लेखक:महान विद्वान शेख
मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन
अल्लाह तआला उनकी तथा उनके माता-पिता और समस्त मुसलमानों की मग़्फ़िरत फ़रमाये
शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है।
सारी प्रशंसा अल्लाह की है। हम उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से सहायता माँगते हैं, उसी से क्षमा माँगते हैं और उसी की ओर लौटते हैं। हम अपनी आत्माओं की बुराई तथा अपने कर्मों के दुष्परिणाम से अल्लाह की शरण माँगेते हैं। जिसे अल्लाह सत्य का मार्ग दिखाए उसे कोई पथभ्रष्ट नहीं कर सकता और जिसे वह पथभ्रष्ट करे उसे कोई सत्य का मार्ग दिखा नहीं सकता। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं, वह अकेला है और उसका कोई साझी नहीं है। मैं गवाही देता हूँ कि मुह़म्मद उसके बंदे और उसके रसूल हैं। दरूद तथा सलाम हो आपपर, आपकी संतान-संतति, और आपके साथियों पर तथा क़यामत के दिन तक आपके साथियों के पदचिह्नों पर चलने वालों पर।
अल्लाह की प्रशंसा एवं रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दरूद भेजने के बाद अब असल विषय-वस्तु पर आते हैं। दरअसल माहवारी, इस्तिहाजा (ऐसा रक्त जो किसी स्त्री को लगातार आए और कभी न रुके अथवा रुके भी तो बहुत कम समय के लिए) एवं निफ़ास ( प्रसव के पश्चात रक्तस्राव ) से संबंधित बातों का अपना विशेष महत्व है। अतः उन्हें जानने, उनसे संबंधित शरई आदेशों एवं निर्देशों से अवगत होने तथा उनके बारे में उलेमा के सही एवं ग़लत मतों की पहचान रखने की आवश्यकता है। इसके साथ ही इस बात की भी ज़रूरत है कि उलेमा के एक मत को दूसरे पर वरीयता देते समय अल्लाह की किताब एवं उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत को कसौटी माना जाए।
1- क्योंकि अल्लाह की किताब तथा उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत ही अल्लाह के आदेशों एवं निर्देशों के, जिनका बंदों को अनुसरण करना है, दो मूलभूत स्रोत हैं।
2- क्योंकि क़ुरआन एवं हदीस पर भरोसा करने के नतीजे में दिल को सुकून मिलता है, आत्मा को शांति मिलती है, प्राण सुख का अनुभव करता है और इनसान पर शरीयत को मानने की जो ज़िम्मेवारी डाली गई है, वह उससे पालन करने वाला माना जाता है।
3- तथा इसलिए भी कि उनके अतिरिक्त कोई और चीज़ दूसरी चीज़ को साबित नहीं करती, बल्कि खुद इस बात की अधीन होती है कि उसे साबित किया जाए।
याद रहे कि प्रमाण बनने की क्षमता केवल अल्लाह एवं उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की वाणी में है। तथा सही मत के अनुसार सहाबा का कथन भी प्रमाण है, लेकिन शर्त यह है कि वह क़ुरआन एवं हदीस से न टकराता हो तथा किसी दूसरे सहाबी के कथन से उसका विरोध न होता हो। यदि वह क़ुरआन एवं हदीस से टकराता हो, तो क़ुरआन एवं हदीस का अनुसरण करना अनिवार्य होगा। परन्तु यदि किसी दूसरे सहाबी के कथन से टकराता हो, तो जानने का प्रयास किया जाएगा कि दोनों में से कौन अधिक उचित है और फिर उसी पर अमल किया जाएगा। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {फिर यदि तुम किसी बात में आपस में विवाद कर लो, तो उसे अल्लाह एवं रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम अल्लाह एवं अंतिम दिन पर ईमान रखते हो।} [सूरा अन-निसा: 59]
यह संक्षिप्त पुस्तिका, जिसमें स्त्रियों के गर्भाशय से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के रक्त का विवरण और उनसे संबंधित आदेश एवं निर्देश हैं, निम्नलिखित अध्यायों पर आधारित है:
पहला अध्याय: माहवारी का अर्थ तथा उसकी हिकमत।
दूसरा अध्याय: माहवारी का समय तथा उसकी अवधि।
तीसरा अध्याय: माहवारी की अनियमितताएँ।
चौथा अध्याय: माहवारी से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश।
पाँचाँ अध्याय: इस्तिहाजा का अर्थ तथा उससे संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश।
छठा अध्याय: निफ़ास का अर्थ तथा उससे संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश।
सातवाँ अध्याय: मासिक धर्म को रोकने वाली अथवा उसे लाने वाली तथा गर्भ निरोधक अथवा गर्भपात कराने वाली दवाओं के सेवन से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश।
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पहला अध्याय: मासिक धर्म का अर्थ तथा उसकी हिकमत
मासिक धर्म के लिए अरबी में प्रयुक्त शब्द "हैज़" का शाब्दिक अर्थ है किसी तरल पदार्थ का बहना एवं प्रवाहित होना।
जबकि उसका शरई अर्थ है, ऐसा रक्त जो निर्धारित अवधियों में स्त्री के गर्भाशय से बिना किसी कारण के प्राकृतिक रूप से निकलता है। यह एक प्राकृतिक रक्त है तथा किसी बीमारी, ज़ख़्म, गर्भपात अथवा प्रसव के कारण नहीं निकलता। चूँकि यह एक प्राकृतिक रक्त है, इसलिए स्त्री की स्थिति, वातावरण एवं जलवायु के अनुसार भिन्न-भिन्न हुआ करता है और इस मामले में स्त्रियों के अंदर स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है।
मासिक धर्म की हिकमत यह है कि बच्चा जब माँ के पेट में होता है, तो उन चीज़ों से पोषित नहीं हो पाता, जिनसे पेट के बाहर के लोग पोषित होते हैं। उसकी माँ के लिए भी, जो सारी सृष्टि में उसके हक़ में सबसे अधिक दयालु है, उसे कोई भोजन दे पाना संभव नहीं होता। ऐसे में अल्लाह ने माँ के गर्भ में रक्तस्राव की व्यवस्था कर दी है, जिससे शिशु माँ के पेट में पोषक तत्व प्राप्त करता है और उसे खाने एवं पचाने की आवश्यकता नहीं होती। यह रक्त उसके शरीर में नाभि के मार्ग से पहुँचकर उसकी शिराओं में प्रवाहित हो जाता है और इसी से उसके शरीर का पोषण होता है।
यही है मासिक धर्म का रहस्य। यही कारण है कि स्त्री जब गर्भवती होती है, तो उसकी माहवारी बंद हो जाती है। इसी तरह स्तनपान कराने वाली स्त्रियों में से भी बहुत कम स्त्रियों को माहवारी आती है। विशेष रूप स्तनपान के आरंभिक दिनों में।
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दूसरा अध्याय: मासिक धर्म का समय तथा उसकी अवधि
इस अध्याय में दो बिंदुआों पर बात होगी:
पहला बिंदु: स्त्री की वह आयु जिसमें मासिक धर्म आता है।
दूसरा बिंदु: मासिक धर्म की अवधि।
जहाँ तक पहले बिंदु की बात है, तो आम तौर पर 12 वर्ष से 50 वर्ष की आयु के बीच आम माहवारी आती है। कभी-कभी शारीरिक अवस्था, वातावरण एवं जलवायु के अनुसार इससे पहले या इसके बाद भी माहवारी आ जाती है।
इस बात में उलेमा के अलग-अलग मत हैं कि क्या माहवारी की कोई आयु सीमा है कि उससे पहले या उसके बाद माहवारी न आती हो और यदि उससे पहले या उसके बाद रक्त दिखाई दे, तो बीमारी का रक्त होगा, माहवारी का नहीं?
इमाम दारिमी इस विषय में उलेमा के अलग-अलग मतों को बयान करने के बाद कहते हैं: "मेरी नज़र में ये सारे मत गलत हैं। क्योंकि इस मामले में असल बात रक्त का पाया जाना है। अतः रक्त चाहे जितना आए, जिस परिस्थिति में आए और जिस आयु में आए, उसे माहवारी ही माना जाएगा।"
इमाम दारिमी की यह बात अक्षरशः सही है और यही शैख़ुल इस्लाम इब्न-तैमिया का भी मत है। अतः जब भी किसी स्त्री को माहवारी आए, उसे माहवारी ही माना जाएगा। चाहे उसकी आयु नौ वर्ष से कम या पचास वर्ष से अधिक ही क्यों न हो। क्योंकि अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने माहवारी से संबंधित आदेशों एवं निर्देशों को उसके वजूद के साथ जोड़कर बयान किया है और उसकी कोई आयु निर्धारित नहीं की है। अतः उसके संबंध में मानक उसके वजूद को ही माना जाएगा। जबकि उसकी कोई आयु निर्धारित करने के लिए क़ुरआन या हदीस से कोई प्रमाण चाहिए और इसका कोई प्रमाण नहीं है।
जहाँ तक दूसरे बिंदु यानी माहवारी की अवधि की बात है,
तो इस संबंध में भी उलेमा के बीच बड़ा विभेद है और उनके छह या सात मत हैं। इब्न अल-मुंज़िर कहते हैं: "एक गिरोह का कहना है कि मासिकधर्म की निम्नतम एवं अधिकतम अवधि निर्धारित नहीं है।"
मैं कहता हूँ:इब्न अल-मुंज़िर का यह मत दारिमी के उक्त मत के जैसा है और इसे शैख़ुल इस्लाम इब्न तैमिया ने अपनाया है। क्योंकि क़ुरआन, हदीस और क़यास से यही प्रमाणित होता है।
पहला प्रमाण: अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा वे आपसे मासिक धर्म के बारे में पूछते हैं, तो कह दें कि वह मलिनता है। और उनके समीप भी न हो जाओ जब तक पवित्र न हो जाएँ।} [सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 222] इस आयत में अल्लाह ने स्त्री के समीप न जाने की सीमा उसके पवित्र होने को बनाया है। एक दिन एवं एक रात, तीन दिन अथवा पंद्रह दिन गुज़रने को सीमा नहीं बताया गया है, जिससे पता चलता है कि यहाँ शरई आदेश के पीछे का कारण माहवारी का होना अथवा न होना है। अतः जब माहवारी होगी, तो आदेश सिद्ध होगा और जब स्त्री पवित्र हो जाएगी, तो माहवारी के आदेश समाप्त हो जाएँगे।
दूसरा प्रमाण: सहीह मुस्लिम में है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आइशा रज़ियल्लाहु अनहा से उस समय फ़रमाया, जब वह उमरा का एहराम बाँधी हुई थीं और इसी बीच उनको माहवारी आ गई थी: "तुम वो सारे कार्य कर सकती हो, जो हज करने वाले करते हैं। हाँ, पवित्र होने से पहले काबा का तवाफ़ नहीं कर सकती।" उनका कहना है कि वह क़ुरबानी के दिन पवित्र हो गईं।
तथा सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम में है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे फ़रमाया: "अभी प्रतीक्षा करो। जब पवित्र हो जाओ, तो तनईम की ओर चली जाओ।" यहाँ भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मनाही की सीमा किसी निश्चित समय के बजाय पवित्रता की प्राप्ति को क़रार दिया है। इससे मालूम होता है कि आदेश का संबंध माहवारी के होने या न होने से है।
तीसरा प्रमाण: इस मसले में कुछ फ़क़ीहों ने जो निश्चित समय-सीमाएँ बयान की हैं और विवरण प्रस्तुत किए हैं, वह अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत में बयान नहीं हुए हैं। हालाँकि इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि उन्हें बयान करने की अति आवश्यकता थी। अतः यदि उन्हें समझना और उनका पालन करना ज़रूरी होता, तो चूँकि उनसे नमाज़, रोज़ा, निकाह, तलाक़ एवं मीरास आदि के बड़े महत्वपूर्ण मसायल जुड़े हुए हैं, इसलिए अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के द्वारा उन्हें स्पष्ट रूप से बयान कर दिया जाता। बिल्कुल वैसे ही, जैसे अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नमाज़ों की संख्या, उनका समय और रुकू तथा सजदे का तरीक़ा बयान कर दिया है, ज़कात के धन, उसके निसाब (धन का निम्नतम परिमाण जिसका मालिक हो जाने के बाद इनसान पर ज़कात अदा करना ज़रूरी हो जाता है), उसकी मात्रा और उसके हक़दारों का उल्लेख कर दिया है, रोज़े की अवधि और समय का निर्धारण कर दिया है, हज से संबंधित मसायल बयान कर दिए हैं, यहाँ तक कि खाने, पीने, सोने, संभोग करने, बैठने, घर में प्रवेश करने और घर से निकलने से संबंधित शिष्टाचारों का उल्लेख कर दिया है, शौच के शिष्टाचारों तथा उसके बाद प्रयुक्त होने वाले ढेलों की संख्या तक भी का ज़िक्र कर दिया है और इस तरह की अन्य सारी छोटी-बड़ी चीज़ों का विवरण प्रस्तुत कर इस्लाम को एक संपूर्ण धर्म का रूप प्रदान कर दिया है और उसके द्वारा ईमान वालों पर अपना सबसे बड़ा उपकार किया है। जैसा कि स्वयं उसी का फ़रमान है: {और हमने आपपर यह पुस्तक अवतरित की है, जो प्रत्येक वस्तु का खुला विवरण है।} [सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या: 89} एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है: {यह क़ुरआन ऐसी बातों का संग्रह नहीं है, जिसे स्वयं बना लिया जाता है, परन्तु इससे पहले की पुस्तकों की सिद्धि और प्रत्येक वस्तु का विवरण है।} [सूरा यूसुफ़, आयत संख्या: 111]
फिर जब कुछ फ़क़ीहों द्वारा उल्लिखित इन समय-सीमाओं तथा विवरणों का उल्लेख अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत में नहीं है, इसलिए स्पष्ट है कि इनका एतबार भी नहीं होगा। एतबार केवल माहवारी का होगा, जिसके होने या न होने से शरई अहकाम को संबद्ध किया गया है। यह प्रमाण कि क़ुरआन एवं हदीस में किसी आदेश का उल्लेख न होना, उसके मोतबर न होने का प्रमाण है, इस मसले के साथ-साथ अन्य मसलों को समझने में भी आपकी सहायता करेगा। क्योंकि कोई भी शरई आदेश उसी समय साबित माना जाएगा, जब उसके पक्ष में अल्लाह की किताब, उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत, ज्ञात इजमा (उलेमा का मतैक्य) एवं उचित क़यास के रूप में कोई शरई प्रमाण मौजूद हो। शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया कहते हैं: "इसका एक उदाहरण यह है कि अल्लाह ने क़ुरआन एवं हदीस में माहवारी नाम की वस्तु से जोड़कर कई आदेश दिए हैं और उसकी अधिकतम एवं निम्नतम सीमा निर्धारित नहीं की है और न दो माहवारियों के बीच की पवित्रता की कोई सीमा बताई है। जबकि माहवारी से संबंधित समस्याओं का सामना हर स्त्री को करना पड़ता है, इसलिए इसे बयान करने की ज़रूरत थी। साथ ही अरबी भाषा भी कम समय तक माहवारी आने और अधिक समय तक आने के बीच कोई अंतर नहीं करती। अतः, जिसने इसकी कोई सीमा निर्धारित की, उसने क़ुरआन एवं हदीस का विरोध किया।"
चौथा प्रमाण: उचित क़यास। इसे विस्तृत रूप से यूँ समझें कि चूँकि अल्लाह ने माहवारी के बारे में बताया है कि वह मलिनता यानी नापाकी है, इसलिए जब माहवारी होगी तो मलिनता पाई जाएगी। इसमें दूसरे एवं पहले तथा चौथे एवं तीसरे दिन के बीच कोई अंतर नहीं होना चाहिए। इसी तरह सोलहवें एवं पंद्रहवें तथा अठारहवें एवं सत्रहवें दिन के बीच भी कोई अंतर नहीं होना चाहिए। क्योंकि माहवारी, माहवारी ही है और नापाकी, नापाकी ही। दोनों दिनों में सबब समान रूप से मौजूद है। फिर जब दोनों दिनों में सबब समान रूप से मौजूद है, तो उनका आदेश एक-दूसरे से भिन्न कैसे हो सकता है? क्या यह सही क़यास से विपरीत राय नहीं है? क्या सही क़यास यह नहीं कहता कि जब दोनों दिनों में सबब समान रूप से मौजूद है, तो उनका आदेश भी एक हो?
पाँचवाँ प्रमाण: माहवारी का समय निर्धारित करने वालों के अलग-अलग एवं विरोधीभासी मत। क्योंकि यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि इस मसले में कोई ऐसा प्रमाण नहीं है, जिसे मानना बाध्याकारी हो। बल्कि यह केवल इजतिहादी अहकाम हैं, जिनमें सही होने के साथ-साथ गलत होने की भी संभावना रहती है और इनमें से कोई भी मत दूसरे मत पर तरजीह पाने की हक़दार नहीं है।
जब यह स्पष्ट हो गया कि माहवारी की अधिकतम एवं निम्नतम समय सीमा न होना ही सबसे प्रबल एवं सशक्त मत है, तो यह जान लेना चाहिए कि स्त्री को जो भी प्राकृतिक रक्त नज़र आए, जिसका कोई कारण जैसे ज़ख़्म आदि न हो, वह माहवारी का रक्त है और उसका कोई समय सीमा एवं आयु निर्धारित नहीं है। हाँ, यदि रक्त निरंतर जारी रहे और कभी बंद न हो या फिर थोड़े समय जैसे एक-दो दिन के लिए ही बंद हो, तो उसे इसतिहाज़ा माना जाएगा। अल्लाह ने चाहा तो आगे हम इसतिहाज़ा का अर्थ और उससे संबंधित मसायल भी बयान करेंगे।
शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया कहते हैं: "गर्भाशय से निकलने वाला हर रक्त, जब तक उसके इसतिहाज़ा होने का कोई प्रमाण न हो, माहवारी है।" वह एक और जगह कहते हैं: "जब तक किसी रक्त के बारे में यह मालूम न हो कि वह इसतिहाज़ा या ज़ख़्म का रक्त है, उसे माहवारी का रक्त ही माना जाएगा।" यह मत प्रमाण की दृष्टि से प्रबल होने के साथ-साथ समय निर्धारित करने वालों के मतों की तुलना में समझने में आसान और अमल करने में सरल भी है। अतः यह इस्लाम धर्म की आत्मा और उसके सरलतावादी सिद्धांत के अनुरूप होने के कारण अधिक ग्रहणयोग्य है। अल्लाह तआला का फ़रमान है: {और उसने धर्म के अंदर तुम्हारे लिए कोई तंगी नहीं रखी है।} [सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या: 78] तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "धर्म आसान एवं सरल है और धर्म के मामले में जो भी उग्रता दिखाएगा, वह परास्त होगा। अतः, बीच का रास्ता अपनाओ, अच्छा करने की चेष्टा करो, नेकी की आशा रखो।" इसे इमाम बुख़ारी ने रिवायत किया है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आदत भी थी कि आपको जब दो बातों में एक को चुनने का अधिकार दिया जाता, तो उसे चुनते जो अधिक आसान होती। हाँ यदि वह गुनाह की बात होती, तो मामला अलग होता।
गर्भवती स्त्री की माहवारी
सामान्यतः जब कोई स्त्री गर्भवती होती है तो उसकी माहवारी बंद हो जाती है। इमाम अहमद कहते हैं: "स्त्रियाँ गर्भवती होने का आभास माहवारी के बंद होने से ही करती हैं।" लेकिन यदि किसी गर्भवती स्त्री को रक्त दिखाई दे और ऐसा प्रसव से थोड़े समय जैसे दो या तीन दिन पहले हो और उसके साथ प्रसव पूर्व वाला वेदना भी हो, तो वह निफ़ास है। परन्तु यदि प्रसव से बहुत पहले हो या फिर थोड़ा पहले हो लेकिन प्रसव पूर्ण वाला वेदना न हो, तो वह निफ़ास नहीं है। अब, प्रश्न यह है कि क्या उसे माहवारी माना जाएगा और उसके लिए माहवारी से संबंधित शरई आदेश-निर्देश सिद्ध होंगे या फिर वह बीमारी का रक्त माना जाएगा और उसके लिए माहवारी से संबंधित आदेश-निर्देश सिद्ध नहीं होंगे?
इस विषय में उलेमा के अलग-अलग मत हैं। सही बात यह है कि इसे उस समय माहवारी शुमार किया जाएगा, जब वह किसी स्त्री को उसकी माहवारी ही की तरह नियमित रूप से आए। क्योंकि स्त्री को आने वाले रक्त के बारे में असल यही है कि यदि उसे माहवारी मानने में कोई बाधा न हो, तो उसे माहवारी ही माना जाएगा। जबकि क़ुरआन एवं हदीस में कोई ऐसी बात है भी नहीं, जो गर्भवती स्त्री को माहवारी न आने की ओर इशारा करती हो।
फिर, यही इमाम मालिक और इमाम शाफ़िई का मत भी है और इसी को शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया ने अपनाया है। उन्होंने अपनी पुस्तक "अल-इख़्तियारात" (पृष्ठ: 30) में फ़रमाया: "इसे बैहक़ी ने इमाम अहमद के एक मत के रूप में वर्णित किया है, बल्कि नक़ल किया है कि उन्होंने बाद में इसी को अपना लिया था।"
इस आधार पर, गर्भवती स्त्री की माहवारी पर वह सारे आदेश लागू होंगे, जो बिना गर्भ वाली स्त्री की माहवारी पर लाहू होते हैं। दोनों में केवल दो मसलों में अंतर है:
पहला मसला तलाक़ का है। जिस स्त्री पर इद्दत अनिवार्य होती हो, उसे गर्भवती न होने की स्थिति में माहवारी की अवस्था में तलाक़ देना हराम है, जबकि गर्वती होने की परिस्थिति में हारम नहीं है। क्योंकि जो स्त्री गर्भवती न हो, उसे माहवारी की हालत में तलाक़ देना कुरआन की इस आयत का विरोध करना है: {उन्हें तलाक़ दो उनकी इद्दत के लिए।} [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 1] परन्तु गर्भवती स्त्री को माहवारी की अवस्था में तलाक़ देना इस आयत के विरुद्ध नहीं है। क्योंकि जिसने किसी गर्भवती स्त्री को तलाक़ दिया, उसने उसे इद्दत के अनुसार तलाक़ दिया। इसलिए कि उसकी इद्दत प्रसव हो जाना है। चाहे वह माहवारी की अवस्था में हो कि पाकी की हालत में। यही कारण है कि अन्य अवस्थाओं के विपरीत गर्भास्था में किसी स्त्री को संभोग के बाद तलाक़ देना हराम नहीं है।
दूसरा मसला: अन्य स्त्रियों के विपरीत गर्भवती स्त्री की माहवारी से इद्दत समाप्त नहीं होती। क्योंकि गर्भवती स्त्री की इद्दत केवल प्रसव से ही समाप्त होगी। चाहे उसे माहवारी आए या न आए। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा गर्भवती स्त्रियों की निर्धारित अवधि यह है कि प्रसव हो जाए।} [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 4]
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तीसरा अध्याय: माहवारी की अनियमितताएँ
माहवारी की अनियमितताएँ कई प्रकार की होती हैं:
पहला: घटना अथवा बढ़ जाना। जैसे किसी स्त्री को नियमित रूप से छह दिनों तक माहवारी आती हो, लेकिन कभी सातवें दिन तक पहुँच जाए या फिर नियमित रूप से सात दिन आती हो और कभी छह दिन ही में पवित्र हो जाए।
दूसरा: आगे या पीछे हो जाना। मसलन नियमित रूप से माह के अंत में माहवारी आती हो, लेकिन कभी आरंभ में आ जाए या फिर माह के आरंभ में आती हो, लेकिन कभी अंत में आ जाए।
इन दोनों प्रकार की अनियमितताओं के आदेश के बारे में उलेमा के बीच विभेद है और सही मत यह है कि स्त्री जब रक्त देखेगी, तो माहवारी में होगी और जब स्वच्छ हो जाएगी, तो पवित्र मानी जाएगी। चाहे नियमित माहवारी के दिनों से कम हो या अधिक तथा आगे बढ़ जाए या पीछे हट जाए। इसके प्रमाण इससे पूर्व के अध्याय में गुज़र चुके हैं, जहाँ इस बात का उल्लेख कर दिया गया है कि शरीयत ने माहवारी से संबंधित आदेशों एवं निर्देशों को माहवारी के होने या न होने से जोड़कर बयान किया है।
यही इमाम शाफ़िई का मत है, इसी को शैख़ुल इस्लाम इब्न-तैमिया ने अपनाया है और "अल-मुग़नी" के लेखक ने प्रबल क़रार देते हुए कहा है: "यदि हंबली फ़क़ीहों के मत अनुसार आदत मोतबर होती, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसे अपनी उम्मत के लिए बयान कर देते और इसमें ज़रा भी देर न करते। क्योंकि किसी भी बात को उसके उचित समय पर न बताना और उसमें देर करना जायज़ नहीं है। आप तो इस तरह के मसलों को इसलिए भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे कि आपकी पत्नियों तथा अन्य स्त्रियों को उनकी हमेशा ज़रूरत पड़ती रहती थी। लेकिन इसके बावजूद आपने यदि आदत का ज़िक्र किया है, तो केवल इसतहाज़ा वाली स्त्री के संदर्भ में किया है, किसी और के संदर्भ में नहीं।"
तीसरा: पीले अथवा मटमैले रंग का रक्तस्राव। यानी स्त्री को ज़ख़्मों के रिसाव की तरह पीले अथवा मटमैले रंग का रिसाव नज़र आए। इस तरह का रक्त यदि माहवारी के बीच में या पवित्रता से ठीक पहले हो, तो उसे माहवारी माना जाएगा और यदि पवित्रता प्राप्त होने के बाद हो, तो माहवारी नहीं माना जाएगा। क्योंकि उम्म-ए-अतीया रज़ियल्लाहु अनहा कहती हैं: "हम पवित्रता के बाद देखने वाले पीले तथा गँदले रक्तस्राव को कुछ शुमार नहीं करते थे।" इसे अबू दाऊद ने सहीह सनद से रिवायत किया है। इमाम बुख़ारी ने भी इसे रिवायत किया है, लेकिन उनकी रिवायत में "पवित्रता के बाद" के शब्द नहीं हैं। उन्हें इस रिवायत को जिस अध्याय में नक़ल किया है, उसके शीर्षक का नाम दिया है: "माहवारी के अतिरिक्त अन्य दिनों में पीले अथवा मटमैले रक्तस्राव का बयान।" इसकी व्याख़्या करते हुए हाफ़िज़ इब्न-ए-हजर "फ़त्ह़ अल-बारी" में कहते हैं: "इमाम बुख़ारी ने इस शीर्षक के माध्यम से आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की पिछली हदीस, जिसमें है कि माहवारी को उस समय तक ख़त्म नहीं माना जाएगा, जब तक तक श्वेत रंग का रिसाव न दिखे और इस अध्याय में उल्लिखित उम्म-ए-अतीया रज़ियल्लाहु अनहा की हदीस को एक साथ मिलाकर देखने का संकेत दिया है। वह कहना चाहते हैं कि आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की हदीस उस संदर्भ में है, जब पीला एवं मटमैला स्राव माहवारी के दिनों में नज़र आए और उम्म-ए-अतीया की हदीस उस संदर्भ में है, जब माहवारी के अतिरिक्त अन्य दिनों नज़र आए।" याद रहे कि इब्न-ए-हजर असक़लानी ने आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की जिस हदीस की ओर इशारा किया है, उससे उनकी मुराद वह हदीस है, जिसे इमाम बुख़ारी ने इस अध्याय से कुछ पहले सनद के बिना रिवायत किया है। उस हदीस में है कि उनके पास स्त्रियाँ डिबिया में रूई भेजतीं, जिसमें पीले रंग का स्राव लगा होता था, तो वह कहतीं: "जल्दी न करो और उस समय तक माहवारी शुमार करती रहो, जब तक श्वेत रंग का रिसाव न देखो।" याद रहे कि आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की हदीस में प्रयुक्त शब्द "القصة البيضاء" से मुराद वह श्वेत स्राव है,जो माहवारी की समाप्ति के समय गर्भाशय से बाहर आता है।
चौथा: माहवारी में अनिरंतरता। मसलन एक दिन रक्त दिखाई दे तो एक दिन पवित्रता। इसकी भी दो सूरतें हो सकती हैं:
एक सूरत यह है कि स्त्री के साथ ऐसा हमेशा हो। ऐसी परिस्थिति में इसे इसतहाज़ा का रक्त माना जाएगा।
दूसरी सूरत यह है कि ऐसा हमेशा न हो। बल्कि कुछ समय तक यह परिस्थिति रहे और उसके बाद सही समय पर पवित्रता प्राप्त हो जाए। ऐसे में इस बीच-बीच में आने वाली पवित्रता के संबंध में उलेमा का मतभेद है कि उसे पाकी माना जाए या माहवारी?
इस संबंध में इमाम शाफ़िई के दो मतों में से अधिक सही मत यह है कि इसे माहवारी माना जाएगा। यही शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया और "अल-फ़ाइक़" नामी पुस्तक के लेखक का मत है। इमाम अबू हनीफ़ा का मत भी यही है। इन सभी लोगों का तर्क यह है कि इसमें श्वेत स्राव नहीं दिखता। साथ ही यह कि यदि इसे पवित्रता मान लिया जाए, तो उसके पहले और बाद वाले रक्त को माहवारी मानना पड़ेगा। हालाँकि इसका क़ायल कोई नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने की स्थिति में पाँच दिनों के अंदर ही इद्दत समाप्त हो जाएगी। एक बात और भी है। यदि इसे पाकी मान लिया जाए, तो हर दूसरे दिन स्नान आदि का कष्ट झेलना पड़ेगा। हालाँकि इस्लामी शरीयत इनसान को कठिनाई में डालना नहीं चाहती।
इसके विपरीत इमाम अहमद का मशहूर मत यह है कि इस अवस्था में आने वाले रक्त को माहवारी और रक्तशून्यता को पवित्रता माना जाएगा। लेकिन यदि रक्त की कुल अवधि माहवारी की अधिकतम सीमा से आगे बढ़ जाए, तो उसे इसतहाज़ा माना जाएगा।
प्रसिद्ध पुस्तक "अल-मुग़नी" के लेखक कहते हैं: "यहाँ, उस रिवायत के आधार पर, जिसे हमने निफ़ास के बारे में नक़ल किया है कि एक दिन से कम समय के लिए रक्त बंद रहने पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, यह कहना उचित होगा कि रक्त यदि एक दिन से कम समय के लिए बंद रहे, तो उसे पवित्रता नहीं माना जाएगा। क्योंकि यहाँ रक्त कभी जारी रहता है, तो कभी बंद। ऐसे में बार-बार पवित्र मानकर स्नान अनिवार्य क़रार देना दरअसल स्त्री को कठिनाई में डालना है, जो कि उचित नहीं है। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {और उसने धर्म के अंदर तुम्हारे लिए कोई तंगी नहीं रखी है।} [सूरा अल-हज्ज, आयत संख्या: 78]" वह आगे कहते हैं: "इस आधार पर एक दिन से कम समय की रक्तबंदी को पवित्रता नहीं माना जाएगा। यह और बात है कि उसे इसका कोई प्रमाण नज़र आए। जैसे रक्तबंदी उसकी नियमित माहवारी के अंतिम समय में हो या फिर श्वेतस्राव नज़र आ जाए।"
दरअसल "अल-मुग़नी" के लेखक का यह मत उक्त दोनों मतों के बीच का मत है।
पाँचवाँ: रक्त का इस तरह सूख जाना कि स्त्री को केवल तरावट नज़र आए। ऐसा यदि माहवारी के बीच में या फिर पवित्रता से ठीक पहले हो, तो उसे माहवारी माना जाएगा और अगर पवित्र प्राप्त हो जाने के बाद हो, तो उसे माहवारी माना नहीं जाएगा। इसलिए कि उसे अधिक से अधिक पीले तथा मटमैले स्राव के समान कहा जा सकता है और उसका शरई आदेश यही है।
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चौथा अध्याय: माहवारी से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश
माहवारी से बहुत-से शरई आदेश जुड़े हुए हैं, जो बीस से भी अधिक हैं। यहाँ हम उनमें से कुछ ऐसे आदेशों का वर्णन करने जा रहे हैं, जिनकी ज़रूरत अधिक पड़ती है:
पहला: माहवारी की अवस्था में स्त्री के लिए फ़र्ज़ अथवा नफ़ल कोई भी नमाज़ पढ़ना जायज़ नहीं है। न उसकी नमाज़ सही होगी और न उसपर नमाज़ फ़र्ज़ ही होती है। हाँ, यदि कोई स्त्री किसी नमाज़ के समय के आरंभ अथवा अंत में एक रकात नमाज़ पढ़ने के बराबर समय पा ले, तो उसपर वह नमाज़ फ़र्ज़ हो जाएगी।
आरंभ में समय पाने का उदाहरण इस प्रकार समझें कि यदि किसी स्त्री को सूर्यास्त से एक रकात नमाज़ पढ़ने के बराबर समय बाद माहवारी आ जाए, तो उसे माहवारी समाप्त होने के बाद मग़रिब की उस नमाज़ को कज़ा करना पड़ेगा। क्योंकि उसे माहवारी आने से पहले मग़रिब का एक रकात के बराबर समय मिल गया था।
जबकि अंत में समय पाने का उदाहरण इस प्रकार होगा कि यदि कोई स्त्री सूर्योदय से एक रकात नमाज़ पढ़ने के बराबर समय पहले पवित्र हो गई, तो उसे पवित्र होने के बाद फ़ज़्र की नमाज़ पढ़नी होगी। क्योंकि उसने फ़ज्र के समय का इतना अंश पा लिया है, जिसमें एक रकात नमाज़ पढ़ी जा सकती थी।
लेकिन यदि माहवारी की अवसथा में स्त्री को इतना समय न मिले, जो एक रकात नमाज़ पढ़ने के लिए पर्याप्त हो, जैसे पहले उदाहरण में उसे सूर्यास्त के एक क्षण बाद माहवारी आए या दूसरे उदाहरण में सूर्योदय से एक क्षण पहले पवित्र हो, तो उसपर नमाज़ अनिवार्य नहीं होगी। क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है: "जिसे किसी नमाज़ की एक रकात मिल गई, उसे नमाज़ मिल गई।" इसे इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है। इस हदीस को दूसरे शब्दों में यूँ समझ सकते हैं कि जिसे किसी नमाज़ का एक रकात से कम भाग मिला, उसे नमाज़ पाने वाला नहीं माना जाएगा।
अब एक प्रश्न यह है कि यदि किसी स्त्री को अस्र की नमाज़ के समय का इतना भाग मिला कि उसकी एक रकात पढ़ी जा सकती थी, तो क्या उसपर अस्र के साथ-साथ ज़ुहर की नमाज़ पढ़ना भी अनिवार्य होगा? इसी तरह यदि किसी को इशा की नमाज़ के समय का इतना भाग मिला कि उसकी एक रकात पढ़ी जा सकती थी, तो क्या उसपर इशा के साथ-साथ मग़्रिब की नमाज़ पढ़ना भी अनिवार्य होगा?
इस मसले में उलेगा के बीच इख़्तिलाफ़ है। लेकिन सही बात यह है कि उसे वही नमाज़ पढ़नी होगी, जिसका समय उसे मिला है। बस अस्र और इशा की नमाज़ ही पढ़नी पड़ेगी। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है: "जिसे सूर्यास्त से पहले अस्र की एक रकात मिल गई, उसे अस्र की नमाज़ मिल गई।" यहाँ आपने यह नहीं फ़रमाया कि उसे अस्र एवं ज़ुहर दोनों नमाज़ें मिल गईं। इस तरह आपने उसपर ज़ुहर की नमाज़ वाजिब होने की बात नहीं कही और असल भी यही है इनसान के सिर पर ज़िम्मेवारी न हो। यही इमाम मालिक तथा इमाम अबू हनीफ़ा का मसलक है। इसे उन दोनों से "शर्ह अल-मुहज़्ज़ब" नामी पुस्तक में नक़ल किया गया है।
जहाँ तक अल्लाह का ज़िक्र करने, उसकी बड़ाई बयान करने, प्रशंसा करने, खाते-पीते समय उसका नाम लेने, हदीस तथा फ़िक़्ह पढ़ने, दुआ करने, दुआ के बाद आमीन कहने और क़ुरआन सुनने की, तो इस तरह की कोई भी चीज़ उसपर हराम नहीं है। सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम आदि किताबों में मौजूद है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की गोद में टेक लगाकर क़ुरआन पढ़ा करते थे, जबकि वह माहवारी में होती थीं।
सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम आदि ही में उम्म-ए-अतिय्या रज़ियल्लाहु अनहा से रिवायत है, वह कहती हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कहते हुए सुना है: "जवान लड़कियाँ, पर्दानशीन स्त्रियाँ एवं माहवारी की अवस्था में होने वाली महिलाएँ दोनों ईदों की नमाज़ों के लिए निकलेंगी और इस पुण्यकारी सभा तथा मुसलमानों की दुआओं में शरीक होंगी। अल्बत्ता, माहवारी की अवस्था में होने वाली स्त्रियाँ ईदगाह से अलग रहेंगी।"
अब रही बात रजस्वला के स्वयं क़ुरआन पढ़ने की, तो उसे ज़बान से उच्चारण किए बिना केवल आँख से देखकर या दिल से ध्यान के माध्यम से पढ़ने की अनुमति है। मसलन उसके सामने मुसहफ़ रख दिया जाए और वह आयतों को देखती जाए और दिल ही दिल पढ़ती जाए, तो इसकी अनुमति है। नववी "शर्ह अल-मुहज़्ज़ब" में कहते हैं: "ऐसा करना जायज़ है और इसमें किसी का कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है।" लेकिन जहाँ तक ज़बान से उच्चारण के साथ पढ़ने की बात है, तो जमहूर उलेमा के यहाँ यह वर्जित एवं अवैध है। जबकि बुख़ारी, इब्न-ए-जरीर तबरी और इब्न-अल-मुंज़िर इसे जायज़ मानते हैं। इमाम मालिक से भी यह मत नक़ल किया गया है। इमाम शाफ़िई का पुराना मत भी यही था। इसे उन दोनों से इब्न-ए-हजर ने "फ़त्ह़ अल-बारी" में नक़ल किया है। इमाम बुख़ारी ने इबराहीम नख़ई से बिना सनद के नक़ल किया है कि वह कहते हैं: "रजस्वला स्त्री के क़ुरआन पढ़ने में कोई हर्ज नहीं है।"
शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया कहते हैं: "रजस्वला स्त्री को क़ुरआन पढ़ने से रोकने के संबंध में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत से कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। क्योंकि आपका फ़रमान: "रजस्वला और जूनबी क़ुरआन का कोई अंश पढ़ नहीं सकते" एक दुर्बल हदीस है ,और इस बात पर हदीस का ज्ञान रखने वाले तमाम लोग एकमत हैं। फिर यह कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में भी स्त्रियों को माहवारी आती थी। अतः यदि उनके लिए क़ुरआन पढ़ना नमाज़ की तरह ही हराम होता, तो आप अपनी उम्मत से ज़रूर बयान कर देते तथा विशेष रूप से अपनी पत्नियों को बता देते और लोगों के अंदर यह बात आम हो जाती। लेकिन जब किसी ने भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इसकी मनाही नक़ल नहीं की, तो इस परिस्थिति में उसे हराम कहना उचित नहीं होगा। जब आपके ज़माने में माहवारी आने घटनाएँ साधारण रूप से पाई जाने के बावजूद आपने इस अवस्था में क़ुरआन पढ़ने से मना नहीं किया, तो मालूम हुआ कि वह हराम नहीं है।"
इस मसले में इस्लामी विद्वानों के विभिन्न मतों से अवगत होने के बाद यह कहना बेहतर मालूम होता है कि स्त्री माहवारी की अवस्था में क़ुरआन ज़बान से उच्चारण के साथ केवल उसी समय पढ़े, जब उसकी आवश्यकता हो। जैसे वह शिक्षिका हो और क्षात्राओं को शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे ज़बान से उच्चारण के साथ पढ़ना पड़े या फिर क्षात्रा हो और परीक्षा देते समय इसकी ज़रूरत पड़ जाए।
दूसरा: रोज़ा: रजस्वला पर फ़र्ज़ एवं नफ़ल हर प्रकार का रोज़ा हराम है। उसका रोज़ा रखना सही भी नहीं होगा। अल्बत्ता उसे छूटे हुए फ़र्ज़ रोज़ों को बाद में रखना पड़ेगा। "हम जब माहवारी के दिनों में होते, तो हमें छूटे हुए रोज़ों को बाद में रख लेने का आदेश दिया जाता था और छूटी हुई नमाज़ को बाद में पढ़ने का आदेश नहीं दिया जाता था।" इसे सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम ने रिवायत किया है।
यदि किसी स्त्री को रोज़े की अवस्था में माहवारी आ जाए, चाहे सूर्यास्त से एक क्षण पहले की क्यों न हो, तो उसका रोज़ा नष्ट हो जाएगा और रोज़ा फ़र्ज़ होने की स्थिति में उसे उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करनी होगी।
लेकिन यदि उसे सूर्यास्त से पहले माहवारी आरंभ होने का आभास हो जाए, लेकिन रजःस्राव सूर्यास्त के बाद ही हो, तो उलेमा के सही मत के अनुसार उसका रोज़ा पूरा हो जाएगा। क्योंकि जो रक्त बाहर न आया हो, उसके आधार पर कोई आदेश जारी नहीं होता। इसलिए भी कि जब अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा गया कि यदि कोई स्त्री स्वप्न में वही कुछ देखे जो पुरुष देखता है, तो क्या उसे स्नान करना है? तो आपने उत्तर दिया: "हाँ, यदि वह पानी देखे।" यहाँ आपने शरई आदेश को वीर्य के निकलने से नहीं, बल्कि उसे देखने से जोड़ा है। कुछ इसी तरह माहवारी के आदेश भी उसके निकलने से नहीं, बल्कि उसे निकलते हुए देखने से साबित होंगे।
यदि स्त्री माहवारी की अवस्था में हो और इसी हालत में फ़ज्र हो जाए, तो उसका उस दिन का रोज़ा सही नहीं होगा। चाहे वह फ़ज्र के एक क्षण बाद पवित्र ही क्यों न हो जाए।
लेकिन यदि फ़ज्र से कुछ देर पहले पवित्र हो जाए और रोज़ा रख ले, तो उसका रोज़ा सही हो जाएगा। चाहे वह स्नान फ़ज्र के बाद ही क्यों न करे। वैसे ही, जैसे कोई व्यक्ति जूनबी हो और इसी अवस्था में रोज़े की नीयत कर ले और फ़ज्र का समय होने के बाद स्नान कर ले, तो उसका रोज़ा सही हो जाता है। इसका प्रमाण आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की वह हदीस है, जिसमें वह कहती हैं कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम स्वप्नदोष नहीं, बल्कि संभोग के कारण जूनबी होते और इसी अवस्था में सुबह हो जाती, तो रमज़ान का रोज़ा रख लेते।
तीसरा आदेश: काबा का तवाफ़ करना: माहवारी की अवस्था में काबा का तवाफ़, फ़र्ज़ हो कि नफ़ल, हराम है। यदि कोई करे भी, तो सही नहीं होगा। क्योंकि जब आइशा रज़ियल्लाहु अनहा को माहवारी आ गई थी, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे फ़रमाया था: "वह सब कुछ करो, जो अन्य हज करने वाले करते हैं। बस एक बात का ध्यान रहे कि पवित्र होने से पहले काबा का तवाफ़ नहीं करना है।"
रही बात सफ़ा एवं मर्वा के बीच दौड़ लगाने, अरफ़ा में रुकने, मुज़दलिफ़ा एवं मिना में रात गुज़ारने और कंकड़ मारने जैसे हज एवं उमरा के अन्य कार्यों की, तो वह हराम नहीं हैं। इससे मालूम हुआ कि यदि कोई स्त्री पवित्र अवस्था में काबा का तवाफ़ करे और फिर तवाफ़ के ठीक बाद ही माहवारी आ जाए या फिर सफ़ा एवं मर्वा के बीच दौड़ लगाते समय ही आ जाए, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।
चौथा आदेश: तवाफ़-ए-वदा की अनिवार्यता समाप्त हो जाना: यदि कोई स्त्री हज एवं उमरा के सारे कार्य पूरे कर ले और घर वापस होने से पहले उसे माहवारी आ जाए, जो लगातार जारी रहे, तो वह तवाफ़-ए-वदा किए बिना ही निकल जाएगी। क्योंकि अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को आदेश दिया कि उनका अंतिम कार्य काबा का तवाफ़ होना चाहिए। लेकिन आपने रजस्वला को इसकी छूट दे दी। [सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम]
रजस्वला के लिए यह भी कोई पुण्यकारी कार्य नहीं है कि वह मस्जिद-ए-हराम के द्वार पर जाकर दुआ करे। क्योंकि इस तरह की कोई बात अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से नक़ल नहीं की गई है। जबकि किसी भी इबादत के सही होने के लिए आवश्यक है कि वह आपसे वर्णित हो। सच्चाई यह है कि इस संदर्भ में जो कुछ आपसे वर्णित है, वह इसके विरुद्ध ही जाता है। चुनांचे सफ़ीया रज़ियल्लाहु अनहा की घटना में है कि जब वह तवाफ़-ए-इफ़ाज़ा के बाद रजस्वला हो गईं, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके बारे में कहा: "तब वह चल पड़े।" इसे इमाम बुख़ारी एवं इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
यहाँ आपने उनको मस्जिद के द्वार में उस्थित होने का आदेश नहीं दिया। इससे मालूम हुआ कि यदि यह कोई पुण्यकारी कार्य होता, तो आप उनसे उसे करने को ज़रूर कहते। लेकिन इसके विपरीत हज एवं उमरा के तवाफ की अनिवार्यता समाप्त नहीं होगी और स्त्री पवित्र होने के बाद तवाफ़ करेगी।
पाँचवाँ आदेश: मस्जिद में रुकना: किसी स्त्री का माहवारी की अवस्था में मस्जिद में रुकना हराम है। बल्कि इस अवस्था में ईदगाह में रुकना भी हराम है। क्योंकि उम्म-ए-अतीया रज़ियल्लाहु अनहा से वर्णित एक हदीस में है कि उन्होंने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कहते हुए सना है: "जवान लड़कियाँ, पर्दानशीन स्त्रियाँ एवं माहवारी की अवस्था में होने वाली स्त्रियाँ, दोनों ईदों की नमाज़ों के लिए निकलेंगी।" इस हदीस में आगे है: "माहवारी की अवस्था में होने वाली स्त्रियाँ ईदगाह से अलग रहेंगी।" इस हदीस को इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
छठा आदेश: संभोग: माहवारी की अवस्था में पति का अपनी पत्नी से संभोग करना तथा पत्नी का अपने पति को इसकी अनुमति देना दोनों हराम है। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा वे आपसे मासिक धर्म के बारे में पूछते हैं, तो कह दें कि वह मलिनता है। और उनके समीप भी न हो जाओ जब तक पवित्र न हो जाएँ।} [सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 222] यहाँ आयत में आए हुए शब्द "الْمَحِيض" से मुराद रजस्राव का समय तथा रजस्राव का स्थान यानी योनी है। माहवारी की अवस्था में संभोग हराम होने का एक अन्य प्रमाण अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फ़रमान भी है: "संभोग के अतिरिक्त सब कुछ करो।" इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है। साथ ही तमाम मुसलमानों का इस बात पर मतैक्य है कि रजस्वला से उसके योनी में संभोग करना हराम है।
अतः, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखने वाले किसी मुसलमान के लिए हलाल नहीं है कि इस पाप की ओर क़मद बढ़ाए, जो अल्लाह की किताब, उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत और मुसलमानों के इजमा (मतैक्य) से हराम है और फलस्वरूप अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करने और ईमान वालों के रास्ते से हटकर अलग रास्ते पर चलने वाला बन जाए। इमाम नववी "अल-मुहज़्ज़ब" नामी किताब की शर्ह "अल-मजमू" (2/374) में कहते हैं: "इमाम शाफ़िई ने फ़रमाया है: "जिसने रजस्वला से संभोग किया, उसने महा पाप किया।" जबकि हमारे साथी तथा अन्य लोग कहते हैं: "जिसने रजस्वला को संभोग को हलाल जाना, उसे काफ़िर घोषित कर दिया जाएगा।"
हाँ, काम वासना को कम करने के लिए संभोग को छोड़ चुंबन, साथ सोने तथा जननेंद्रिय के अतिरिक्त शरीर के अन्य अंगों को सटाने की अनुमति है। अल्बत्ता उत्तम यह है कि नाभि एवं घुटने के बीच के भागों को प्रत्यक्ष रूप से न सटाए। क्योंकि आइशा रज़ियल्लाहु अनहा की एक हदीस में है, वह कहती हैं: जब मैं माहवारी की अवस्था में होती, तो अल्लाह के नबी के आदेश पर तहबंद बाँध लेती और आप मेरे साथ शरीर से शरीर मिलाकर सो जाते।"
सातवाँ आदेश: तलाक़: पति के लिए माहवारी की अवस्था में अपनी पत्नी को तलाक़ देना हराम है। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {हे नबी! जब तुम लोग अपनी पत्नियों को तलाक़ दो, तो उन्हें उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दो।} [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 1] यानी ऐसी अवस्था में तलाक़ दो कि तलाक़ के समय उनके सामने एक निश्चित इद्दत हो और ऐसा उसी समय होगा, जब गर्भावस्था में या फिर ऐसी पाकी में तलाक़ दी जाए, जिसमें संभोग न किया हो। क्योंकि माहवारी की अवस्था में तलाक़ देने पर उनके सामने इद्दत नहीं होगी कि जिस माहवारी में तलाक़ दी गई है, वह इद्दत में शुमार नहीं होगी। इसी तरह यदि पाकी की अवस्था में संभोग के बाद तलाक़ दी जाए, तो इद्दत निश्चित नहीं होगी। क्योंकि उसे नहीं मालूम कि क्या इस संभोग के कारण उसने गर्भ धारण कर लिया है, जिसकी इद्दत प्रसव है या फिर गर्भ धारण नहीं किया है और उसे माहवारी के द्वारा इद्दत गुज़ारनी है? फिर जब यह स्पष्ट न हो पाता हो कि कौन-सी इद्दत गुज़ारनी है, तो बात स्पष्ट होने तक तलाक़ देना हारम होगा।
सारांश यह कि माहवारी की अवस्था में स्त्री को तलाक़ देना हराम है। इसका प्रमाण उक्त आयत के साथ-साथ सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम आदि किताबों में मौजूद अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अनहुमा की वह हदीस भी है, जिसमें है कि उन्होंने अपनी पत्नी को माहवारी की अवस्था में तलाक़ दे दिया। फिर जब उनके पिता उमर रज़ियल्लाहु अनहु ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसकी सूचना दी, तो आप नाराज़ हुए और फ़रमाया: "उससे कह दो कि अपनी पत्नी को वापस कर ले और अपने पास ही रखे। यहाँ तक कि जब पाक हो जाए और उसके बाद फिर रजस्वला हो और उससे भी पाक हो जाए, तो चाहे तो हमेशा के लिए अपने पास रख ले और चाहे तो स्पर्श करने से पहले तलाक़ दे दे। दरअसल यही वह इद्दत है, जिसे सामने रखते हुए अल्लाह ने स्त्री को तलाक़ देने का आदेश दिया है।" अतः यदि किसी ने अपनी पत्नी को माहवारी की अवस्था में तलाक़ दे दिया, तो वह पापी है। उसे तौबा करने के साथ-साथ अपनी स्त्री को वापस कर लेना होगा और अल्लाह एवं उसके रसूल के बताए हुए तरीक़े के अनुसार शरई तलाक़ देना होगा। उसे करना यह होगा कि अपनी स्त्री को वापस कर लेने के बाद अपने पास ही रखे, यहाँ तक कि उस माहवारी से पाक हो जाए जिसमें तलाक़ दिया था, फिर दूसरी बार रजस्वला हो और जब उससे भी पाक हो जाए, तो उसे पत्नी के रूप में अपने पास रख ले या फिर संभोग करने से पहले तलाक़ दे दे। याद रहे कि माहवारी की अवस्था में तलाक़ देने की अवैधता से तीन समले अपवाद हैं:
पहला मसला: यदि पति अपनी पत्नी को तलाक़ उसके साथ एकांत में गए और उसे स्पर्श किए बिना ही दे दे, तो माहवारी की अवस्था में तलाक़ देने में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि ऐसी अवस्था में स्त्री को किसी इद्दत का पालन करना नहीं होता। अतः उसका इस तरह तलाक़ देना अल्लाह तआला के इस फ़रमान फ़रमान के विरुद्ध नहीं होगा: "तो उन्हें उनकी इद्दत के लिए तलाक़ दो।" [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 1]
दूसरा मसला: यदि माहवारी गर्भावस्था में आ जाए, जिसका उल्लेख इससे पहले हो चुका है।
तीसरा मसला: यदि तलाक़ किसी एवज़ के बदल में दी जाए, तो माहवारी की अवस्था में तलाक़ देने में कोई हर्ज नहीं है।
उदाहरणस्वरूप यदि पति-पत्नी के बीच विवाद और अनबन चल रही हो और पति कोई एवज़ लेकर उसे तलाक़ दे दे, तो माहवारी की अवस्था में भी उसे तलाक़ दे सकता है। क्योंकि अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अनहुमा) का वर्णन है कि साबित बिन क़ैस बिन शम्मास (रज़ियल्लाहु अनहु) की पत्नी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आईं और कहने लगीं: ऐ अल्लाह के रसूल, मैं साबित बिन क़ैस के व्यवहार और दीन में कोई कमी नहीं पाती, लेकिन मुझे इस्लाम के दायरे में रहते हुए कुफ़्र (पति की अवज्ञा) करना पसंद नहीं है। यह सुन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया: "क्या तुम उसे उसका बाग लौटा दोगी?" उन्होंने कहा: हाँ! तो अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने (साबित बिन क़ैस से) फ़रमाया: "बाग ग्रहण कर लो और उसे एक तलाक़ दे दो।" [इस हदीस को इमाम बुख़ारी ने रिवायत किया है।] यहाँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे यह नहीं पूछा कि वह माहवारी की अवस्था में है या पवित्र है? साथ ही यह कि यह तलाक़ स्त्री का धन देकर अपनी जान छुड़ाने का नाम है, अतः आवश्यकता के समय जायज़ होगा, चाहे वह जिस अवस्था में हो।
इब्न-ए-क़ुदामा अपनी पुस्तक "अल-मुग़नबी" (7/52) में माहवारी में अवस्था में खुला सही होने के का तर्क देते हुए कहते हैं: "इसका कारण यह है कि माहवारी की अवस्था में तलाक़ देने से मना उस हानि के कारण किया गया है, जो इद्दत लंबी होने के कारण हो सकती है। जबकि खुला की अनुमति उस हानि को हटाने के लिए दी गई है, जो पति-पत्नी के बीच अनबन एवं स्त्री जिसे नापसंद करती हो, उसके साथ रहने के कारण उसे हो सकती है। देखा जाए तो यह हानि इद्दत लंबी होने की हानि से अधिक बड़ी है। अतः बड़ी हानि को छोटी हानि के द्वारा हटाने की अनुमति दे दी गई। यही कारण है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खुला लेने वाली स्त्री से यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वह किस अवस्था में है।"
अब रहा यह प्रश्न कि माहवारी की अवस्था में स्त्री का निकाह सही होगा या नहीं? तो उत्तर यह है कि निकाह सही होगा। क्योंकि असल हलाल होना है और यहाँ मनाही का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन माहवारी की अवस्था में पति एवं पत्नी के मिलन के बारे में थोड़ा-सा एहतियात से काम लिया जाएगा। यदि इस बात का भय न हो कि पति संभोग कर लेगा, तो मिलन में कोई हर्ज नहीं है और यदि भय हो, तो उसे देखते हुए मिलन की अनुमति नहीं दी जाएगी।
आठवाँ आदेश: माहवारी से तलाक़ की इद्दत का शुमार। जब पति अपनी पत्नी को स्पर्श करने या उसके साथ एकांत में जाने के बाद उसे तलाक़ दे दे और उसे माहवारी आती हो तथा वह गर्भवती न हो, तो उसे पूरी तीन माहवारी तक इद्दत गुज़ारनी होगी। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा जिन स्त्रियों को तलाक़ दे दी गई हो, वे तीन बार रजस्वला होने तक अपने आपको विवाह से रोकी रखें।} [सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 228] इस आयत में आए हुए शब्द "ثَلاَثَةُ قُرُوَءٍ" का अर्थ तीन माहवारी है। परन्तु यदि गर्भवती हो, तो उसकी इद्दत प्रसव होना है, चाहे अवधि लंबी हो या छोटी। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा गर्भवती स्त्रियों की निर्धारित अवधि यह है कि प्रसव हो जाए।} [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 4] और यदि उसे माहवारी न आती हो, जैसे छोटी आयु के कारण माहवारी शुरू न हुई हो, बड़ी आयु के कारण माहवारी बंद हो गई हो या ऑपरेशन के माध्यम से गर्भाशय निकाल लिया हो,या इसके अलावा, किसी भी कारण से मासिक धर्म आने की उम्मीद न हो ,तो उसकी इद्दत तीन मास है। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {तथा तुम्हारी जो स्त्रियाँ मासिक धर्म से निराश हो जाती हैं, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी निर्धारित अवधि तीन मास है। तथा उनकी भी जिन्हें मासिक धर्म न आता हो।} [सूरा अत-तलाक़, आयत संख्या: 4] परन्तु यदि स्त्री की माहवारी आती हो, मगर किसी ज्ञात कारण जैसे बीमारी एवं स्तनपान आदि के सबब माहवारी रुकी हुई हो, तो वह इद्दत ही में रहेगी और माहवारी आने के बाद उसी के ज़रिए इद्दत गुज़ारेगी, यद्यपि उसे लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़े। लेकिन यदि माहवारी बंद होने का कारण दूर हो जाए, जैसे बीमारी ठीक हो जाए और स्तनपान का समय बीत जाए और इसके बावजूद माहवारी न आए, तो उक्त कारण दूर होने के बाद पूरा एक वर्ष इद्दत गुज़ारेगी। यही सही मत एवं शरई सिद्धांतों के अनुरूप मत है। क्योंकि जब कारण समाप्त होने के बावजूद माहवारी न आए, तो ऐसी स्त्री उस स्त्री के समान होगी, जिसकी माहवारी बिना किसी ज्ञात कारण के बंद हो गई हो। जबकि जिस स्त्री की माहवारी बिना किसी ज्ञात कारण के बंद हो जाए, वह पूरा एक वर्ष इद्दत गुज़ारेगी। नौ महीने एहतियात के तौर पर गर्भ के लिए और तीन महीने इद्दत के तौर पर।
अब रहा ऐसी स्त्री का मसला जिसे निकाह के बाद स्पर्श तथा एकांतवास से पहले ही तलाक़ दे दिया जाए, तो उसे सिरे से कोई इद्दत नहीं गुज़ारनी है। न माहवारी के ज़रिए और न किसी और चीज़ के ज़रिए। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: {हे ईमान वालो! जब तुम विवाह करो ईमान वालियों से, फिर तलाक़ दो उन्हें, इससे पूर्व कि हाथ लगाओ उनको, तो तुम्हारे लिए उनपर कोई इद्दत नहीं है, जिसकी तुम गणना करो।} [सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या: 49]
नवाँ आदेश: गर्भाशय का गर्भ से ख़ाली होने का मसला। इसकी ज़रूरत तब-तब पड़ती है, जब-जब गर्भाशय के खाली होने को जानने की आवश्यकता होती है। इससे कई मसायल जुड़े हुए हैं:
इस तरह का एक मसला यह है कि जब कोई व्यक्ति मर जाए और किसी ऐसी स्त्री को छोड़ जाए, जिसके गर्भ में पल रहा बच्चा उसका वारिस बनता हो, फिर वह पति वाली भी हो, तो उसका पति माहवारी आने अथवा गर्भ स्पष्ट होने तक उससे संभोग नहीं करेगा। अब यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि वह गर्भवती है, तो उसे मीरास का हिस्सा मिलेगा, क्योंकि वारिस बनाने वाले की मृत्यु के समय वह वजूद में आ चुका था। लेकिन यदि उसे माहवारी आ गई, तो हिस्सा नहीं मिलेगा, क्योंकि माहवारी आने से यह स्पष्ट हो गया कि गर्भाशय खाली था।
दसवाँ आदेश: स्नान का अनिवार्य होना: रजस्वला जब माहवारी से पवित्र हो, तो उसपर इस तरह स्नान करना ज़रूरी है कि पूरा बदन साफ़ हो जाए। क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश से फ़रमाया था: "जब माहवारी शुरू हो, तो नमाज़ पढ़ना बंद कर दो और जब समाप्त हो जाए, तो स्नान कर लो और नमाज़ पढ़ना शुरू कर दो।"
इस अवसर पर किए जाने वाले स्नान का निम्नतम वाजिब यह है कि पूरे शरीर को, यहाँ तक कि बालों की जड़ों भी धोया जाए। जबकि उत्तम यह है स्नान अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बताए हुए तरीक़े से किया जाए। एक हदीस में है कि असमा बिंत शकल रज़ियल्लाहु अनहा ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से माहवारी के स्नान के बारे में पूछा, तो आपने फ़रमाया: "तुम बेर के पत्ते डले हुए पानी से अच्छी तरह पवित्रता प्राप्त करो, फिर अपने सिर पर पानी डालकर उसे अच्छी तरह रगड़ो कि पानी बालों की जड़ों तक पहुँच जाए, फिर पूरे शरीर पर पानी डालो, फिर एक सुगंध लगा हुआ रूई का टुकड़ा लेकर उससे पवित्रता प्राप्त करो।" असमा ने कहा: मैं उससे पवित्रता कैसे प्राप्त करूँ? यह सुन आपने कहा: "सुबहानल्लाह!" यह देख आइशा रज़ियल्लाहु अनहा ने उनसे कहा: उससे रक्त के निशानों को साफ़ करो? [इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।]
सिर के बंधे हुए बालों को खोलना ज़रूरी नहीं है। हाँ, यदि बाल इतनी मज़बूती से बंधे हुए हों कि पानी के बालों की जड़ों तक पहुँच न पानी की आशंका हो, तब खोलना पड़ेगा। क्योंकि सहीह मुस्लिम में उम्म-ए-सलमा रज़ियल्लाहु अनहा से वर्णित है कि उन्होंने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा: मैं अपने सिर के बालों को बड़ी मज़बूती से बाँधती हूँ। ऐसे में क्या मुझे जनाबत का स्नान करने के लिए उन्हें खोलना पड़ेगा? जबकि एक रिवायत में है: क्या माहवारी एवं जनाबत के स्नान के लिये उन्हें खोलना पड़ेगा? आपने उत्तर दिया: "नहीं! बस इतना काफ़ी है कि तुम अपने सिर पर तीन चुल्लू पानी डाल लो और फिर पूरे शरीर पर पानी बहा दो। इससे तुम पवित्र हो जाओगी।"
जब रजस्वला नमाज़ के समय के दौरान पवित्र हो जाए, तो स्नान करने में जल्दी करना अनिवार्य होगा, ताकि समय पर नमाज़ पढ़ सके। यदि वह यात्रा में हो और पानी उपलब्ध न हो, या फिर पानी तो उपलब्ध हो लेकिन उसे प्रयोग करने की स्थिति में नुक़सान का भय हो, या फिर वह बीमार हो और पानी का प्रयोग हानिकारक हो, तो वह स्नान के स्थान पर तयम्मुम करेगी। फिर जब परेशानी दूर हो जाएगी, तो स्नान कर लेगी।
कुछ स्त्रियाँ किसी नमाज़ के समय माहवारी से पवित्र हो जाती हैं और यह कहते हुए दूसरी नमाज़ के समय पर जाकर स्नान करती हैं कि उस समय पूर्ण रूप से स्वच्छता प्राप्त करना संभय नहीं था! इस तरह का हीला-बहाना करना उचित नहीं है। क्योंकि वह स्नान के निम्नतम वाजिब का पालन करके स्नान कर नमाज़ पढ़ सकती थी और फिर व्यापक समय मिलने पर संपूर्ण रूप से स्वच्छता प्राप्त कर सकती थी।
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पाँचाँ अध्याय: इसतिहाज़ा का अर्थ तथा उससे संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश
इसतिहाज़ा: किसी स्त्री का रक्त इस तरह निरंतर जारी रहना कि कभी बंद ही न हो या फिर बहुत कम समय जैसे महीने में एक-दो दिन के लिए ही बंद हो।
पहली अवस्था, जिसमें रक्त कभी बंद नहीं होता की मिसाल सहीह बुख़ारी की वह हदीस है, जिसे आइशा रज़ियल्लाहु अनहा ने रिवायत किया है। वह कहती हैं: फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश रज़ियल्लाहु अनहा ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं पवित्र नहीं हो पाती। एक अन्य रिवायत में है कि उन्होंने कहा: मुझे लगातार इसतिहाज़ा का रक्त आता रहता है और मैं कभी पवित्र नहीं हो पाती।
जबकि दूसरी अवस्था, जिसमें रक्त बहुत कम समय के लिए ही बंद होता है की मिसाल हमना बिंत जहश रज़ियल्लाहु अनहा की यह हदीस है कि वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आईं और कहने लगीं: ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे इसतिहाज़ा का रक्त अत्यधिक मात्रा में आता है। [इस हदीस को अहमद, अबू दाऊद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है, तिरमिज़ी ने इसे सहीह कहा है और इमाम अहमद से इसे सहीह कहने तथा इमाम बुख़ारी से हसन कहने की बात भी नक़ल की गई है।]
इसतिहाज़ा की विभिन्न परिस्थितियाँ:
इसतिहाज़ा वाली स्त्री की तीन हालतें हुआ करती हैं:
पहली हालत: इसतिहाज़ा का शिकार होने से पहले माहवारी का नियमित समय रहा हो। इस तरह की स्त्री माहवारी की पुरानी एवं निश्चित अवधि का पालन करते हुए उसे माहवारी मानेगी और उसके अतिरिक्त जो रक्त आए, उसे इसतिहाज़ा मानेगी।
उदाहरण के तौर पर किसी स्त्री को प्रत्येक महीने के आरंभ में छह दिन माहवारी आती थी। फिर वह इसतिहाज़ा की शिकार हो गई और उसे निरंतर रक्त आने लगा। ऐसे प्रत्येक महीने के आरंभ के छह दिन माहवारी के माने जाएँगे और शेष इसतिहाज़ा के। क्योंकि आइशा रज़ियल्लाहु अनहा से वर्णित है कि फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश (रज़ियल्लाहु अनहा) ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि मैं अति रजस्राव की शिकार हूँ तथा कभी पाक नहीं हो पाती। ऐसे में क्या मैं नमाज़ छोड़ दूँ? आपने कहा: "नहीं, यह एक रग का रक्त है। केवल उतने ही दिन नमाज़ छोड़ो, जितने दिन इससे पहले माहवारी आया करती थी। फिर स्नान कर लो और नमाज़ पढ़ो।" इसे इमाम बुखारी ने रिवायत किया है । तथा सहीह मुस्लिम में है कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उम्म-ए-हबीबा बिंत जहश से फ़रमाया: "उतने दिनों तक नमाज़ पढ़ना बंद रखो, जितने दिनों तक पहले माहवारी के कारण नमाज़ पढ़ना बंद रखती थी। फिर स्नान कर लो और नमाज़ पढ़ो।" इस आधार पर, इसतिहाज़ा की शिकार ऐसी स्त्री, जिसके माहवारी के दिन निर्धारित रहे हों, माहवारी के बराबर बैठेगी। फिर उसके बाद स्नान कर लेगी और नमाज़ पढ़ने लगेगी और रक्त पर ध्यान नहीं देगी।
दूसरी हालत: इसतिहाज़ा से पहले माहवारी का कोई निश्चित एवं नियमित समय न रहा हो। यानी जब से रक्त आना आरंभ हुआ हो, उसी समय से वह इसतिहाज़ा की शिकार हो गई हो। इस प्रकार की स्त्री रक्त को पहचानने का प्रयास करेगी। रक्त जब काला, गाढ़ा अथवा बदबूदार हो, तो उसे माहवारी मानेगी और इसके अतिरिक्त जो रक्त आए, उसे इसतिहाज़ा मान लेगी।
उदाहरणस्वरूप जब किसी स्त्री को पहली बार रक्त आया तो वह एक निश्चित समय के बाद रुकने की बजाय निरंतर आता ही रहा। लेकिन उसे दस दिन रक्त का रंग काला दिखा और शेष दिनों में लाल, या फिर दस दिन गाढ़ा दिखा और बाक़ी दिनों में पतला, या दस दिन माहवारी जैसे बास वाला दिखा और शेष दिनों में बिना बास का। इस तरह की परिस्थिति में पहले उदाहरण में काले रंग का रक्त, दूसरे उदाहरण में गाढ़ा रक्त और तीसरे उदाहरण में बास वाला रक्त माहवारी होगा और शेष इसतिहाज़ा। क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश से फ़रमाया था: "माहवारी का रक्त काला होता है और पहचान में आ जाता है। जब इस प्रकार का रक्त देखो, तो नमाज़ पढ़ना बंद कर दो। फिर जब इससे अलग तरह का रक्त देखो, तो वज़ू करो और नमाज़ पढ़ो। क्योंकि यह रग का रक्त है।" [इसे अबू दाऊद एवं नसई ने रिवायत किया है और इब्न-ए-हिब्बान एवं हाकिम ने इसे सहीह कहा है।] इस हदीस की सनद एवं विषय-वस्तु के सहीह होने में यद्यपि शंका है, लेकिन इसपर उलेमा का अमल रहा है और यह स्त्रियों की आम आदत का एतबार करने से बेहतर है।
तीसरी हालत: न तो पहले से माहवारी की नियमित अवधि मालूम रही हो और न रक्त की सही पहचान हो पा रही हो। दरअसल जिस दिन से पहली बार रक्त आया हो, उसी दिन से इसतिहाज़ा का जारी हो गया हो। फिर रक्त भी एक ही प्रकार का आता हो या फिर इतने भिन्न-भिन्न प्रकार का आता हो कि कुछ निर्णय ले पाना संभव न हो। इस प्रकार की स्त्री, स्त्रियों की आम आदत का पालन करेगी। अतः जब से रक्त आना आरंभ हुआ है, तब से हर महाने के आरंभिक छह अथवा सात दिनों को माहवारी मानेगी और उसके अतिरिक्त अन्य दिनों को इसतिहाज़ा।
उदाहरणस्वरूप पहली बार उसे महीने के पाँचवें दिन रक्त नज़र आया, फिर निरंतर आता ही रहा और रंग आदि के द्वारा पहचान करना भी संभव न हो सका, तो उसकी माहवारी प्रत्येक मास के पाँचवें दिन से शुरू होकर छह अथवा सात दिन शुमार होगी। क्योंकि हमने बिंत जहश रज़ियल्लाहु अनहा की एक हदीस में है कि उन्होंने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं अत्यधिक रजस्राव की शिकार हूँ। इसके विषय में आपका क्या विचार है? दरअसल इसने मुझे नमाज़ एवं रोज़े से रोक रखा है। इसपर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "मैं तुम्हें योनि के अंदर रूई रखने की सलाह देता हूँ। इससे रक्त रुक जाएगा।" लेकिन उन्होंने कहा: रक्त इससे कहीं अधिक आता है। इसमें आगे है कि आपने फ़रमाया: "दरअसल यह रक्त शैतान के प्रभाव से आता है। अतः अल्लाह के आदेश अनुसार छह या सात दिन माहवारी के मान लो और उसके बाद स्नान कर लो। यहाँ तक कि जब लगे कि तुम पाक-साफ़ हो गई हो, तो चौबीस अथवा तेईस दिन एवं रात नमाज़ पढ़ो तथा रोज़ा रखो।" [इसे अहमद, अबू दाऊद एवं तिरमिज़ी ने रिवायत किया है, तिरमिज़ी ने सहीह कहा है तथा अहमद से वर्णित है कि उन्होंने इसे सहीह कहा है और इसी तरह इमाम बुख़ारी से वर्णित है कि उन्होंने इस हसन कहा है।]
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के शब्द "छह अथवा सात दिन" विकल्प के रूप में नहीं हैं, बल्कि उचित निर्णय लेने के प्रयास को बताने के लिए हैं। यानी वह अपने से निकटतम शारीरिक बनावट, आयु और संबंध की स्त्रियों को देखेगी और इसी तरह यह जानने का प्रयास करेगी कि उसका कौन-सा रक्त माहवारी से अधिक निकट है? वह इस तरह की अन्य बातों पर भी विचार करती रहेगी। इसके बाद अगर लगे कि माहवारी के दिन छह होने चाहिए, तो छह मानेगी और अगर लगे कि सात होने चाहिए, तो सात मानेगी।
उस स्त्री का हाल जो इसतिहाज़ा वाली स्त्री के समरूप होती है:
कभी-कभी स्त्री के साथ गर्भाशय का ऑपरेशन आदि कोई ऐसी घटना हो जाती है, जो उसकी योनि से रक्तस्राव का सबब बन जाती है। इस अवस्था के दो प्रकार हैं:
पहला: यह मालूम हो कि ऑपरेशन के बाद वह कभी रजस्वला नहीं हो सकती। मसलन ऑपरेशन द्वारा गर्भाशय को निकाल दिया गया हो या इस तरह बंद कर दिया गया हो कि उससे रक्त न आ सके। इस प्रकार की स्त्री के लिए इसतिहाज़ा से संबंधित मसायल साबित नहीं होंगे। वह ऐसी स्त्री के समान होगी जो पीला अथवा मटमैला रसाव अथवा पाक होने के बाद नमी देखे। इस प्रकार की स्त्री नमाज़ एवं रोज़ा नहीं छोड़ेगी तथा उससे संभोग करने मना नहीं होगा। इस प्रकार के रक्त के बाद स्नान करना भी अनिवार्य नहीं है। हाँ, नमाज़ के समय रक्त धो लेना होगा और रक्त को निकलने से रोकने के लिए कपड़ा आदि बाँधना लेना होगा और उसके बाद नमाज़ के लिए वज़ू करना होगा। नमाज़ यदि समय से जुड़ी हुई हो, जैसे पाँच वक़्त की फ़र्ज़ नमाज़ें, तो समय प्रवेश करने के बाद ही वज़ू करना होगा, और यदि समय से जुड़ी हुई न हो, जैसे आम नफ़ल नमाज़ें, तो नफ़ल पढ़ने का इरादा करते समय ही वज़ू करना होगा।
दूसरा: यह मालूम न हो कि ऑपरेशन के बाद माहवारी बंद ही हो जाएगी, बल्कि उसके आने की संभावना भी रहे। इस प्रकार की स्त्री इसतिहाज़ा वाली स्त्री के समान होगी। इसका प्रमाण अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कहे हुए ये शब्द थे, जो आपने फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश से फ़रमाए थे: "दरअसल यह माहवारी नहीं, बल्कि एक रग का रक्त है। अतः जब माहवारी का रक्त आए, तो नमाज़ छोड़ दो।" दरअसल इसमें आपके शब्द: "जब माहवारी का रक्त आए" से मालूम होता है कि इसतिहाज़ा वाली स्त्री के समान उसे माना जाएगा, जिसकी माहवारी के आरंभ तथा अंत का पता लगाना मुम्किन हो। इसके विपरीत जिसकी माहवारी का निर्धारण मुम्किन न हो, उसका रक्त हर हाल में रग का रक्त माना जाएगा।
इसतिहाज़ा से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश:
पीछे जो कुछ बयान हुआ, उससे हमने जाना कि रक्त कब माहवारी का शुमार होगा और कब इसतिहाज़ा का? रक्त जब माहवारी का होगा, तो उसके लिए माहवारी से संबंधित आदेश एवं निर्देश साबित होंगे और जब इसतिहाज़ा का होगा तो उसके लिए इसतिहाज़ा से संबंधित आदेश एवं निर्देश साबित होंगे।
पीछे हमने माहवारी से संबंधित महत्वपूर्ण शरई आदेश एवं निर्देशों को बयान कर दिया है।
अब जहाँ तक इसतिहाज़ा से संबंधित शरई आदेशों एवं निर्देशों की बात है, तो याद रहे कि शरई दृष्टिकोण में इसतिहाज़ा पवित्रता के समान है और इसतिहाज़ा वाली एवं पवित्र स्त्री के बीच अंतर केवल निम्नलिखित बातों में है:
पहली बात: इसतिहाज़ा वाली स्त्री पर हर नमाज़ के लिए वज़ू करना ज़रूरी है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश रज़ियल्लाहु अनहा से फ़रमाया था: "फिर हर नमाज़ के लिए वज़ू कर लिया करो।" इसे इमाम बुख़ारी ने अध्याय: ग़स्ल अद-दम में रिवायत किया है। इसका अर्थ यह है कि वह समय से बंधी हुई नमाज़ों के लिए वज़ू नमाज़ का समय प्रवेश करने के बाद ही करेगी। लेकिन यदि नमाज़ समय से जुड़ी हुई न हो, तो उसके लिए वज़ू नमाज़ पढ़ते समय करेगा।
दूसरी बात: इसतिहाज़ा वाली स्त्री जब वज़ू का इरादा करेगी, तो रक्त के निशान को धो देगी योनि में रुई डालकर एक कपड़ा बाँध लेगी, ताकि रक्त न निकल सके। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमना रज़ियल्लहु अनहा से फ़रमाया था: "मैं तुम्हें योनि के अंदर रूई रखने की सलाह देता हूँ। इससे रक्त रुक जाएगा।" लेकिन उन्होंने कहा: रक्त इससे कहीं अधिक आता है। आपने फ़रमाया: "एक कपड़ा रख लो।" उन्होंने कहा कि रक्त इससे भी अधिक है, तो आपने फ़रमाया: "तब किसी चीज़ से कसकर बाँध लो।" इसके बाद भी अगर रक्त बाहर आ जाए, तो कोई हर्ज की बात नहीं है। क्योंकि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़ातिमा बिंत अबू हुबैश से फ़रमाया था: "माहवारी के दिनों में नमाज़ पढ़ने से बचो। फिर स्नान करो और प्रत्येक नमाज़ के लिए वज़ू करो और उसके बाद नमाज़ पढ़ो, यद्यपि रक्त चटाई पर टपकता हो।"
तीसरी बात: संभोग: इस अवस्था में संभोग जायज़ है या नाजायज़, इस बारे में उलेमा के बीच मतभेद है। मतभेद भी केवल उसी सूरत में है, जब संभोग से दूर रहने की स्थिति में गुनाह में पड़ने का भय न हो। सही मत यह है कि चाहे गुनाह का भय़ हो या न हो, संभोग जायज़ है। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में बहुत-सी स्त्रियाँ, जिनकी संख्या दस बल्कि उससे भी अधिक थी, इसतिहाज़े की शिकार हुईं, लेकिन अल्लाह एवं उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे संभोग करने से नहीं रोका। बल्कि अल्लाह तआला का फ़रमान: "माहवारी के समय स्त्रियों से दूर रहो।" [सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 222] इस बात का प्रमाण है कि माहवारी के सिवाय अन्य स्थितियों में स्त्रियों से दूर रहना अनिवार्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब इस अवस्था में नमाज़ की अनुमति है, तो समाज़ तो उससे हल्की चीज़ है। याद रहे कि उससे संभोग की तुलना रजस्वला से संभोग करने से करना उचित नहीं है। क्योंकि अवैध होने का मत रखने वालों के निकट भी दोनों बराबर नहीं हैं और असमान चीज़ के साथ तुलना करना सहीह नहीं है।
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छठा अध्याय: निफ़ास का अर्थ तथा उससे संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश
निफ़ास ऐसा रक्त है, जो प्रसव के कारण गर्भाशय से, प्रसव के साथ, उसके बाद या उससे दो तीन दिन पहले वेदना के साथ निकलता है।
शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या कहते हैं: "प्रसव वेदना आरंभ होते समय जो रक्त नज़र आए, वह निफ़ास है।" उन्होंने दो या तीन दिन पहले होने की बात नहीं कही है। दरअसल वह कहना यह चाहते हैं कि ऐसी वेदना जिसके बाद प्रसव हो, वह निफ़ास है। यदि ऐसा न हो, तो वह निफ़ास नहीं है। फिर, इस बात में उलेमा का मतभेद है कि निफ़ास की निम्नतम एवं अधिकतम अवधि निर्धारित है या नहीं है? शैख़ुल इस्लाम इब्न-ए-तैमिया अपनी एक पुस्तिका (पृष्ठ: 37) में, जिसमें उन संज्ञाओं पर बात की है, जिनसे शरीयत-निर्माता ने अहकाम को जोड़कर बयान किया है, फ़रमाया है: "निफ़ास की निम्नतम एवं अधिकतम अवधि की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। यदि ऐसा हो कि किसी स्त्री को चालीस, साठ या सत्तर दिनों तक रक्त जारी रहे और इसके बाद बंद हो जाए, तो उसे निफ़ास माना जाएगा। लेकिन अगर जारी रहे, तो वह निफ़ास नहीं, बल्कि बीमारी का रक्त होगा और इस परिस्थिति में निफ़ास की सीमा चालीस दिन की होगी, क्योंकि आम तौर पर इतने दिनों में रक्त बंद हो जाता है और इस संबंध में सहाबा के कुछ कथन भी वर्णित हैं।"
मैं कहता हूँ: इस आधार पर, यदि रक्त चालीस दिन के बाद भी जारी रहे और इसके बाद बंद होने की उसकी कोई आदत हो, या फिर जल्द बंद होने की कुछ लक्षण दिखाई दें, तो बंद होने तक प्रतीक्षा करेगी। लेकिन अगर इस तरह की कोई बात न हो, तो चालीस दिन पूरे होने पर स्नान कर लेगी, क्योंकि आम तौर पर इतने दिनों में रक्त बंद हो जाया करता है। हाँ, यदि इसके तुरंत बाद माहवारी का समय आ जाए, तो माहवारी की अवधि समाप्त होने तक बैठी रहेगी। जब इसके बाद रक्त आना बंद हो जाए, तो उसे अपनी आदत शुमार कर लेगी और आने वाले समय में उसी के अनुरूप काम करेगी। परन्तु, यदि इसके बाद भी जारी रहे, तो उसे इसतिहाज़ा का रक्त मानेगी और पीछे इसतिहाज़ा से संबंधित जो शरई आदेश एवं निर्देश गुज़र चुके हैं, उनका पालन करेगी। और अगर चालीस दिन से पहले भी रक्त बंद हो जाए और स्वच्छ हो जाए, तो उसे पवित्र माना जाएगा। अतः वह स्नान केरगी, नमाज़ पढ़ेगी, रोज़ा रखेगी और उसका पति उससे संभोग भी कर सकेगा। मगर हाँ, यदि रक्त एक दिन से कम समय तक के लिए ही बंद रहे, तो उसका कोई एतबार नहीं होगा। यह बात "अल-मुग़नी" के लेखक ने कही है।
याद रहे कि निफ़ास उसी समय सिद्ध होगा, जब स्पष्ट रूप से इनसान के आकार के गर्भ का पतन हो। अतः यदि ऐसे गर्भ का पतन हो, जिसमें इनसान का आकार स्पष्ट न हो, तो उसका रक्त निफ़ास का रक्त नहीं, बल्कि रग का रक्त कहलाएगा और इस प्रकार की स्त्री इसतिहाज़ा वाली स्त्री के समान होगी। स्पष्ट रूप से इनसान का रूप धारण करने की निम्नतम अवधि गर्भ धारण के दिन से 80 दिन है, जबकि अधिकतर अवधि 90 दिन है।
मज्द इब्न-ए-तैमिया कहते हैं: "जब कोई स्त्री प्रसव वेदना के पहले रक्त देखे, तो उसपर ध्यान नहीं देगी और अगर प्रसव वेदना के बाद रक्त देखे तो नमाज़ एवं रोज़ा छोड़ देगी। फिर यदि प्रसव के बाद वास्तविकता ज़ाहिर के विपरीत दिखाई दे, तो क्षतिपूर्ती करेगी और यदि ऐसा न हो तो ज़ाहिर का आदेश जारी रेहगा और उसे लौटाना नहीं होगा।" उनसे यह बात "शर्ह अल-इक़ना " में नक़ल की गई है।
निफ़ास से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश:
निफ़ास से संबंधित शरई आदेश एवं निर्देश वही हैं, जो माहवारी के संबंध में दिए गए हैं, सिवाय निम्नलिखित बिंदुआों के:
पहला अंतर इद्दत से संबंधित है। इसमें एतबार तलाक़ का होता है, निफ़ास का नहीं। क्योंकि यदि प्रसव से पहले दिया जाए, तो इद्दत प्रसव से समाप्त होगी, निफ़ास से नहीं और यदि प्रसव के बाद दिया जाए, तो माहवारी शुरू होने की प्रतीक्षा की जाएगी।
दूसरा अंतर यह है कि ईला की अवधि में माहवारी की अवधि को शुमार किया जाएगा, लेकिन निफ़ास की अवधि को शुमार नहीं किया जाएगा।
ईला: ईला यह है कि कोई व्यक्ति स्थायी रूप से या फिर चार महीने से अधिक समय के लिए अपनी पत्नी से संभोग न करने की क़सम खा ले। यदि कोई इस तरह की क़सम खा ले और उसकी पत्नी संभोग की इच्छा व्यक्त करे, तो उसे चार महीने का समय दिया जाएगा। जब यह समय समाप्त हो जाए, तो उसे संभोग करने या फिर पत्नी की पाँग पर उससे संबंध विच्छेद करने पर विवश किया जाएगा। इस अवधि में यदि निफ़ास का दौर आ जाए, तो उसे इस अवधि में जोड़ा नहीं जाएगा, जबकि इसके विपरीत माहवारी की अवधि को शुमार कर लिया जाएगा।
तीसरा अंतर यह है कि वयस्कता माहवारी से प्राप्त होगी और निफ़ास से प्राप्त नहीं होगी। क्योंकि स्त्री के गर्भवती होने के लिए ज़रूरी है कि उसका वीर्य स्खलन हो। अतः वयस्कता की प्राप्ति वीर्य स्खलन से होगी, जो गर्भधारण से पहले होता है।
चैथा अंतर यह है कि माहवारी का रक्त यदि नियमित समय के अंदर बंद हो जाए और उसके बाद दोबारा आ जाए, तो उसे निश्चित रूप से माहवारी का रक्त माना जाएगा। जैसे किसी स्त्री को नियमित रूप से आठ दिनों तक माहवारी आती हो, लेकिन कभी चार दिन आए, फिर दो दिन बंद रहे और उसके सातवें एवं आठवें दिन आए, तो इस बाद में आने वाले रक्त को निश्चित रूप से माहवारी का रक्त माना जाएगा और इस दौरान माहवारी से संबंधि आदेशों एवं निर्देशों का पालन करना होगा। जबकि निफ़ास का रक्त यदि चालीस दिन पूरे होने से पहले बंद हो जाए और फिर चालीस दिनों के अंदर ही लौट आए, तो उसे संदिग्ध माना जाएगा। इस अवस्था में स्त्री को समय से बंधी हुई फ़र्ज़ नमाज़ों एवं रोज़ों को समय पर अदा करना होगा और उसपर वाजिब कार्यों के अतिरिक्त वह सारी चीज़ें हराम होंगी, जो रजस्वला पर हराम होती हैं। फिर पवित्र होने के बाद उसे इस अवधि में किए गए उन कार्यों की क़ज़ा करनी होगी, जिनकी क़ज़ा रजस्वला को करनी होती है। हंबली फ़क़ीहों का यही मशहूर मत है।
परन्तु इस संबंध में सही मत यही है कि यदि रक्त ऐसे समय में लौटे कि उसे निफ़ास मानना संभव हो, तो उसे निफ़ास माना जाएगा, वरना माहवारी मान लिया जाएगा। मगर यदि निरंतर जारी रह जाए, तो इसतिहाज़ा माना जाएगा।
यह मत इमाम मालिक के उस मत से मिलता-जुलता है, जिसे "अल-मुग़नी" के लेखक ने इमाम मालिक से नक़ल किया है। इस पुस्तक के लेखक कहते हैं: इमाम मालिक ने कहा है: "यदि रक्त, बंद होने के दो या तीन दिनों के बाद नज़र आए, तो वह निफ़ास है, वरना माहवारी।" तथा यही शैख़ुल इस्लाम इब्न-तैमिया के मत के अनुरूप भी है।
वास्तविकता यह है कि कोई भी रक्त संदिग्ध नहीं होता। दरअसल संदेह एक सापेक्ष वस्तु है, जो लोगों के ज्ञान एवं बुद्धि के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। जबकि अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत में हर वस्तु का स्पष्ट विवरण है। साथ ही पवित्र अल्लाह ने किसी को दो बार रोज़ा रखने अथवा दो बार तवाफ़ करने का पाबंद केवल उसी समय बनाया है, जब पहली बार कोई ऐसी कमी रह जाए, जिसकी पूर्ति दोबारा किए बिना संभव न रहे। लेकिन किसी ने अपने ऊपर डाली गई ज़िम्मेवारी निर्वहण शक्ति अनुसार कर लिया, तो उसकी ज़िम्मेवारी समाप्त हो गई। जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: {अल्लाह किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक (दायित्व का) भार नहीं सखता।} [सूरा अल-बक़रा: 286] एक अन्य स्थान में फ़रमाया है: "अल्लाह से, जहाँ तक हो सके, डरते रहो।" [सूरा अत-तग़ाबुन, आयत संख्या: 16]
माहवारी एवं निफ़ास के बीच पाँचवाँ अंतर यह है कि रजस्वला यदि नियमित समय से पहले पाक हो जाए, तो बिना किसी कराहत के उससे संभोग जायज़ है, जबकि यदि निफ़ास में चालीस दिनों से पहले पाक हो जाए, तो हंबली मसलक के मशहूर मत अनुसार उससे संभोग करना मकरूह है। हालाँकि सही यह है कि उससे संभोग मकरूह नहीं है। यही जमहूर उलेमा का मत है। क्योंकि कराहत एक शरई आदेश है, जिसके लिए शरई प्रमाण की आवश्यकता होती है। जबकि इस मसले में प्रमाण के नाम पर केवल उसमान बिन अबुल आस रज़ियल्लाहु अनहु का बस एक कथन मौजूद है, जिसे इमाम अहमद ने नक़ल किया है और जिसमें है कि उनकी पत्नी उनके पास चालीस दिन पूरे होने से पहले आई, तो उन्होंने कहा: तुम मेरे निकट मत आओ। जबकि इससे भी निश्चित रूप से कराहत सिद्ध नहीं होती। क्योंकि यहाँ इस बात की संभावना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि उन्हें भय था कि उनकी पत्नी को पवित्र होने का पूर्ण विश्वास नहीं है या फिर इस बात का डर था कि संभोग के कारण निफ़ास का रक्त फिर से आने न लगे या फिर इस तरह के और भी कारण हो सकते हैं।
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सातवाँ अध्याय: माहवारी को रोकने वाली अथवा उसे लाने वाली तथा गर्भ निरोधक अथवा गर्भपात कराने वाली दवाओं का सेवन
माहवारी को रोकने वाली दवाओं का सेवन दो शर्तों के साथ जायज़ है:
पहली शर्त: उससे किसी हानि की आशंका न हो। यदि हानि की आशंका हो, तो उसका सेवन जायज़ नहीं होगा। क्योंकि अल्लाह तआला का फ़रमान है: "और अपने आपको विनाश में न डालो।" [सूरा अल-बक़रा, आयत संख्या: 195] “और तुम अपने आप को क़त्ल न करो। बेशक अल्लाह तुमपर दया करने वाला है।" [सूरा अन-निसा, आयत संख्या: 29]
दसूरी शर्त: यदि दवा के सेवन का सेवन करने वाली स्त्री के पति से किसी प्रकार का संबंध हो, तो उसकी अनुमति प्राप्त करना। जैसे स्त्री अपने पति की इद्दत इस प्रकार गुज़ार रही हो कि उसका भरण-पोषण उसके पति को करना पड़ रहा हो। ऐसे में यदि वह माहवारी को रोकने वाली दवाओं का सेवन कर इद्दत की अवधि बढ़ाना और अधिक समय तक भरण-पोषण का लाभ उठाना चाहे, तो उसे इसकी अनुमति नहीं दी जाएगी। वह इस अवस्था में माहवारी रोकने वाली दवाएँ उसी समय ले सकती है, जब उसका पति उसे इसकी अनुमति दे। इसी तरह यदि यह सिद्ध हो जाए कि माहवारी को रोकने के कारण गर्भ धारण असंभव हो जाएगा, तो पति की अनुमति लेना ज़रूरी होगा। याद रहे कि माहवारी रोकने वाली दवाओं का सेवन जायज़ होने की अवस्था में भी बेहतर यही है कि बिना ज़रूरत उसका सेवन न किया जाए। क्योंकि प्रकृति को अपना काम करते देते रहना स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के दृष्टिकोण से अधिक अच्छा है।
जहाँ तक माहवारी लाने वाली दवाओं के सेवन का प्रश्न है, तो उनका सेवन भी दो शर्तों के साथ जायज़ है:
पहली शर्त: इस प्रकार की दवाओं के सेवन का उद्देश्य किसी वाजिब कार्य को टालना न हो। जैसे कोई इनका प्रयोग रमज़ान के निकट इस उद्देश्य से करे कि रोज़ा न रखना पड़े या फिर इसलिए करे कि नमाज़ न पढ़नी पड़े।
दूसरी शर्त: इनका सेवन पति की अनुमति से किया जाए। क्योंकि माहवारी आने के बाद पति के लिए अपनी पत्नी से संपूर्ण रूप से लाभान्वित होना संभव नहीं है। अतः उसकी सहमति के बिना उसे उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। तलाक़शुदा स्त्री भी पति के अनुमति के बिना इन दवाओं का सेवन नहीं किर सकती, क्योंकि इसमें पति को, यदि उसे रजअत (लौटाने) का अधिकार हो, तो उसके अधिकार से वंचित करने की बात है।
जहाँ तक गर्भनिरोधक दवाओं के सेवन की बात है, तो इनके दो प्रकार हैं:
पहला: दवा, गर्भ धारण की क्षमता को स्थायी रूप से ख़त्म कर दे। इस प्रकार की दवाओं का सेवन जायज़ नहीं है। क्योंकि यह शरीयत-निर्मता के उद्देश्य के विपरीत है, जो चाहता है कि दुनिया में मुसलमानों की संख्या अधिक से अधिक हो। साथ ही इस आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता कि उसके इस समय मौजूद बच्चे मर जाएँ और निःसंतान होकर रह जाए।
दूसरा: दवा अस्थायी रूप से गर्भ धारण को रोके। मसलन कोई स्त्री अत्यधिक गर्भ धारण करने वाली हो और अत्यधिक गर्भ धारण के कारण दुर्बल हो जाती हो, जिसके कारण दो वर्ष या इस तरह की किसी और अवधि में एक बार गर्भ धारण करना चाहती हो, तो उसे इसकी अनुमति होगी, इस शर्त के साथ कि उसका पति उसे इसकी अनुमति दे दे और इससे उसे कोई हानि न हो। इसका प्रमाण यह है कि सहाबा अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में अपनी पत्नियों से संभोग के समय इस भय से वीर्य का स्खलन योनि के बाहर करते थे कि कहीं वे गर्भवती न हो जाएँ और उन्हें इससे मना नहीं किया गया।
जहाँ तक गर्भपात की दवाओं के सेवन की बात है , तो इसकी दो सूरतें हैं:
पहली: गर्भपात का उद्देश्य भूरण को नष्ट करना हो। ऐसा भूरण में प्राण डालने के बाद किया जाता है, तो निश्चित रूप से हराम है। क्योंकि यह एक बेगुनाह प्राण की नाहक़ हत्या है और किसी बेगुनाह प्राण की हत्या हराम होना क़ुरआन एवं सुन्नत से प्रमाणित है और इसपर तमाम मुसलमानों का मतैक्य है। लेकिन यदि शिशु में प्राण डालने से पहले किया जाता है, तो उसके जायज़ होने के बारे में उलेमा का मतभेद है। कुछ लोगों ने जायज़ कहा है, तो कुछ लोगों ने नाजायज़। कुछ लोगों का कहना है कि जमा हुआ रक्त बनने यानी चालीस दिन गुज़रने से पहले तक जायज़ है और कुछ लोगों का कहना है कि गर्भ के इनसानी रूप में आने से पहले तक जायज़ है।
लेकिन सावधानी की बात यह है कि बिना ज़रूरत गर्भपात कराने से बचा जाए। मसलन यदि माँ बीमार रहती हो और गर्भ को संभालने की स्थिति में न हो या इस तरह की कोई और बात हो, तो ऐसी अवस्था में गर्भपात करनाना जायज़ होगा। परन्तु, यदि इतना समय बीत जाए कि वह मानव रूप धारण कर ले, तो जायज़ नहीं होगा। और अल्लाह ही बेहतर जानता है।
दूसरी: गर्भपात का उद्देश्य गर्भ को नष्ट करना न हो, बल्कि गर्भ काल की समाप्ति तथा प्रसव का समय निकट आने पर प्रसव कराना हो। इस सूरत में दवा का सेवन जायज़ है। लेकिन शर्त यह है कि इससे माता एवं शिशु को हानि न हो और ऑपरेशन की आवश्यकता न हो। यदि ऑपरेशन की आवश्यकता हो, तो इसकी चार अवस्थाएँ हो सकती हैं:
पहली अवस्था: माता एवं शिशु दोनों जीवित हों। इस अवस्था में ऑपरेशन उसी समय जायज़ होगा, जब उसकी आवश्यकता हो। मसलन बिना ऑपरेशन के प्रसव कठिन दिखाई देता हो। इसका कारण यह है कि इनसान का शरीर उसके पास अल्लाह की अमानत है। अतः किसी बड़ी मसलहत के बिना उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। एक और बात भी है। कभी-कभी लगता है कि ऑपरेशन से कोई हानि नहीं होगी, लेकिन हानि हो जाती है।
दूसरी अवस्था: माता एवं शिशु दोनों मृत हों। ऐसा में ऑपरेशन जायज़ नहीं है। क्योंकि इसका कोई फ़ायदा नहीं है।
तीसरी अवस्था: माता जीवित हो और शिशु मृत। इस अवस्था में यदि माता को हानि का भय न हो, तो बच्चे को निकालने के लिए ऑपरेशन करना जायज़ होगा। क्योंकि सामान्य रूप से मृत शिशु के बिना ऑपरेशन के पैदा होने की आशा कम ही होती है। अतः पेट में उसका रह जाना हानिकारक होने के साथ-साथ स्त्री की प्रजनन शक्ति को नष्ट भी कर सकता है। साथ ही यदि वह पूर्व पति की इद्दत गुज़ार रही हो, तो उसे इद्दत का गणना में कठिनाई हो सकती है।
चौथी अवस्था: माता मृत और शिशु जीवित हो। ऐसी अवस्था में यदि शिशु के जीवित रहने की आशा न हो, तो ऑरेशन करना जायज़ नहीं होगा।
इसके विपरीत यदि उसके जीवित रहने की आशा हो और उसका कुछ भाग निकल भी गया हो, तो शेष भाग को निकालने के लिए ऑपरेशन किया जाएगा। लेकिन यदि उसके शरीर का कोई भी भाग न निकला हो, तो हमारे मसलक के उलेमा ने कहा है कि ऑपरेश नहीं किया जाएगा। उनका तर्क यह है कि यह मुसला यानी शरीर के अंग काटना है। लेकिन सही मत यह है कि यदि बिना ऑपरेशन के शिशु को निकालना संभव न हो, तो ऑपरेशन किया जाएगा। इसी मत को इब्न-ए-हुबै रा ने अपनाया है और "अल-इनसाफ़" में इसे सबसे उत्तम मत कहा गया है।
मैं कहता हूँ: विशेष रूप से हमारे इस दौर में तो इसी पर अमल किया जागा। क्योंकि ऑपरेशन मुसला यानी शरीर के अंग काटना नहीं है। क्योंकि इसमें पेट काटकर उसे सी दिया जाता है। दूसरी बात यह है कि जीवित का सम्मान मृत के सम्मान से अधिक महत्व रखता है। तीसरी बात यह है कि मासूम को विनाश से बचाना अनिवार्य होता है और गर्भ में पल रहा शिशू भी मासूम होता है, अतः उसे बचाना ज़रूरी होगा। और अल्लाह ही बेहतर जानता है।
टिप्पणी: पीछे बयान की गई जिन परिस्थितियों में गर्भपात कराना जायज़ है, उनमें गर्भ वाले, जैसे स्त्री के पति की अनुमति लेना ज़रूरी होगा।
इसी के साथ हम इस महत्वपूर्ण विषय में जो कुछ लिखना चाहते थे, उसकी समाप्ति हुई। हमने केवल सैद्धांतिक एवं मूल बातें ही बयान की हैं। वरना, उपविषयों तथा उनके विवरणों की तो कोई सीमा ही नहीं है। वैसे समझदार लोग इन सैद्धांतिक एवं मूल बातों से विवरण प्राप्त कर सकते हैं और बहुत-सी बातों के संबंध में शरई दृष्टिकोण उन जैसी अन्य बातों से तुलना कर प्राप्त कर सकते हैं।
शरई मसला बताने वाले हर व्यक्ति को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह रसूलों की शक्षाओं को पहुंचाने और लोगों के सामने उनकी व्याख्या करते समय अल्लाह और उसकी सृष्टि के बीच माध्यम का किरदार निभाता है और उसके कंधों पर क़ुरआन एवं हदीस की शिक्षाओं को आम करने की ज़िम्मेवारी है। क्योंकि क़ुरआन एवं हदीस ही वह स्रोत हैं, जिनको समझने और जिनपर अमल करने का पाबंद हर इनसान को बनाया गया है। हर वह बात, जो क़ुरआन एवं सुन्नत से टकराती हो, गलत है। उसे उसके कहने वाले के मुँह पर मार दिया जाएगा और उसपर अमल करना जायज़ नहीं होगा। हाँ, ऐसा हो सकता है कि उसे कहने वाला सही शरई मसला जानने का समुचित प्रयास करने वाला और क्षमा का पात्र रहा हो और उसे उसके प्रयास का प्रतिफल भी मिले, लेकिन उसकी बात के गलत होने का ज्ञान रखने वाले किसी व्यक्ति के लिए उसे ग्रहण करना जायज़ नहीं है।
इसी तरह शरई मसला बताने वाले के लिए अनिवार्य है कि विशुद्ध रूप से अल्लाह के लिए कार्य करने की नीयत रखे, सामने आने वाली हर घटना के बारे में उसी की मदद माँगे तथा उसी सुदृढ़ता एवं धर्म पर अडिग रहने का सुयोग माँगे।
इसी तरह वह अनिवार्य रूप से क़ुरआन एवं सुन्नत पर भरोसा करे। उन दोनों का अध्ययन करे, गवेषणा करे और मुस्लिम विद्वानों के जो कथन उन दोनों को समझने में सहायक हों, उनका अध्ययन करे।
कई बार ऐसा होता है कि कोई नया मसला सामने आने पर आदमी उसके बारे में मुस्लिम विद्वानों के मत ढूँढने लगता है और उसके शरई आदेश के संबंध में कोई संतोषजनक ऐसा मत नहीं पाता, बल्कि कभी-कभी तो उसके बारे में किसी का कोई मत ढूँढ निकालने में सफल नहीं होता, लेकिन जब क़ुरआन एवं सुन्नत का अध्ययन करता है, तो वहाँ उसके बारे में बड़ी हद तक स्पष्ट आदेश प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। दरअसल यह सफलता इनसान की निष्ठा, ज्ञान एवं विवेक के अनुसार प्राप्त होती है।
शरई मसला बताने वाले को चाहिए कि जब कोई कठिन मसला सामने हो, तो उसके संबंध में शरई दृष्टिकोण बताने में जल्दी न दिखाए और सोच-विचार से काम लेकर बताए। क्योंकि बहुत-सी जल्दबाज़ी में बताई गई बातें थोड़े-से सोच-विचार के बाद ग़लत सिद्ध हो जाती हैं और बताने वाले के सिर लज्जा से झुक जाता है। बल्कि कई बार तो उसे अपनी गलती को सुधारने का अवसर भी नहीं मिलता।
साथ ही जब किसी शरई मसला बताने वाले के बारे में लोगों को पता चलेगा कि वह सोच-विचार और छानबीन के बाद बात करता है, तो उसपर भरोसा तथा उसकी बात पर विश्वास करेंगे। इसके विपरीत जब किसी को जल्दबाज़ी से काम लेते हुए देखेंगे, तो चूँकि जल्दबाज़ी से काम लेने वाला अकसर गलती कर बैठता है, इसलिए लोग उसकी बात पर विश्वास करना छोड़ देंगे। इस तरह वह अपनी जल्दबाज़ी तथा गलतियों के कारण अपने आप को तथा अन्य लोगों को अपने ज्ञान के लाभ से वंचित कर देगा।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि हमारा और हमारे मुसलमान भाइयों को सीधा मार्ग दिखाए, हमें अपने संरक्षण में रखे और भटकाव से सुरक्षित रखे। निश्चय ही वह दाता एवं दयावान है। दरूद एवं सहलाम हो हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एवं आपके परिवार के लोगों एवं साथियों पर। अंत में सारी प्रशंसा अल्लाह की है, जिसकी कृपा से सारे अच्छे कार्य संपन्न होते हैं।
इस पुस्तिका का लेखन कार्य
मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन
के द्वारा जुमा के दिन चाश्त के समय,
14 शाबान, सन 1392 हिजरी को संपन्न हुआ।