इस्लाम धर्म (⮫)


 इस्लाम धर्म

शुरू अल्लाह के नाम से, जो बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है।

 भूमिका

सभी प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है। हम उसी की तारीफ़ करते हैं, उसी से सहयोग माँगते हैं, उसी के सामने क्षमा प्रार्थि हैं, तथा हम अपनी आत्मा और अपने कर्मों की बुराइयों से अल्लाह की शरण माँगते हैं। वह जिसे सत्य मार्ग दिखाए उसे कोई पथभ्रष्ट नहीं कर सकता, और वह जिसे गुमराह करे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं, और मैं साक्षी हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।

(तत्पश्चात)...

आज एक ऐसी संक्षिप्त एवं सरल पुस्तक की अत्यंत आवश्यकता है, जो इस्लाम धर्म को व्यापकता के साथ आस्था, आराधना, व्यवहार एवं शिष्टाचार आदि के असुलों के साथ लोगों के सामने पेश करे। जिसका पाठक इस्लाम धर्म के संबंध में एक स्पष्ट, व्यापक एवं संपूर्ण दृष्टिकोण प्राप्त कर सके, जिसे इस्लाम ग्रहण करने वाला कोई भी व्यक्ति इस्लाम के धार्मिक क्रिया-कलापों, शिष्टाचारों एवं आदेशों तथा निषेधों को सीखने के लिए प्रथम संदर्भ के रूप में प्रयोग में ला सके, और यह किताब अल्लाह की ओर बुलाने वाले लोगों को हासिल हो, सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हो, इस्लाम के बारे में सवाल करने वाले और इस्लाम ग्रहण करने वाले सभी व्यक्ति को दिया जा सके और उसके ज़रिए अल्लाह जिसे चाहे हिदायत दे दे,और पथ भ्रष्ट लोगों के विरुद्ध प्रमाण स्थापित हो जाए।

इस किताब को लिखने का काम आरंभ करने से पहले कुछ ऐसे नियमों का निर्धारण आवश्यक है, जिनका लेखक की ओर से पालन किया जाएगा, ताकि उनके माध्यम से इस पुस्तक का मूल उद्देश्य प्राप्त हो सके। उनमें से कुछ उद्देश्य यहाँ बयान किए जा रहे हैं:

इस्लाम को मानव निर्मित सिद्धांतों एवं अह्ले कलाम द्वारा रचित पद्धतियो के बजाय पवित्र क़ुरआन की आयतों एवं अल्लाह के नब़ी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत के आलोक में प्रस्तुत किया जाएगा। इसके कई कारण भी हैं:

क- महान अल्लाह की वाणी को सुनने और समझने से जिसके भाग्य में अल्लाह हिदायत लिखा होता है वह हिदायत पा जाता है ,और कट्टर, ज़िद्दी एवं गुमराह पर दलील क़ायम हो जाती है। जैसा कि महान अल्लाह ने कहा है: "और यदि अनेके-ईश्रवरवादियों में से कोई तुमसे शरण माँगे तो उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की बातें सुन लें, फिर उसे पहुँचा दो उसके सुरक्षित स्थान तक।" [सूरह अल-तौबा: 6]، जबकि मानव निर्मित शैलियों एवं अह्ल-ए-कलाम द्वारा रचित पद्धतियों, जिनमें कमियाँ एवं ख़ामियाँ पाई जाती हैं, के द्वारा दलील क़ायम करने और संदेश पहुँचाने का काम पूर्ण रूप से नहीं होता।

ख- अल्लाह तआला ने हमें अपने धर्म एवं वह्य को उसी प्रकार दूसरों को पहुँचाने का आदेश दिया है जिस प्रकार उनको उतारा गया है। उसने हमें लोगों के मार्गदर्शन के लिए अपनी ओर से ऐसी पद्धतियाँ रचने का आदेश नहीं दिया है यह सोचते हुए कि हम उनके द्वारा उनके दिलों तक पहुँचेंगे। ऐसे में हमें जिस चीज़ का आदेश दिया गया है, उसे छोड़ कर ऐसी चीज़ में दिमाग़ क्यों खपाएं जिसका हमें आदेश दिया ही नहीं गया है?

ग- अल्लाह की ओर बुलाने की दूसरी शैलियाँ, जैसे विरोधियों के अक़ीदा, इबादत, आचरण, शिष्टाचार अथवा अर्थ व्यवस्था से संबंधित क्षेत्रों मे उनके विचलन के बारे विस्तार से बात करना एवं उनका खंडन करना, या बौद्धिक एवं वैचारिक बहसों से काम लेना, जैसे अल्लाह के अस्तित्व को सिद्ध करने के संबंध में बात करना -हांलांकि अल्लाह उन ज़ालिमों की कही हुई बात से बहुत उपर है- या फिर तौरात, इंजील तथा अन्य धर्म ग्रंथों में हुए विरूपण के बारे बात करना और उनके अंतर्विरोध एवं असत्यता को सामने लाना। यह सारी पद्धतियाँ एवं शैलियाँ विरोधियों की धारणाओं एवं आस्थाओं के ग़लत होने का वर्णन करने का ज़रिया हो सकती हैं, इसी तरह एक मुसलमान के लिए सांस्कृतिक संपदा हो सकती हैं, हालाँकि इनसे अनभिज्ञता उसके लिए नुक़सानदेह भी नहीं है, परन्तु यह अल्लाह की ओर बुलाने के मिशन का आधार बिल्कुल भी नहीं हो सकतीं।

घ- जो लोग उपयुक्त पद्धतियों से इस्लाम में प्रवेश करते हैं, वे सही मायने में मुसलमान भी हों, ऐसा ज़रूरी नहीं है। क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि कोई इस्लाम के किसी विशेष मसला से प्रभावित होकर उसको ग्रहण कर लिया हो, जिसके बारे में उसके साथ विस्तार से बात की गयी है, हो सकता है कि वह इस्लाम की अन्य बुनियादी बातों पर विश्वास न रखता हो। जैसा कि कोई इस्लामी अर्थ व्यवस्था की विशेषताओं से प्रभावित हो, लेकिन आख़िरत (परलोक) पर ईमान न रखता हो या फिर जिन्न एवं शैतान आदि के अस्तित्व को न मानता हो।

दरअसल इस प्रकार के लोगों से इस्लाम को लाभ से अधिक नुक़सान पहुँचता है।

ङ- क़ुरआन का इन्सान के हृदय एवं आत्मा पर अपना एक अलग प्रभाव होता है। अतः जब हृदय को क़ुरआन से प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित होने दिया जाता है, तो वह उसके आह्वान को ग्रहण कर लेता है और ईमान एवं धर्मपरायणता की ऊँची श्रेणियाँ प्राप्त करता जाता है। लिहाज़ा दोनों के बीच रुकावट उत्पन्न करना उचित नहीं है।

इस धर्म को प्रस्तुत करने में प्रतिक्रियाएँ, वास्तविकता का दबाव तथा पिछली पृष्ठभूमियां हस्तक्षेप न करें, बल्कि इसे उसी तरह प्रस्तुत किया जाए जैसे उतरा था। लोगों को संबोधित करने और उन्हें धर्मपरायणता के मार्ग पर ले जाने का वही तरीक़ा अपनाया जाए जो उसने अपनाया है।

किताब की शैली जहाँ तक हो सके संक्षिप्त एवं सरल हो, ताकि उसे कहीं ले जाना और उसका आदान प्रदान आसान हो।

मान लीजिए कि हमने इस कार्य को पूरा कर लिया, इस किताब का अनुवाद करवाया, इसकी दस मिलियन कापयाँ छपवाईं, फिर वो दस मिलियन लोगों के हाथों में चली गईं और उसमें उल्लिखित आयतों एवं हदीसों पर केवल एक प्रतिशत लोग ही ईमान लाए तथा निन्यानवे प्रतिशत लोगों ने उन्हें नकारते हुए उनसे मुँह फेर लिया, लेकिन यह एक व्यक्ति हमारे पास डरते हूए आता है तथा ईमान एवं धर्मपरायणता की आकांक्षा रखता है, तो ऐ मेरे सम्मानित भाई क्या आपको पता है कि इस एक प्रतिशत का मतलब एक लाख लोगों का इस्लाम धर्म ग्रहण करना है? यह निस्संदेह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। अल्लाह आपके द्वारा एक व्यक्ति को भी सत्य का मार्ग दिखा दे तो यह आपके लिए लाल ऊँटों से उत्तम है।

बल्कि यदि इनमें से एक भी व्यक्ति ईमान नहीं लाता है और सब लोग इस धर्म से मुँह फेर लेते हैं, तब भी इतना तो है कि हमने अपनी ज़िम्मेदारी अदा कर दी और वह संदेश पहुँचा दिया जिसे अल्लाह ने हमारे ज़िम्मे किया था।

अल्लाह की ओर बुलाने वालों का मिशन लोगों को इस्लाम से संतुष्ट कराना नहीं है, जैसा कि पवित्र क़ुरआन की इस श्लोक में बयान किया गया है: "(हे नबी!) आप ऐसे लोगों को सुपथ दिखाने पर लोलुप हों, तो भी अल्लाह उसे सुपथ नहीं दिखाएगा, जो कुपथ को चुन ले।" [सूरा अन-नह्ल, आयत संख्या: 37] परन्तु उनका असल मिशन वही है जो अल्लाह के अंतिम नब़ी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का मिशन है, जिनके बारे महान अल्लाह ने कहा है: "हे रसूल! जो कुछ आप पर आपके रब की तरफ से उतारा गया है, उसे (सबको) पहुँचा दें और यदि ऐसा नहीं किया तो आपने उसका संदेश नहीं पहुँचाया और अल्लाह लोगों (विरोधियों) से आपकी रक्षा करेगा।" [सूरह अल-माइदा: 67]

पवित्र एवं महान अल्लाह से दुआ है कि हम सभी को तमाम लोगों तक अल्लाह का दीन पहुँचाने के लिए एक-दूसरे का सहयोगी बनाए, हमें भलाई की कुंजी, उसका आह्वानकर्ता, बुराई का द्वार बंद करने वाले और उस के सामने डट जाने वाले बनाए। अल्लाह की कृपा हो हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर।

प्रिय पाठक!

आपके हाथ में यह किताब आपको विस्तृत रूप से इस्लाम धर्म का परिचय देती है एवं इसके सभी पहलुओं जैसे कि आस्थाओं, शिष्टाचारों, विधि-विधानों एवं समस्त शिक्षाओं से रू-ब-रू कराती है।

मैंने इसे लिखते समय कुछ मूल बातों का ध्यान रखा है:

1- इस्लाम की उन मूल बातों पर ध्यान केंद्रित रखना जिन पर वह आधारित है।

2- जहाँ तक संभव हो, संक्षिप्त से काम लेना।

3- इस्लाम को उसके मूलभूत स्रोतों (पवित्र क़ुरआन एवं अल्लाह के अंतिम रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीस) के आलोक में इस तरह पेश करना कि पाठक इस्लाम, एवं उसकी शिक्षाओं व उपदेशों को सीधे उसके असल स्रोतों से प्राप्त करे।

प्रिय पाठक! किताब के अंत तक पहुँचने के बाद आपको इस बात का अनुभव होगा कि आपने इस्लाम धर्म के बारे में एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्राप्त कर लिया है, जिसके बाद आप इसके बारे में अधिक जानकारियों की सीढ़ी चढ़ते जा सकते हैं।

यह किताब लोगों के बहुत बड़े समूह को सामने रखकर लिखी गई है। इसका लक्ष्य वह लोग हैं जो इस्लाम धर्म को ग्रहण करना एवं उसके अक़ीदों, शिष्टाचारों एवं विधि-विधानों को सीखना चाहते हैं।

इसके लक्ष्य में वह लोग भी शामिल हैं जो विभिन्न धर्मों, विशेष रूप से उन धर्मों को जानना चाहते हैं जिन्हें करोड़ों लोग मानते हैं। इसी तरह इसके लक्ष्य में इस्लाम के वह मित्र भी शामिल हैं जो उससे हमदर्दी रखते हैं और उसकी कुछ बातों से प्रभावित हैं। साथ ही इसके लक्ष्य में इस्लाम के वह शत्रु और आलोचक भी शामिल हैं जिनकी इस्लाम से अज्ञानता ही कभी-कभी उनकी इस शत्रुता एवं नफरत का मूल कारण बनती है।

इस किताब के लक्ष्य में जो लोग आते हैं, उनमें वह मुसलमान बहुत हद तक पहले हैं, जो लोगों के सामने इस्लाम धर्म की व्याख्या करना चाहता हैं। यह किताब उन लोगों का काम आसान कर देगी और उनके मिशन को सरल बना देगी।

प्रिय विवेकी पाठक! यदि आपके दिमाग़ में इस्लाम के बारे में पहले से कोई विचार नहीं है तो आप को इस किताब में मौजूद अंतर्वस्तुओं का अर्थ समझने के लिए इस को ध्यान पूर्वक एवं संजीदगी से पढ़ने की ज़रूरत है। लेकिन आप इससे परेशान न हों, आपके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कई इस्लाम वेबसाइट मौजूद हैं।


 1- कलिमा-ए-तौह़ीद (ला इलाहा इल्लल्लाह)

इस्लाम धर्म का मूल आधार कलिमा-ए-तौहदीस "ला इलाहा इल्लल्लाहु" है। इस सशक्त आधार के बिना इस्लाम का विशाल भवन खड़ा नहीं हो सकता। यह प्रथम शब्द समूह है जिसे किसी भी इस्लाम में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के लिए, उसपर विश्वास रखते हुए और उसके सारे अर्थों व तात्परयों पर आस्था रखते हुए ज़बान से बोलना ज़रूरी है। "ला इलाहा इल्लल्लाहु" का अर्थ क्या है?

"ला इलाहा इल्लल्लाह" का अर्थ है:

- इस कायनात का सृष्टिकर्ता कोई नहीं मगर अल्लाह है।

- इस जगत का मालिक एवं संचालक कोई नहीं मगर अल्लाह है।

- अल्लाह के अलावा कोई भी उपासना का हक़दार नहीं है।

अल्लाह ही ने इस विशाल, सुंदर और अनूठे ब्रह्मांड को पैदा किया है। यह आकाश, अपने विशाल तारा मंडल और ग्रहों के साथ, एक विस्तृत प्रणाली अद्भुत गति में घूम रहा है, उन्हें अल्लाह ही ने थाम रखा है। यह धरती एवं उसके पर्वत, वादियाँ, झरने और नहरें, पेड़-पौधे एवं लहलहाती फसलें, हवा एवं पानी, थल एवं समुद्र, दिन एवं रात, और इसमें रहने एवं चलने वाली चीजें, सबको अल्लाह ने ही पैदा किया है, और उन्हें अनस्तित्व से अस्तित्व में लाया है।

महान अल्लाह ने अपनी पवित्र किताब में कहा है: "तथा सूर्य अपनी मंज़िल की तरफ चलता रहता है, यह प्रबंध उस अल्लाह का निर्धारित किया हुआ है जो बड़ा प्रभुत्वशाली एवं सर्वज्ञ है। तथा हमने चन्द्रमा की मंजिलें निर्धारित कर दी हैं, यहाँ तक कि फिर वह खजूर की पुरानी, पतली डाली के समान हो जाता है। न तो सूर्य के लिए ही संभव है कि वह चन्द्रमा को पा ले और न रात दिन से पहले आ सकता है, सब एक खगोल में तैर रहे हैं। [सूरह यासीन: 38-40]

"तथा हमने धरती को फैला दिया है, और उसमें पर्वत के कील गाड़ दिए तथा उस में हर प्रकार के सुन्दर पौदे उगा दिए हैं। इन बातों में अल्लाह की तरफ लौट कर आने वालों के लिए शिक्षा एवं सदुपदेश है। तथा हमने आकाश से शुभ जल उतारा, फिर उसके द्वारा हमने बाग़ीचे तथा खेतों के दाने उगाए। तथा खजूर के ऊँचे वृक्ष, जिनके गुच्छे गुथे हुए हैं।" [सूरह क़ाफ़: 7-10]

यह सारी चीज़ें अल्लाह की बनाई हुई हैं। उसने धरती को निवास के लायक़ बनाया और उसमें अवशोषित करने की उतनी ही विशेषता प्रदान की जितनी जीवन को आवश्यकता हो। उसमें न इतनी अधिक कशिश होती है कि चलना-फिरना कठिन हो जाए और न इतना कम कि जनतू का उसमें ठहरना मुशकिल हो जाए। उसने हर चीज़ को एक विशेष परिमाण में रखा है।

उसने आकाश से शुद्ध जल उतारा, जिसके बिना जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है। "तथा हमने पानी से प्रत्येक जीवित चीज़ को बनाया।" [सूरह अल-अंबिया: 30] फिर अल्लाह ने उससे पौधे एवं फल उगाए, जानवरों एवं इन्सान के लिए पीने का प्रबंध किया, ज़मीन को उसे संग्रह करने का योग्य बनाया और उसमें नहरें एवं नदियाँ बहा दीं।

इसी तरह उस ने इससे ऐसे बाग़ीचे उगाए जिनके पेड़-पौधे, फल-फूल और ख़ूबसूरती एवं सुंदरता देखती ही बनती है। अल्लाह ही है जिसने अपनी पैदा की हुई हर चीज़ को सुंदर बनाया और मनुष्य की सृष्टि का आरंभ मिट्टी से किया।

पहला इन्सान जिसको अल्लाह ने पैदा किया वह मानव-पिता आदम अलैहिस्सलाम हैं। उन्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर उनके शरीर के सारे अंग ठीक किए, फिर उनको आकार दिया और उनके अंदरआत्मा फूँक दी। फिर उनसे उनकी पत्नी को पैदा किया। फिर एक तुच्छ जल के निचोड़ यानी वीर्य से उनके वंश को आगे बढ़ाया।

महान अल्लाह ने कहा है: "और हमने मनुष्य को मिट्टी के ठेकरा से उत्पन्न किया है। फिर हमने उसे वीर्य की सूरत में एक सुरक्षित स्थान में रख दिया। फिर हमने वीर्य को जमे हुए रक्त में बदल दिया, फिर हमने उसे मांस का लोथड़ा बना दिया, फिर हमने उस लोथड़े को हड्डियोँ में बदल दिया , फिर हमने पहना दिया हड्डियों को मांस, फिर उसे एक अन्य रूप में उत्पन्न कर दिया। तो बरकत वाला है अल्लाह जो सबसे अच्छी उत्पत्ति करने वाला है।" [सूरह अल-मोमिनून:12-14]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "क्या तुमने विचार किया है कि वीर्य की जो बूँद तुम (गर्भाशय में) गिराते हो। तुम उसे पैदा करते है या हम उसके पैदा करने वाले हैं? हमने तुम्हारे बीच मौत को निर्धारित किया है तथा हम से कोई आगे होने वाला नहीं है। इस बारे में कि हम तुम्हारी जगह तुम्हारे जैसा किसी दूसरे को ले आएं, और तुम्हें पैदा करें ऐसी शकल में जिसकी तुम्हें ख़बर नहीं हो।" [सूरह अल-वाक़िआ: 58-61]

ज़रा इस बात पर विचार कीजिए कि अल्लाह ने आपको कैसे पैदा किया है। आपको जटिल उपकरणों एवं सुदृढ़ प्रणालियों की एक अद्भुत दुनिया मिलेगी, जिनके बारे में आपकी जानकारी बहुत ही सीमित है। आपके शरीर में भोजन को पचाने का एक संपूर्ण यंत्र मौजूद है, जो मुँह से शुरू होता है। मुँह भोजन के छोटे-छोटे टुकड़े बना देता है, ताकि आसानी से हज़म हो जाए। फिर निवाला ग्रसनी में पहुँचता है और उसके बाद ग्रसिका में डाला जाता है। अलिजिह्वा निवाला के लिए ग्रासनली का द्वार खोल देती तथा श्वासनली का द्वार बंद कर देती है और निवाला धीरे धीरे हिलते रहने वाली अन्ननली के माध्यम से आमाशय में पहुँच जाता है। आमाशय में पाचन प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है, यहाँ तक कि जब भोजन तरल पदार्थ में बदल जाता है, तो उसके लिए आमाशय का निचला द्वार खुलता है और वह ग्रहणी की ओर बढ़ जाता है, जहाँ पाचन प्रक्रिया जारी रहती है। पाचन प्रक्रिया नाम है भोजन के कच्चे तत्व का शरीर की कोषिकाओं के पोषण के लिए उपयुक्त तत्व में बदलने का। फिर वहाँ से भोजन छोटी आँतों में चला जाता है, जहाँ शेष पाचन प्रक्रिया पूरी होती है और यहाँ आकर भोजन ऐसा रूप धारण कर लेता है कि आंतों में मौजूद ग्रंथियों के माध्यम से उसे अवशोषित किया जा सके, ताकि वह रक्त के प्रवाह के साथ प्रवाहित हो सके। आपको रक्त के परिसंचरण का भी एक एकीकृत तंत्र मिलेगा, जो ऐसी जटिल धमनियों में फैला हुआ होता है कि यदि उन्हें अलग-अलग कर दिया जाए तो उनकी लंबाई हज़ारों किलोमीटर से भी अधिक हो। ये सारी धमनियाँ एक केंद्रिय पंपिंग स्टेशन से जुड़ी होती हैं, जिसे हृदय कहा जाता है, जो धमनियों के माध्यम से रक्त को परिसंचरित करते हुए थकता नहीं है।

शरीर में काम करने वाला तीसरा तंत्र श्वसन तंत्र है, चौथा तंत्र तंत्रिकाओं का, पाँचवाँ तंत्र अनुपयुक्त चीज़ों को बाहर निकालने का है। इसी तरह और भी बहुत से तंत्र मौजूद हैं, जिनके बारे में प्रति दिन हमारी जानकारी में वृद्धि होती जा रही है। उनके बारे में हमें जिन बातों का ज्ञान नहीं है, वह उससे कहीं अधिक है जिनका ज्ञान है। भला अल्लाह के सिवा कौन है जिसने इन्सान को इस सुनियोजित रूप से पैदा किया है?

इन्हीं बातों के मद्देनज़र, इस कायनात का सबसे बड़ा गुनाह यह है कि तुम किसी को अल्लाह का समक्ष बनाओ जबकि उसने तुम्हें पैदा किया है।

ज़रा कभी खुले दिल से और स्वच्छ आत्मा के साथ अल्लाह की कारिगरी पर ग़ौर करो। इस हवा को देखो, जो तुम्हारे सांस लेने के काम आती है और हर स्थान पर उपलब्ध है, और कमाल यह कि दिखाई भी नहीं देती। यदि कुछ क्षणों के लिए भी उपलब्ध न हो तो जीवन का अंत हो जाए। इस पानी को देखो, जिसे तुम पीते हो। इस भोजन को देखो जो तुम खाते हो। इस इन्सान को देखो जिससे तुम प्यार करते हो। इस धरती को देखो जिस पर तुम चलते हो। इस आकाश को देखो जिसे तुम्हारी आँखें देखती हैं। सारी छोटी-बड़ी सृष्टियाँ, जिन्हें तुम्हारी आँखें देख पाती हैं और जिन्हें तुम्हारी आँखें देख नहीं पाती, सब उस अल्लाह की रचना हैं, जो पैदा करने में निपुण एवं सब कुछ जानने वाला है।

अल्लाह की सृष्टियों पर ग़ौर करने से हमें उसकी महानता एवं अपार क्षमता का अनुभव होता है। निस्संदेह सबसे बड़ा मूर्ख, अज्ञान एवं पथभ्रष्ट व्यक्ति वह है,जो इस अनूठी, विशाल, सामंजस्यपूर्ण एवं परिपूर्ण रचना को देखे, जो शानदार ज्ञान एवं पूर्ण शक्ति का प्रतीक है, लेकिन उसके बाद भी उस रचनाकार पर ईमान न लाए जिसने इसे अनस्तित्व से अस्तित्व प्रदान किया है। "क्या वे बिना किसी के पैदा किए ही पैदा हो गए हैं या वे स्वयं पैदा करने वाले हैं? या उन्होंने ही आकाशों तथा धरती की उत्पत्ति की है? वास्तव में, वे विश्वास ही नहीं रखते।" [सूरह अत-तूर: 35-36]

इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं है कि इन्सान की स्वच्छ प्रवृत्ति पवित्र एवं महान अल्लाह को पहचानती है और इसके लिए शिक्षा की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अल्लाह ने उसकी रचना के समय ही उसमें अपनी ओर आकर्षित होने की प्रवृत्ति डाल दी है। यह अलग बात है कि उसे इस मार्ग से हटा और सत्य से दूर कर दिया जाता है।

यही कारण है कि जब उसे किसी आपदा, महामारी, गंभीर परिस्थिति या संकट का सामना होता है या जल या थल में वह किसी खतरे से दोचार होता है, तो सीधे अल्लाह से संपर्क साधता है और उसी से मदद एवं छुटकारा की गुहार लगाता है। अल्लाह ही संकटग्रस्त व्यक्ति की पुकार को सुनता है और उसकी परेशानी दूर करता है।

यह महान स्रष्टा सारी चीज़ों से बड़ा है। उसकी तुलना किसी सृष्टि के साथ नहीं की जा सकती है। वह ऐसा महान है कि उसकी महानता की कोई सीमा नहीं है और कोई उसके इल्म का इहाता नहीं कर सकता, वह उलु (उच्च) की विशेषता से वर्णित अपनी सृष्टि से ऊँचा और अपने बनाए हुए आकाशों के ऊपर है। "उस जैसा कोई नहीं और वह सुनने वाला, देखने वाला है।" [सूरह अश्-शूरा: 11] उसकी कोई सृष्टि उसके समान नहीं है और तुम्हारे दिल में जो कल्पना आए, अल्लाह उससे भिन्न है।

वह आसमानों के ऊपर से हमें देख रहा है, लेकिन हम उसे नहीं देख सकते। हमारी आँखें उसको नहीं देख सकतीं जबकि वह सब कुछ देख रहा है। वह अत्यंत सूक्ष्मदर्शि एवं सब ख़बर रखने वाला है। [सूरह अल-अनआम: 103] सच्चाई यह है कि हमारी इंद्रियाँ और क्षमताएँ इस योग्य नहीं हैं कि हम उसे इस दुनिया में देख सके।

अल्लाह के एक नबी मूसा अलैहिस्सलाम से जब अल्लाह तूर पर्वत के निकट बात कर रहा था तो उन्होंने मांग की, हे अल्लाह! मुझे अपने दर्शन करा दो, मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ, तो अल्लाह ने उनसे कहा: "तुम मुझे नहीं देख सकते, परन्तु इस पर्वत की ओर देखो , यदि यह अपने स्थान पर स्थिर रह गया तो तुम मुझे देख सकते हो। फिर जब उसका रब पर्वत की ओर प्रकाशित हुआ तो उसे चूर-चूर कर दिया और मूसा बेहोश होकर गिर पड़े। फिर जब होश आया तो उनहोंने कहा: तू पवित्र है! मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ, तथा मैं सर्व प्रथम ईमान लाने वालों में से हूँ।" [सूरह अल-आराफ़: 143] जब एक विशाल और बहुत बड़ा पहाड़ अल्लाह की तजल्ली के कारण ढह गया और टूट-फूटकर बिखर बिखर गया, तो इन्सान कमज़ोर एवं दुर्बल रचना के साथ उसका सामना कैसे कर सकता है?

पवित्र एवं उच्च अल्लाह के गुणों में से एक गुण उसका हर चीज़ पर सामर्थ्य रखना है। "तथा अल्लाह ऐसा नहीं कि आकाशों एवं धरती में कोई वस्तु उसे विवश कर सके।" [सूरह अल-फ़ातिर: 44]

उसी के हाथ में जीवन एवं मरण है, प्रत्येक सृष्टि को उसकी ज़रूरत है, लेकिन उसे किसी की ज़रूरत नहीं है। अल्लाह ने कहा है: "हे मनुष्य! तुम सभी अल्लाह के मोहताज हो तथा अल्लाह ही धनी एवं प्रशंसनीयहै।" [सूरह अल-फ़ातिर: 15]

उसके गुणों से एक गुण यह है कि उसका ज्ञान हर चीज़ को शामिल है: "और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं, उन्हें केवल वही जानता है, तथा जो कुछ थल और जल में है वह सबका ज्ञान रखता है, और कोई पत्ता नहीं गिरता है परन्तु उसे वह जानता है, और न कोई दाना जो धरती के अंधेरों में गिरता है, और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा), परन्तु सब उसकी रोशन किताब में मौजूद है।" [सूरह अल-अनआम: 59] हमारे मुँह से कही हुई बातों, और हमारे अंगों से के द्वारा किए गए कार्यों, बल्कि हमारे दिलों में छुपे हुए राज़ों को भी वह जानता है। "वह जानता है आँखों की चोरी तथा उन भेदों को भी जो सीने के अंदर दफन हैं।" [सूरह ग़ाफ़िर: 19]

अल्लाह हमारे बारे में हर चीज़ को जानता है एवं हमारी हालतों से अवगत है। धरती एवं आकाश की कोई भी चीज़ उससे छुपी नहीं है। वह न अचेत होता है, न भूलता है और न सोता है। अल्लाह ने कहा है: "अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं, वह सदा ज़िन्दा एवं नित्य स्थाई है। उसे ऊँघ या नींद नहीं आती। आकाश और धरती में जो कुछ है, सब उसी का है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) कर सके? जो कुछ उनके समक्ष और जो कुछ उनसे ओझल है, सब जानता है। लोग उसके ज्ञान में से उतना ही जान सकते हैं, जितना वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाश तथा धरती को समोए हुए है। उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। वही सर्वोच्च एवं महान है।" [सूरह अल-बक़रा: 255]

वह सारे संपूर्ण गुणों से परिपूर्ण है, उसके अंदर न कोई कमी है, न कोई दोष।

उस के अच्छ-अच्छे नाम और उच्च स्तरीय गुण भी हैं। उसने कहा है: "और अल्लाह ही के शुभ नाम हैं, अतः उसे उन्हीं के नामों से पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो जो उसके नामों में परिवर्तन करते हैं, उन्हें शीघ्र ही उनके कुकर्मों का बदला दिया जाएगा।" [सूरह अल-आराफ़: 180]

और वह पवित्र अल्लाह, उसके राज्य में कोई उसका साझी नहीं है, उसका कोई समकक्ष एवं सहायक भी नहीं है।

वह पत्नी एवं संतान से पाक है, बल्किउसे इन सब की कोई ज़रूरत नहीं है। उसी ने कहा है: "(हे नब़ी!) कह दोः अल्लाह अकेला है। अल्लाह बेनियाज़ है। न उसका कोई संतान है और न वह किसी का संतान है। और न कोई उसके बराबर है।" [सूरह अल-इख़लास: 1-4] महान अल्लाह ने कहा है: "तथा उन्होंने कहा कि रहमान (अत्यंत कृपाशील) ने अपने लिए एक पुत्र बना लिया है। वास्तव में तुम लोग ने यह कहकर एक भारी गुनाह किया है। समीप है कि इस इल्ज़ाम के कारण आकाश फट पड़े तथा धरती में दरार पड़ जाए और पर्वत के टुकड़े टुकड़े हो जाए। इस लिए कि वे लोग अल्लाह के लिए संतान सिद्ध करते हैं। तथा रहमान के लिए यह उचित ही नहीं है कि वह कोई संतान बनाए। आकाशों तथा धरती में जितने हैं, सब रहमान (अल्लाह) के सामने बंदे की हैसियत से आने वाले हैं।" [सूरह मरयम: 88-93]

वह पवित्र अल्लाह ऐश्वर्य, सौंदर्य, शक्ति, महानता, अभिमान, राजत्व और प्रभुत्वशाली के गुणों से युक्त है।

इसी तरह वह उदारता, क्षमा, दया एवं परोपकार के गुणों का भी मालिक है।वह सबसे रहमान (दयालु) है, जिसकी दया हर चीज़ को शामिल है।

वह 'रहीम' (कृपावान) है, जिसकी कृपा उसके क्रोध से आगे है।

वहकरीम (दानशील) है, जिसकी दानशीलता असीम है और उसके खज़ाने कभी ख़त्म नहीं होते।

उसके सारे नाम सुंदर हैं, जो पूर्ण पूर्णता के गुणों को दर्शाते हैं और जो अल्लाह के अलावा किसी और पर सिद्ध नहीं होते हैं।

उसके गुणों से अवगत होना दिल में उसके लिए प्रेम, सम्मान, उसका भय एवं उसके प्रति विनम्रता की भावनाओं को बढ़ा देता है।

इस प्रकार, 'ला इलाहा इल्लल्लाह' के मायने यह हुए कि किसी भी प्रकार की उपासना अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए नहीं की जाएगी। क्योंकि सत्य पूज्य केवल अल्लाह है। उसमें पूज्य होने और पूर्णता के गुणों की विशेषता है, वह सृष्टिकर्ता, प्रदाता, उपकारी, जीवन व मरन देने वाला है, और अपनी सृष्टि पर उपकार करने वाला है। अतः केवल वही इबादत का हक़दार है और उसका कोई साझी नहीं है।

जिसने अल्लाह की इबादत से इनकार किया या उसके अतिरिक्त किसी और की पूजा की, उसने शिर्क एवं कुफ़्र किया।

अतः सजदा, रुकू, झुकना और नमाज़ आदि चीज़ें केवल अल्लाह के लिए होनी चाहिएँ।

फ़रियाद केवल उसी से की जाएगी, दुआ केवल उसी से माँगी जाएगी, ज़रूरत की चीज़ें केवल उसी से तलब की जाएँगी और नज़र व नियाज़, क़ुर्बानी, आज्ञापालन एवं उपासना के ज़रिए निकटता केवल उसी की प्राप्त की जाएगी: "आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी तथा मेरा जीवन-मरण सारे संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है। जिसका कोई साझी नहीं तथा मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं प्रथम मुसलमानों में से हूँ।" [सूरह अल-अनआम: 162-163]

 ख- अल्लाह ने हमें क्यों पैदा किया?

वैसे तो इस अहम प्रश्न का उत्तर देना बड़ा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उत्तर अल्लाह की उतारी हुई प्रकाशना से दिया जाए। क्योंकि उसी ने हमारी रचना की है, अतः वही बताएगा कि हमारी रचना क्यों की है? सर्वशक्तिमान अल्लाह ने कहा है: "और मैं ने जिन्न और इंसान को केवल मेरी इबादत के लिए पैदा किया है।" [सूरह अज़-ज़ारियात: 56] अल्लाह की इबादत (उपासना) उसकी सारी सृष्टियों का एक गुण है, जो फ़रिश्तों से लेकर अन्य सारी अनूठी सृष्टियों में पाया जाता है।अल्लाह ने इन सारी सृष्टियों को इस तरह बनाया है कि उनकी प्रवृत्ति ही में अल्लाह की उपासना एवं सारे संसार के पालन हार की पवित्रता का वर्णन करना समायोजित है। महान अल्लाह ने कहा है: "सातों आकाश तथा धरती और उनमें मौजूद सारी चीज़ें और प्रत्येक वस्तु उसकी प्रशंसा के साथ उसकी पवित्रता का वर्णन कर रही है, परन्तु तुम उनके पवित्रता गान को समझते नहीं हो।" [सूरह अल-इसरा: 44] फ़रिश्ते उसी प्रकार अल्लाह की पवित्रता के वर्णन में लगे रहते हैं जिस प्रकार इंसान हर क्षण साँस लेता रहता है।

लेकिन इंसान के द्वारा की जाने वाली अल्लाह की इबादत उसकी इच्छा अनुसार है। वह उसे करने पर विवश नहीं है। "वही है, जिसने तुम्हें पैदा किया है, तो तुम में से कुछ काफ़िर हैं और कुछ ईमान वाले, तथा जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है।" [सूरह अत-तग़ाबुन: 2]

"(हे नबी!) क्या आप ने देखा नहीं कि आकाशों तथा धरती की सभी सृष्टियाँ, तथा सूर्य और चाँद, तारे और पर्वत, वृक्ष और पशु, एवं बहुत-से मनुष्य अल्लाह के लिए सजदा कर रहे हैं। और बहुत-से पर यातना सिद्ध हो चुकी है। और जिसे अल्लाह अपमानित कर दे, उसे कोई सम्मान दे नहीं सकता है।" [सूरह अल-हज्ज: 18]

अल्लाह ने हमारी रचना अपनी उपासना तथा यह जानने के लिए की है कि हम अपने इस कर्तव्य के पालन में कितना सफल हो पाते हैं? अतः जिसने अल्लाह की इबादत की, उससे मुहब्बत रखा, उसके सामने झुका, उसके आदेशों का पालन किया और उसके निषेधों से बचा रहा, उसने अल्लाह की प्रसन्नता, उसकी दया एवं उसका प्यार प्राप्त कर लिया,तथा अल्लाह उसे अच्छा प्रतिफल देगा। लेकिन जिसने उस अल्लाह की इबादत से इनकार किया जिसने उसे पैदा किया है एवं उसे खिलाता है, उसके प्रति अभिमान दिखाया और उसके दिशानिर्देशों की अवमानना की, वह अल्लाह के क्रोध एवं पीड़ादायक यातना का अधिकारी बन गया। अल्लाह ने हमारी सृष्टि बिना किसी उद्देश्य के नहीं की है और हमें बेकार छोड़ नहीं दिया है। दुनिया का सबसे बड़ा अज्ञानी एवं बुद्धिहीन व्यक्ति वह है, जो इस दुनिया में आए, उसे कान, आँख तथा बुद्धि-विवेक प्राप्त हो, सांसारिक जीवन बिताए, फिर मर जाए और उसे पता तक न हो कि वह इस दुनिया में क्यों आया था और इसके बाद उसे कहाँ जाना है? जबकि महान अल्लाह कहता है: "क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर लौटा कर नहीं लाए जाओगे?" [सूरह अल-मोमिनून:115]

अल्लाह के निकट हम में से वह व्यक्ति, जो उस पर विश्वास रखता हो, उस पर भरोसा करता हो, उस के विधान को मानता हो, उस से प्यार रखता हो, उसके आगे झुकता हो, विभिन्नता प्रकार की उपासनाओं के माध्यम से उसकी निकटता प्राप्त करता हो और हमेशा उसे प्रसन्न करने वाली चीज़ों की तलाश में रहता हो, उस व्यक्ति के समान नहीं हो सकता जो उसका इनकार करता हो हांलांकि उसी ने उसको पैदा किया है और उसको शक्ल व् सूरत दिया है, उसकी निशानियों तथा उसके धर्म को झुठलाता हो और उसके सामने झुकने से मना करता हो।

पहले को सम्मान, अच्छा प्रतिफल, प्रेम और प्रसन्नता प्राप्त होगी, जबकि दूसरे को क्रोध एवं यातना का सामना करना पड़ेगा।

यह उस समय होगा, जब अल्लाह उन लोगों को मृत्यु के पश्चात क़ब्रों से जीवित करके उठाएगा और अच्छा कर्म करने वालों को जन्नत की नेमतें एवं सम्मान प्रदान करेगा तथा अल्लाह की इबादत से इनकार करने वाले अभिमानी को जहन्नम की यातनाओं से दोचार करेगा।

ज़रा सोचिए कि अच्छा कर्म करने वाले को उस अल्लाह की ओर से मिलने वाला प्रतिफल कितना बड़ा हो सकता है, जो धनवान एवं दानशील है और उसकी दानशलीता एवं दया की कोई सीमा नहीं है तथा उसके ख़ज़ाना कभी ख़त्म नहीं होगा। यह प्रतिफल अति उच्च कोटि का होगा, जो न समाप्त होगा और न कम होगा। (इसके बारे हम आगे बात करेंगे।)

इसी तरह सोचिए कि काफ़िर को मिलने वाला दंड और यातना कितना भयावह एवं सख़्त होगी, जब उसका आदेश जारी होगा उस अल्लाह की ओर से जो महान एवं ज़बरदस्त है, जिसकी महानता और शक्ति की कोई सीमा नहीं है।


 2- मुह़म्मद अल्लाह के रसूल हैं:

मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के रसूल होने पर ईमान इस्लाम के पाँच स्तंभों में से सबसे बुनियादी स्तंभ का दूसरा भाग तथा मूल सिद्धांत है जिसपर इस्लाम का आधार खड़ा है।

कोई व्यक्ति उस समय मुसलमान होता है जब वह अपनी ज़बान से यह दोनों गवाहियाँ दे, वह गवाही दे कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है तथा इस बात की गवाही दे कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।

 क- लेकिन अब प्रश्न यह है कि रसूल का अर्थ क्या है, मुहम्मद कौन हैं और क्या उनके अलावा भी रसूल हैं?

हम इन आगे के पृष्ठों में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करेंगे।

रसूल एक उच्च कोटि का सत्यवादी एवं चरित्रवान व्यक्ति होता है। उसे अल्लाह लोगों में से चुन लेता है और अपनी इच्छा अनुसार उसकी ओर धर्म के आदेश-निषेध या ग़ैब की बातें वह्यी करता है तथा इन बातों को लोगों को पहुँचाने का उसे आदेश देता है। इस प्रकार रसूल अन्य इन्सानों की तरह ही एक इन्सान होता है। उन्हीं की तरह खाता-पीता है और उसे भी उन चीज़ों की ज़रूरत होती है जिनकी ज़रूरत अन्य इन्सानों को होती है। लेकिन आम लोगों से वह इस बात में अलग होता है कि उसके पास अल्लाह के यहाँ से वह्यी आती है और अल्लाह उसे अपनी इच्छा अनुसार कुछ ग़ैब की बातों एवं धर्म के विधि-विधानों से सूचित कर देता है, ताकि लोगों को बता दे। वह अन्य लोगों से इस बात में भी भिन्न होता है कि उसे अल्लाह बड़े गुनाहों एवं ऐसे कार्यों से सुरक्षित रखता है, जो लोगों को अल्लाह का संदेश पहुँचाने में बाधा उत्पन्न करने का काम करें।

यहाँ हम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पहले के कुछ रसूलों के क़िस्से नक़ल कर रहे हैं, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि सारे रसूलों का संदेश एक ही है और वह है, केवल एक अल्लाह की इबादत का आह्वान करना। हम सबसे पहले मानव की सृष्टि के आरंभ और मानव पिता आदम तथा उनकी संतान से शैतान की दुश्मनी का हाल बयान करेंगे।

 - पहले रसूल एवं हमारे पिता आदम अलैहिस्सलाम:

हमारे पिता आदम अलैहिस्सालम को अल्लाह ने मिट्टी से पैदा किया और फिर उनके अंदर आत्मा फूँकी। महान अल्लाह ने कहा है: "और हमने तुम्हें पैदा किया, फिर तुम्हारा स्वरूप बनाया, फिर हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो, तो इबलीस के सिवा सबने सजदा किया। वह सजदा करने वालों में से न हुआ। अल्लाह ने उस से कहा: किस बात ने तुम्हें सजदा करने से रोका, जबकि मैंने तुम्हें आदेश दिया था? उसने कहा: मैं उससे उत्तम हूँ, मेरी रचना तु ने अग्नि से की है और उसकी मिट्टी से। तो अल्लाह ने कहा: इस (स्वर्ग) से उतर जा, तू इस योग्य नहीं कि इसमें घमंड करे, तू निकल जा, वास्तव में तू अपमानितों में है। उसने कहा: मुझे उस दिन तक के लिए मोहलत दी जाए जब लोग फिर जीवित किए जाएँगे। अल्लाह ने कहा: तुझे समय दिया जा रहा है।" [सूरह आराफ़, आयत संख्या: 10-15]

उसने अल्लाह से अनुरोध किया कि उसे मोहलत दी जाए, उसे यातना देने में जल्दी न किया जाए तथा द्वेष एवं शत्रुता के कारण आदम एवं उनकी संतान को पथभ्रष्ट करने की अनुमति प्रदान हो। अल्लाह ने भी उसे किसी मसलेहत के कारण जिसे केवल वही जानता है, आदम तथा उनकी संतान को, अपने निष्ठावान बंदों को छोड़कर, पथभ्रष्ट करने की अनुमति दे दी। फिर आदम तथा उनकी संतान को आदेश दिया कि वे शैतान की बात न मानें, उसके बहकावे में न आएँ और उससे अल्लाह की शरण माँगें। आदम तथा उनकी पत्नी हव्वा (जिन्हें अल्लाह ने आदम की पसली की हड्डी से पैदा किया था) को भटकाने की पहली घठना किस तरह घटित हुई, इसका उल्लेख पवित्र एवं महान अल्लाह ने इन आयतों में किया है:

"और हे आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में रहो और जहाँ से चाहो खाओ और इस वृक्ष के निकट न जाना, अन्यथा अत्याचरियों में से हो जाओगे। तो शैतान ने उन दोनों को संशय में डाल दिया ताकि दोनों के लिए उनके गुप्तांगों को खोल दे, जो उनसे छुपाए गए थे और कहा: तुम्हारे पालनहार ने तुम दोनों को इस वृक्ष से केवल इसलिए रोका है कि कहीं तुम दोनों फ़रिश्ते अथवा जन्नत में सदा रहने वालों में से न हो जाओ। तथा उन दोनों के सामने क़समें खाईं कि वह उन दोनों का शुभचिंतक है। तो उन दोनों को धोखे से रिझा लिया, फिर जब उन दोनों ने उस वृक्ष का स्वाद चख लिया, तो उनके लिए उनके गुप्तांग खुल गए और वे उन पर स्वर्ग के पत्ते चिपकाने लगे और उन्हें उनके पालनहार ने आवाज़ दी: क्या मैंने तुम्हें इस वृक्ष से नहीं रोका था और तुम दोनों से नहीं कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला शत्रु है? तो उन्होंने कहा: हे हमारे पालनहार! हमने अपने ऊपर अत्याचार कर लिया है, और यदि तू हमें क्षमा तथा हमपर दया नहीं किया, तो हम अवश्य ही घाटा उठाने वालों में से हो जाएँगे। तो अल्लाह ने कहा: तुम सब नीचे जाओ, तुम एक-दूसरे के शत्रु रहोगे और तुम्हारे लिए धरती में रहने और एक निर्धारित समय तक लाभ उठाने का अवसर है। तथा कहा: तुम उसी में जीवित रहोगे, उसी में मरोगे और उसी से (फिर) निकाले जाओगे। हे आदम की संतान! हमने तुम पर ऐसा वस्त्र उतार दिया है जो तुम्हारे गुप्तांगों को छुपाता है, तथा शोभा है और अल्लाह की आज्ञाकारिता का वस्त्र ही सर्वोत्तम है। यह अल्लाह की निशानियों में से एक है ताकि वे शिक्षा लें। हे आदम की संतान! ऐसा न हो कि शैतान तुम्हें बहका दे, जैसे तुम्हारे माता-पिता को स्वर्ग से निकाल दिया, उनके वस्त्र उतरवा दिया, ताकि उन्हें उनके गुप्तांग दिखा दे। वास्तव में वह तथा उसकी जाति तुम्हें ऐसे स्थान से देखती है जहाँ से तुम उन्हें नहीं देख सकते। वास्तव में हमने शैतानों को उनका सहायक बना दिया है जो ईमान नहीं रखते।" [सूरह अल-आराफ़: 19-27]

आदम धरती पर उतरे, उनके पुत्र-पुत्रियाँ हुईं और फिर उनकी मृत्यु हुई। उनके बाद नस्ल दर नस्ल उनकी संतान फैलती गई और इसके साथ ही शैतान के बहकावे में आती गई। लोग सत्य के मार्ग से दूर हो गए, अपने सदाचारी पूर्वजों की उपासना करने लगे और ईमान के स्थान पर शिर्क के मार्ग पर चल पड़े। ऐसे में अल्लाह ने उनकी ओर उन्हीं में से एक व्यक्ति (नूह अलैहिस्सलाम) को रसूल बनाकर भेजा।

 ग- नूह अलैहिस्सलाम:

नूह तथा आदम के बीच दस पीढ़ियों का फ़ासला था। जब लोग पथभ्रष्ट हो गए और अल्लाह को छोड़ अन्य लोगों, मूर्तियों, पत्थरों एवं क़ब्रों की पूजा करने लगे, तो अल्लाह ने उनको भेजा। उनके सबसे प्रसिद्ध पूज्य वद्द, सुवा, यग़ूस एवं यऊक़ थे। ऐसी परिस्थिति में अल्लाह ने नूह को भेजा ताकि लोगों को दोबारा अल्लाह के मार्ग पर वापस लायें। जैसा कि महान अल्लाह ने अपने इस कथन में ख़बर दी है: "हमने नूह़ को उसकी जाति की ओर (अपना संदेश पहुँचाने के लिए) भेजा था, तो उन्होंने कहा: हे मेरी जाति के लोगो! (केवल) अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। मैं तुम पर एक बड़े दिन की यातना से डरता हूँ।" [सूरह अल-आराफ़: 59] नूह अलैहिस्सलाम लंबे समय तक लोगों को अल्लाह की इबादत की ओर बुलाते रहे, लेकिन उनके साथ बहुत थोड़े लोग ही ईमान लाए। ऐसे में उन्होंने अपने रब़ से दुआ की: "नूह़ ने कहा: मेरे पालनहार! मैंने अपनी जाति को (तेरी ओर) रात और दिन बुलाया। मगर मेरे बुलावा ने उनको तेरे रास्ते से और अधिक दूर कर दिया। और मैंने जब भी उन्हें बुलाया ताकि तू उन्हें क्षमा कर दे तो उन्होंने अपने कानों में अपनी उँगलियाँ डाल लीं, अपने कपड़े ओढ़ लिए तथा अड़े रहे और बड़ा घमंड किया। फिर मैंने उन्हें खुले में तेरी ओर बुलाया। फिर मैंने उनसे खुलकर कहा और उनको अकेले में भी समझाया। मैंने कहा: अपने पालनहार से क्षमा माँगो, वास्तव में वह बड़ा क्षमाशील है। वह आकाश से तुम पर धाराप्रवाह वर्षा भेजेगा। तथा तुम्हें अधिक पुत्र तथा धन देगा और तुम्हारे लिए बाग़ पैदा करेगा तथा नहरें निकालेगा। क्या हो गया है तुम्हें कि तुम अल्लाह की महिमा से नहीं डरते? जबकि उसने तुम्हें विभिन्न प्रक्रियायों से गुजार कर पैदा किया है।" [सूरह नूह: 5-14] अपनी जाति को सत्य के मार्ग पर लाने के इस निरंतर प्रयास और दृढ़ इच्छा के बावजूद लोगों ने उनको झुठलाया, उनका मज़ाक़ उड़ाया और उनको पागल कहा।

ऐसे में अल्लाह ने उनकी ओर वह्यी उतारी: "तुम्हारी जाति में से ईमान नहीं लाएँगे, उनके सिवा जो ईमान ला चुके हैं, अतः जो वे कर रहे हैं उस से दुःखी न हो।" [सूरह हूद: 36] तथा अल्लाह ने उन्हें आदेश दिया कि वह एक नाव बनाएँ और उसमें अपने साथ ईमान लाने वाले सभी लोगों को सवार कर लें। "और नूह नाव बनाते थे और जब भी उन की जाति के प्रमुख उन के पास से गुज़रते, तो वह उन की खिल्ली उड़ाते, नूह़ ने कहा: यदि तुम हम हर हंसते हो, तो हम भी ऐसे ही (एक दिन) तुम पर हंसेगे जैसा कि तुम हम पर हंसते हो। फिर तुम शीघ्र ही जान जाओगे कि किस पर अपमानकारी यातना आएगी और स्थायी अज़ाब किस पर उतरेगा? यहाँ तक कि जब हमारा आदेश आ गया और तन्नूर उबल पड़ा, तो हमने (नूह़ से) कहा: उस में प्रत्येक प्रकार के जीवों के दो जोड़े (नर एवं नारी) रख लो और अपने परिजनों को भी, उन के सिवा जिनके डुबो दिए जाने का फ़ैसला हो चुका है, और जो ईमान लाए हैं, और उसके साथ थोड़े ही लोग ईमान लाए थे। और नूह़ ने कहा: इस में सवार हो जाओ, अल्लाह के नाम ही से इसका चलना तथा रुकना है। वास्तव में मेरा पालनहार बड़ा क्षमाशील एवं दयावान् है। और वह नाव उन्हें लिए पर्वत जैसी ऊँची लहरों में चलने लगी, और नूह़ ने अपने पुत्र को पुकारा, जबकि वह उनसे अलग खड़ा था: हे मेरे बेटे! मेरे साथ नाव में सवार हो जा और काफ़िरों के साथ न रह जाओ। उसने कहा: मैं किसी पहाड़ की शरण ले लूँगा, जो मुझे जल से बचा लेगा। नूह़ ने कहा: आज अल्लाह के आदेश (यातना) से कोई बचाने वाला नहीं है परन्तु जिसपर अल्लाह दया करे और दोनों के बीच एक लहर आड़े आ गई और वह डूबने वालों से में हो गया। और कहा गया: हे धरती! तू अपना जल पी जा और हे आकाश! तू थम जा औ जल उतर गया और आदेश पूरा हो गया और नाव "जूदी" पर ठहर गई और कहा गया कि अत्याचारियों के लिए (अल्लाह की दया से) दूरी है। तथा नूह़ ने अपने रब़ से प्रार्थना की और कहा: हे मेरा रब़! मेरा पुत्र मेरे परिजनों में से है। निश्चय तेरा वचन सत्य है तथा तू ही सबसे अच्छा निर्णय करने वाला है। अल्लाह ने कहा: वह तेरा परिजनों में से नहीं है, (क्योंकि) उस का कार्य नेक नहीं है। अतः मुझ से उस चीज़ का प्रश्न न कर जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं। मैं तुम्हें बताता हूँ कि अज्ञानों में न हो। नूह़ ने कहा: मेरे पालनहार! मैं तेरी शरण चाहता हूँ कि मैं तुझसे ऐसी चीज़ की माँग करूँ जिसका मुझे कोई ज्ञान नहीं है, और यदि तु ने मुझे क्षमा नहीं किया और मुझ पर दया नहीं की, तो मैं क्षतिग्रस्तों में हो जाऊँगा। कहा गया कि हे नूह़! आप हमारी ओर से नाव से सुरक्षित उतर जा, और तुझपर, और तेरे साथ जो ईमान वाले हैं, उन में से कुछ की संतान पर हमारी सम्पन्नता उतरेगी, और कुछ समुदायों को हम सांसारिक जीवन सामग्री प्रदान करेंगें, फिर आख़िरत में उन्हें हमारी दुःखदायी यातना पहुँचेगी।" [सूरह हूद: 38-48]

 घ- हूद अलैहिस्सलाम

फिर कुछ ज़माना पश्चात अल-अहक़ाफ़ नामी क्षेत्र में आद क़बीले के लोग जब पथभ्रष्ट हो गए और अल्लाह को छोड़ अन्य की इबादत करने लगे, तो अल्लाह ने उनकी ओर उन्हीं में से एक व्यक्ति हूद अलैहिस्सलाम को रसूल बना कर भेजा।

महान अल्लाह ने हमें इसकी ख़बर देते हुए कहा: "(और इसी प्रकार) हम ने आद की ओर उनके भाई हूद को (भेजा)। उसने कहा: हे मेरी जाति के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं, तो क्या तुम लोग अच्छे नहीं बनोगे? (इसपर) उनकी जाति में से उन प्रमुखों ने जो काफ़िर हो गए, कहा: हम तुम्हें नासमझ पा रहे हैं और वास्तव में हम तुम्हें झूठों में समझ रहे हैं। हूद ने कहा: हे मेरी जाति के लोगो! मुझ में कोई नासमझी की बात नहीं है, परन्तु संसार के पालनहार का रसूल (संदेशवाहक) हूँ। मैं तुम्हें अपने पालनहार का संदेश पहुँचा रहा हूँ और मैं तुम्हारा ख़ैरख़्वाह हूँ और भरोसे योग्य हूँ। क्या तुम्हें इसपर आश्चर्य हो रहा है कि तुम्हारे रब़ की वह्यीू तुम्हीं में से एक पर उतरती है, ताकि वह तुम्हें सावधान करे? तथा याद करो कि अल्लाह ने नूह़ की जाति के पश्चात तुम्हें धरती में उत्तराधिकारी बनाया है, और तुम्हें अधिक शारीरिक बल दिया है, अतः अल्लाह के पुरस्कारों को याद करो ताकि तुम सफल हो जाओ। उन्होंने कहा: क्या तुम हमारे पास इस लिए आए हो कि हम केवल एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी पूजा हमारे पूर्वज करते आ रहे हैं? तो हमारे उपर अज़ाब ला दो जिससे तुम हमें डराते हो, यदि तुम सच्चे हो? हूद ने कहा: तुम पर तुम्हारे रब़ का प्रकोप और क्रोध आकर रहेगा, क्या तुम लोग मुझ से कुछ नामों के विषय में विवाद कर रहे हो, जिनको तुमने तथा तुम्हारे पूर्वजों ने रख लिया है, जिसका कोई तर्क (प्रमाण) अल्लाह ने नहीं उतारा है, तुम (प्रकोप की) प्रतीक्षा करो और मैं भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ। फिर हमने उनको और उनके साथियों को बचा लिया तथा उनकी जड़ काट दी, जिन्होंने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठलाया और वे ईमान लाने वाले नहीं थे।" [सूरह अल-आराफ़: 65-72]

ऐसे में अल्लाह ने उनकी ओर लगातार आठ दिनों तक चलने वाली तेज़ आंधी भेजी, जिसने अपने रब के आदेश से सारी चीज़ों को नष्ट कर दिया।और अल्लाह ने हूद एवं उनके ईमान वाले साथियों को बचा लिया।

 ङ-सालेह अलैहिस्सलाम

फिर कुछ समय बीतने के बाद अरब प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में स़मूद क़बीले का उत्थान हुआ, और जब वह भी पूर्ववर्ती लोगों के समान सत्य के मार्ग से दूर हो गइए, तो अल्लाह ने उनकी ओर उन ही में से एक व्यक्ति सालेह (अलैहिस्सलाम) को रसूल बनाकर भेजा और उनकी सत्यता को स्पष्ट करने के लिए उनको एक चमत्कार दिया। उनको एक विशालकाय ऊँटनी प्रदान की, जिसके जैसी कोई सृष्टि कभी देखी नहीं गई थी। अल्लाह ने हमें उनके बारे में बताते हुए कहा है: "और (इसी प्रकार) समूद (जाति) के पास उनके भाई सालेह़ को भेजा। उसने कहा: हे मेरी जाति! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं, तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण (चमत्कार) आ गया है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक चमत्कार है। अतः इसे अल्लाह की धरती में चरने के लिए छोड़ दो और इसे बुरी नीयत से हाथ न लगाना अन्यथा तुम्हें दुःखदायी यातना घेर लेगी। तथा याद करो कि अल्लाह ने आद जाति के ध्वस्त किए जाने के पश्चात् तुम्हें धरती में उत्तराधिकारी बनाया, और तुम्हें धरती में बसाया, तुम उसके मैदानों में महल बनाते हो और पर्वतों को तराशकर घर बनाते हो। अतः अल्लाह के उपकारों को याद करो और धरती में उपद्रव करते न फिरो। उसकी जाति के घमंडी प्रमुखों ने उन निर्बलों से कहा, जो उन में से ईमान लाए थे : क्या तुम विश्वास रखते हो कि सालेह़ अपने पालनहार का भेजा हुआ है? उन्होंने कहा: निश्चय जिस (संदेश) के साथ वह भेजा गया है, हम उसपर ईमान (विश्वास) रखते हैं। (तो इसपर) अहंकारियों ने कहा: जिस पर तुम ईमान रखते हो उसे हम नहीं मानते। फिर उन्होंने ऊँटनी का वध कर दिया और अपने पालनहार के आदेश का उल्लंघन किया और कहा: हे सालेह़! तू हमें जिस (यातना) की धमकी दे रहा था, उसे ले आ, यदि तू वास्तव में रसूलों में हो। तो उन्हें भूकंप ने पकड़ लिया। फिर जब सुबह हुई, तो वे अपने घरों में औंधे पड़े हुए थे। तो सालेह़ ने उनसे मुँह फेर लिया और कहा: हे मेरी जाति के लोगों! मैंने तुम्हें अपने पालनहार के उपदेश पहुँचा दिए थे और मैंने तुम्हारा भला चाहा। परन्तु तुम शुभचिन्तकों को पसंद नहीं करते।" [सूरह अल-आराफ़: 73-79]

इसके बाद अल्लाह ने धरती में बसने वाली जातियों की ओर बहुत-से रसूल भेजे, कोई जाति ऐसी नहीं गुज़री जिसमें कोई संदेशवाहक (रसूल) न आया हो। अल्लाह ने हमें कुछ रसूलों के बारे बताया है जबकि अक्सर रसूलों के बारे नहीं बताया है। सारे रसूलों का संदेश एक था। वह था, लोगों को एक अल्लाह की इबादत का आदेश देना और अन्य की इबादत से खुद को अलग कर लेना। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "और हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत (वंदना) करो और ताग़ूत (अल्लाह के सिवा अन्य पूज्यों) से बचो, तो उनमें से कुछ को अल्लाह ने सही पथ दिखा दिया और कुछ पर कुपथ सिद्ध हो गया। तो धरती में चलो-फिरो, फिर देखो कि झुठलाने वालों का अन्त कैसा रहा?" [सूरह अन-नहल:36]

 च- इबराहीम अलैहिस्सलाम

फिर इसके बाद अल्लाह ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम को उनकी जाति की ओर उस समय भेजा जब वे सत्य के मार्ग से दूर चले गए थे और सितारों एवं मूर्तियों की पूजा करने लगे थे। अल्लाह तआला ने कहा है: "और हम ने इस से पहले इब्राहीम को अच्छी समझ दी थी और हम उन्हें भली-भाँति जोनते थे। जब उन्होंने अपने बाप तथा अपनी जाति से कहा: यह प्रतिमाएँ क्या हैं जिनकी तुम पूजा करते हो? उन्होंने कहा: हमने अपने पूर्वजों को इनकी पूजा करते हुए पाया है। इब्राहीम ने कहा: निश्चय तुम और तुम्हारे पूर्वज खुली गुमराही में थे। उन्होंने कहा: क्या तुम हमारे पास सत्य धर्म लाए हो या केवल उपहास कर रहे हो? उसने कहा: बल्कि तुम्हारा पालनहार आकाशों तथा धरती का पालनहार है जिसने उन्हें पैदा किया है और मैं इस पर साक्षी हूँ। तथा अल्लाह की शपथ! मैं अवश्य ही तुम्हारे चले जाने के बाद तुम्हारी मूर्तियों के के ख़िलाफ कारवाई करुंगा। फिर उन्होंने उनकी मूर्तियों का टुकड़े टुकड़े कर दिया, उनके बड़े के सिवा, ताकि वे उस (बुत) की ओर लौट कर आएं। उन्होंने कहा: जिसने हमारे देवताओं की यह दशा की है? वास्तव में वह कोई अत्याचारी है! लोगों ने कहा: हमने एक नवयुवक को उनकी चर्चा करते सुना है, जिसे इब्राहीम कहा जाता है। लोगों ने कहा: उसे लोगों के सामने लाओ, ताकि वे देखें। उन्होंने पूछा: हे इब्राहीम! क्या तूने ही हमारे पूज्यों के साथ यह किया है? उन्होंने कहा: बल्कि ऐसा इनके इस बड़े ने किया है, अतः इन्हीं से पूछ लो यदि ये बोलते हों? फिर वे अपने मन में सोच में पड़ गए, फिर आपस में एक दूसरे से कहने लगे: वास्तव में, तुम लोग अत्याचारी हो। फिर जल्द ही वह सत्य मुकर गए और कहने लगे कि तुम तो जानते हो कि ये बोलते नहीं हैं। इब्राहीम ने कहा: तो क्या तुम अल्लाह के सिवा उनकी इबादत करते हो, जो न तुम्हें कुछ लाभ और न हानि पहूँचा सकते हैं? उफ़ (थू) है तुम पर और उन पर जिसकी तुम अल्लाह को छोड़कर इबादत (वंदना) करते हो, तो क्या तुम समझ नहीं रखते हो? उन्होंने कहा: इसे जला दो तथा सहायता करो अपने पूज्यों की यदि तुम्हें कुछ करना है। हमने कहा: हे अग्नि! तू इब्राहीम के लिए ठंड एवं शाँतिपूर्ण बन जा। और उन्होंने उनके ख़िलाफ षडयंत्र करना चाहा, तो हमने उन्हीं को क्षतिग्रस्त कर दिया।" [सूरह अल-अंबिया: 50-70]

इस के बाद इबराहीम अलैहिस्सलाम और उनके बेटे इस्माईल अलैहिस्सलाम फ़िलिस्तीन छोड़ कर मक्का चले गए, जहाँ अल्लाह ने दोनों बाप बेटा को काबा के निर्माण का आदेश दिया। काबा के निर्माण के बाद इबारहीम अलैहिस्सलाम ने लोगों को उसका हज करने और उसमें अल्लाह की इबादत करने का आदेश दिया। "और हम ने इबराहीम और इस्माईल से कहा कि वह मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) तथा एतिकाफ़ करने वालों और सजदा तथा रुकू करने वालों के लिए पवित्र रखें।" [सूरह अल-बक़रा: 125]

 छ- लूत अलैहिस्सलाम

इसके बाद अल्लाह ने लूत अलैहिस्सलाम को उनकी जाति की ओर भेजा, जो एक बुरी जाती थी, जो अल्लाह के अलावा की इबादत करती थी और आपस में कुकर्म करती थी। महान अल्लाह ने कहा है: "और हमने लूत को भेजा, जब उसने अपनी जाति से कहा: क्या तुम ऐसी निर्लज्जा का काम कर रहे हो जो तुम से पहले संसार वासियों में से किसी ने नहीं किया है? तुम लोग अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए औरतों के बजाय पुरुषों को चुनते हो? बल्कि तुम सीमा लांघने वाली जाति हो। और उसकी जाति का उत्तर बस यह था कि हे बस्ती वालो, इनको अपनी बस्ती से निकाल दो, ये लोग बड़े पवित्र बन रहे हैं।" [सूरह अल-आराफ़: 80-82] अतः अल्लाह ने उनको और उनके परिवार को बचा लिया, मगर उनकी पत्नी को छोड़ दिया जो अविश्वासियों में से थी। हुआ यूँ कि अल्लाह ने उनको अपने परिवार के साथ रातों-रात बस्ती से निकल जाने को कहा। उसके बाद जब अल्लाह का आदेश आया, तो बस्ती को ऊपर-नीचे कर दिया और उस पर सख़्त पत्थरों की बारिश कर दी।

 ज- शोऐब अलैहिस्सलाम

फिर अल्लाह ने मदयन की क़ौम की ओर उसके भाई शोऐब अलैहिस्सलाम को भेजा जब वह लोग सत्य के मार्ग से हट गए थे, और उन में कुव्यवहार, लोगों पर अत्याचार और नापतोल में कमी जैसी बीमारियाँ फैल चुकी थीं। अल्लाह ने उनके बारे में बताते हुए कहा है: "तथा हमने मदयन की ओर उसके भाई शोऐब को रसूल बनाकर भेजा, उसने कहा: हे मेरी जाति के लोगो! अल्लाह की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे रब़ का खुला तर्क (प्रमाण) आ गया है, अतः नाप-तोल बराबर बराबर करो और लोगों की चीज़ों में कमी न करो, तथा धरती में उसकी सुधार के पश्चात उपद्रव न करो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम ईमान वाले हो। तथा प्रत्येक मार्ग पर लोगों को धमकाने के लिए न बैठो, और उन लोगों को अल्लाह की राह से न रोको, जो उस पर ईमान लाए हैं और उसे टेढ़ा न बनाओ, तथा उस समय को याद करो जब तुम थोड़े थे, फिर अल्लाह ने तुम्हें अधिक कर दिया तथा देखो कि उपद्रवियों का परिणाम क्या हुआ? और यदि तुम्हारा एक समुदाय उसपर ईमान लाया है, जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ और दूसरा ईमान नहीं लाया है, तो तुम धैर्य रखो, यहाँ तक कि अल्लाह हमारे बीच निर्णय कर दे और वह उत्तम न्याय करने वाला है। उसकी जाति के प्रमुखों ने, जिन्हें घमंड था, कहा कि हे शोऐब! हम तुम्हें तथा जो लोग तुम्हारे साथ ईमान लाए हैं, अपने गांव से अवश्य निकाल देंगे अथवा तुम सब हमारे धर्म में वापस आ जाओ। (शोऐब) ने कहा: हम ऐसा करेंगे जबकि हम उसे दिल से बुरा मानते हैं? हम अल्लाह पर झूठा आरोप लगायेंगे, यदि हम तुम्हारे धर्म में वापस आ गए, जबकि हमें अल्लाह ने उस से मुक्ति दिया है और हमारे लिए संभव नहीं कि उसमें फिर आ जाएँ, परन्तु यह कि हमारा पालनहार चाहता हो। हमारा पालनहार प्रत्येक वस्तु को अपने ज्ञान में समोए हुए है, अल्लाह ही पर हमारा भरोसा है। हे हमारे पालनहार! हमारे और हमारी जाति के बीच न्याय के साथ निर्णय कर दे और तू ही उत्तम निर्णयकारी है। तथा उसकी जाति के काफ़िर प्रमुखों ने कहा कि यदि तुम लोग शोऐब का अनुसरण करोगे, तो वास्तव में तुम लोग घाटा उठाने वालों में से हो जाओगे। तो उन्हें भूकंप ने पकड़ लिया, तो वे अपने घरों में औंधे मुंह पड़े हुए थे। जिन्होंने शोऐब को झुठलाया था वह जैसा कि कभी उन घरों में रहते ही न थे, और जिन लोगों ने शोऐब को झुठलाया था वही लोग नुक़्सान उठाने वालों में से थे। तो शोऐब ने उनसे मुंह फेर लिया तथा कहा: हे मेरी जाति! मैंने तुम्हें अपने पालनहार का संदेश पहुँचा दिया, तथा तुम्हारा हितकारी रहा, तो काफ़िर जाति (के विनाश) पर कैसे शोक करूँ?" [सूरह अल-आराफ़: 85-93]

 झ- मूसा अलैहिस्सलाम

फिर मिस्र में एक सरकश एवं अभिमानी बादशाह का उत्थान हुआ, जिसका नाम फ़िरऔन था। वह अपने आप को ख़ुदा कहता था, लोगों को आदेश देता था कि वह उसी की उपासना करें। वह जिसका चाहता वध कर देता और जिस पर चाहता अत्याचार करता था। अल्लाह ने उसके बारे में बताया है: "वास्तव में, फ़िरऔन मिस्र में घमंडी हो चला था, और उसके निवासियों को कई गिरोह में बांट दिया था, उसने उनमें से एक गिरोह को कमजोर बना रखा था, उनके लड़कों का वध कर देता था और उनकी लड़कियों को जीवित रहने देता था, निश्चय ही वह उपद्रवियों में से था। तथा हम चाहते थे कि उन पर दया करें जो धरती में निर्बल बना दिए गए थे, तथा उन्हें ज़मीन पर सरदार और उत्तराधिकारी बनाना चाहा। तथा उन्हें शक्ति प्रदान करें, और फ़िरऔन तथा हामान और उनकी सेनाओं को इसराईल के संतान की ओर से वह दिखा दें, जिससे उनको ख़तरा था। और हमने वह़्यी की मूसा की माता की ओर कि उसे दूध पिलाती रह और जब तुझे उस पर भय हो, तो उसे सागर में डाल दे और भय न कर और न चिन्ता कर। निःसंदेह, हम उसे तेरी ओर वापस लाएंगे और उसे रसूलों में से बनायेंगे। तो फ़िरऔन के घर वालों ने उसे समुद्र से निकाल लिया ताकि वह उनके लिए शत्रु तथा दुःख का कारण बने। वास्तव में, फ़िरऔन तथा हामान और उन दोनों की सेनाएँ ग़लती पर थीं। और फ़िरऔन की पत्नी ने कहा: यह लड़का मेरी और आपकी आँखों की ठंडक बनेगा, इका वध न कीजिए। संभव है हमें लाभ पहुँचाए या उसे हम पुत्र बना लें और वे समझ नहीं रहे थे। और मूसा की माँ का दिल व्याकूल हो रहा था, समीप था कि वह उसका भेद खोल देती यदि हम उसके दिल को धैर्य न देते, ताकि वह विश्वास करने वालों में से हो जाए। तथा (मूसा की माँ ने) उसकी बहन से कहा कि तू इस के पीछे-पीछे जा, और वह उसे दूर ही से देखती रही, और लोगों को इसका आभास तक न हुआ। और हमने पहले से ही उस (मूसा) पर दाइयों का दूध हराम कर दिया था, तो उस (की बहन) ने कहा: क्या मैं तुम्हें ऐसा घराना न बताऊँ जो इसका तुम्हारे लिए पालन-पोषण करें तथा वे उसके शुभचिनतक हों? तो हमने वापिस कर दिया उसे उसकी माँ की ओर, ताकि उसकी आँख ठंडी हो और वह चिन्ता न करे, और ताकि उसे विश्वास हो जाए कि अल्लाह का वचन सच है, परन्तु अधिक्तर लोग नहीं जानते हैं। और जब वह अपनी भरपूर जवानी को पहुँचा गया, और उसका विकास मुकम्मल हो गया, तो हमने उसे बुद्धि तथा ज्ञान दिया और इसी प्रकार हम सदाचारियों को बदला देते हैं। और एक दिन मुसा ने ऐसे समय शहर में प्रवेश किया जब वहां के लोग अचेत थे, तो वहां उन्होंने दो व्यक्तियों को लड़ते हुए पाया, एक उसके गिरोह से था और दूसरा उसके शत्रु में से। तो पुकारा उसने, जो उसके गिरोह से था, उसके विरुद्ध, जो उसके शत्रु में से था। जिसपर मूसा ने उसे घूँसा मारा और वह मर गया। मूसा ने कहा: ये शैतान का काम है, वास्तव में, वह गुमराह करने वाला खुला शत्रु है। उसने कहा: हे मेरे पालनहार! मैंने अपने ऊपर अत्याचार कर लिया, तू मुझे क्षमा कर दे, फिर अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया। वास्तव में, वह क्षमाशील, अति दयावान् है। उसने कहा: हे मेरे पालनहार! तु ने जो मुझपर कृपा और इनाम किया है, तो अब मैं कदापि अपराधियों का सहायक नहीं बनुँगा। उसने शहर में डरे और घबराए हुए सुबह की, तो सहसा वही जिसने उससे कल सहायता माँगी थी, उसे पुकार रहा है। मूसा ने उससे कहा: वास्तव में, तू ही खुला पथभ्रष्ट है। फिर जब उसे पकड़ना चाहा, जो उन दोनों का शत्रु था, तो उसने कहा: हे मूसा! क्या तू मुझे मार देना चाहता है, जैसे कल एक व्यक्ति को मार दिया था? तू तो चाहता है कि इस धरती में बड़ा उपद्रवी बनकर रहे और तू नहीं चाहता कि सुधार करने वालों में से हो। और शहर के दूसरी तरफ से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। उसने कहा: हे मूसा! फिरऔन के दरबार वाले तेरे विषय में प्रामर्श कर रहे हैं ताकि तुझे क़त्ल कर दें। अतः तू यहां से निकल जा। वास्तव में, मैं तेरे शुभचिन्तकों में से हूँ। तो वह वहां से डरा सहमा हुआ निकल गया, और यह प्रार्थना की: हे मेरे पालनहार! मुझे अत्याचारियों से बचा ले। और जब वह जाने लगा मदयन की ओर, तो उसने कहा: मुझे आशा है कि मेरा पालनहार मुझे सीधा मार्ग दिखाएगा। और जब वह मदयन के कुआँ पर पहुंचे, तो वहां पर लोगों की एक भीड़ पाया, जो (अपने पशुओं को) पानी पिला रही थी, तथा उसके पीछे दो स्त्रियों को (अपने पशुओं को) रोकती हुईं पाया। उसने कहा: तुम्हारी समस्या क्या है? दोनों ने कहा: हम पानी नहीं पिलातीं, जब तक चरवाहे चले न जाएँ और हमारे पिता बहुत बूढ़े हैं। तो मुसा ने उनकी बकरियों को पानी पिला दिया, फिर छाया में जाकर बैठ गए और कहने लगे: हे मेरे पालनहार! इस समय तू,जो भी भलाई मुझपर उतारे, मैं उसका आश्रित हूँ। तो उसके पास दोनों में से एक स्त्री लजाती हुई चलकर आई, उसने कहा: मेरे पिता आपको बुला रहे हैं, ताकि आपने जो हमारी बकरियों को पानी पिलाया है, आपको उसका पारिश्रमिक दे। फिर जब (मूसा) उसके पास पहुँचे और उसे पूरी कहानी सुनाई, तो उसने कहा: भय न कर, तू अत्याचारी लोगों से मुक्ति पा गया है। उन दोनों में से एक लड़की ने कहा: हे पिता! आप इन्हें सेवक रख लें। इस लिए जिन्हें आप सेवक रखेंगे, उनमें सबसे उत्तम ताक़तवर और विश्वसनीय है। बाप ने कहा: मैं चाहता हूँ कि मैं अपनी इन दो पुत्रियों में से एक के साथ तुम्हारा विवाह कर दूँ, इस के बदले कि तुम आठ वर्ष मेरी सेवा करोगे, फिर यदि तुम दस (वर्ष) पूरा कर दो, तो यह तुम्हारी इच्छा है। मैं तुमपर बोझ डालना नहीं चाहता हूँ, और यदि अल्लाह ने चाहा तो तुम मुझे सदाचारियों में से पाओगे। मूसा ने कहा: यह मेरे और आपके बीच (निश्चित) है। मैं दो में से जो भी अवधि पूरी कर दूँ, मुझपर कोई अत्याचार न हो और हम जो कुछ कह रहे हैं उस पर अल्लाह निरीक्षक है। फिर जब मूसा ने अवधि पूरी कर ली और अपने परिवार के साथ चल पड़े, तो उन्हें तूर (पर्वत) की ओर एक अग्नि देखी, उन्होंने अपने परिवार से कहा: रुको मैंने एक अग्नि देखी है, संभव है कि मैं वहाँ से तुम्हारे पास कोई शुभ समाचार लेकर आऊँ अथवा अग्नि का कोई अंगार, ताकि तुम ताप लो। फिर जब वह वहाँ आये, तो वादी के दाएँ किनारे से, शुभ क्षेत्र में (स्थित एक) वृक्ष से उन्हें पुकारा गया: हे मूसा! निःसंदेह, मैं ही अल्लाह हूँ, सम्पूर्ण संसार का पालनहार। और अपनी लाठी को फेंक दीजिए, फिर जब उसे देखा कि रेंग रही है, मानो वह कोई साँप हो, तो भागने लगे पीठ फेर कर और पीछे मुड़ कर नहीं देखा, तो पुकारा गया, हे मूसा! आगे आएं तथा भय न कीजिए, वास्तव में, आप सुरक्षित हैं। अपना हाथ अपनी जेब में डालें, वह उज्ज्वल होकर निकलेगा बिना किसी रोग के. और जब डर लगे तो अपना बाजू अपने शरीर से मिला लें। यह आप के पालनहार की ओर से फ़िरऔन तथा उसके प्रमुखों के लिए दो खुली निशानियाँ हैं। वास्तव में, वह उल्लंघनकारी जाति हैं। मुसा ने कहा: मेरे पालनहार! मैंने उनके एक व्यक्ति को क़त्ल कर दिया था, इस लिए मैं इस बात से डरता हूँ कि वे मुझे मार देंगे। और मेरा भाई हारून मुझसे अधिक सुभाषी है, तू उसे भी मेरे साथ सहायक बनाकर भेज दे, ताकि वह मेरा समर्थन करे। मैं डरता हूँ कि वे मुझे झुठला देंगे। अल्लाह ने कहा: हम तुम को तुम्हारे भाई द्वारा तुम को बल प्रदान करेंगे और तुम दोनों के लिए ऐसा प्रभाव बनाएँगे कि वे तुम दोनों तक नहीं पहुँच सकेंगे, हमारी निशानियों द्वारा तुम दोनों तथा तुम्हारे अनुयायी ही ऊपर रहेंगे।" [सूरह अल-क़सस: 4-35]

अतः मूसा और उनके भाई अभिमानी बादशाह फ़िरऔन के पास गए, ताकि उसे केवल एक अल्लाह की इबादत करने को कहें, जो सारे संसार का रब है: "फ़िरऔन ने कहा: विश्व का पालनहार क्या है? (मूसा ने) कहा: आकाशों तथा धरती और उन दोनों के बीच की सभी चीज़ों का पालनहार, यदि तुम विश्वास रखने वाले हो। फिरऔन ने अपने आस-पास के लोगों से कहा: क्या तुम सुन नहीं रहे हो? (मूसा ने) कहा: तुम्हारा पालनहार तथा तुम्हारे पूर्वोजों का पालनहार है। (फ़िरऔन ने) कहा: तुम्हारा यह रसूल जो तुम्हारी ओर भेजा गया है, निश्चय ही पागल है। (मूसा ने) कहा: वह पूर्व तथा पश्चिम तथा दोनों के मध्य जो कुछ है, सबका पालनहार है यदि तुम बुद्धि रखते हो। (फ़िरऔन ने) कहा: यदि तूने मेरे अतिरिक्त किसी और को पूज्य बनाया तो तुम्हें क़ैद में डाल दूँगा। (मूसा ने) कहा: मैं तेरे पास (मेरी सच्चाई पर) एक स्पष्ट दलील लेकर आऊँ तब भी? उसने कहा: यदि तू सच्चा है तो उसे पेश कर। फिर मूसा ने अपनी लाठी फेंकी तो अकस्मात् वह एक अजगर बन गई। और अपना हाथ निकाला तो वह देखने वालों के लिए चमक रहा था। फिरऔन ने अपने पास बैठे प्रमुखों से कहा: वास्तव में, यह तो बड़ा दक्ष जादूगर है। यह चाहता है कि अपने जादू की शक्ति से तुम्हें तुम्हारी धरती से निकाल दे, तो अब तुम लोग क्या प्रामश्य देते हो? सरदारों ने कहा: आप मूसा और उसके भाई को कुछसमय दें और शहरों में अपने प्रतिनिधि को भेज दें। वे आपके पास प्रत्येक बड़े दक्ष जादूगर को लायेंगे। तो एक निश्चित दिन एवं निश्चित समय के लिए सभी जादूगरों को एकत्र कर लिए गया। तथा लोगों से कहा गया कि क्या तुम सब एकत्र होने वाले हो? ताकि हम जादूगरों की पैरवी करने लगें यदि वह विजयी हों। और जब जादूगर आए तो फ़िरऔन से कहा: यदि हम हम जीत गए तो क्या हमें कुछ पुरस्कार मिलेगा? फिरऔन ने कहा: हाँ! और तुम सब मेरे निकटतम लोगों में हो जाओगे। मूसा ने उनसे कहा: पेश करो जो कुछ तुम पेश करने वाले हो। तो उन्हों ने अपनी रस्सियाँ तथा लाठियाँ ज़मीन पर डाल दीं तथा कहा: फ़िरऔन के प्रभुत्व की शपथ! हम ही अवश्य विजयी होंगे। अब मूसा ने (भी) अपनी लाठी ज़मीन पर डाल दी जो देखते ही देखते उनके झूठे करतबों को निगलती चली गई। यह देख सभी जादूगर सजदा में चले गए। और कहने लगे हम विश्व के पालनहार पर ईमान ले आए। जो मूसा तथा हारून का पालनहार है। (फ़िरऔन ने) कहा: तुम उसका विश्वास कर बैठे, इससे पहले कि मैं तुम्हें आज्ञा दूँ? वास्तव में, वह तुम्हारा बड़ा (गुरू) है, जिसने तुम्हें जादू सिखाया है, तो तुम्हें शीघ्र ज्ञान हो जाएगा। मैं अवश्य तुम्हारे हाथों तथा पैरों को विपरीत दिशा से काट दूँगा तथा तुम सभी को फाँसी दे दूँगा! सबने कहा: कोई हर्ज नहीं, हमें तो अपने पालनहार की ओर ही लौट कर जाना है। हम आशा रखते हैं कि हमारा पालनहार हमारे पापों को क्षमा कर देगा, क्योंकि हम सबसे पहले ईमान लाने वाले हैं। और हमने मूसा की ओर वह्यी की कि मेरे बंदों को लेकर रातों-रात निकल जा क्योंकि तुम सब का पीछा किया जाएगा। इस के बाद फ़िरऔन ने (फौज) जमा करने के लिए शहरों में लोगों को भेजा। इस संदेश के साथ कि यह बहुत थोड़े लोग हैं। और (इसपर भी) वे हमें अति क्रोधित कर रहे हैं। और हम सब पूरे तौर पर सावधान और मुक़ाबला के लिए तैयार हैं। अन्ततः, हम ने उन्हें उनके बागों, पानी के स्रोतों और मकानों से निकाल दिया। तथा ख़जानों और उत्तम निवास स्थानों से। इसी प्रकार हुआ और हमने इसराईल की संतान को उनका उत्तराधिकारी बना दिया। तो वह लोग सुबह होते ही उनके निकट पहुंच गए। और जब दोनों गिरोहों ने एक-दूसरे को देख लिया तो मूसा के साथियों ने कहा: हम तो निश्चय ही पकड़ लिए गए। तो मूसा ने कहा: कदापि नहीं, निश्चय मेरा पालनहार मेरे साथ है, वह अवश्य मदद करेगा। तो हमने मूसा को वह्यी की कि वह अपनी लाठी से समुद्र को मारें। अकस्मात् समुद्र दो भागों में फट गया तथा प्रत्येक भाग एक बड़े पर्वत के समान हो गया। तथा हम दूसरे गिरोह को उसी स्थान के क़रीब ले आए। और हम ने मूसा और उनके सभी साथियों को बचा लिया। फिर दूसरों को डुबो दिया। इसमें बहुत बड़ी निशानी है परन्तु अधिकतर लोग ईमान लाने वाले नहीं हैं। तथा आपका पालनहार निश्चय अत्यंत प्रभुत्वशाली, दयावान् है। [सूरह अश-शुअरा: 23-67]

जब फ़िरऔन डूबने लगा तो कहने लगा कि मैं इस बात पर ईमान लाता हूँ कि उस अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है जिसपर बनी इसराईल का ईमान है। महान अल्लाह ने कहा है: "(अल्लाह ने कहा): अब जबकि इस से पूर्व अवज्ञा करता रहा और उपद्रवियों में से था? आज हम तेरे शव को बचा लेंगे ताकि तू उनके लिए जो तेरे पश्चात होंगे, एक (शिक्षाप्रद) निशानी बन जाए और वास्तव में, बहुत-से लोग हमारी निशानियों से अचेत रहते हैं।" [सूरह यूनुस: 91-92]

अल्लाह ने मूसा की जाति को, जिसे निर्बल समझा जाता था शाम देश के पश्चिमी छेत्रों तथा पूर्वी छेत्रों का अधिकारी बना दिया, जिसमें उसने बरकतें दी थीं। साथ ही फ़िरऔन और उसकी जाति की कलाकारियों एवं उँचे उँचे महलों को ध्वस्त कर दिया।

इसके बाद अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम पर तौरात नामी ग्रंथ उतारा, जिसमें लोगों के लिए मार्गदर्शन एवं ऐसा प्रकाश था, जो उन्हें वह रास्ता दिखाता था, जो अल्लाह को पसंद है। साथ ही उसमें हलाल एवं हराम का भी विवरण था, जिसका पालन करना मूसा की जाति बनी इसराईल पर अनिवार्य था।

फिर मूसा अलैहिस्सलाम की मृत्यु हो गई और अल्लाह ने उनके बाद उनकी जाति की ओर बहुत-से रसूलों को भेजा, जो उसे सीधा मार्ग बताते थे। एक नबी मृत्यु को प्राप्त होता तो उसके स्थान पर दूसरा नबी आ जाता।

अल्लाह ने हमें उनमें से कुछ नबियों के हालात बताए हैं जैसा कि दाऊद, सुलैमान, अय्यूब और ज़करिय्या, और बहुतों के हालात नहीं बताए हैं। फिर बनी इसराईल के इन नबियों का सिलसिला ईसा अलैहिस्सलाम पर समाप्त होता है, जिनका जीवन, जन्म से लेकर आकाश में उठाए जाने तक, चमत्कारों से भरा हुआ था।

तौरात, जिसे अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम पर उतारा था, समय बीतने के साथ ही यहूदियों के हाथों, जो खुद को मूसा अलैहिस्सलाम के अनुसरणकारी कहते हैं, छेड़छाड़ एवं परिवर्तन का शिकार हो गई। जबकि मूसा अलैहिस्सलाम का इसमें कोई दोष नहीं है। अब उनके पास जो तौरात है, वह वह तौरात नहीं रह गई जो अल्लाह की ओर से उतरी थी। उसमें यहूदियों ने ऐसी बातें दाख़िल कर दीं हैं जो अल्लाह की महानता के अनुरूप नहीं हैं। उसमें उन्होंने अल्लाह के ऐसे-ऐसे गुण बताए हैं जैसा कि अपूर्णता, अज्ञानता और दुर्बलता, जिनसे अल्लाह बिल्कुल पाक है। अल्लाह ने इन लोगों के बारे में कहा है: "तो विनाश है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से पुस्तक लिख लेते हैं, फिर कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है, ताकि उसके बदले कुछ माल कमा सके! तो उनका विनाश है उनके अपने हाथों से लिखने के कारण! और उनका विनाश है उनकी कमाई के कारण!" [सूरह अल-बक़रा: 79]

 ञ- संदेशवाहक ईसा अलैहिस्सलाम

मरयम बिंत इमरान एक पाक, पवित्र और उपासक एवं मूसा अलैहिस्सलाम के बाद आने वाले नबियों पर उतरने वाले अल्लाह के आदेशों का पालन करने वाली स्त्री थीं। उनका संबंध उस परिवार से था जिसे अल्लाह ने संसार वासियों पर चुना था। स्वयं उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "बेशक अल्लाह ने संसार वासियों के मुकाबले में आदम, नूह़, इबराहीम की संतान तथा इमरान की संतान को चुन लिया।" [सूरह आल-ए-इमरान: 33] फ़रिश्तों ने उनको भी यह सुसमाचार सुनाया कि अल्लाह ने उनको चुन लिया है: "और (याद करो) जब फरिश्तों ने मर्यम से कहा: हे मर्यम! आपको अल्लाह ने चुन लिया, तथा पवित्रता प्रदान की और संसार की स्त्रियों पर आपको चुन लिया। हे मर्यम! अपने पालनहार की आज्ञाकारी रहो, सजदा करो तथा रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ करती रहो।" [सूरह आल-ए-इमरान: 42-43]

फिर अल्लाह ने बताया कि उसने मर्यम के पेट में ईसा अलैहिस्सलाम को बिना पिता के कैसे पैदा किया? उसका फ़रमान है: "तथा आप इस पुस्तक (क़ुरआन) में मर्यम की चर्चा करें, जब वह अपने परिजनों से अलग होकर पूरब की ओर एक स्थान चली गई। तो उन्होंने लोगों से पर्दा कर लिया, तो हमने उनकी ओर अपना फरिश्ता जिबरईल भेजा, तो उसने उनके सामने एक पूरे मनुष्य का रूप धारण कर लिया। मर्यम ने कहा: यदि तुम अल्लाह से डरने वाले हो तो मैं तुझ से अत्यंत कृपाशील की शरण माँगती हूँ। उसने कहा: मैं आपके पालनहार का भेजा हुआ हूँ, ताकि आपको एक पवित्र बालक प्रदान करूँ। वह बोली: मुझे बालक कैसे हो सकता है जबकि किसी पुरुष ने मुझे स्पर्श भी नहीं किया है और न मैं व्यभिचारी हूँ? फ़रिश्ता ने कहा: ऐसा ही होगा, आपका रब कहता है कि वह मेरे लिए बहुत आसान है, और ताकि हम उसे (लोगों के लिए) एक निशानी और रहमत बनाएँ, और यह एक निश्चित बात है। फिर वह गर्भवती हो गई तो वह उसे लेकर दूर स्थान पर चली गई। फिर प्रसव पीड़ा उसे एक खजूर के तने तक ले आई। कहने लगी: क्या ही अच्छा होता कि मैं इससे पहले ही मर जाती और भूली-बिसरी हो जाती। तो फरिश्ता ने उसके नीचे से पुकारा कि उदासीन न हो, तेरे पालनहार ने तेरे नीचे एक स्रोत बहा दिया है। खजूर के पेड़ को पकड़ कर अपनी ओर हिला, तुम्हारे लिए ताज़ी पकी खजूरें गिरेंगी। अतः, खा, पी तथा आँख ठंडी कर, फिर यदि किसी पुरुष को देखें, तो कह दें: मैंने अत्यंत कृपाशील के लिए व्रत की रखा है। अतः, मैं आज किसी मनुष्य से बात नहीं करूँगी। फिर वह (शिशु ईसा) को लेकर अपनी जाति में आई, तो सबने कहा: हे मरयम! तूने बहुत बुरा काम किया है। हे हारून की बहन! तेरा पिता कोई बुरा व्यक्ति न था और न तेरी माँ व्यभिचारी थी। मरयम ने उस (शिशु) की ओर इशारा किया, लोगों ने कहा: हम कैसे उससे बात करें, जो गोद में पड़ा हुआ एक शिशु है? वह (शिशु) बोल पड़ा: मैं अल्लाह का बन्दा हूँ। उसने मुझे पुस्तक (इंजील) प्रदान की है तथा मुझे नब़ी बनाया है। तथा मुझे शुभ बनाया है जहाँ रहूँ, और मुझे नमाज़ तथा ज़कात का आदेश दिया है, जब तक जीवित रहूँ। तथा आपनी माँ का सेवक (बनाया है) और उसने मुझे क्रूर तथा अभागा नहीं बनाया है। तथा मुझपर सलामती हो, जिस दिन मेरा जन्म हुआ, जिस दिन मैं मरूँगा और जिस दिन पुनः जीवित किया जाऊँगा। मरयम की संतान ईसा की यही वास्तविकता है, यही सत्य है, जिसके विषय में लोग मतव्भेद कर रहे हैं। अल्लाह के लिए यह उचित नहीं कि वह अपने लिए कोई संतान बनाए, वह पवित्र है, जब वह किसी कार्य का निर्णय करता है तो वह कहता है "हो जा" और वह हो जाता है। और बेशक अल्लाह ही मेरा तथा तुम्हारा पालनहार है, अतः, उसी की इबादत (वंदना) करो, यही सीधा रास्ता है।" [सूरह मरयम: 16-36]

जब ईसा अलैहिस्सलाम ने लोगों को अल्लाह की इबादत की ओर बुलाया तो कुछ लोगों ने उनकी बात मानी और बहुतों ने मानने से इनकार कर दिया। लेकिन वह आह्वान का काम करते रहे, इसपर बहुत-से लोगों ने उनको झुठला दिया, उनके दुश्मन हो गए, बल्कि उनके विरुद्ध एकजुट होकर उनके क़त्ल का इरादा कर लिया। इसपर अल्लाह ने उनसे कहा: हे ईसा! मैं तुमको पूरा लेने वाला हूँ, और आपको अपनी तरफ उठा लेने वाला हूँ और काफिरों से आपको पाक करने वाला हूँ। [सूरह आल-ए-इमरान: 55] वह लोग जो ईसा अलैहिस्सलाम का पीछा कर रहे थे, उन में से एक को ईसा का हम शकल बना दिया, उन लोगों ने उनको ईसा समझ कर पकड़ लिया, उसका वध कर दिया एवं उसकी फांसी दे दी, जहां तक ईसा की बात है तो उनको अल्लाह ने अपने पास उठा लिया, उन्होंने दुनिया छोड़ने से पहले अपने साथियों को यह शुभ संदेश सुनाया कि अल्लाह एक दूसरा संदेशवाहक भेजेगा जिनका नाम अहमद होगा तथा जिनके द्वारा अल्लाह अपने धर्म का प्रचार प्रसार करेगा। जैसा कि उसने कहा: "तथा याद करो जब मरयम के पुत्र ईसा ने कहा: हे इसराईल की संतान! मैं तुम्हारी ओर रसूल बना कर भेजा गया हूँ, और उस तौरात की पुष्टि करने वाला हूँ जो मुझसे पूर्व आई है तथा एक रसूल की शुभ सूचना देने वाला हूँ जो मेरे पश्चात् आएगा जिसका नाम अह़्मद होगा।" [सूरह अस-सफ़्फ़: 6]

कुछ समय बीतने के बाद ईसा अलैहिस्सलाम के मानने वाले विभिन्न समूहों में बट गए, और उनका एक गिरोह ऐसा निकल आया जो ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में अतिशयोक्ति करने लगा और उनको अल्लाह का बेटा मानने लगा, हालांकि अल्लाह उनकी इन बातों से पाक है, दरअसल उनको यह धोखा इस बात से हुआ कि ईसा अलैहिस्सलाम को पिता के बिना ही पैदा होते देखा था। अल्लाह ने इस शंका को दूर करते हुए कहा है: "वस्तुतः अल्लाह के पास ईसा की मिसाल ऐसी ही है,जैसे आदम की। उसे (अर्थात, आदम को) मिट्टी से पैदा किया, फिर उससे कहा: "हो जा", तो वह हो गया।" [सूरह आल-ए-इमरान: 59] इस आयत में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि ईसा अलैहिस्सलाम का बिना पिता के पैदा होना किसी भी दृष्टिकोण से आदम आलैहिस्सलाम के बिना माता-पिता के पैदा होने से अधिक आश्चर्यजनक तो नहीं है।

यही कारण है कि अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में बनी इसराईल को इस प्रकार की बातों से दूर रहने का आदेश देते हुए कहा है: "हे अह्ले किताब (ईसाइयो!) अपने धर्म में हद से आगे न बढ़ो और अल्लाह के मामला में केवल सत्य ही बोलो। मरयम का पुत्र मसीह़ ईसा केवल अल्लाह के रसूल और उसका शब्द थे, जिसे (अल्लाह ने) मरयम की ओर पहुंचा दिया तथा उसकी ओर से एक आत्मा। अतः, अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और यह न कहो कि (अल्लाह) तीन हैं। इससे रुक जाओ। यही तुम्हारे लिए अच्छा है। इसके सिवा कुछ नहीं कि अल्लाह ही अकेला पूज्य है। वह इससे पवित्र है कि उसका कोई पुत्र हो, आकाशों तथा धरती में जो कुछ है, उसी का है और अल्लाह किसी काम के लिए काफी है। मसीह़ कदापि अल्लाह का दास होने को अपमान नहीं समझते और न (अल्लाह के) समीपवर्ती फ़रिश्ते। जो व्यक्ति अल्लाह की (वंदना को) अपमान समझेगा तथा अभिमान करेगा, तो उन सभी को वह अपने पास एकत्र करेगा। फिर जो लोग ईमान लाए तथा सत्कर्म किए, तो उन्हें उनका भरपूर प्रतिफल देगा और उन्हें अपनी दया से अधिक भी देगा। परन्तु जिन्होंने (वंदना को) अपमान समझा और अभिमान किया, तो उन्हें दुःखदायी यातना देगा तथा अल्लाह के सिवा वह कोई रक्षक और सहायक नहीं पाएंगे।" [सूरह अन-निसा: 171-173]

जबकि अल्लाह क़यामत के दिन ईसा अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहेगा: "तथा जब अल्लाह (प्रलय के दिन) कहेगा: हे मरयम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि अल्लाह को छोड़कर मुझे तथा मेरी माता को पूज्य (आराध्य) बना लो? वह कहेगा: तू पवित्र है, मुझसे यह कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूँ, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने कहा होगा तो तुझे अवश्य उसका ज्ञान होगा। तू मेरे मन की बात जानता है और मैं तेरे मन की बात नहीं जानता। वास्तव में, तू ही परोक्ष (ग़ैब) का अति ज्ञानी है। मैंने केवल उनसे वही कहा था जिसका तू ने आदेश दिया था कि अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम सभी का पालनहार है। मैं उनकी दशा जानता था, जब तक उनमें था और जब तू ने मुझे उठा लिया तो उसके बाद से तू ही उनके कामों को जानता था और तू प्रत्येक वस्तु का साक्षी है। यदि तू उन्हें दंड दे, तो वे तेरे दास (बन्दे) हैं और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे, तो वास्तव में तू ही प्रभावशाली गुणी है। अल्लाह कहेगा: यह वह दिन है जिसमें सच्चों को उनका सच ही लाभ देगा। उन्हीं के लिए ऐसे स्वर्ग हैं जिन के नीचे नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदैव रहेंगे, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया तथा वे अल्लाह से प्रसन्न हो गए, और यही सबसे बड़ी सफलता है।" [सूरह अल-माइदा: 116-119]

अतः ईसा अलैहिस्सलाम इन करोड़ों लोगों से बरी हैं जो स्वयं को ईसाई कहते हैं और यह दावा करते हैं कि वे ईसा अलैहिस्सलाम के अनुयायी हैं।


 3- अंतिम नबी एवं रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम

ईसा अलैहिस्सलाम के उठाए जाने के बाद लगभग छह सदियों का एक लंबा समय गुज़र गया और लोग सत्य के मार्ग से काफ़ी दूर हो गए तथा उनके यहाँ अवमानना, गुमराही और ग़ैरुल्लाह की उपासना जैसी चीज़ें फैल गईं। ऐसे में अल्लाह ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को हिजाज़ की भूमि के मक्का शहर में हिदायत एवं सत्य धर्म के साथ भेजा, ताकि लोग केवल एक अल्लाह की इबादत करें, जिसका कोई साझी नहीं है। अल्लाह ने आपको कई निशानियाँ एवं चमत्कार भी दिए, जो आपके नबी होने के दावे को सिद्ध करते थे। और अल्लाह ने आपके द्वारा नबियों के सिलसिलेे का अंत कर दिया, आपके धर्म को अंतिम धर्म घोषित कर दिया और उसे क़यामत के दिन तक के लिए किसी प्रकार के परिवर्तन और छेड़छाड़ से सुरक्षित कर दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि मुहम्मद कौन हैं? उनकी जाति कौन-सी जाति है? अल्लाह ने उनको कैसे रसूल बनाया था? उनकी नब़वत के क्या-क्या प्रमाण हैं? तथा आपके जीवन का विवरण क्या है? हम इन्हीं प्रश्नों का उत्तर आने वाले पृष्ठों में संक्षिप्त रूप से देने का प्रयास करेंगे।

 क- आपका वंश एवं पारिवारिक सम्मान

आपका नाम मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम बिन अब्द-ए-मनाफ़ बिन कुसै बिन किलाब है। आपका नसब इस्माईल बिन इबराहीम अलैहिमस्सलाम से जा मिलता है। आपका संबंध क़ुरैश क़बीले से था। क़ुरैश एक अरब क़बीला था। आपका जन्म 571 ईस्वी को हुआ। आप माँ के पेट ही में थे कि पिता का देहांत हो गया। अतः अनाथ अवस्था में अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब की देखरेख में बड़े हुए। फिर जब दादा की मृत्यु हो गई, तो चचा अबू तालिब ने परवरिश की।

 ख- आपके गुण

हम पीछे कह आए हैं कि अल्लाह की ओर से चयनित रसूल को आवश्यक रूप से आत्म उत्कृष्टता, सत्यता एवं अच्छे आचरण के शिखर पर विराजमान होना चाहिए। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी ऐसे ही थे। बचपन ही से आप एक सच्चे, अमानतदार, चरित्रवान, मधुरभाषी, स्पष्ट बात करने वाले, निकट एवं दूर सबके प्रिय, पूरी जाति की नज़र में सम्मानित व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। लोग आपको अल-अमीन यानी अमानतदार की उपाधि से पुकारा करते और यात्रा में निकलते समय आपके पास अपनी अमानतें रखकर जाते थे।

अच्छे आचरण के साथ-साथ आप सुंदर भी थे। आपके दीदार से आँख थकती नहीं थीं। गोरा चेहरा, बड़ी-गहरी आँखें, लंबी-लंबी पलकें, काले-काले बाल, चौड़े कंधे, न अधिक लंबे और न नाटे। क़द दरमियाना था। एक हद तक लंबे ही दिखते थे। आपके एक साथी ने आपकी विशेषता बयान करते हुए कहा है: "मैंने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को एक यमनी जोड़े में देखा, तो महसूस किया कि मैंने आप से सुंदर व्यक्ति कभी नहीं देखा है।" आप अनपढ़ थे, न पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे। आप पैदा भी हुए थे एक अनपढ़ जाति में, जिसमें पढ़ने-लिखने वालों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन थे वे चतुर, मज़बूत याददाश्त के मालिक और तेज़ दिमाग़।

 ग- क़ुरैश तथा अरब

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जाति तथा आपके परिवार के लोग मक्का में अल्लाह के पवित्र घर काबा के निकट रहते थे, जिसे बनाने का आदेश अल्लाह ने इबराहीम अलैहिस्सलाम और उनके पुत्र इसमाईल अलैहिस्सलाम को दिया था।

लेकिन ज़माना के गुजरने के साथ साथ वे इब्राहीम अलैहिस्सलाम के धर्म (केवल एक अल्लाह की उपासना) से हट गए थे, और उन्होंने तथा उनके आस-पास के क़बीलों ने पत्थर, लकड़ी और सोने के बुत बनाकर काबा के चारों ओर रख लिए थे। वे उन बुतों को पवित्र जानते और उन्हें लाभ एवं हानि का मालिक मानते थे। उन्होंने उनकी पूजा के कई रस्म भी बना लिए थे। उनका एक मशहूर बुत हुबल था, जो उनका सबसे बड़ा और सम्मानित बुत था। मक्का के बाहर भी उनके कई अन्य बुत एवं पेड़ थे, जिनकी पूजा की जाती थी और जिनको श्रद्धा का पात्र समझा जाता था। जैसे लात, उज़्ज़ा एवं मनात आदि। उनका जीवन अभिमान, घमंड, दूसरों पर अत्याचार और रक्तरंजित युद्धों से भरा हुआ था। हालाँकि उनके अंदर बहादुरी, अतिथि सत्कार और सत्यता जैसी कुछ अच्छाई भी थीं।

 घ- मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नबी बनाया जाना

जब अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आयु चालीस साल की हुई, और आप मक्का के बाहर हिरा नामी एक गुफ़ा में थे कि आपके पास आकाश की ओर से अल्लाह की पहली वह्य आई। हुआ यूँ कि जिबरील अलैहिस्सलाम आपके पास आए, आपको अपने सीने से लगाकर इस तरह दबाया कि आपकी सहन शक्ति जवाब देने लगी और और उसके बाद कहा कि पढ़िए। जब आपने कहा कि मैं पढ़ना नहीं जानता, तो दोबारा सीने से लगाकर इस तरह दबाया कि आपकी सहन शक्ति फिर से जवाब देने लगी और उसके बाद आपसे कहा कि पढ़िए। जब आपने दोबारा उत्तर दिया कि मैं पढ़ना नहीं जानता, तो तीसरी बार आपको सीने से लगाकर इस तरह दबाया कि आपकी सहन शक्ति जवाब देने लगी और उसके बाद जब कहा कि पढ़िए, तो आपने पूछा कि मैं क्या पढ़ूँ? उन्होंने कहा: "अपने पालनहार के नाम से पढ़, जिसने पैदा किया। जिसने मनुष्य को रक्त के लोथड़े से पैदा किया। पढ़, और तेरा पालनहार बड़ा उदार है। जिसने क़लम के द्वारा ज्ञान सिखाया। इन्सान को उसका ज्ञान दिया जिसको वह नहीं जानता था।" [सूरह अल-अलक़: 1-5]

जब फ़रिश्ता आपको छोड़कर चला गया तो आप भयभीत होकर एवं घबराए हुए घर वापस आए और अपनी पत्नी खदीजा से कहा कि मुझे चादर ओढ़ा दो, क्योंकि मुझे अपनी जान का भय लग रहा है। यह सुन आपकी पत्नी ने कहा: ऐसा नहीं हो सकता, अल्लाह की क़सम वह आपको कभी दुखी नहीं होने देगा। आप रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निभाते हैं, असहाय लोगों का बोझ उठाते हैं और सत्य के मार्ग में आने वाली आपदाओं पर मदद करते हैं।

फिर आपके पास जिबरील अलैहिस्सलाम दोबारा अपने असली रूप में आए। वह पूरे क्षितिज को घेरे हुए थे। उन्होंने कहा कि ऐ मुहम्मद! मैं जिबरील हूँ और आप अल्लाह के रसूल हैं।

फिर आकाश की ओर से निरंतर वह्यी का सिलसिला जारी रहा, जिसके माध्यम से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को आदेश दिया गया कि अपनी जाति को केवल एक अल्लाह की उपासना का आदेश दें और उन्हें बहुदेववाद और अविश्वासवाद से सावधान करें। तो आप एक एक करके अपने निकटवर्तियों से इस्लाम ग्रहण करने का आह्वान करने लगे। आपके आह्वान को सबसे पहले आपकी पत्नी खदीजा बिंत खुवैलिद, मित्र अबू बक्र सिद्दीक़ और चचेरे भाई अली बिन अबू तालिब ने स्वीकार किया।

जब लोगों को आपके आह्वान की जानकारी हुई तो वह आपको इस कार्य से रोकने लगे, आपके विरुद्ध चालें चलने लगे एवं आपके शत्रु बन गए। एक दिन सुबह के समय आप लोगों को ऊँची आवाज़ में पुकार कर कहा: "वा सबाहाह" अरब के लोग इस शब्द का प्रयोग लोगों को जमा करने के लिए करते थे। इसे सुनकर लोग यह जानने के लिए आने लगे कि आप क्या कहते हैं। जब सब लोग जमा हो गए तो पूछा: "यदि मैं बताऊँ कि शत्रु तुमपर सुबह या शाम के समय हमला करने वाला है, तो क्या तुम लोग मेरी बात को सच मानेंगे?" लोगों ने उत्तर दिया: हमने कभी आपको झूठ बोलते हुए नहीं देखा है। आपने कहा: "तब सुनो, मैं तुम्हें कठिन यातना से डराने वाला बनकर आया हूँ।" यह सुनकर आपके चचा अबू लहब ने कहा,: तेरा नाश हो, क्या यही कहने के लिए तू ने हमें जमा किया था? याद रहे अबू लहब और उसकी पत्नी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सबसे अधिक दुश्मनी रखने वाले लोगों में से थे, इसी अवसर पर अल्लाह ने अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर या सूरह उतारी: "अबू लहब बर्बाद हो गया और वह कभी कामयाब न हुआ। उसका धन तथा जो उसने कमाया उसके काम नहीं आया। वह शीघ्र ही भड़कती हुई आग में प्रवेश करेगा। तथा उसकी पत्नी भी, जो लकडियाँ लिए फिरती है। उसकी गर्दन में मूँज की एक रस्सी होगी। [सूरह अल-मसद: 1-5]

इसके बाद भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उन्हें इस्लाम की ओर बुलाते रहे और उनसे कहते रहे कि 'ला इलाहा इल्लल्लाहु' कह दो, सफल हो जाओगे। यह सुनकर लोगों ने कहा कि इसने तो बहुत-से पूज्यों की जगह एक ही पूज्य बना डाला? यह तो बडी आश्चर्यजनक बात है।

इधर अल्लाह की ओर से ऐसी आयतें उतरती रहीं जो लोगों को सही मार्ग की ओर बुलाती और जिस गुमराही में वे पड़े हुए थे, उस से सावधान करती थीं। उन में से एक अल्लाह का यह कथन है: "हे मेरे नबी! आप कह दें कि क्या तुम उस अल्लाह का इनकार करते हो जिसने धरती को दो दिन में पैदा किया, और उसका साझी बनाते हो? वही है सर्वलोक का पालनहार। उसी ने धरती में उसके ऊपर पर्वत बनाए तथा उसमें बरकत रख दी, और चार दिनों में उसमें रहने वाले वासियों के आहारों का समान रूप से आकलन किया, और यह प्रश्न करने वालों के लिए है। फिर आकाश की ओर ध्यान केंद्रित किया जब वह धुआँ था, तो उसे तथा धरती को आदेश दिया कि तुम दोनों आ जाओ खुशी से अथवा मजबूरी से। तो दोनों ने कहा: हम खुशी से आ गए। फिर उसने आकाश को दो दिनों में सात आकाश बना दिया, तथा प्रत्येक आकाश में उस से संबंधित आदेश जारी कर दिया, तथा हमने समीप के (पहले) आकाश को दीपों (तारों) से सुसज्जित तथा उनके द्वारा उनको सुरक्षित कर दिया। यह अति प्रभाव्शाली सर्वज्ञ की योजना है। फिर भी यदि वह विमुख हों, तो आप कह दें कि मैंने तुम्हें आद तथा समूद की कड़ी यातना जैसी कड़ी यातना से सावधान कर दिया। [सूरह फ़ुस्सिलत: 9-13]

लेकिन इन आयतों और आह्वान का कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उनकी सरकशी और सत्य से दूरी बढ़ती ही गई। इतना ही नहीं बल्कि वे हर उस व्यक्ति को कठिन यातना देने लगे जो इस्लाम ग्रहण कर लेता। उन कमज़ोर लोगों को तो कुछ अधिक ही यातनाएँ सहनी पड़ीं जिनका कोई मददगार न था। ऐसा भी हुआ कि किसी के सीने पर एक बड़ा सा चट्टान रख दिया जाता और उसे सख़्त धूप के समय बाज़ारों में खींचते और कहते कि मुहम्मद के धर्म से अलग हो जाओ या फिर यह यातना सहते रहो। इस तरह की यातना सहन न कर पाने की वजह से उन में से कई लोगों की मृत्यु हो गई।

जहाँ तक अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बात है, तो आपको अपने चचा अबू तालिब की सुरक्षा प्राप्त थी, जो आपसे प्यार करते और आपका ख़याल रखते थे। उनकी गिनती क़ुरैश क़बीला के बड़े लोगों में होती थी। लेकिन इन सबके बावजूद वह मुसलमान नहीं हुए।

क़ुरैश ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ मोल भाव करने की भी कोशिश की। उन्होंने धन, राज्य एवं ऐश व आराम की चीज़ों की पेशकश की और इस नए धर्म से किनारा कर लेने को कहा जो उनके पवित्र पूज्यों को त्यागने का आह्वान करता था, जबकि वह उनको पवित्र मानते थे और उनकी इबादत करते थे, लेकिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम टस से मस नहीं हुए, क्योंकि आप जो कुछ कर रहे थेे, वह अल्लाह का आदेश था, यदि वह उससे किनारा कर लेते तो अल्लाह की यातना के हक़दार ठहरते। आपने उनसे कहा कि मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ और तुम मेरी जाति और मेरे खानदान के लोग हो। "अल्लाह की कसम! मैं सारे लोगों से झूठ बोल सकता हूँ पर तुमसे नहीं और सारे लोगों को धोखा दे सकता हूँ पर तुम को नहीं दे सकता।"

जब क़ुरैश का यह भाव ताव का प्रयास भी विफल हो गया तो उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके अनुसरणकारियों के साथ शत्रुता की धार को और तेज़ कर दिया। उन्होंने अबू तालिब से अनुरोध किया कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उनके हवाले कर दें, ताकि आपका वध कर दें, और इसके बदले वह जो चाहें देंगे, या वह उनके बीच अपने धर्म का प्रचार रोक दें। अबू तालिब ने जब आपसे इस्लाम का प्रचार बंद करने को कहा,

तो आपकी आँखें डबडबा गईं और फ़रमाया: "चचा जान! अगर वे मेरे दाएँ हाथ में सूरज और बाएँ हाथ में चाँद रख दें और उसके बदले में मुझे इस धर्म का परित्याग करने को कहें, तब भी मैं उसे उस समय तक छोड़ नहीं सकता, जब तक अल्लाह उसे स्थापित न कर दे, या मैं उसका प्रचार करते हुए मर न जाऊँ।"

यह सुनकर आपके चचा ने कहा: तुम अपना काम जारी रखो। अल्लाह की क़सम! जब तक मैं ज़िंदा हूँ तुम पर कोई आँच नहीं आने दूँगा। फिर जब अबू तालिब की मृत्यु का समय आया तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास पहुँचे। उस समय उनके पास क़ुरैश के कई सरदार मौजूद थे। आपने अपने चचा से इस्लाम ग्रहण करने का आग्रह किया और कहा कि चचा जान! बस आप एक बार ला इलाहा इल्लल्लाहु कह दें, मैं उसको आधार बनाकर अल्लाह से आपके लिए बात करूँगा। यह सुन क़ुरैश के मणमान्य लोगों ने अबू तालिब से कहा कि क्या आप अब्दुल मुत्तलिब का धर्म छोड़ देंगे? क्या आप अपने पूर्वजों के धर्म का परित्याग कर देंगे? यह सुन अबू तालिब अपने पूर्वजों का धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण करने पर राज़ी न हुए और शिर्क की अवस्था ही में दुनिया से चले गए। अपने प्यारे चचा के शिर्क की अवस्था में मृत्यु का अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बड़ा दुख हुआ। ऐसे में अल्लाह ने आपसे कहा: "(हे नबी!) आप जिसे चाहें सुपथ नहीं दिखा सकते, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे सुपथ दिखाता है, और वह सुपथ प्राप्त करने वालों को भली-भाँति जानता है।" [सूरह अल-क़सस: 56]

चचा अबू तालिब की मृत्यु के पश्चात अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। आप जब काबा के निकट नमाज़ पढ़ रहे होते तो लोग जानवरों के मल लाकर आपकी पीठ पर डाल जाते।

इन हालात में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ताइफ़ गए, ताकि ताइफ़ वालों को इस्लाम की ओर बुलाया जा सके। (ताइफ़ मक्का से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक शहर है।) लेकिन ताइफ़ वालों ने आपके आह्वान को मक्का वालों से भी कठोर तरीक़े से ठुकरा दिया। उन्होंने आपको ताइफ़ से निकाल दिया और अपने कुछ मूर्ख लोगों को वरगलाया, जो आपके पीछे-पीछे चल रहे थे और आपको पत्थर मारते जा रहे थे। इससे आपकी दोनों एड़ियाँ खून से लत-पत हो गईं।

ऐसे में आपने अपने रब से दुआ की और मदद माँगी, तो अल्लाह ने आपके पास एक फ़रिश्ते को भेजा जिसने आपसे कहा कि आपके पालनहार ने आपके साथ जो व्यवहार हुआ है उसे देखा है। अतः यदि आप चाहें तो वह मक्का के दोनों जानिब स्थित दोनों बड़े-बड़े पहाड़ों को आपस में मिले दे और इन लोगों को पीसकर रख दे। लेकिन आपने उत्तर दिया कि नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मुझे उम्मीद है कि इन लोगों के बाद इनकी नस्ल से ऐसे लोग पैदा होंगे, जो केवल एक अल्लाह की उपासना करेंगे और किसी को उसका साझी नहीं ठहराएँगे।

इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का आ गए। इस्लाम ग्रहण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के साथ दुश्मनी एवं उत्पीड़न का सिलसिला निरंतर जारी रहा। कुछ दिनों बाद यसरिब (जो बाद में मदीना के नाम से जाना जाने लगा) के कुछ लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आए। आपने उन्हें इस्लाम के बारे में बताया तो वे मुसलमान हो गए। आपने उनके साथ अपने एक साथी मुसअब बिन उमैर रज़ियल्लाहु अनहु को भेज दिया कि यसरिब पहुँचकर उन्हें इस्लाम की शिक्षा दें, उनके हाथ पर बहुत-से मदीना वासी मुसलमान हो गए।

यह लोग अगले साल अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आए और आपके हाथ पर हाथ रखकर इस्लाम पर जमे रहने का संकल्प लिया। इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने उत्पीड़न के शिकार साथियों को मक्का छोड़ मदीना चले जाने का आदेश दिया और लोग समूहों में तथा अकेले जैसे मौक़ा मिला, जाने लगे। इन लोगों को मुहाजिर के नाम से जाना गया। इनका मदीना वासियों ने खुले दिल से स्वागत किया, सम्मान दिया और न केवल अपने घरों में अतिथि के रूप में रखा, बल्कि अपने धन और अपने घरों का भी उनको बराबर हिस्सा दिया। इन लोगों को बाद में अंसार के नाम से जाना गया।

जब क़ुरैश के इस हिजरत के बारे में मालूम हुआ तो आपको जान से मार डालने का निर्णय ले लिया। निर्णय हुआ कि रात में आपके घर को घेर लिया जाए और जब आप निकलें सब मिलकर एक साथ वार करें। लेकिन अल्लाह ने आपको सुरक्षित निकाल लिया और उनको कुछ पता भी न चल सका। अबू बक्र रज़ियल्लाहु अनहु भी आपके साथ मक्का से निकल पड़े, मगर अली रज़ियल्लाहु अनहु को आदेश मिला कि मक्का में रहें और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास जो अमानतें रखी पड़ी थीं, उन्हें उनके मालिकों के हवाले कर दें।

अपनी विफलता देख क़ुरैश ने यह ऐलान कर दिया कि जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को जीवित या मृत पकड़कर लाएगा उसे एक कीमती पुरस्का दिया जाएगा। लेकिन यहां भी अल्लाह ने आपको उनसे बचा लिया। आप अपने साथी अबू बक्र रज़ियल्लाहु अनहु के साथ सुरक्षित मदीना पहुँच गए।

मदीना वासियों ने आपका भव्य स्वागत किया। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के स्वागत में सारे लोग घरों से निकल पड़े और कहने लगे कि अल्लाह के रसूल आ गए, अल्लाह के रसूल आ गए।

अब आपको एक स्थायी निवास मिल गया था। आपने मदीने में सबसे पहले नमाज़ पढ़ने के लिए एक मस्जिद बनाई और लोगों को इस्लाम के विधि-विधान सिखाने लगे, क़ुरआन पढ़ाने लगे और उच्च नैतिकता की शिक्षा देने लगे। आपके साथियों ने भी पूरे मन से आपसे इस्लाम सीखा, अंतरात्मा को विशुद्ध किया और अपने आचरण को उच्च बनाया। उनके दिलों में आपके प्रति अथाह प्रेम की लहरें जोश मारने लगीं, उन्होंने आपके गुणों को अपने अंदर समाहित कर लिया और फलस्वरूप उनके अंदर ईमानी बंधुत्व का संबंध सुदृढ़ हो गया। इस तरह मदीना सचमुच एक आदर्श मदीना (शहर) बन गया, जो सौभाग्य तथा बंधुत्व के वातावरण में जी रहा था। उसके वासियों में धनी एवं निर्धन, गोरे एवं काले और अरब तथा गैरअरब के बीच कोई भेदभाव नहीं था। एक-दूसरे पर यदि कोई श्रेष्ठता प्राप्त थी, तो केवल ईमान एवं धर्मपरायणता के आधार पर। अल्लाह के इन चयनित बंदों से जो नस्ल बनी, उसे इतिहास की सर्वश्रेष्ट नस्ल होने का गौरव प्राप्त हुआ।

हिजरत के एक साल बाद से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एवं आपके साथियों तथा क़ुरैश एवं उनके साथ इस्लाम दुश्मनी के मार्ग पर चलने वालों के बीच टकराव एवं युद्ध का सिलसिला शुरू हुआ।

अतः दोनों समूहों के बीच पहला युद्ध हुआ , जिसे बद्र युद्ध के नाम से जाना गया और जो मक्का एवं मदीना के बीच स्थित एक वादी में हुआ, उसमें अल्लाह ने 313 मुसलमानों को क़ुरैश के 1000 योद्धाओं पर शानदार विजय प्रदान की। यह एक बड़ी विजय थी, जिसमें क़ुरैश के 70 लोग मारे गए, जिनमें अधिकतर गणमान्य एवं प्रमुख लोग थे। इसी तरह उनके 70 लोग बंदी बना लिए गए, जबकि बाकी लोग भाग गए।

इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और क़ुरैश के बीच अन्य कई युद्ध हुए तथा अंत में (मक्का से निकलने के आठ वर्ष बाद) अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 10,000 मुसलमानों के साथ मक्का की ओर निकले और क़ुरैश के विरुद्ध खुद उनके घर में एक शानदार विजय प्राप्त की। आपने अपने उस क़बीला को पराजित किया जिसने आपको जान से मारने की योजना बनाई थी, आपके साथियों को यातनाएँ दी थी और उस धर्म से रोका था, जो आपको अल्लाह की ओर से मिला था।

लेकिन आपने इस ऐतिहासिक विजय के बाद उनको एकत्र किया और कहा: "क़ुरैश के लोगों! तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुम्हारे साथ क्या करूँगा?" उन्होंने उत्तर दिया कि आप एक उदार दिल वाले भाई तथा उदार दिल वाले भाई के बेटे हैं। यह सुन आपने कहा: "जाओ, तुम सब स्वतंत्र हो।" इस तरह आपने उनको माफ़ कर दिया और उन्हें यह आज़ादी दी कि इस्लाम धर्म ग्रहण करना या न करना उनकी मर्ज़ी पर निर्भर है।

यही कारण था कि लोग बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान होने लगे और देखते ही देखते पूरा अरब प्रायद्वीप मुसलमान हो गया।

कुछ ही दिनों बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हज किया, तो आपके साथ 114,000 नए मुसलमान होने वाले लोगों ने हज करने का सौभाग्य प्राप्त किया।

हज के इस पावन अवसर पर आपने अरफ़ा के दिन खड़े होकर खुतबा दिया और लोगों को इस्लाम के विधि-विधान एवं आदेश-निषेध बताए और कहा: हो सकता है कि इस वर्ष के बाद मैं तुमसे दोबारा न मिल सकूँ, अतः यहाँ उपस्थित हर व्यक्ति उन लोगों तक मेरी बात पहुँचा दे जो उपस्थित नहीं हैं। फिर लोगों की ओर देखा और पूछा: क्या मैंने अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया है? लोगों ने जब हाँ में उत्तर दिया तो बोले: ऐ अल्लाह! तू गवाह रह। फिर लोगों से पूछा कि क्या मैंने अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया है? लोगों ने जब फिर हाँ में उत्तर दिया तो फ़रमाया कि ऐ अल्लाह! तू गवाह रह।

हज के बाद आप मदीना वापस आ गए और एक दिन लोगों को संबोधिक करते हुए कहा: एक बंदे को अल्लाह ने यह विकल्प दिया था कि चाहे तो सदा दुनिया में रहे और चाहे तो अल्लाह के पास जो कुछ है, उसे चुने। उसने अल्लाह के पास जो कुछ है, उसे चुन लिया। यह सुनकर आपके साथी रो पड़े, वह जान गए कि आप अपनी ही बात कर रहे हैं और आपके दुनिया छोड़ने का समय निकट आ गया है। अंततः सोमवार के दिन, 12 रबी अल-अव्वल, 11 हिजरी को आपकी बीमारी बढ़ गई और मृत्यु की निशानियाँ सामने आने लगीं। इस कठिन क्षण में आपने अपने साथियों की ओर विदा होने के अंदाज़ में देखा और उन्हें नमाज़ की पाबंदी करने का आदेश दिया तथा इसके साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो गए।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथी आपकी मृत्यु से शोकाकुल हो गए। इस अप्रत्याशित घटना का उनपर इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि उमर रज़ियल्लाहु अनहु घबराकर तलवार लेकर खड़े हो गए और कहने लगे कि जो मुझे यह कहता हुआ मिलेगा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु हो गई है तो मैं उसकी गर्दन उड़ा दूँगा।

यह देख अबू बक्र रज़ियल्लाहु अनहु उठे और उनको अल्लाह का यह कथन याद दिलाया: "मुह़म्मद केवल एक रसूल हैं, इससे पहले बहुत-से रसूल हो चुके हैं, तो क्या यदि वह मर गए अथवा मार दिए गए तो क्या तुम अपनी एड़ियों के बल फिर जाओगे? तथा जो अपनी एड़ियों के बल फिर जाएगा वह अल्लाह को कुछ हानि नहीं पहुँचाएगा और अल्लाह शीघ्र ही कृतज्ञों को प्रतिफल प्रदान करेगा।" [सूरह आल-ए-इमरान: 144] जब उमर रज़ियल्लाहु अनहु ने यह आयत सुनी तो बेहोश होकर गिर पड़े।

यह अंतिम नबी तथा रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं, जिन्हें अल्लाह ने समस्त मानव समाज की ओर शुभ सूचना देने वाला एवं सावधान करने वाला बनाकर भेजा था। आपने अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया, उसकी अमानत अदा कर दी और पूरी मानव जाति को अच्छा रास्ता दिखाया।

अल्लाह ने आपकी पवित्र क़ुरआन द्वारा मदद की, जो अल्लाह की वाणी है और जिसे अल्लाह ने आकाश से उतारा है, जिसके "आगे से और जिसके पीछे से झूठ नहीं आ सकता। तत्वज्ञ, प्रशंसित (अल्लाह) की ओर से उतरा है। [सूरह फ़ुस्सिलत: 42] क़ुरआन ऐसा ग्रंथ है कि यदि दुनिया के आरंभ से अंत तक के सारे लोग एकत्र होकर, एक दूसरे का मददगार बनकर उस जैसा कोई ग्रंथ तैयार करने का प्रयास करें, तब भी सफल नहीं हो सकेंगे।

महान अल्लाह ने कहा है: "हे लोगो! केवल अपने उस पालनहार की इबादत (वंदना) करो, जिसने तुम्हें तथा तुमसे पहले वाले लोगों को पैदा किया है, ताकि तुम धर्मी बन जाओ। जिसने धरती को तुम्हारे लिए बिछौना तथा आकाश को छत बनाया, और आसमान से पानी बरसाया, फिर उससे तुम्हारे लिए प्रत्येक प्रकार के फल निकाले, तुम्हारे खाने के लिए, अतः, यह जानते हुए भी उसके साझी न बनाओ। और यदि तुम्हें उसमें कुछ संदेह हो, जो (क़ुरआन) हमने अपने बन्दे पर उतारा है, तो उसके समान कोई सूरह ले आओ? और अपने समर्थकों को भी, जो अल्लाह के सिवा हों, बुला लो, यदि तुम सच्चे हो। और यदि यह न कर सको, तथा तुम ऐसा कभी कर भी न सकोगे, तो उस अग्नि (नरक) से डरो, जिसका ईंधन इंसान तथा पत्थर होंगे, और इसे काफिरों के लिए तैयार किया गया है। "(हे नबी!) उन लोगों को शुभ सूचना दे दो जो ईमान लाए तथा अच्छा काम किए कि उनके लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। जब उनका कोई भी फल उन्हें दिया जाएगा तो कहेंगे: यह तो वही है जो इससे पहले हमें दिया गया और उन्हें समरूप फल दिए जाएँगे तथा उनके लिए उनमें निर्मल पत्नियाँ होंगी और वे उनमें सदैव रहेंगे।" [सूरह अल-बक़रा: 21-25]

क़ुरआन के अंदर एक सौ चौदह सूरह और छह हज़ार से अधिक आयतें हैं। अल्लाह ने हर युग के मानव संप्रदाय को चुनौती दे रखी है कि क़ुरआन की सूरतों जैसी एक छोटी-सी सूरत ही लाकर दिखाएँ, हालाँकि उसकी सबसे छोटी सूरत केवल तीन आयतों से बनी है।

अगर वे ऐसा कर दें तो इसका अर्थ यह होगा कि क़ुरआन अल्लाह की वाणी नहीं है। दरअसल क़ुरआन अल्लाह की ओर से अपने रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को प्रदान किए गए बड़े चमत्कारों में से है, जैसा कि उसने अपने नबी को और भी कई चमत्कार दिए थे, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

 ङ- अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को प्रदान किए गए चमत्कार:

1- आप ने बरतन में हाथ रखकर अल्लाह से दुआ की तो आपकी उंगलियों के बीच से पानी के सोते फूट पड़े, जिससे एक हज़ार से अधिक सिपाहियों वाली सेना ने अपनी प्यास बुझाई।

2- आप ने भोजन में हाथ रखकर अल्लाह से दुआ की, तो एक प्लेट खाना इतना बढ़ गया कि उससे पंद्रह सौ सहाबा ने खाया ।

3- आप ने आकाश की ओर अपने हाथों को उठाकर अल्लाह से बारिश की दुआ की,तो कुछ ही क्षणों में बारिश शुरू हो गई। इसके अतिरिक्त भी आपको अन्य कई चमत्कार प्रदान किए गए थे।

अल्लाह ने आपकी सुरक्षा की ज़िम्मेवारी खुद ले रखी थी, फलस्वरूप आपको जान से मारने और अल्लाह की ओर से लाए हुए प्रकाश को बुझाने का इरादा रखने वाला कोई व्यक्ति आप तक पहुँच नहीं पाता था। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "हे रसूल! जो कुछ आप पर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे (सबको) पहुँचा दें और यदि ऐसा नहीं किया तो आपने उसका संदेश नहीं पहुँचाया और अल्लाह लोगों (विरोधियों) से आपकी रक्षा करेगा।" [सूरह अल-माइदा: 67]

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, अल्लाह की मदद से, अपने सभी कर्मों एवं कथनों में एक उत्तम आदर्श थे, आप अपने उपर उतरने वाले अल्लाह के आदेशों का सर्वप्रथम लागू करने वाले व्यक्ति थे, इबादतों एवं आज्ञापालन के मामला में तमाम लोगों में सबसे पहले थे, सबसे दानशील थे, अपने हाथ में जो कुछ होता उसे अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए गरीबों एवं निर्धनों में बाँट देते थे, बल्कि आपने अपनी मीरास तक को दान कर दिया। अपने साथियों से कहा था: "हम नबियों का कोई वारिस नहीं होता, हम जो कुछ छोड़ जाते हैं, वह सदक़ा होता है।"

जहाँ तक आपके आचरण की बात है, तो उस ऊँचाई तक पहुँचना किसी के वश की बात नहीं है। जो भी आपके साथ रहता दिल से आपको चाहने लगता और आप उसके निकट, उसकी संतान, माता-पिता एवं अन्य सभी लोगों से प्रिय बन जाते।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सेवक अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अनहु कहते हैं: "मैंने कोई ऐसी हथेली नहीं छूई, जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हथेली से अधिक पवित्र, नर्म एवं सुगंधित हो। मैंने दस साल आपकी सेवा की लेकिन आप ने कभी किसी काम के करने पर यह नहीं कहा कि तू ने इसे क्यों किया और न किसी काम के न करने पर यह कहा कि तूने इसे क्यों नहीं किया।"

यह हैं अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, जिनके मरतबा को अल्लाह ने ऊँचा किया है और सारे संसार में उनके ज़िक्र को बुलंद रखा है। न तो आज दुनिया में किसी इन्सान को आपकी तरह याद किया जाता है और न आज से पहले किसी को इस तरह याद किया गया है। चौदह सौ वर्षों से धरती के हर भाग में प्रत्येक दिन पाँच बार लोखों मीनारों से यह आवाज़ बुलंद होती आ रही है "मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।" और करोड़ों मुसलमान हर दिन दर्जनों बार अपनी नमाज़ों में आप के अल्लाह के रसूल होने की गवाही देते हैं।

 च- अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सम्मानित साथी

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सम्मानित साथियों ने आपकी मृत्यु के बाद आपके आह्वान का झंडा उठाया और उसे लेकर हर दिशा में फैल गए। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वे इस धर्म के सबसे अच्छे आह्वान कर्ता थे। वे सबसे सच्चे, न्यायप्रिय, अमानतदार, लोगों को सत्य का मार्ग दिखाने वाले तथा उनके बीच भलाई को प्रचलित करने के इच्छुक लोग थे।

वह नबियों के आचरण तथा उनके गुणों से सुशोभित थे, इस उच्च आचरण का दुनिया की क़ौमों का इस धर्म में प्रवेश करने पर व्यापक प्रभाव रहा, और पश्चिम अफ़्रीका से पूर्वी एशिया एवं मध्य यूरोप तक के लोग बड़ी संख्या में बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से इस धर्म में दाख़िल हो गए।

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ये सहाबा नबियों के बाद मानव जाति के सबसे उत्तम लोग हैं। इनमें सबसे अधिक ख्याति उन चार सत्य के मार्ग पर चलने वाले सहाबा को प्राप्त हुआ, जिन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु के बाद इस्लामी दुनिया पर हुकूमत की। ये चाहर सहाबा इस प्रकार हैं:

1- अबू बक्र सिद्दीक़

2- उमर बिन ख़त्ताब

3- उसमान बिन अफ़्फ़ान

4- अली बिन अबू तालिब

एक मुसलमान उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता है और उन्हें उनका उचित स्थान देता है तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एवं आपके साथियों (स्त्री पुरूष) से प्रेम, उनकी इज़्ज़त एवं सम्मान द्वारा अल्लाह की निकटता प्राप्त करता है।

मुसलमान सहाबा से द्वेष नहीं रखता और न उनका किसी प्रकार का अपमान करता है, मगर वही करता है जो काफिर हो यद्यपि वह मुस्लिम होने का दावा करे। अल्लाह ने उनकी प्रशंसा इन शब्दों में की है: "तुम सर्वश्रेष्ठ उम्मत हो, जो लोगों के लिए पैदा की गई है कि तुम सत्कर्मों का आदेश देते हो और कुकर्मों से रोकते हो और अल्लाह तआला पर ईमान रखते हो।" [सूरह आल-ए-इमरान: 110]

तथा जब उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हाथ में हाथ देकर प्रतिज्ञा ली, तो अल्लाह ने उनसे अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा: "अल्लाह ईमान वालों से प्रसन्न हो गया जब वे वृक्ष के नीचे आप (नबी) से बैअत कर रहे थे। उसने (अल्लाह ने ) जान लिया जो कुछ उनके दिलों में था, इसलिए उनपर शांति उतार दी तथा उन्हें बदले में एक क़रीबी विजय प्रदान की।" [सूरह अल-फ़त्ह: 18]


 4- इस्लाम के स्तंभ

इस्लाम के पाँच प्रत्यक्ष मूल स्तंभ हैं, जिनकी पाबंदी करना एक व्यक्ति के मुसलमान होने के लिए ज़रूरी है:

 क- पहला स्तंभ: इस बात की गवाही कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं।

यह प्रथम शब्द है, जिसे इस्लाम में प्रवेश करने वाले के लिए इस्लाम में प्रवेश करते समय कहना ज़रूरी है। वह कहेगा: "मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है तथा मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।" इन शब्दों को कहने के साथ-साथ इनके अर्थ पर भी विश्वास रखना जरूरी होगा, जैसा कि हम ने पहले बयान किया है।

उसको विश्वास होना चाहिए कि अल्लाह ही एकमात्र सत्य पूज्य है, जिसकी न कोई संतान है और न वह किसी की संतान है, और न कोई उसका समकक्ष है। वही सृष्टिकर्ता है और उसके सिवा सारी चीज़ें उसकी सृष्टि हैं। वही एक मात्र पूज्य एवं इबादत के लायक़ है। उसके अतिरिक्त न कोई पूज्य है और न कोई पालनहार। इसी तरह उसका विश्वास होना चाहिए कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के बंदे तथा उसके रसूल हैं, जिनपर आकाश से वह्यी आती थी और जो अल्लाह के आदेशों एवं निषेधों को उसकी सृष्टि तक पहुँचाने वाले हैं। उनकी बताई हुई हर बात की पुष्टि करना, उनके हर आदेश का पालन करना और उनकी मना की हुई हर चीज़ से दूर रहना ज़रूरी है।

 ख- दूसरा स्तंभ: नमाज़ स्थापित करना।

नमाज़ अल्लाह की बंदगी एवं उसके आगे विनम्रता व्यक्त करने का प्रतीक है। इसमें बंदा अल्लाह के सामने इस तरह खड़ा होता है कि अपने दिल में अल्लाह का भय रखता है, फिर पवित्र क़ुरआन की आयतें पढ़ता है, विभिन्न प्रकार के अज़कार एवं प्रशंसाओं द्वारा अल्लाह की महानता बयान करता है, उसके लिए रुकू एवं सजदा करता है, उससे वार्तालाप करता है, दुआएँ करता है और उसके अनुग्रह का प्रार्थी होता है। इस तरह देखा जाए तो नमाज़ बंदे को उसके रब से, जिसने उसे पैदा किया है, जो उसकी खुली एवं छुपी हर बात को जनता है, जोड़ने का एक साधन है। इससे बंदे को अल्लाह का स्नेह, उसकी निकटता एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है और जिसने अल्लाह की बंदगी से अभिमान के कारण इसे छोड़ दिया, वह अल्लाह के क्रोध एवं उसकी लानत का पात्र बन जाता है और इस्लाम के दायरे से बाहर हो जाता है।

दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ हैं, जिनमें क़याम एवं सूरह फ़ातिहा का पढ़ना हैं। सूरा फ़ातिहा इस प्रकार है: "प्रारंभ करता हूँ अल्लाह के नाम से, जो बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है। सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसार का पालनहार हैl बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है। प्रतिकार (बदले) के दिन का मालिक है। हम केवल तेरी ही उपासना करते हैं और केवल तुझ से सहायता माँगते हैं। हमें सुपथ (सीधा मार्ग) दिखा। उन लोगों का मार्ग, जिनको तूने पुरस्करित किया, उनका मार्ग नहीं जिन पर तेरा प्रकोप उतरा, और न ही उनका जो कुपथ (गुमराह) हो गए।" [सूरह अल-फ़ातिहा: 1-7] इसके बाद क़ुरआन की जितनी आयतें हो सके पढ़ी जाती हैं। नमाज़ में रूकू, सजदा, अल्लाह से प्रार्थना, 'अल्लाहु अकबर' के माध्यम से उसकी बड़ाई का बखान, रुकू में 'सुबहाना रब्बीयलअज़ीम' के रूप में उसकी पवित्रता का गान और सजदे में 'सुबहाना रब्बीयलआला' के रूप में उसकी पाकी का बयान शामिल है।

नमाज़ से पहले इस बात की ज़रूरत है कि नमाज़ का इरादा रखने वाला व्यक्ति मलिनताओं (पेशाब तथा पाखाना) से अपने शरीर, वस्त्र एवं नमाज़ के स्थान को पाक कर ले और पानी से वज़ू कर ले। वज़ू का मतलब यह है कि चेहरे और दोनों हाथों को धो ले, सर का मसह करे और फिर अपने दोनों क़दमों को धो लें।

और यदि (पत्नी से शारीरिक संबंध स्थापित करने के कारण) जुंबी हो, तो उसे स्नाान करना पड़ेगा, यानी पूरे शरीर को धोना पड़ेगा।

 ग- तीसरा स्तंभ: ज़कात

ज़कात धन का एक निश्चित प्रतिशत है, जिसका अदा करना अल्लाह ने धनवानों पर फ़र्ज़ किया है और जो समाज के हक़दार ग़रीबों एवं निर्धनों को दिया जाता है, ताकि उनकी ज़रूरत पूरी हो सके। नक़दी में ज़कात मूल धन का ढाई प्रतिशत निकाली जाती है और उसे हक़दारों के बीच बाँट दिया जाता है।

इस्लाम का यह स्तंभ समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा देता है, इससे उनके दरमियान आपसी प्रेम एवं सहयोग की भावना परवान चढ़ती है, और निर्धन वर्ग के दिल से धनवान वर्ग के प्रति नफ़रत एवं द्वेषपूर्म भावना का खात्मा होता है। यह आर्थिक गतिविधियों के आगे बढ़ने, धन के सही रूप में गतिमान रहने और समाज के सभी वर्गों तक पहुँचने का एक मूल कारण है। ज़कात नक़दी, सोना, चाँदी, पशु, फल, अनाज एवं व्यापारिक धन आदि अलग-अलग प्रकार के धन के मूल धन से अलग-अलग परिमाण में निकाली जाती है।

 घ- चौथा स्तंभ: रमज़ान का रोज़ा

रोज़ा नाम है फ़ज्र प्रकट होने से सूरज डूबने तक अल्लाह की इबादत की नीयत से खाने, पीने तथा पत्नी से संभोग करने से रुकने का।

रमज़ान का महीना जिसमें रोज़ा रखना अनिवार्य है, चंद्र वर्ष का नवाँ महीना है। इसी महीने में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर क़ुरआन का अवतरन आरंभ हुआ था।

उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "यही रमज़ान का महीना है जिसमें क़ुरआन उतारा गया, जो सब मानव के लिए मार्गदर्शन है तथा जिसमें मार्गदर्शन और सत्य व असत्य के बीच अन्तर करने के खुले प्रमाण हैं। अतः जो व्यक्ति इस महीने में उपस्थित हो, वह उसका रोज़ा रखे।" [सूरह अल-बक़रा: 185]

रोज़े के कुछ महत्वपूर्ण लाभ यह हैं कि उससे इन्सान सब्र का आदी बनता है, उसकी धर्मपरायणता की क्षमता सुदृढ़ होती है और दिल में ईमान मज़बूत होता है। इसका कारण यह है कि रोज़ा बंदा एवं अल्लाह के बीच एक भेद है। उसमें इस बात की गुंजाइश रहती है कि बंदा एकांत में कुछ खा अथवा पी ले और किसी को कुछ पता भी न चले। लेकिन जब कोई यह जानते हुए भी कि उसकी इस इबादत का वास्तविक ज्ञान अल्लाह के अतिरिक्त किसी को नहीं होता, अल्लाह की इबादत के तौर पर और केवल उसी के आज्ञापालन में खाने एवं पीने से रुका रहे, तो इससे अल्लाह के निकट उसके ईमान एवं धर्मपरायणता में वृद्धि होती है। यही कारण है कि रोज़ेदार को अल्लाह के यहाँ बहुत बड़ा प्रतिफल मिलता है, बल्कि जन्नत में रोज़ेदारों के लिए एक विशेष द्वारा है, जो अर-रय्यान द्वार कहलाता है। एक मुसलमान साल में किसी भी दिन, ईद अल-फ़ित्र एवं ईद अल-अज़हा के दिन को छोड़, नफ़ल रोज़ा रख सकता है।

 ङ- पाँचवाँ स्तंभ: अल्लाह के पवित्र घर का हज करना

जीवनकाल में एक बार हज करना फ़र्ज़ है। यदि अधिक बार किया तो वह नफ़ली हज होगा। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का हज अनिवार्य है, जो वहां तक पहुंचने की शक्ति रखता हो।" [सूरह आल-ए-इमरान: 97] इसके लिए मुसलमान हज के महीना अर्थात अरबी कैलेंडर के अंतिम महीना में मक्का स्थित धार्मिक प्रतीक की हैसियत रखने वाले स्थलों की यात्रा करते हैं। मक्का में प्रवेश करने से पहले अपने आम वस्त्र को उतार कर एहराम का वस्त्र यानी दो सफेद रंग की चादरें पहन लेते हैं।

फिर काबा का तवाफ़, सफ़ा एवं मरवा पहाड़ों के बीच दौड़ लगाना, अरफ़ा के मैदान में रुकना और मुज़दलिफ़ा में रात गुज़ारना आदि हज के विभिन्न कार्य करते हैं।

हज धरती पर मुसलमानों का सबसे बड़ा जमावड़ा है, उनमें भाईचारा, परस्पर प्रेम एवं एक-दूसरे के शुभचिंतन का साया छाया रहता है। सब लोग एक ही वस्त्र धारण किए हुए होते हैं और एक ही प्रकार की इबादतें कर रहे होते हैं। उनमें से किसी को किसी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, मगर धर्मपरायणता के आधार पर। हज का प्रतिफल बहुत बड़ा है जैसा कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "जिसने हज किया तथा हज के दिनों में बुरी बात एवं बुरे कार्यों से बचा रहा, वह उस दिन की तरह होकर लौटेगा, जिस दिन उसकी माँ ने उसे जन्म दिया था।"


 5- ईमान के स्तंभ

यह जान लेने के बाद कि इस्लाम के स्तंभ से मुराद उसके वह ज़ाहिरी प्रतीक हैं, जिन्हें एक मुसलमान धारण किए हुए रहता है और जिनका अदा करना एक व्यक्ति के मुसलमान होने का प्रमाण है, इस बात से भी अवगत हो जाना चाहिए कि कुछ स्तंभों का संबंध इन्सान के हृदय से भी होता है और एक व्यक्ति के मुसलमान होने के लिए उनपर विश्वास रखना ज़रूरी है। इस तरह के स्तंभों को ईमान के स्तंभ कहा जाता है। ये स्तंभ दिल के अंदर जितने मज़बूत होंगे, इन्सान का ईमान उतना ही मज़बूत होगा, और एक इन्सान अल्लाह के मोमिन बंदों के समूह में प्रवेश करने का हक़दार बन जाएगा। मोमिन का दर्जा मुसलमान के दर्जे से ऊँचा है। अतः हर मोमिन मुसलमान है, लेकिन हर मुसलमान मोमिन भी हो, यह ज़रूरी नहीं है।

इतना तो तय है कि ऐसा हो सकता है कि किसी के अंदर ईमान का मूल रूप हो, लेकिन कभी-कभी उसके अंदर संपूर्ण ईमान नहीं होता है।

ईमान के छह स्तंभ हैं

और वह हैं; अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों, अंतिम दिन तथा भाग्य के अच्छा एवं बुरा होने पर विश्वास रखना

पहला स्तंभ: अल्लाह पर ईमान रखना, अल्लाह पर ईमान का अर्थ इन्सान का दिल अल्लाह के प्रेम, उसके सम्मान और उसके आगे मिनम्रता और उसके आदेशों के पालन की भावना से भरा हो। इसी तरह उसका दिल अल्लाह के भय और उसके पास जो कुछ है उसकी आशा से भी आबाद हो। इस तरह वह अल्लाह के तक़वा वाले बंदों और उसके सीधे मार्ग पर चलने वाले बंदों में शामिल हो जाता है।

दूसरा स्तंभ: फ़रिश्तों पर ईमान, अर्थात इस बात का विश्वास कि वे अल्लाह के बंदे हैं, उन्हें नूर से पैदा किया गया है, आकाशों एवं धरती में फैले हुए फ़रिश्ते इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उनकी तादाद अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, इबादत, ज़िक्र एवं तसबीह उनकी प्रवृत्ति है। वे रात दिन तसबीह में लगे रहते हैं और थकते नहीं हैं। "वे अवज्ञा नहीं करते अल्लाह के आदेश की, तथा वही करते हैं जिसका आदेश उन्हें दिया जाए।" [सूरह अत-तहरीम: 6] अल्लाह ने उनमें से हर किसी को कोई न कोई ज़िम्मेदारी सौंप रखी है। कुछ लोग अल्लाह का अर्श उठाए हुए हैं, कोई प्राण निकालने का काम कर रहा है, कोई आकाश से वह्यी लेकर नबियों के पास आता है जैसा कि जिबरील अलैहिस्सलाम, और वह उनमें सबसे श्रेष्ठ हैं। और उन में से कुछ जन्नत एवं जहन्नुम का दरोगा हैं। इनके अलावा बहुत सारे फ़रिश्ते हैं, सब के सब फ़रिश्ते नेक हैं मोमिनों से प्रेम करते हैं, उनके लिए बहुत ज़्यादा दु आ एवं क्षमायाचना करते हैं।

तीसरा स्तंभ: अल्लाह की उतारी हुई किताबों पर ईमान

एक मुसलमान का विश्वास है कि अल्लाह अपने जिन रसूलों पर चाहता है, किताबें उतारता है, जिनमें सच्ची सूचनाएँ तथा न्यायसंगत आदेश होते हैं। उसका विश्वास है कि अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम पर तौरात, ईसा अलैहिस्सलाम पर इंजील, दाऊद अलैहिस्सलाम पर ज़बूर एवं इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर कई ग्रंथ उतारे थे, और ये सारी किताबें आज उस रूप में मौजूद नहीं हैं जिस रूप में अल्लाह ने उन्हें उतारा था। साथ ही उसका विश्वास है कि अल्लाह ने अपने अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर क़ुरआन उतारा है, जिसे 23 वर्षों की अवधि में थोड़ा-थोड़ा करके उतारा गया है और अल्लाह ने उसे किसी भी परिवर्तन एवं छेड़छाड़ से सुरक्षित रखा है। "वास्तव में, हमने ही इस ज़िक्र (क़ुरआन) को उतारा है और हम ही इसके रक्षक हैं।" [सूरह अल-हिज्र: 9]

चौथा स्तंभ: रसूलों पर ईमान

(रसूलों के बारे में पीछे विस्तारपूर्वक बात हो चुकी है)। मानव इतिहास में जितने भी समुदाय प्रकट हुए हैं, अल्लाह ने उन सब की ओर कोई न कोई नबी भेजा है। सब नबियों का धर्म एक तथा रब एक है। सब ने मानव समाज को अल्लाह को एक मानने और केवल उसी की उपासना करने की ओर बुलाया है तथा अविश्वास, बहुदेववाद एवं अवज्ञा से चेताया है। "तथा कोई समुदाय ऐसा नहीं हुआ जिसमें कोई डराने वाला न आया हो |" [सूरह फ़ातिर: 24] सारे नबी दूसरे इन्सानों की तरह ही इन्सान थे, बस अंतर इतना था कि उन्हें अल्लाह ने अपना संदेश पहुँचाने के लिए चुन लिया था। "निःसन्देह हमने आपकी ओर उसी प्रकार वह्यी (प्रकाशना) की है जैसा कि नूह और उनके बाद के नबियों की ओर वह्यी की और इब्राहीम , इस्माइल , इस्हाक़, याक़ूब, अस्बात, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान पर भी वह्यी उतारी और दाऊद को ज़बूर दिया। हम ने आप से इस से पूर्व कुछ रसूलों की चर्चा की है और कुछ रसूलों के बारे आपको नहीं बताया है, और अल्लाह ने मूसा से बात की है। यह सभी रसूल शुभ सूचना सुनाने वाले और डराने वाले थे, ताकि इन रसूलों के (आगमन के) पश्चात् लोगों के लिए अल्लाह पर कोई तर्क न रह जाए और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।" [सूरह अन-निसा: 163-165] मुसलामन सारे नबियों पर ईमान रखते हैं, उनसे प्रेम करते हैं, उन से सहयोग करते हैं और उनके बीच भेदभाव नहीं करते। जिसने उनमें से किसी एक को झुठलाया, उसे बुरा भला कहा, गाली दी या कष्ट दिया, उसने सारे नबियों का इनकार किया।

उनमें सबसे उत्तम, उत्कृष्ट एवं अल्लाह के निकट सबसे अधिक सम्मान वाले नबी अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं।

पाँचवाँ स्तंभ: आख़िरत के दिन पर ईमान

आख़िरत के दिन पर ईमान का अर्थ यह है कि अल्लाह क़ब्रों से सारे बंदों को उठाएगा और क़यामत के दिन सब को एकत्र करेगा, ताकि दुनिया में किए हुए उनके कर्मों का हिसाब ले। "उस दिन यह धरती दूसरी धरती से तथा आकाश बदल दिए जाएँगे और सब अल्लाह के समक्ष उपस्थित होंगे, जो अकेला प्रभुत्वशाली है।" [सूरह इब्राहीम: 48]

"जब आकाश फट जाएगा। तथा जब सितारे (टूट कर) बिखर जाएँगे। और जब सागर पूरे ज़ोर से बह पड़ेंगे। और जब क़बरें खोल दी जाएँगी। तब प्रत्येक प्राणी को ज्ञान हो जाएगा, जो उसने पहले भेजा और जो पीछे छोड़ दिया है। [सूरह अल-इनफ़ितार: 1-5]

"और क्या मनुष्य सोचता नहीं करता है कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया? फिर वह खुला झगड़ालू बन गया है। और हमारे लिए उदाहरण बयान करता है, और अपनी उत्पत्ति की सत्यता को भूल जाता है। और कहता है इन हड्डियों को सड़ गल जाने के बाद कौन ज़िन्दा करेगा? आप कह दें: वही, जिसने उसे प्रथम बार पैदा किया था और वह प्रत्येक उत्पत्ति के बारे में भली-भाँति ज्ञान रखता है। वह अल्लाह जिसने तुम्हारे लिए हरे वृक्ष से आग पैदा किया है जिससे तुम लोग चूल्हा जलाते हो। तथा क्या जिसने आकाशों तथा धरती को पैदा किया है वह इस बात का सामर्थ्य नहीं रखता है कि वह उस जैसा आदमी दोबारा पैदा करे? क्यों नहीं, जबकि वह बड़ा पैदा करने वाला अति ज्ञानी है? उसकी शान तो यह है कि जब वह किसी चीज़ को अस्तित्व प्रदान करना चाहे तो कहता है हो जा तो वह हो जाती है। तो वह हर ऐब से पवित्र है, उसी के हाथ में प्रत्येक वस्तु का राज्य है और तुम सब उसी की ओर लौटाए जाओगे।" [सूरह यासीन: 77-83]

"और हम क़यामत के दिन न्याय का तराज़ू स्थापित करेंगे, फिर किसी पर कोई अत्याचार नहीं होगा तथा यदि राई के दाना के बराबर (भी किसी का कर्म) होगा तो हम उसे सामने ले आएँगे और हिसाब लेने वाले के तौर पर हम काफी हैं।" [सूरह अल-अंबिया: 47]

"जो कण के बराबर भी भला करेगा वह उसे देख लेगा और जो कण के बराबर भी बुराई करेगा वह उसे देख लेगा।" [सूरह अज़-ज़लज़ला: 7-8] उस दिन जहन्नुम के द्वार उन लोगों के लिए खोले जाएँगे जो अल्लाह के क्रोध, नाराज़गी और उसकी पीड़ादायक यातना के हक़दार बन चुके होंगे और जन्नत के द्वार मोमिन के लिए खोले जाएँगे जो दुनिया से सत्कर्म करके आए होंगे। "तथा फ़रिश्ते उन्हें हाथों-हाथ लेंगे (तथा कहेंगे) यही तुम्हारा वह दिन है, जिसका तुम से वादा किया जा रहा था।" [सूरह अल-अंबिया: 103] "तथा काफ़िरों को झुंड के साथ नरक की ओर हाँका जाएँगा , यहाँ तक कि जब वे उसके पास आएँगे तो उसके द्वार खोल दिए जाएँगे तथा उसके दारोगा उनसे कहेंगे: क्या तुम्हारे पास तुम में से ही रसूल नहीं आए, जो तुम्हें तुम्हारे पालनहार की आयतें सुनाते तथा तुम्हें इस दिन का सामना करने से सचेत करते? वे कहेंगे: क्यों नहीं? परन्तु, काफ़िरों पर यातना का शब्द सिद्ध हो गया। कहा जाएगा कि प्रवेश कर जाओ नरक के द्वारों से, सदावासी होकर उसमें। अतः बुरा है घमंडियों का ठिकाना। तथा जो लोग अपने पालनहार से डरते रहे, वे भेज दिए जाएँगे स्वर्ग की ओर झुंड के साथ। यहाँ तक कि जब वे उसके पास आ जाएँगे तथा उसके द्वार खोल दिए जाएँगे और उनसे उसके रक्षक कहेंगे: शांति हो तुम पर, तुम प्रसन्न रहो, और तुम प्रवेश कर जाओ उसमें, सदावासी होकर। तथा वे कहेंगे: सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने हमसे अपना वचन सच कर दिखाया तथा हमें इस धरती का उत्तराधिकारी बना दिया, हम स्वर्ग में जहाँ चाहें, रहें। क्या ही अच्छा प्रतिफल है नेक कर्म करने वालों का।" [सूरह अज़-ज़ुमर: 71-75]

इस जन्नत में ऐसी-ऐसी नेमतें होंगी, जिन्हें न किसी आँख ने देखा है, न किसी कान ने सुना है और न जिनकी कल्पना किसी दिल ने की है। "तो कोई प्राणी नहीं जानता है कि हमने उनके लिए क्या कुछ आँखों की ठंडक छुपा रखी है, उन कर्मों के बदले में जो वे कर रहे थे। क्या ईमान वाला व्यक्ति और जो ईमान नहीं रखते, वे समान हो सकते हैं? कभी समान नहीं हो सकते। जो लोग ईमान लायेंगे तथा सदाचार करेंगे, उन्हीं के लिए स्थायी स्वर्ग हैं, अतिथि सत्कार के तौर पर, उसके बदले जो वे करते रहे हैं। और जो अवज्ञा करेंगे उनका ठिकाना नरक है। जब-जब वे उसमें से निकलना चाहेंगे तो उसमें वापस कर दिए जाएँगे और उनसे कहा जाएगा कि उस अग्नि की यातना चखो जिसे तुम झुठला रहे थे।" [सूरह अस-सजदा: 17-20]

उस स्वर्ग की विशेषता, जिसका वादा आज्ञाकारियों से किया गया है, उसमें निर्मल जल की नहरें हैं तथा दूध की नहरें हैं, जिसका स्वाद नहीं बदलेगा तथा मदिरा की नहरें हैं, पीने वालों के स्वाद के लिए, तथा शुद्ध मधू की नहरें हैं तथा उन्हीं के लिए उनमें प्रत्येक प्रकार के फल हैं, तथा उनके पालनहार की ओर से क्षमा भी। (क्या यह लोग) उसके समान होंगे जो नरक में सदा के लिए जलेंगे, तथा खौलता हुआ जल पिलाए जाएँगे, जो उनकी आँतों को खंड-खंड कर देगा?" [सूरह मुहम्मद: 15] निश्चय ही आज्ञाकारी बाग़ों तथा सुख में होंगे। प्रसन्न होकर उससे जो उनके रब ने उन्हें प्रदान किया है, तथा उन्हें उनका पालनहार नरक की यातना से बचा लेगा। (उनसे कहा जायेगा:) जी भरकर खाओ और पियो, उसके बदले जो तुम कर रहे थे। तकिये लगाए हुए होंगे बराबर बिछे हुए तख़्तों पर तथा हम उनका विवाह करेंगे बड़ी आँखों वाली स्त्रियों से।" [सूरह अत-तूर: 17-20]

दुआ है कि अल्लाह हम सब को जन्नत में प्रवेश का सौभाग्य प्रदान करे।

छठा स्तंभ: भले -बुरे भाग्य पर ईमान

इसका अर्थ यह है कि इस ब्रह्मांड में होने वाली हर गतिविधि को अल्लाह ने लिख रखा है एवं वह उसी के अनुसार अंजाम पाती है। "धरती में एवं तुम्हारे प्राणों में जो भी आपदा पहुँचती है, वह एक पुस्तक में लिखी है, इससे पूर्व कि हम उसे उत्पन्न करें, बेशक यह अल्लाह के लिए अति सरल है।" [सूरह अल-हदीद: 22]

"निश्चय ही हमने प्रत्येक वस्तु को एक अनुमान से पैदा किया है।" [सूरह अल-क़मर: 49] "(हे नबी!) क्या आप नहीं जानते कि अल्लाह जानता है, जो आकाश तथा धरती में है। यह सब एक किताब में (अंकित) है। वास्तव में, यह अल्लाह के लिए अति सरल है।" [सूरह अल-हज्ज: 70]

यह छह स्तंभ हैं, जो इन को पूरा करेगा एवं इनपर पूर्ण रूप से ईमान लाएगा, वह अल्लाह के मोमिन बंदों में शामिल हो जाएगा। आम श्रृष्टि के ईमान की श्रेणियाँ अलग-अलग होती हैं। किसी का ज़्यादा और किसी का कम। ईमान की उच्चतम श्रेणी एहसान की श्रेणी है। यानी यह स्थान प्राप्त कर लेना कि इन्सान अल्लाह की इबादत इस तरह करे, जैसे वह अल्लाह को देख रहा है या कम से कम दिल में यह भावना रखे कि अल्लाह उसे देख रहा है। इस श्रेणी को प्राप्त करने वाले लोग सृष्टि के चयनित लोग होते हैं, जिन्हें जन्नत अल-फ़िरदौस की उच्च श्रेणियाँ प्राप्त होंगी।


 6- इस्लामी शिक्षाएँ तथा इस्लामी आचरण

 क- वो कार्य जिनका आदेश दिया गया है

यहाँ इस्लाम के कुछ नैतिक मूल्यों एवं शिष्टाचारों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाएगा, जिनसे मुस्लिम समाज को सुशोभित होना चाहिए। हमारा प्रयास होगा इन्हें इस्लाम के मूल स्रोतों यानी पवित्र क़ुरआन और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों की रोशनी में बयान किया जाए।

 पहला: सच बोलना:

इस्लाम अपने मानने वालों पर सच बोलने को अनिवार्य करता है और उसे उसके लिए विशेष पहचान बनाता है जिस से किसी भी परिस्थिति में अलग होना जायज़ नहीं। इसी तरह उन्हें झूठ से सख़्त सावधान करता है और खुले शब्दों में उससे नफ़रत दिलाता है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सच बोलने वालों में से हो जाओ।" [सूरह अत-तौबा: 119] अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है: "सच्चाई को मज़बूती से थाम लो, क्योंकि सच्चाई नेकी (सत्कर्म) का मार्ग दिखाती है, और नेकी जन्नत की ओर ले जाती है, और व्यक्ति सदा सच बोलता है तथा सच की खोज में लगा रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के निकट सत्यवादी लिख दिया जाता है, और झूठ बोलने से बचो, क्योंकि झूठ बुराई की ओर ले जाता है, और बुराई जहन्नम की ओर ले जाती है, और एक व्यक्ति सदा झूठ बोलता रहता है तथा झूठ की खोज में लगा रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के यहां झूठा लिख दिया जाता है।"

झूठ बोलना मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ की विशेषता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं, जब बोलता है तो झूठ ही बोलता है, वायदा करता है तो उसे पूरा नहीं करता और जब उसके पास अमानत रखी जाती है तो उसमें ख़यानत करता है।"

यही कारण है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने सच बोलने को अपने व्यक्तित्व का इस तरह से अभिन्न अंग बना लिया कि उनमें से एक ने कह दिया: हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में झूठ को जानते ही नहीं थे।

 दूसरा: अमानत अदा करना, वचन पूरा करना और लोगों के बीच न्याय करना:

महान अल्लाह ने कहा है: "अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि धरोहर उनके मालिकों के पास पहुंचा दो, और जब लोगों के बीच फैसला करो, तो न्याय के साथ फैसला करो।" [सूरह अन-निसा: 58] एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "और वचन पूरा करो, निश्चय ही वचन के विषय में प्रश्न किया जाएगा। और नाप पूरा करो, और सही तराज़ू से तोलो, यह अधिक अच्छा है और इसका परिणाम उत्तम है।" [सूरह अल-इसरा: 34-35]

जबकि मोमिनों की प्रशंसा करते हुए कहा है: "जो अल्लाह से किया हुआ वचन पूरा करते हैं, और वचन भंग नहीं करते।" [सूरह अर-राद: 20]

 तीसरा: विनम्रता अपनाना और अभिमान न करना

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों में सबसे विनम्र थे। अपने साथियों के साथ घुल-मिलकर बैठ जाते और इस बात को नापसंद करते थे कि जब आप आएँ तो कोई आपके सम्मान में खड़ा हो। कभी-कभी ऐसा होता कि कोई ज़रुरत मंद व्यक्ति आपका हाथ पकड़ कर लेकर चला जाता और उस समय तक नहीं छोड़ता जब तक उसकी ज़रूरत पूरी न हो जाती। आपने मुसलमानों को भी विनम्र रहने का आदेश दिया है। कहा है: "अल्लाह ने मेरी ओर यह वह्यी की है कि तुम लोग विनम्र रहो, यहाँ तक कि कोई किसी पर अभिमान न करें, और कोई किसी पर अत्याचार न करे।"

 चौथा: दानशीलता तथा भलाई के कामों में खर्च करना

अल्लाह तआला ने कहा है: "तथा तुम जो भी दान देते हो अपने लिए देते हो, तथा तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए देते हो, तथा तुम जो भी दान दोगे तुम्हें उसका भरपूर बदला चुका दिया जाएगा, और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।" [सूरह अल-बक़रा: 272] अल्लाह ने ईमान वालों की प्रशंसा करते हुए कहा है: "और अपने लिए भोजन की आवश्यकता होते हुए उसे निर्धन, अनाथ और बंदी को खिला देते हैं।" [सूरह अल-इनसान: 8] दानशीलता अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके पद्चिह्नों पर चलने वाले मोमिनों का गुण है। आपके पास जो भी धन होता, उसे आप भलाई की राह में खर्च कर देते थे। आपके एक साथी जाबिर रज़ियल्लाहु अनहु ने कहा है: "कभी ऐसा नहीं हुआ कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कुछ माँगा गया हो और आपने न कहा हो।" आपने अतिथि सत्कार की प्रेरणा देते हुए कहा है: "जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे ,और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करे, और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अच्छी बात करे या खामोश रहे।"

 पाँचवाँ: धैर्य एवं सहनशीलता

उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "तथा जो मुसीबत आए उसे सहन करो, वास्तव में, यह बड़ा साहस का काम है।" [सूरह लुक़मान: 17] एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "हे ईमान वालो! धैर्य तथा नमाज़ का सहारा लो। निश्चय अल्लाह धैर्यवानों के साथ है।" [सूरह अल-बक़रा: 153] एक और स्थान में कहा है: "और हम, जो धैर्य धारण करते हैं, उन्हें अवश्य उनका पारिश्रमिक (बदला) उनके उत्तम कर्मों के अनुसार प्रदान करेंगे। " [सूरह अन-नह्ल: 96] अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम धैर्य, सहनशीलता एवं बुराई का बदला बुराई से न देने के मामले में बहुत आगे थे। जब आपने इस्लाम के प्रचार का कार्य आरंभ किया तो आपकी जाति ने आपको कष्ट दिया और मारकर ज़ख़्मी तक कर दिया, लेकिन इसके बावजूद आप ने चेहरे से रक्त पोंछते हुए कहा: "ऐ अल्लाह, मेरे समुदाय के लोगों को क्षमा कर दे, क्योंकि वे नहीं जानते हैं।"

 छठा: हया

मुसलमान पाकबाज़ और लज्जावान होता है। हया ईमान की एक शाखा भी है। हया मुसलमान को उच्च नैतिकता की ओर ले जाती है और बात एवं काम में उन्हें बेहयाई एवं बेशर्मी से रोकती है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है: "हया केवल भलाई ही लाती है।"

 सातवाँ: माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार

माता-पिता की बात मानना, उनके साथ भला करना, विनम्र व्यवहार करना और उनके लिए पलकें बिछाना इस्लाम धर्म के मूल अनिवार्य कार्यों में से है। इसकी अनिवार्यता वैसे-वैसे बढ़ती जाती है जैसे-जैसे माता-पिता बूढ़े होते जाते हैं और बच्चों पर निर्भरता बढ़ती जाती है। अल्लाह ने अपनी किताब में उनकी आज्ञा के पालन का आदेश देते हुए उनके अधिकार के महत्व को दर्शाते हुए कहा है: "(हे मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों, या दोनों में से एक वृद्धावस्था को पहुँच जाए, तो उन्हें उफ़ तक न कहो, और न झिड़को और उनसे सादर बात बोलो। और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका दो और प्रार्थना करो: हे मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था में, मेरा लालन-पालन किया है।" [सूरह अल-इसरा: 23-24]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "और हमने आदेश दिया है मनुष्यों को उसके माता-पिता के संबन्ध में, उसे उसकी माता ने दुःख पर दुःख झेलकर अपने गर्भ में रखा और दो वर्ष में उसका दूध छुड़ाया कि तुम कृतज्ञ रहो मेरे, और अपनी माता-पिता के, और मेरी ही ओर (तुम्हें) फिर आना है।" [सूरह लुक़मान: 14]

एक व्यक्ति ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा कि मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है? तो आपने उत्तर दिया: "तेरी माँ। उसने पूछा कि फिर कौन? आपने उत्तर दिया: तेरी माँ। उसने पूछा कि फिर कौन? तो आपने उत्तर दिया: तेरी माँ। उसने पूछा फिर कौन? तो आपने कहा: तेरा बाप।"

यही कारण है कि इस्लाम ने मुसलमानों पर अपने माता-पिता के सभी आदेशों का पालन करना अनिवार्य किया है। हाँ, यदि वे किसी गुनाह का आदेश दें, उनकी बात मानी नहीं जाएगी। क्योंकि जहाँ सृष्टिकर्ता की अवज्ञा हो रही हो, वहाँ किसी सृष्टि की आज्ञा का पालन नहीं किया जाएगा। अल्लाह तआला ने कहा है: "और यदि वे दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम उसे मेरा साझी बनाओ, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं, तो न मानो उन दोनों की बात और उनके साथ रहो संसार में सुचारु रूप से।" [सूरह लुक़मान: 15] इसी तरह उनका सम्मान करना, उनके साथ विनम्र व्यवहार करना, अपने कथन एवं कार्य द्वारा उनकी इज़्ज़त करना और अच्छे व्यवहार के अन्य सभी तरीकों, जैसे उनके खाने एवं कपड़े का प्रबंध करना, बीमार होने पर इलाज कराना, उनका कष्ट दूर करना, उनके लिए दुआ एवं क्षमायाचना करना, उनके दिए हुए वचन को पूरा करना और उनके मित्रों का सम्मान करना आदि को अपनाना भी अनिवार्य है।

 आठवाँ : दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "सबसे संपूर्ण ईमान वाला मोमिन वह है जो उनमें सबसे अच्छे व्यवहार का मालिक है।"

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक अन्य हदीस में कहा है: "मेरे निकट तुम में सबसे प्रिय और क़यामत के दिन मुझसे निकटतम स्थान प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति है, जिसका व्यवहार सबसे अच्छा हो।"

स्वयं अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आचरण का उल्लेख इन शब्दों में किया है: "तथा निश्चय ही आप उच्च आचरण के शिखर पर हैं।" [सूरह अल-क़लम: 4] और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है: "मुझे उच्च नैतिकता को संपूर्ण रूप देने के लिए भेजा गया है।" अतः एक मुसलमान को अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए, अपने बाल-बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, उनकी अच्छी तरबियत करनी चाहिए, इस्लाम की शिक्षा देनी चाहिए, उन्हें दुनिया एवं आख़िरत की हर हानि से बचाना चाहिए और आत्म विश्वास तथा कमाने की क्षमता पैदा होने की आयु तक उनपर अपना धन खर्च करना चाहिए। इसी तरह उसे अपने जीवन साथी, भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और सभी लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। वह अपने भाइयों के लिए वही पसंद करे, जो अपने लिए करता है। बड़ों का सम्मान करे और छोटों पर दया करे। कोई बीमार हो, तो उसका हाल जानने जाए और उसके प्रति संवेदना व्यक्त करे। इस तरह इस आयत पर अमल हो जाएगा : "तथा माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, समीप और दूर के पड़ोसी, यात्रा के साथी, के साथ उपकार करो।" [सूरह अन-निसा: 36] और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "जो अल्लाह एवं आख़िरत के दिन पर विश्वास रखता हो, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न दे।"

 नौवाँ: पीड़ित की सहायता, सत्य की स्थापना और न्याय के प्रचार-प्रसार के लिए अल्लाह के मार्ग में युद्ध करना

महान अल्लाह ने कहा है: "तथा अल्लाह की राह में, उनसे युद्ध करो जो तुमसे युद्ध करते हों और अत्याचार न करो, अल्लाह अत्याचारियों को पसंद नहीं करता।" [सूरह अल-बक़रा: 190] इसी प्रकार अल्लाह तआला फ़रमाता है: "और तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह की राह में युद्ध नहीं करते, जबकि कितने ही निर्बल पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे हैं, जो गुहार लगा रहे हैं कि हे हमारे पालनहार! हमें इस गांव से निकाल ले, जिसके निवासी अत्याचारी हैं, और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक बना दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे।" [सूरह अन-निसा: 75]

इस्लामी जिहाद का उद्देश्य सत्य की स्थापना, लोगों के बीच न्याय को फैलाना और उन लोगों से युद्ध करना है, जो लोगों पर अत्याचार करते, उनको सताते और अल्लाह की इबादत तथा इस्लाम ग्रहण करने से रोकते हैं। इसके अदंर कदापि लोगों को शक्ति के बल पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने पर मजबूर करने जैसी कोई बात नहीं है। अल्लाह तआला ने कहा है: "धर्म में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं।" [सूरह अल-बक़रा: 256]

युद्ध के दौरान किसी मुसलमान के लिए महिला, छोटे बच्चे एवं वृद्ध व्यक्ति का वध करना जायज़ नहीं है। वह केवल युद्ध के मैदान में आए हुए अत्याचारियों से युद्ध करेगा।

जो व्यक्ति अल्लाह के मार्ग में मारा गया वह शहीद है। उसके लिए अल्लाह के निकट बड़ा सम्मान, प्रतिफल एवं पुण्य है। महान अल्लाह ने कहा है: "जो अल्लाह की राह में मार दिए गए, तुम उन्हें मरा हुआ न समझो, बल्कि वे जीवित हैं, अपने पालनहार के पास जीविका दिए जा रहे हैं। तथा उस से प्रसन्न हैं जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है, और उनके लिए प्रसन्न (हर्षित) हो रहे हैं जो अभी उनके बाद उनसे आकर नहीं मिले हैं, उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।" [सूरह आल-ए-इमरान: 169-170]

 दसवाँ : दुआ, ज़िक्र एवं क़ुरआन की तिलावत

मोमिन का ईमान जैसे-जैसे मज़बूत होता जाएगा, वैसे-वैसे अल्लाह से उसका संबंध, उससे दुआ करने और उससे दुनयी की सारी ज़रूरत की चीज़ें तथा आखिरत में गुनाहों की माफ़ी और श्रेणी में ऊँचाई माँगने की भावना मज़बूत होती जाएगी। दरअसल अल्लाह बड़ा उदार एवं दानशील है और इस बात को पसंद करता है कि लोग उससे माँगें। उसने कहा है: "(हे नबी!) जब मेरे बंदे मेरे विषय में आपसे प्रश्न करें, तो उन्हें बता दें कि निश्चय ही मैं समीप हूँ। मैं प्रार्थी की प्रार्थना का उत्तर देता हूँ।" [सूरह अल-बक़रा: 186] अल्लाह बंदे की दुआ ग्रहण करता है, यदि वह उसके हक़ में बेहतर हो, साथ ही वह उसे इस दुआ का प्रतिफल भी प्रदान करता है।

इसी तरह मोमिन की विशेषताओं में से है कि वह बार-बार तथा अधिक से अधिक अल्लाह को याद करे और 'सुबहानल्लाह', 'अल-हम्दुलिल्लाह', 'ला इलाहा इल्लाह' और 'अल्लाहु अकबर' आदि अज़कार द्वारा अल्लाह का ज़िक्र करे। अल्लाह ने इसके बदले बड़ा प्रतिफल निर्धारित कर रखा है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है: "विशिष्टता वाले लोग आगे बढ़ गए। सहाबा ने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल, ये विशिष्टता वाले लोग कौन हैं? तो आपने उत्तर दिया : अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले पुरुष एवं अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाली स्त्रियाँ।"  एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "हे ईमान वालो! याद करते रहो अल्लाह को, अत्यधिक। तथा पवित्रता बयान करते रहो उसकी प्रातः तथा संध्या।" [सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या : 41-42] एक और जगह पर उसने कहा है : "अतः, मुझे याद करो, मैं तुम्हें याद करूँगा और मेरे आभारी रहो और मेरे कृतघ्न न बनो।" [सूरह अल-बक़रा: 152] ज़िक्र के अंदर अल्लाह की किताब यानी पवित्र क़ुरआन की तिलावत भी आती है। बंदा जितना अधिक क़ुरआन की तिलावत करता जाएगा और उसपर चिंतन करता जाएगा, अल्लाह के निकट उसका सम्मान उतना ही बढ़ता जाएगा।

क़यामत के दिन क़ुरआन पाठ करने वाले से कहा जाएगा: "पढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। साथ ही तुम उसी तरह ठहर-ठहर कर पढ़ो, जैसे दुनिया में ठहर-ठहर कर पढ़ा करते थे, इस लिए आख़िरी आयत जहां तुम पढ़ोगे वहां तुम्हारा ठिकाना होगा"

 ग्यारहवाँ: शरई ज्ञान प्राप्त करना, उसे लोगों को सिखाना और उसकी ओर लोगों को बुलाना

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "जो ज्ञान प्राप्ती के पथ पर चलता है, अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है और फ़रिश्ते उसके कार्य से खुश होकर उस के लिए अपने परों को बिछा देते हैं।"

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक और हदीस में फ़रमाया है: "तुम में से सबसे उत्तम व्यक्ति वह है जो खुद क़ुरआन सीखे और उसे दूसरों को सिखाए।" अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक और हदीस में फ़रमाया है: "फ़रिश्ते उन लोगों के लिए दया की दुआ करते हैं जो लोगों को भलाई की बातें सिखाते हैं।" अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक अन्य हदीस में फ़रमाया है: "जिसने हिदायत की ओर बुलाया, उसे उतना ही पुण्य मिलेगा, जितना उसपर अमल करने वाले को मिनेगा, (साथ ही इससे) अमल करने वालों के पुण्य में कोई कटौती नहीं होगी।"

एक अन्य स्थान में अल्लाह ने कहा है: "और किसकी बात उससे अच्छी होगी, जो अल्लाह की ओर बुलाये तथा सदाचार करे और कहे कि मैं मुसलमानों में से हूँ।" [सूरह फ़ुस्सिलत: 33]

 बारहवाँ : अल्लाह और उसके रसूल के निर्णय से संतुष्ट होना

अल्लाह के किसी आदेश पर आपत्ति न करना: क्योंकि अल्लाह सबसे बड़ा प्रशासक और सबसे बड़ा दयालु है। धरती एवं आकाश के अंदर कोई वस्तु उससे छुपी हुई नहीं है और उसका आदेश बंदों की इच्छाओं एवं शक्तिशाली लोगों की आकांक्षाओं से प्रभावित नहीं होता। उसकी दया एवं करुणा का एक पक्ष यह है कि उसने अपने बंदों के लिए वह बातें सुनिश्चित की हैं जो उनकी दुनिया एवं आख़िरत के हित में हैं और उनको उन बातों का आदेश नहीं दिया है जो उनके वश में नहीं हैं। उसकी बंदगी की मांग यह है कि हर मामले में उसके दिए हुए विधि-विधिन का अनुसरण किया जाए और उसके प्रति पूर्ण हार्दिक संतुष्टि दिखाई जाए।

अल्लाह तआला ने कहा है: "आपके पालनहार की क़सम! वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक न बनाएँ, फिर आप जो निर्णय कर दें उससे अपने दिलों में तनिक भी संकीर्णता (तंगी) का अनुभव न करे और पूर्णता स्वीकार कर ले।" [सूरह अन-निसा: 65] एक अन्य स्थान में पवित्र अल्लाह ने कहा है: तो क्या वे जाहिलियत (अंधकार युग) का निर्णय चाहते हैं? और अल्लाह से अच्छा निर्णय किसका हो सकता है, उनके लिए जो विश्वास रखते हैं? [सूरह अल-माइदा: 50]

 ख- हराम एवं मनाही कार्य

 पहला: शिर्क (किसी भी प्रकार की बंदगी (उपासना) अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए करना

जैसे कोई अल्लाह के अतिरिक्त किसी और को सजदा करता हो, किसी और को पुकारता हो, किसी और से ज़रूरत की चीज़ें माँगता हो, किसी और के नाम पर जानवर ज़बह करता हो या किसी और के लिए किसी भी प्रकार की कोई इबादत करता हो। चाहे जिसे पुकारा जाए वह कोई जीवित हो या मरा हुआ, क़ब्र हो या बुत, पत्थर हो या पेड़, नबी हो या वली या कोई पशु आदि। यह सब शिर्क के रूप हैं, जिसे अल्लाह तौबा किए बिना और इस्लाम में दोबारा प्रवेश किए बिना माफ़ नहीं करता।

महान अल्लाह ने कहा है: "निःसंदेह अल्लाह उसके साथ साझी बनाए जाने को माफ नहीं करेगा और उसके सिवा जिसे चाहे, क्षमा कर देगा।जिसने अल्लाह का साझी बनाया तो उसने महा पाप गढ़ लिया।" [सूरह अन-निसा: 48] मुसलमान केवल सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की इबादत करता है, उसी को पुकारता है और उसी के आगे सर झुकता है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी तथा मेरा जीवन-मरण संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है। जिसका कोई साझी नहीं तथा मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं प्रथम मुसलमानों में से हूँ।" [सूरह अन-अनआम: 162-163]

यह मानना भी शिर्क है कि अल्लाह की पत्नी या उसकी संतान है -अल्लाह इन सब से पाक है- या फिर यह मानना भी शिर्क है कि अल्लाह के अतिरिक्त भी कुछ पूज्य हैं, जो इस ब्रह्मांड को चलाते हैं। "यदि आसमान एवं ज़मीन में अल्लाह के सिवा कई पूज्य होते, तो निश्चय ही दोनों बर्बाद हो जाते। अतः अर्श (सिंहासन) का स्वामी अल्लाह पवित्र है उन बातों से जिन्हें वे उसके साथ जोड़ते हैं।" [सूरह अल-अंबिया: 22]

 दूसरा: जादू करना, कहानत और ग़ैब की बात जानने का दावा करना

जादू और कहानत कुफ़्र है। यहाँ यह याद रहे कि जादू उसी समय काम करता है जब जादूगर का संबंध शैतान से हो और वह उसकी इबादत करता हो। यही कारण है कि किसी मुसलमान के लिए जादूगरों के पास जाना और उनके परोक्ष की जानने के दावों और आने वाले समय में होने वाली घठनाओं के बारे में उनकी भविष्यवाणियों को सच मानना जायज़ नहीं है।

उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "आप कह दें कि अल्लाह के सिवा आकाशों तथा धरती में रहने वाला कोई भी परोक्ष से अवगत नहीं है।" [सूरह अन-नम्ल: 65] एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "वह ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञानी है। अतः वह अवगत नहीं कराता है अपने परोक्ष पर किसी को। सिवाय उसके जिसे वह रसूल (संदेशवाहक) की हैसियत से चुन लेता है, फिर वह उसके आगे तथा उसके पीछे रक्षक लगा देता है।" [सूरह अल-जिन्न: 26-27]

 तीसरा :अत्याचार करना

अत्याचार का दायरा बड़ा विस्तृत है और उसके अंदर बहुत-से बुरे कार्य और बुरे गुण शामिल हैं जो व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते हैं। इसमें इन्सान का अपने ऊपर अत्याचार करना, अपने आस-पास के लोगों पर अत्याचार करना और अपने समाज पर अत्याचार करना, बल्कि अपने शत्रुओं पर अत्याचार करना भी दाखिल है। महान अल्लाह ने कहा है: "और किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें इंसाफ़ न करने पर न उकसाए। इंसाफ़ करो, वह परहेज़गारी से बहुत क़रीब है।" [सूरह अल-माइदा: 8] अल्लाह ने हमें बताया है कि वह ज़ालिमों से प्रेम नहीं रखता। अल्लाह के रसूल सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है कि अल्लाह तआला ने कहा है: "हे मेरे बन्दो ! मैंने अपने ऊपर अत्याचार को वर्जित कर लिया है और उसे तुम्हारे बीच हराम (निषिद्ध) ठहराया है। अत: तुम आपस में एक-दूसरे पर जुल्म न करो।" और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "अपने भाई की मदद करो, वह ज़ालिम हो या मज़लूम। एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! जब वह मज़लूम हो तो उसकी मदद करूँगा। परन्तु जब वह ज़ालिम हो तो उसकी मदद भला कैसे करूँ? फ़रमाया: उसे अत्याचार से रोको। यही उसकी मदद है।"

 चौथा: किसी की नाहक़ हत्या करना

यह इस्लाम धर्म की नज़र में एक बहुत बड़ा अपराध है, जिसपर अल्लाह ने बड़ी सख़्त यातना देने की बात कही है और उसपर दुनिया का सबसे कठिन दंड निर्धारित किया है। यानी हत्यारे को यदि मक़तूल (जिसका क़त्ल हुआ है) के उत्तराधिकारी क्षमा न करें तो उसका वध किया जाएगा। महान अल्लाह ने कहा है: "इसी कारण हमने इसराईल की संतानों के लिए यह आदेश लिख दिया कि जो भी किसी इंसान की हत्या, बिना किसी जान के बदले में या धरती पर फसाद मचाने की नीयत से करेगा तो माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता की हत्या कर दी और जिसने एक भी मनुष्य को बचाया तो माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता को बचा लिया।" [सूरह अल-माइदा: 32] एक अन्य स्थान में उसने कहा है: "और जो किसी ईमान वाले की हत्या जान-बूझ कर कर दे, उसका बदला नरक है, जिसमें वह सदा रहेगा और उसपर अल्लाह का प्रकोप तथा धिक्कार है और उसने उसके लिए घोर यातना तैयार कर रखी है।" [सूरह अन-निसा: 93]

 पाँचवाँ: किसी का धन अवैध तरीक़े से ले लेना

चाहे चोरी करे, या ज़बरदस्ती छीन ले, या रिश्वत के तौर पर ले या धोखे से ले ले या किसी और तरीक़ा से। अल्लाह तआला ने कहा है: "चोर, पुरुष हो या स्त्री, दोनों के हाथ काट दो, उनके करतूत के बदले, जो अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद दण्ड है और अल्लाह प्रभावशाली और ज्ञाणी है।" [सूरह अल-माइदा: 38] एक अन्य स्थान मेंअल्लाह ने कहा है: "तथा आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ।" [सूरह अल-बक़रा: 188] एक अन्य स्थान में पवित्र अल्लाह का कथन है: "जो लोग अनाथों का धन अवैध रूप से खाते हैं, वे अपने पेट में आग भरते हैं और शीघ्र ही नरक की अग्नि में प्रवेश करेंगे।" [सूरह अन-निसा: 10]

इस्लाम अवैध तरीक़े से किसी का धन लेने से बड़ी सख़्ती से रोकता है और उसके लिए ऐसी सख़्त सज़ा निर्धारित करता है जो उसके एवं उस जैसे सामाजिक सुरक्षा को भंग करने वाले लोगों के लिए सबक बन जाए।

 छठा: धोखा, विश्वासघात तथा ख़यानत

क्रय-विक्रय, समझौता तथा संधियों इत्यादि में धोखा एवं ख़यानत मना है। यह अवगुण हैं और इस्लाम ने इनसे सावधान किया है।

महान अल्लाह ने कहा है: "विनाश है डंडी मारने वालों के लिए। जो लोगों से नाप कर लें, तो पूरा लेते हैं। और जब उन्हें नाप या तोल कर देते हैं तो कम देते हैं। क्या वे नहीं सोचते हैं कि फिर जीवित किए जाएँगे? एक भीषण दिन के लिए। जिस दिन सभी विश्व के पालनहार के सामने खड़े होंगे।" [सूरह अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन: 1-5] और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है: "जिसने हमें धोखा दिया वह हम में से नहीं है।" एक और स्थान में कहा है: "निःसंदेह अल्लाह विश्वासघाती तथा पापी से प्रेम नहीं करता।" [सूरह अन-निसा: 107]

 सातवाँ: लोगों की इज़्ज़त पर हमला करना

जैसे बुरा कहना, गाली देना, गीबत करना, चुगली करना, द्वेष रखना, बुरा गुमान रखना, बुराई की तलाश में रहना और मज़ाक उड़ाना आदि। इस्लाम एक स्वच्छ एवं पवित्र समाज़ गठित करना चाहता है, जिसमें प्रेम हो, भाई चारा हो, दोस्ती हो और परस्पर सहयोग हो। यही कारण है कि वह उन सामाजिक रोगों को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है जो समाज को तोड़ने और उसमें द्वेष, ईर्ष्या और अहंकार जैसी चीज़ों का बीज बोने का काम करते हैं।

महान अल्लाह ने कहा है: "हे लोगो जो ईमान लाए हो! एक समूह दूसरे समूह का मज़ाक न उड़ाए। हो सकता है मज़ाक उड़ाया जाने वाला समूह मज़ाक उड़ाने वाले से अच्छा हो, और न नारियाँ अन्य नारियों का मज़ाक उड़ाएं, हो सकता है कि वह उनसे अच्छी हों, तथा तुम अपने मुस्लिम भाइयों को लांछन न करो, और न किसी को बुरी उपाधि दो। ईमान लाने के बाद मुसलमान के लिए अपशब्द कहना बुरी बात है। जो ऐसी बद ज़ुबानी से क्षमा न माँगें तो वही लोग अत्याचारी हैं। हे लोगो जो ईमान लाए हो! अधिकांश गुमानों से बचो। वास्तव में, कुछ गुमान पाप हैं, और किसी की टोह मेंं न लगे रहो और न एक-दूसरे की ग़ीबत करो। क्या तुम में से कोई अपने मरे भाई का मांश खाना पसंद करोगे? यक़ीनन तुम्हें इससे घृणा होगी तथा अल्लाह से डरते रहो, वास्तव में, अल्लाह अति दयावान्, क्षमावान् है।" [सूरह अल-हुजुरात: 11-12]

इसी तरह इस्लाम समाज में रहने वाले लोगों के बीच नस्लीय एवं वर्गीय भेदभाव के विरुद्ध पूरी शक्ति से लड़ता है। उसकी नज़र में सारे लोग बराबर हैं। किसी अरब को गैरअरब पर और किसी गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। यदि है, तो केवल दीनदारी और धर्मपरायणता के आधार पर। इसलिए सभी लोगों को समान रूप से अच्छे कर्म के मैदान में एक-दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। "हे मनुष्यों! हमने तुम्हें पैदा किया है एक नर तथा एक नारी से तथा बना दी है तुम्हारी जातियाँ तथा प्रजातियाँ, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में, तुम में अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है जो तुम में अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है।" [सूरह अल-हुजुरात: 13]

 आठवाँ: जुवा खेलना, मदिरा पान करना और अन्य नशीली पदार्थों का सेवन करना

महान अल्लाह ने कहा है: "हे ईमान वालो! निःसंदेह मदिरा, जुआ, वह पत्थर जिन पर बुतों के नाम पर जानवर काटे जाते हैं और पाँसे शैतानी काम हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो जाओ। शैतान तो यही चाहता है कि शराब (मदिरा) तथा जूए द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष पैदा करे, और तुम्हें अल्लाह की याद तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुक जाओगे?" [सूरह अल-माइदा: 90-91]

 नौवाँ: मरे हुए जानवर का मांस खाना, रक्त पीना एवं सुअर का मांस खाना

इसी तरह वह सारी गंदी चीज़ें जो इन्सान के लिए हानिकारक हैं और वह सारे जानवर जिन्हें अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की निकटता प्राप्त करने के लिए ज़बह किया जाए, उन सब का खाना हराम है। "हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो। (अल्लाह) ने तुम पर मुर्दार तथा (बहता) रक्त और सूअर का माँस तथा जिस को अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर काटा गया हो, उन्हें हराम (निषेध) कर दिया है। फिर भी जो विवश हो जाए, जबकि वह नियम न तोड़ रहा हो और आवश्यकता की सीमा का उल्लंघन न कर रहा हो, तो उस पर कोई दोष नहीं। अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।" [सूरह अल-बक़रा: 172-173]

 दसवाँ: व्यभिचार और लूत के लोगों के काम (समलैंगिकता)

व्यभिचार एक जघन्य कार्य है, जो नैतिकता एवं समाज को भ्रष्ट कर देता है और वंशों में मिश्रण, पारिवारिक ताने-बाने में टूट-फूट और उचित पालन-पोषण की कमी का कारण बनता है। व्यभिचार के नतीजे में पैदा होने वाले बच्चे को इस अपराध कुप्रभाव और समाज की नफ़रत का सामना करना पड़ता है। अल्लाह ने कहा है: "सावधान ! ज़िना के क़रीब भी न जाना, क्योंकि वह बड़ी बेहयाई (निर्लज्जता) और बहुत ही बुरी राह (मार्ग) है।" [सूरह अल-इसरा: 32]

साथ ही यह समाज के ढाँचे को खोखला करने वाले यौन रोगों के फैलाने का भी कारण बनता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है: "जब किसी जाति में बेहयाई इस हद तक फैल गई कि लोग खुल्लम खुल्लाह बेहयाई के काम करने लगें तो उनके अंदर ताऊन एवं ऐसी बीमारियाँ फैल जाती हैं , जो पहले मौजूद नहीं थीं।"

यही कारण है कि इस्लाम ने व्यभिचार के सभी चोर दरवाज़ों को बंद करने का आदेश दिया है। उसने मुसलमानों को नज़र नीची रखने का आदेश दिया है। क्योंकि अवैध दृष्टि ही से व्यभिचार के सारे द्वार खुलते हैं। इसी तरह स्त्रियों को पर्दे में और पाकबाज़ रहने का आदेश दिया है, ताकि समाज को बेहयाइयों से बचाया जा सके। साथ ही शादी करने का आदेश और उसकी प्रेरणा दी है, बल्कि उसका प्रतिफल एवं सवाब प्रदान करने का वादा किया है। बल्कि इससे भी दो क़दम आगे, पति-पत्नी के बीच होने वाले शारीरिक संबंधों का प्रतिफल एवं सवाब प्रदान करने का वादा किया है। ताकि ऐसे स्वच्छ एवं पवित्र परिवारों का गठन हो सके जो आज के बच्चों और कल के लोगों का सफल पालन-पोषण कर सकें ।

 ग्यारहवाँ: सूद खाना

सूदी लेनदेन एक तरह से अर्थ व्यवस्था को नष्ट करना और ज़रूरतमंद व्यक्ति की ज़रूरत का लाभ उठाना है। ज़रूरतमंद व्यक्ति व्यावसायिक भी हो सकता है, जिसे व्यवसाय के लिए धन की ज़रूरत होती है और निर्धन भी हो सकता है, जिसे अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। सूद नाम है निर्धारित समय तक धन क़र्ज़ देने और वापसी के समय निर्धारित मात्रा में अधिक लेने का। इस तरह सूद लेने वाला ज़रूरतमंद व्यक्ति की ज़रूरत का ग़लत फायदा उठाता है और उसके सर पर मूल धन से अधिक क़र्ज़ का बोझ डालता है।

सूद लेने वाला व्यावसायिक, निर्माता या किसान आदि लोगों की जो अर्थ व्यवस्था को गति देते हैं, ज़रूरत का ग़लत फ़ायदा उठाता है।

वह इन लोगों की नक़दी की तीव्र आवश्यकता का फ़ायदा उठाता है और उन्हें क़र्ज़ देकर लाभ से अधिक उगाही करता है तथा खुद मंदी एवं नुक़सान का जोख़िम भी नहीं उठाता।

ऐसे में व्यापारी को जब घाटा लगता है, तो उसके सर पर क़र्ज़ का पहाड़ चढ़ जाता है और यह सूदखोर उसे धर दबोचता है। हालाँकि यदि दोनों लाभ एवं घाटा में साझी होते और इस्लाम के आदेश अनुसार एक की मेहनत लगती और दूसरे का धन, तो अर्थ व्यवस्था की गाड़ी निरंतर रूप से चलती और इससे सबको लाभ होता।

महान अल्लाह ने कहा है: "हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो और जो ब्याज शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो तो। और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो अल्लाह तथा उसके रसूल से युद्ध के लिए तैयार हो जाओ और यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो तो तुम्हारे लिए तुम्हारा मूल धन है। न तुम अत्याचार करो, न तुमपर अत्याचार किया जाए। और यदि तुम्हारा ऋणि असुविधा में हो, तो उसे सुविधा तक अवसर दो और अगर क्षमा कर दो(अर्थात दान कर दो), तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है, यदि तुम समझो तो।" [सूरह अल- बक़रा: 278-280]

 बारहवाँ: लालच एवं कंजूसी

यह स्वार्थ और आत्म-प्रेम का प्रमाण है। कंजूस का ध्यान केवल धन एकत्र करने पर रहता है। वह अपने धन की ज़कात निकालकर ग़रीबों एवं निर्धनों को नहीं देता है, समाज के प्रति उदासीनता दिखाता है और भाई चारा एवं सहयोग के सिद्धांत का अनुसरण नहीं करता, जिसका आदेश अल्लाह एवं उसके रसूल ने दिया है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "वे लोग कदापि ये न समझें, जो उसमें कृपण (कंजूसी) करते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है कि वह उनके लिए अच्छा है, बल्कि वह उनके लिए बुरा है, जिसमें उन्होंने कृपण किया है। प्रलय के दिन उसे उनके गले का हार बना दिया जाएगा और आकाशों तथा धरती की मीरास (उत्तराधिकार) अल्लाह के लिए है तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उससे सूचित है।" [सूरह आल-ए-इमरान: 180]

 तेरहवाँ : झूठ बोलना तथा झूठी गवाही देना

हम इससे पहले अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन नक़ल कर चुके हैं: "झूठ पाप का और पाप जहन्नम का मार्ग दिखाता है। एक इंसान, झूठ बोलता रहता है और झूठ को जीता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास 'झूठा' लिख दिया जाता है।"

झूठ का एक बदतरीन उदाहरण झूठी गवाही है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूरी शक्ति से इससे नफ़रत दिलाई है और इसके परिणामों से सावधान किया है। जब इसका ज़िक्र आया तो आपकी आवाज़ ऊँची हो गई तथा अपने साथियों से कहा: "क्या मैं तुम्हें सबसे बड़े गुनाहों के बारे में न बताऊँ?" (आपने यह बात तीन बार दोहराई) हमने कहाः अवश्य, ऐ अल्लाह के रसूल! तो आप ने फ़रमायाः "अल्लाह का साझी बनाना और माता-पिता की बात न मानना।" यह कहते समय आप टेक लगाए हुए थे, लेकिन सीधे बैठ गए और फ़रमायाः "सुन लो, तथा झूठी बात कहना और झूठी गवाही देना।" आप इस वाक्य को निरंतर दोहराते रहे, ताकि लोग इन दो कामों में पड़ने से सावधान रहे।

 चौदहवाँ: अहंकार, अभिमान एवं आत्ममुग्धता

इस्लाम की दृष्टि में अहंकार एवं अभिमान बुरी आदतें हैं। स्वयं अल्लाह ने बताया है कि वह अभिमानियों को पसंद नहीं करता है तथा आख़िरत में उनका जो परिणाम होगा, उसके बारे में बताते हुए कहा है: "तो क्या नरक में नहीं है अभिमानियों का स्थान?" [सूरह अज़-ज़ुमर: 60] इस तरह अभिमानी एवं अहंकारी व्यक्ति अल्लाह की नज़र में ही अप्रिय है और उसकी सृष्टि की नज़र में भी अप्रिय है।

 - अवैध कार्यों से तौबा करना

ये बड़े-बड़े गुनाह एवं हराम कार्य, जिनका हमने उल्लेख किया है, मुसलमानों को उनसे बहुत ज़्यादा सावधान रहना चाहिए। क्योंकि इन्सान को क़यामत के दिन उसके हर अमल का बदला दिया जाएगा। यदि अच्छा होगा तो अच्छा और बुरा होगा तो बुरा।

जब कोई मुसलमान इनमें से किसी भी हराम कार्य में लिप्त हो जाए, तो फ़ौरन उससे तौबा कर ले, अल्लाह की ओर भागे और उससे क्षमायाचना करे। फिर, यदि उसकी तौबा सच्ची है तो फ़ौरन इस गुनाह से खुद को अलग कर ले, अपने किए पर शर्मिंदा हो और दृढ़ संकल्प ले कि दोबारा उसमें नहीं पड़ेगा। साथ ही यदि उसने किसी का हक़ मारा है, तो उसे उसका हक़ वापस कर दे या उससे माफ़ करवाऐ। इतना करने के बाद उसकी तौबा सच्ची तौबा कहलाएगी, अल्लाह उसकी तौबा कबूल करेगा और उसे कोई दंड नहीं देगा। याद रहे कि गुनाह से तौबा करने वाला कुछ इस प्रकार स्वच्छ हो जाता है जैसे उसने कभी कोई गुनाह किया ही न हो।

उसे अल्लाह से अत्यधिक क्षमायाचना करना चाहिए। बल्कि हर मुसलमान को, हो जाने वाले छोटे-बड़े गुनाहों की अल्लाह से क्षमा माँगनी चाहिए। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "क्षमा माँगो अपने पालनहार से, वास्तव में वह बड़ा क्षमाशील है।" [सूरह नूह: 10] दरअसल अधिक से अधिक क्षमा माँगना और अल्लाह की ओर लौटना सच्चे ईमान वाले लोगों की निशानी है। महान अल्लाह ने कहा है: "आप मेरे उन भक्तों से कह दें जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचार किया है कि तुम अल्लाह की दया से निराश न हो। वास्तव में, अल्लाह क्षमा कर देता है सब पापों को। निश्चय ही वह अति क्षमीशील, दयावान् है। तथा लौट आओ अपने पालनहार की ओर और उसके अज्ञाकारी हो जाओ, इससे पूर्व कि तुम पर यातना आ जाए, फिर तुम्हारी सहायता न की जाए।" [सूरह अज़-ज़ुमर: 53-54]

 - इस्लाम को सही रूप में नक़ल करने के बारे में मुसलमानों का प्रयास

चूँकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन, कार्य तथा आप के साथियों के किसी काम पर आप की सहमति अल्लाह की वाणी की व्याख्या और इस्लामी आदेशों एवं निषेधों का विवरण प्रस्तुत करते हैं, इसलिए मुसलमानों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों को उनके वास्तविक रूप में नक़ल करने के प्रति बड़ी तत्पर्ता दिखाई है, और उन्हें उन वृद्धियों से अलग करने के लिए, जो उनका अंश नहीं हैं और जिन्हें हदीस बता कर प्रचलित कर दिया गया था, बड़ी मेहनत से काम लिया है और इसके लिए बड़े उपयुक्त नियम बनाया है, जिनका इन हदीसों को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने के लिए पालन किया जाना चाहिए।

हम यहाँ बहुत ही संक्षिप्त में हदीस के बारे में थोड़ी-सी बात करेंगे ताकि इस्लाम धर्म की यह विशिष्टता सामने आ जाए कि अन्य धर्मों के विपरीत इस धर्म के मानने वालों को अल्लाह ने यह सुयोग प्रदान किया है कि उसने अपने धर्म को उसके वास्तविक रूप में सुरक्षित रखा है और इतनी लंबी अवधि गुज़र जाने के बाद भी उसमें झूठों एवं अंधविश्वासों को राह पाने नहीं दिया है।

अल्लाह की वाणी और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीस को नक़ल करने के माध्यम मूल रूप से दो थे;

सीनों में सुरक्षित रखना और लिख कर सुरक्षित रखना। आरंभ काल के मुसलमानों की याददाश्त इतनी मज़बूत हुआ करती थी कि वह बड़े पैमाने पर चीज़ों को कंठस्थ रख सकते थे। उनकी जीवनी पढ़ने वाला और उनके हालात जानने वाला हर व्यक्ति इस बात से अवगत है। सहाबी (आप के साथी) अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुँह से कोई हदीस सुनता, उसे अच्छी तरह याद कर लेता, बाद में उसे किसी ताबेई (जो लोग सहाबी को पाए और देखे हों) को सुनाता, जो उसे याद कर लेता और फिर अपने बाद किसी व्यक्ति को बताता। इस तरह हदीस की सनद (हदीस सुनने एवं सुनाने का सिलसिला) किसी ऐसे हदीस के ज्ञाता तक पहुँचती जो इन हदीसों को लिखता, उन्हें याद कर अपने सीने मेें सुरक्षित कर लेता तथा किसी किताब में एकत्र कर उस किताब को अपने छात्रों को पढ़कर सुनाता। फिर वे उन्हें याद कर लेते, लिख लेते और फिर अपने छात्रों को पढ़कर सुनाते। यह सिलसिला इसी तरह जारी रहता, यहाँ तक कि यह किताबें इसी पद्धति से बाद की नस्लों तक पहुँच जातीं।

यही कारण है कि कोई हदीस उस समय तक ग्रहण योग्य नहीं होती, जब तक उसकी सनद मालूम न हो और यह पता न चल जाए कि उसे किन लोगों ने नक़ल करके हम तक पहुँचाने का काम किया है।

इसी के आधार पर मुसलमानों के यहाँ एक नए शास्त्र का उदय हुआ जो उन्हें छोड़ किसी समुदाय के पास नहीं है। वह है, इल्म-ए-रिजाल (आदमियों के बारे में जानकारी) अथवा इल्म अल-जर्ह व अत-तादील (आदमी की अच्छी बुरी बातों को सामने लाना का ज्ञान)

इस शास्त्र का संबंध उन वर्णनकर्ताओं का हाल जानने से है जिन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों को नक़ल किया है। इसका संबंध उनके निजी जीवन को जानने से है। जैसे उनका जन्म, मृत्य, गुरुगण, छात्रगण, उनके बारे में समकालीन विद्वानों के मत, उनके याद रखने की क्षमता, अमानतदारी, सच्चाई आदि ऐसी बातें जो हदीस के विद्वान जानना चाहते हैं, ताकि वर्णनकर्ताओं की इस शृंख्ला से वर्णित हदीस के सहीह होने या न होने का निश्चय किया जा सके।

यह शास्त्र केवल मुसलमानों के पास है, उनके नबी की तरफ मंसूब बातों की सत्यता को जानने के लिए। आरंभ से आज तक पूरे इतिहास काल में किसी इन्सान की बातों को इतनी अतुलनीय एवं अद्वितीय तवज्जोह नहीं मिली जितनी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बातों को मिली।

यह एक विशाल शास्त्र है, जिसे ऐसी किताबों में लिखा गया है, जिन्होंने हदीस रिवायत करने में पूरी तवज्जह दी हैं और हज़ारों वर्णनकर्ताओं की विस्तृत जीवनी बयान की हैं। वह भी केवल इसलिए कि वे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों को बाद की नस्लों की ओर नक़ल करने का माध्यम थे। इस शास्त्र में किसी भी व्यक्ति की अनुचित प्रशंसा नहीं की गई है, बल्कि सटीक आलोचना के माले में यह एक तराज़ू की तरह है। इसमें झूठा के बारे कहा जाता है कि वह झूठा है और सच्चा के बारे कहा जाता है कि वह सच्चा है। कमज़ोर याददाश्त एवं मज़बूत याददाश्त वाले व्यक्तियों को भी वही कहा जाता है, जो वे हैं। इसके लिए बड़े ही उपयुक्त नियम बनाए गए हैं, जिन्हें इस शास्त्र के जानकार लोग जानते हैं।

हदीस के विद्वानों के निकट कोई हदीस उसी समय सहीह हो सकती है, जब वर्णन शृंख्ला की सारी कड़ियाँ आपस में मिली हुई हों, सारे वर्णनकर्ता धर्म के पाबंद, सच बोलने वाले, मज़बूत याददाश्त के मालिक और सही-सही याद रखने वाले हों।

हदीस विज्ञान के बारे में एक और बात याद रखने लायक़ है।

कभी-कभी एक ही हदीस की कई वर्णन शृंख्लाएँ होती हैं और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित कोई हदीस हमारे पास एक से अधिक वर्णन शृंख्लाओं से आती है। इस तरह हदीस की एक, दो, तीन या चार और कभी दस-दस सनदें और कभी इससे भी अधिक सनदें होती हैं।

ऐसे वर्णन शृंख्लाएँ जितनी अधिक होंगी, हदीस उतनी ही मज़बूत होगी और उसकी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से निस्बत मज़बूत होगी। अतः जिस हदीस की वर्णन शृंख्ला के हर तबक़े में दस से अधिक भरोसेमंद वर्णनकर्ता हों उसे मुतावातिर हदीस कहा जाता है, जो कि मुसलमानों के यहाँ वर्णन की सबसे उच्च कोटि है। इस्लाम के जो मसायल जितने महत्पूर्ण होते हैं, जैसे इस्लाम के स्तंभ आदि, उनके लिए मुतावातिर रिवायतें उतनी अधिक होती हैं और वर्णन शृंख्लाएँ भी अधिक होती हैं। जबकि मसायल जब सामान्य हों, तो वर्णन शृंख्लाएँ कम होती हैं और उनको तवज्जो भी कम मिलती है।

मुसलमानों ने जिस चीज़ के वर्णन एवं नक़ल में सबसे अधिक तवज्जह दी है, वह पवित्र क़ुरआन है। इसे लिखा भी गया और सीनों में सुरक्षित भी रखा गया। इसके एक-एक शब्द, शब्दों के उच्चारण और पढ़ने के तरीक़े को पूरी सावधानी से नक़ल किया गया। इसकी वर्णन शृंख्ला में हर पीढ़ी में हज़ारों लोग मौजूद हैं। यही कारण है कि सदियाँ गुज़र जाने के बाद भी इसके साथ कोई छेड़छाड़ या इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जो मुसहफ़ पश्चिम में पढ़ा जाता है, वही मुसहफ़ पूर्व में पढ़ा जाता है और वही धरती के अन्य सारे भागों में पढ़ा जाता है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है: "निःसंदेह हमने ही क़ुरआन को उतारा है तथा हम ही इसकी रक्षा करने वाले हैं।" [सूरह अल-हिज्र: 9]

 ङ- और अंत में बस इतना बता दूँ कि

यही वह इस्लाम धर्म है जो एलान करता है कि एकमात्र पुज्य उच्च एवं महान अल्लाह है। इसका प्रतीक 'ला इलाहा इल्लल्लाह' है। यही वह इस्लाम है जिसे अल्लाह ने अपने बंदों के लिए धर्म के रूप में पसंद किया है।

"मैंने आज तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को संपूर्ण कर दिया तथा तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म स्वरूप चुन लिया है।" [सूरह अल-माइदा: 3]

यही वह इस्लाम धर्म है जिसके अतिरिक्त अल्लाह किसी से किसी धर्म को ग्रहण नहीं करता। "और जो भी इस्लाम के सिवा (किसी और धर्म) को अपनाएगा, उसे उसकी तरफ़ से कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह परलोक में घाटा उठाने वालों में से होगा।" [सूरह आल-ए-इमरान: 85]

यही वह इस्लाम धर्म है जिसपर ईमान रखने वाला एवं सत्कर्म करने वाला जन्नत का हक़दार बनेगा। "निश्चय जो ईमान लाए और सदाचार किए, उन्हीं के लिए फ़िरदौस के बाग़ होंगे। उसमें वे सदावासी होंगे, उसे छोड़कर जाना नहीं चाहेंगे।" [सूरह अल-कह्फ़: 107-108]

यही वह इस्लाम धर्म है जिसपर किसी एक वर्ग का एकाधिकार नहीं है और जो किसी नस्ल विशेष के लोगों के लिए खास नहीं है। जिसने इसे माना और इसकी ओर लोगों को बुलाया वही इसका हक़दार है और अल्लाह के निकट सबसे सम्मानित है। अल्लाह ने कहा है: "अल्लाह के निकट तुम में सबसे अधिक सम्मानित सब से अधिक तक़वा (अल्लाह के आदेश- निषेध के अनुसार जीवन बिताने) वाला है।" [सूरह अल-हुजुरात: 13]

हम यहाँ अपने सम्मानित पाठक का ध्यान कुछ ऐसी बातों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं जो इस धर्म को समझने और इसमें प्रवेश करने से रोकती हैं:

1- इस्लाम धर्म, अर्थात उसके अक़ीदा, शरीयत एवं शिष्टाचारों से अज्ञानता। मशहूर कहावत है कि जो जिस चीज़ से अज्ञान होते हैं उसके दुश्मन बन जाते हैं। इसलिए जो व्यक्ति इस्लाम धर्म को जानना चाहता है उसे इसके बारे में अधिक से अधिक पढ़ना चाहिए, इस धर्म की जानकारी उसके मूल स्रोतों से प्राप्त करें। साथ ही ज़रूरी है कि पढ़ने का काम पूर्ण निष्पक्षता से करें।

2- धर्म, परंपराओं एवं संस्कृतियों का अंधा पक्षपात, जिनमें इन्सान पला-बढ़ा होता है। जब पक्षपात की यह भावना जागृत होती है, तो इन्सान अपने पूर्वजों के धर्म के अतिरिक्त अन्य सारे धर्मों को ठुकरा देता है। पक्षपात की भावना इन्सान को अंधा और बहरा बना देती है और उसके विवेक पर ताला डाल देती है। ऐसे में इन्सान आज़ाद होकर कुछ नहीं सोचता और प्रकाश एवं अंधेरे के बीच अंतर नहीं कर पाता।

3- इन्सान की इच्छाएँ, चाहतें एवं आकांक्षाएँ। यह चीज़ें इन्सान के सोचने और निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करती हैं, अनजाने में उसको बर्बाद करती रहती हैं और उसे पूरी शक्ति से सत्य को ग्रहण करने और उसे मानने से रोकती हैं।

4- मुसलमानों के यहाँ पाए जाने वाली कुछ ऐसी ग़लतियाँ, बिगाड़ एवं गैर-इस्लामी कार्य, जिन्हें इस्लाम से जोड़ दिया गया है, हालाँकि इस्लाम का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। यहाँ यह बात सब को याद रखनी चाहिए कि अल्लाह का धर्म लोगों की ग़लतियों का ज़िम्मेवार नहीं है।

सत्य की प्राप्ति का सबसे आसान तरीक़ा यह है कि इन्सान दिल से अल्लाह की ओर लौट कर आए, और उससे गिड़गिड़ा कर दुआ करे कि ऐ अल्लाह! मुझे वह सीधा मार्ग एवं सत्य धर्म दिखा जिसे तू पसंद करता है और जिस से तू खुश होता है। इससे बंदे को सुखमय जीवन और ऐसी अनंत खुशी प्राप्त होती है कि फिर कभी दुखी नहीं होता। याद रहे कि जब कोई बंदा अल्लाह को पुकारता है तो वह उसकी पुकार ज़रूर सुनता है। अल्लाह तआला ने कहा है: "(हे नबी!) यदि आप से मेरे बंदे मेरे बारे में प्रश्न करें तो उन्हें बता दें कि निश्चय ही मैं क़रीब हूँ, मैं प्रार्थी की प्रार्थना का उत्तर देता हूँ। अतः, उन्हें भी चाहिए कि मेरे आज्ञाकारी बनें तथा मुझपर ईमान (विश्वास) रखें, ताकि वे सीधी राह पाएँ।" [सूरह अल-बक़रा: 186]

अल्लाह की कृपा से यह पुस्तक संपन्न हुई।