्र दुआ़एँ एवं समस्त अच्छे कर्म व अच्छे कथन अल्लाह के लिए हैं। हे नबी! आपके ऊपर सलाम, अल्लाह की कृपा तथा उसकी बरकतें हों, हमारे ऊपर एवं अल्लाह के नेक बंदों के ऊपर भी सलाम की जलधारा बरसे, मैं साक्षी हूँ कि अल्लाह के सिवाय कोई सत्य माबूद (पूज्य) नहीं एवं मुहम्मद अल्लाह के बंदे तथा उसके रसूल हैं। हे अल्लाह! तू उसी तरह दरूद व सलाम भेज मुहम्मद एवं उनकी संतान पर जिस प्रकार से तूने इब्राहीम एवं उनकी संतान पर दरूद व सलाम भेजा है। निस्संदेह तू प्रशंसा योग्य तथा सम्मानित है। ऐ अल्लाह! मुहम्मद तथा उनकी संतान पर उसी प्रकार से बरकतों की बारिश कर जिस प्रकार से तूने इब्राहीम एवं उनकी संतान पर बरकतों की बारिश की है। निस्संदेह तू प्रशंसा योग्य तथा सम्मानित है।"
चरण 12: इसके बाद हम नमाज़ से निकलने के इरादे से दाये ओर सलाम फेरेंगे और कहेंगे : "السلام عليكم ورحمة الله" तथा बाये ओर सलाम फेरेंगे और कहेंगे: "السلام عليكم ورحمة الله" इतना करने के बाद हम ने नमाज़ अदा कर ली।
मुस्लिम स्त्री का पर्दा
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "हे नबी! कह दो अपनी पत्नियों, अपनी पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कि डाल लिया करें अपने ऊपर अपनी चादरें। यह अधिक समीप है कि वे पहचान ली जाएँ। फिर उन्हें दुःख न दिया जाए और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।" [सूरह अल-अहज़ाब: 59]।
अल्लाह ने मुस्लिम महिला पर पर्दा तथा अपने पूरे शरीर को अजनबी पुरुषों से अपने क्षेत्र में प्रचलित पोशाक से ढाँपने को अनिवार्य किया है। अपने पति अथवा महरम पुरुषों के अतिरिक्त किसी और के सामने हिजाब उतारना जायज़ नहीं है। महरम से मुराद वह सारे लोग हैं जिनसे मुस्लिम महिला का निकाह सर्वकालिक रूप से हराम हो। और वह लोग हैं: पिता और जो भी बाप के सामान हो जैसे दादा, प्रदादा वगैरह, पुत्र और जो भी पुत्र के सामन हो जैसे पौत्र, परपौत्र आदि , चाचा, मामा, भाई, भाई का बेटा, बहन का बेटा, माँ का पति (सौतैला बाप), पति का पिता और और जो भी पति के बाप के समान हो जैसे पति के दादा, प्रदादा वगैरह, पति का पुत्र और जो भी पति के पुत्र समान हो जैसे पति के पौत्र, परपौत्र आदि , दूध भाई और दूध बाप। दूध से वह सब रिश्ते हराम हो जाते हैं जो नसब से होते हैं।
मुस्लिम महिला अपने पहनावा के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांतों का ख़याल रखेगी:
1- पूरा शरीर ढका हुआ हो।
2- परिधान ऐसा न हो कि उसे महिला शृंगार के लिए पहनती हो ।
3- इतना पतला न हो कि शरीर झलकता हो।
4- ढीला-ढाला हो, इतना तंग न हो कि शरीर के किसी भाग को दर्शाता हो।
5- सुगंधित न हो।
6- पुरुषों के वस्त्र जैसा न हो।
7- लिबास उस प्रकार का न हो जिस प्रकार का लिबास गैर-मुस्लिम स्त्रियाँ अपने उपासनाओं तथा त्योहारों के अवसर पर पहनती हैं।
मोमिन के कुछ गुण
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब उनके सामने अल्लाह का वर्णन किया जाता है तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उसकी आयतें पढ़ी जाती हैं तो उनका ईमान अधिक हो जाता है और वे अपने पालनहार पर ही भरोसा रखते हैं।" [सूरह अल-अनफ़ाल: 2]।
- वह सदा सच बोलता है और झूठ बोलने से गुरेज़ करता है।
- दिए हुए वचन का पालन करता है।
- झगड़ा करते समय बदज़बानी नहीं करता।
- अमानत में ख़यानत नहीं करता है।
- अपने मुस्लिम भाई के लिए वही पसंद करता है जो अपने लिए वही पसंद करता है।
- वह उदार होता है।
- लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करता है।
- खूनी रिश्तों को जोड़ के रखता है।
- अल्लाह के निर्णय पर संतुष्ट रहता है, खुशहाली के समय अल्लाह का शुक्र अदा करता है और परेशानी के समय सब्र करता है।
- हयादार होता है।
- सृष्टि पर दया करता है।
- उसका हृदय ईर्ष्या से पाक तथा उसके शरीर के अंग किसी पर ज़ुल्म करने से स्वच्छ होते हैं।
- वह क्षमाशील होता है।
- वह न सूद खाता है और न सूदी लेन-देन करता है।
- वह व्यभिचार में लिप्त नहीं होता है।
- वह मदिरा पान नहीं करता है।
- वह अपने पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करता है।
- वह न अत्याचार करता है और न धोखा देता है।
- वह न चोरी करता है और न चालबाज़ी से काम लेता है।
- वह अपने माता-पिता का आज्ञापालन करता है और भलाई के काम में उनके आदेशों को मानता है, चाहे वह गैर-मुस्लिम ही क्यों न हों।
- वह अपने बच्चों को आदर्श जीवन जीने की शिक्षा देता है, उन्हें शरीयत द्वारा अनिवार्य किए हुए कार्यों का आदेश देता है और बुरे तथा वर्जित कार्यों से रोकता है।
- वह ग़ैर-मुस्लिमों की धार्मिक विशिष्टताओं तथा ऐसी आदतों की, जो उनकी पहचान बन चुकी हों, की नक़्क़ाली नहीं करता।
- कल्याण केवल इस्लाम धर्म में है
अल्लाह तआला का फ़रमान है: "जो भी सदाचार करेगा,चाहे वह नर हो अथवा नारी ,और ईमान वाला हो, तो हम उसे स्वच्छ जीवन व्यतीत कराएँगे और उन्हें उनका बदला उनके उत्तम कर्मों के अनुसार अवश्य प्रदान करेंगे।" [सूरह अन-नह्ल: 97]।
एक मुसलमान को सबसे अधिक ख़ुशी तथा सबसे अधिक संतुष्टि उसका अपने पालनहार से ऐसा सीधा संबंध दिलाता है कि जिसमें किसी जीवित या मृत व्यक्ति अथवा किसी बुत आदि का कोई वास्ता न हो। अल्लाह ने अपनी पवित्र पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया है कि वह सदा अपने बंदों के निकट रहता है, उन्हें सुनता है तथा उनकी दुआएँ ग्रहण करता है। उसका फ़रमान है: "(हे नबी!) जब मेरे बन्दे मेरे विषय में आपसे प्रश्न करें, तो उन्हें बता दें कि निश्चय ही मैं क़रीब हूँ, मैं प्रार्थी की प्रार्थना का उत्तर देता हूँ। अतः, उन्हें भी चाहिए कि मेरे आज्ञाकारी बना रहें तथा मुझपर ईमान (विश्वास) रखें, ताकि वे सीधी राह पायें ।" [सूरह अल-बक़रा: 186]। अल्लाह ने हमें उसे पुकारने का आदेश दिया है और इसे उसकी निकटता प्राप्त करने वाली एक महत्वपूर्ण इबादत भी कहा है। उसने कहा है: ''तथा तुम्हारे पालनहार ने कहा है कि मुझसे प्रार्थना करो, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करूँगा।'' [सूरह गाफ़िर: 60]। अतः एक सदाचारी मुसलमान हमेशा अपनी ज़रूरतें अपने रब के सामने रखता है, उसके सामने हाथ फैलाता है और सत्कर्मों द्वारा उसकी निकटता प्राप्त करने के प्रयास में रहता है।
दरअसल अल्लाह ने हमें इस दुनिया में बेकार नहीं, बल्कि एक बड़े उद्देश्य के लिए पैदा किया है। वह उद्देश्य यह है कि हम केवल उसी की इबादत करें और किसी को उसका साझी न बनाएँ। उसने हमें एक ऐसा व्यापक धर्म प्रदान किया है जो हमारे जीवन के सभी आम तथा खास कामों को व्यवस्थित करता है। उसने इसी न्याय पर आधारित धर्म के ज़रिए हमारे जीवन की ज़रूरतों यानी हमारे धर्म, जान, मान-सम्मान, बुद्धि और धर्म की रक्षा की है। जिसने शरई आदेशों का पालन करते हुए और हराम चीज़ों से दामन बचाते हुए जीवन व्यतीत किया, तो उसने इन ज़रूरी चीज़ों की रक्षा की और सौभाग्यशाली तथा संतुष्ट जीवन गुजारा।
एक मुसलमान का संबंध अपने पालनहार से बड़ा गहरा होता है, जो दिल में संतुष्टि एवं शांति लाता है, सुकून तथा प्रसन्नता का एहसास प्रदान करता है और इस बात की अनुभूति कराता है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने मोमिन बंदे के साथ रहता है, उसका ख़याल रखता है और उसकी सहायता करता है। महान अल्लाह ने कहा है: "अल्लाह उनका सहायक है, जो ईमान लाये। वह उन्हें अंधेरे से प्रकाश की ओर लाता है।" [सूरह अल-बक़रा: 257]।
यह प्रगाढ़ संबंध दरअसल एक अनुभूति की अवस्था हुआ करती है जो इन्सान को अल्लाह की इबादत में आनंद और उससे मिलने का शौक़ प्रदान करती है और उसकी अंतरात्मा को खुशियों के आकाश की सैर कराती है तथा ईमान की मिठास प्रदान करती है।
वह मिठास, जिसका स्वाद वही बयान कर सकता है, जिसने पुण्य के कार्य करके और गुनाहों से बचकर उसका स्वाद चखा हो। यही कारण है कि अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया: "उस व्यक्ति ने ईमान का मज़ा चख लिया, जो संतुष्ट हुआ अल्लाह से पालनहार के तौर पर, इस्लाम से धर्म तथा मुहम्मद से संदेशवाहक के तौर पर।"
जब किसी इन्सान को इस बात का एहसास हो कि वह हमेशा अपने स्रष्टा के सामने रहता है, फिर उसे उसके नामों एवं गुणों के आधार पर जानता हो, उसकी इबादत ऐसे करता हो जैसे वह उसे देख रहा है, पूरी निष्ठा से उसकी उपासना करता हो और इससे उसका उद्देश्य अल्लाह के अतिरिक्त किसी और को प्रसन्न करना न हो, तो वह दुनिया में सौभाग्यशाली जीवन व्यतीत करता है और आख़िरत में अच्छा स्थान प्राप्त करता है।
एक मुसलमान को दुनिया में जो भी विपत्तियाँ आती हैं, उनकी तपिश दूर हो जाती है अल्लाह पर उसके विश्वास, उसके निर्णय पर संतुष्टि और भाग्य के हर भले-बुरे फ़ैसले पर उसकी प्रशंसा व ख़ुशी की ठंडक से।
एक मुसलमान को अपने कल्याण, सुख-चैन तथा संतुष्टि में बढ़ोतरी के लिए अल्लाह का अधिक से अधिक ज़िक्र करना चाहिए। महान अल्लाह ने कहा है: "(अर्थात वे) लोग जो ईमान लाए तथा जिनके दिल अल्लाह के स्मरण से संतुष्ट होते हैं। सुन लो! अल्लाह के स्मरण ही से दिलों को संतुष्टि मिलती है।" [सूरह अर-राद: 28]। एक मुसलमान अल्लाह के ज़िक्र तथा क़ुरआन की तिलावत में जितना अधिक लीन होता जाएगा, अल्लाह से उसका संबंध उतना ही अधिक मज़बूत होता जाएगा, उसकी आत्मा पवित्र होती जाएगी और उसका ईमान प्रबल होता जाएगा।
इसी तरह एक मुसलमान को अपने धर्म की बातें सही संदर्भों से प्राप्त करनी चाहिए, ताकि अल्लाह की इबादत उचित ज्ञान के आधार पर करे। अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने कहा है: "विद्या का प्राप्त करना हर मुसलमान पर अनिवार्य है।" जिस अल्लाह ने उसकी सृष्टि की है,वह उसके आदेशों का पालन खुले दिल से करे चाहे उन आदेशों के रहस्य से अवगत हो या न हो। अल्लाह ने अपने पवित्र ग्रंथ में कहा है: "तथा किसी ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्री के लिए सही नहीं है कि जब अल्लाह तथा उसके रसूल किसी बात का निर्णय कर दें , तो वह उसके अलावा किसी और आदेश को माने, और जो अल्लाह एवं उसके रसूल की अवज्ञा करेगा, तो वह खुले कुपथ में पड़ गया।" [सूरह अल-अहज़ाब: 35]।
अल्लाह की दया और शांति की जलधारा बरसे हमारे नबी मुह़म्मद तथा आपके परिजनों और सभी साथियों पर।
यह किताब संपन्न हुई।